खुदाई मेनीफेस्टो
से मानवजाति तो होगी, जातियां एड्रेस न होंगी..!
भगवान कभी नेतारूप में अवतरित नहीं होने वाले..!
अनुज खरे
घोर कलयुग है।
चुनाव सिर पर है। फुल चिल्लपों मची है। अवतार लेने का बखत आ चुका है- भगवान
मुस्कुराए। मुस्कुराहट कम हुई तो चिंता सताने लगी-कौनसा अवतार लें। भगवान जब
चिंतित होते हैं तो चंहुओर खलबली मच जाती है। देवता हिल जाते हैं। चूंकि इंद्र के
पास एडिशनल जिम्मेदारी है सो उसका सिंहासन डोलता है। वैसे सिंहासन किसी का भी हो
डोलना ही उसका मुख्य धंधा है। चुनावी दिनों में डोलने का काफी काम निकल आता है।
तो अवतार की घड़ी
है। चिंता बड़ी है। बात यहीं अड़ी है किस रूप में अवतरित हो जावैं। भगवान ने
त्रिकालदर्शी वाला मॉनीटर ऑन किया। जनता का उद्धार करें! देश का भी कल्याण करें!
नेता बन जावैं! वैसे भी जनता ऊपर की तरफ ही निगाहें लगाए है। भगवान ने खुद को संयत
किया। घबराहट है लेकिन इनकार नहीं किया
जा सकता है। पीछे नहीं हटा जा सकता है। तय रहा नेता रूप में ही अवतरित होंगे।
अब भगवान ने
अवतार की बेसिक क्वालीफिकेशन पर गौर करना शुरू किया। पार्टी लगेगी। विचारधारा रखनी
पड़ेगी। मेनीफेस्टो में वादे होंगे। पहले ही मुद्दे पर भगवान द्धंद्ध में डूब गए।
पार्टी कौनसी हो। ईश्वर किसी
पार्टी में कैसे हो सकते हैं। भरोसेमंद परंपरा रही है। ईश्वर न्यूट्रल रहेंगे, हर तरह की पार्टीबाजी से बचेंगे। इलेक्शन तो ईश्वरत्व के लिए ही चुनौती दिख
रहा है। फिर विचारधारा! तो हमेशा से सर्वहारा के उत्थान की रही है। लेकिन सर्वहारा
की बात करने पर कहीं लेफ्टिस्ट मानकर किसी खांचे में न डाल दिया जाए।
और विश्वकल्याण तो हजारों सालों से खुदाई मेनीफेस्टो रहा है इसमें क्या चेंज होगा
भला! लेकिन अगले ही पल भगवान फिर चिंता में डूब गए। इस मेनीफेस्टो से मानवजाति तो
एड्रेस हो रही है, जातियां एड्रेस नहीं हो पाएंगी। उसे एड्रेस किए
बिना तो इस देश में खुद खुदा भी चुनाव नहीं जीत सकता है।
ईश्वर व्यावहारिक हैं जानते हैं विकट स्थिति है। लेकिन है तो है। एकाएक उन्हें
नारे की भी याद हो आई। चुनाव में खड़े होंगे तो कोई
सॉलिड सा नारा भी
तो लगेगा। `अबकी बारी, हरी-हरी...` जांचा-परखा-खरा सा नारा उन्हें कुछ जमा भी। लेकिन लगा चुनावी मौसम में कोई
अपने बाप पर भी भरोसा नहीं करता है फिर? नारा पॉपुलर बना पाएगा।
बाकी चुनावी
जरूरतों पर विचार किया तो लगा चमत्कारी की आदी जनता को कुछ आलौकिक दिखा दिया जाए
तो काम बन सकता है। फिर याद आया,
चमत्कारों से जनता का पिंड
छुड़ाना ही तो उद्देश्य है। कहीं चमत्कार
दिखा भी दिए तो अपनी निश्चित ही शिकायत हो जाएगी। आयोग कार्रवाई कर देगा। चुनाव लड़ने के
ही अयोग्य हो जाएंगे। हाय राम! भगवान विपदा में डूबे भक्तों का कल्याण नहीं कर
सकते हैं। अवतार ही उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पा रहा है।
भगवान ने हे!
ईश्वर वाली मुद्रा में अपने हाथ ऊपर उठा दिए। ऊपर से सबसे दागी उम्मीदवार का
चुनावी पैम्फलेट हाथों में आ गिरा- सच्चे-ईमानदार को चुनिए। दुखियों का कल्याण
जिसका मिशन- देश चलाने का जिसमें विजन हो। धोखा मत खाइए, ऐसे एकमात्र उम्मीदवार के निशान पर बटन दबाइए। भगवान समझ गए वे भगवान हो सकते
हैं, नेतागिरी उनके बस की बात नहीं है। तबसे, भक्त हर पांच बरस में उम्मीद लगाते हैं बेचारों को पता नहीं है भगवान कभी नेता
के रूप में अवतरित नहीं होने वाले..!
अनुज खरे
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