रविवार, 23 अप्रैल 2023

सुनो भाई उधो .....तै ठाढे राह मै आवत हौ .......

परमानंद वर्मा

भारत देश की दुर्दशा पर भगवान श्रीकृष्ण और उद्धव के बीच एक रोचक संवाद  होता है। देश में अनीति , अन्याय, आतंक, अराजकता, भ्रष्टाचार, अत्याचार धर्म के आड़ में पाखंड, राजनीति से नीति गायब और राज (सत्ता) हथियाने के लिए धमाचौकड़ी, यही हाल अर्थ तंत्र और न्याय तंत्र में भी परिलक्षित हो रहा है। महंगाई में जनता पीस रही है। सर्वत्र त्राहि-त्राहि और हाहाकार मचा हुआ है। भगवान उद्धव से कह रहे हैं- उद्धव जब ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है तभी मैं अवतार लेता हूं और वो समय आ गया है। इसी संदर्भ में प्रस्तुत है यह छत्तीसगढ़ी आलेख। 

भगवान श्रीकृष्णचंद्र मथुरा मं राज दरबार मं बइठे हे। चेहरा मं उदासी के भाव, चिंता फिकर के रेखा मस्तक मं साफ झलकत राहय। कोनो कोती ले उधो (उद्धव) दरबार मं जब पहुंचथे तब महाराज हाथ जोर के जोहार करथे। आज भगवान के चेहरा, मस्तक मं ओ खुशी अउ मुस्कुराहट नइ दीखत रिहिसे जइसन कभू दीखय। 

उधो सोचथे का बात हे, मुरली मनोहर के   होंठ मुस्कुराहट  ल छोड़के कोनो बाग-बगीचा मं फूल के मकरंद कोती तो नइ चल देहे किंजरे बर? नहीं... नहीं... अतेक बड़े अपराध तो नइ कर सकय। मान लो भगवान ल मुरली के तान छोड़े के सुध आगे त बिना होंठ के कइसे तान छेड़ही। 

उधो सोचथे, जरूर कुछ न कुछ बात जरूर हे, एकर पता लगाय ले परही। अइसन उदासी, खामोशी अउ मुरझावत चेहरा मैं नइ देख सकौं। कहूं राधा, रुखमणि अउ सत्यभामा मिलगे अउ भगवान के कुशलक्षेम पूछ परिस तब ओमन ल मैं का बताहौं?

उधो सोचथे- बड़ा मुसीबत हे। मुड़ी ल खजुवावत, सोचत-विचारत रहिथे। का करौं, कहां जांव, काकर से ये बात के दरियाप करौं के भगवान आज उदास काबर हे? अइसे तो नहीं के कोनो पटरानी मन कुछु उल्टा-पुल्टा गोठिया परिस होही, जइसन बात नइ कहना चाही?

फेर सोचथे- नहीं, कोनो अइसन वइसन बात नइ केहे सकय भगवान से अउ मने मन कहिथे- अरे का भरोसा नारी परानी मन के छेरी असन मुंह तो चलत रहिथे। ये जीभ तो आय, कहूं फिसल गिस होही, द्रौपदी सही। का कहना रिहिसे अउ का कहि परिस, उठेंवा मारे असन कांही बोल परिस होही, जउन बात ल भगवान धर लिस होही। 

गोसइन मन के बात वइसने तो होथे। बने गोठियावत हन कहिके फेर तरी-तरी अइसे बिच्छी मारे असन बात के तीर चला देथे के ओ तीर वइसने छाती मां जाके चुभ जथे, जइसे महारानी कैकेयी के मारे बात के बान राजा दसरथ ल लग गे। उबर नइ सकिस बपरा गरीब राजा दसरथ। सहे नइ सकिस ओ तीर के दरद ला, अउ एक दिन तियाग दिस अपन तन ला। 

उधो के पांव न भगवान कोती आघू बढ़ सकत हे, न पाछू घुंच सकत हे। का करौं, का नइ करौं इही सोचत-विचारत माधो जेने-मेर के तेने मेर डोमी सांप जइसे मुढ़ी मार के एक तीर रुक रहिथे, वइसने हाल ओकर होगे राहय। भगवान से नजर तक नइ मिला सकत रिहिसे। ओहर देखही अउ पूछही तब का बताहौं, का गोठियाहौं, का जवाब देहौं, इही संसो धर खात रिहिसे। 


लीलाधारी भगवान श्री कृष्ण उहू तो बड़ा नटखट हे। देखत रिहिसे मन मं तमाशा, के उधो कइसे आघू बढ़त हे न पाछू घुंचत हे। बोलत-बतावत घला नइहे। मुक्का कठपुतली असन खड़े हे। उहू मने-मन सोचत हे, राह उधो तैं कतेक बेर ले अइसने मुक्का रहिबे?

भक्त वत्सल भगवान, ओकर मन के भाव ल जानगे के एकर मन मं का विचार चलत हे। सिंहासन ले उठ के ओकर तीर आथे, छाती लगाके पूछथे- हे सखा उधो, कहां, कोन सोच विचार मं खो गे रेहे। अइसन हाल तो मैं तोर पहिली बार देखे हौं।

भगवान मुरली मनोहर ल मुसकुरावत जब उधो ओला देखिस तब ओकर आंखी कोती ले परेम के आंसू बोहाय ले धर लिस। ओकर ये दशा ल देख के नंद नंदन पूछथे- का बात हे सखा?

उधो सब बात ल पलट देथे अउ उलट के पूछथे- भगवान तैं मोला पुछत हस मोर दशा? तैं अपन ल बता- तैं कइसे आज उदास, परेशान अउ बेचैन दीखत हस? तोर इही दशा ल देखके मैं सुकुरदुम होगेंव। सदा गुलाब, कमल फूल सही खिले अउ मुसकुरावत चेहरा संझाती के बेरा मुरझाय फूल असन कइसे दीखत हे?

उधो कहिथे- अइसे तो नहीं के भगवान ला गोकुल के अपन ब्रजभूमि के सुरता आगिस होही, नंद बाबा अउ जसोदा मइका के सुरता आगिस होही, गोप-गुवालिन मन के सुरता आगिस होही, गउ माता, जमुना के घाट अउ बचपन मं कदम के पेड़ तरी जउन खेलकूद, चुहउल, डंडा नाच, अउ दही लूट, मटकी फोर, माखन चोरी सब एक-एक करके सुरता आगिस होही। उहू सुरता आवत होही ये सबो झन ला मैं जल्दी मुथरा ले लहूट के आहूं केहे रेहेंव, अउ नइ गेंव। लबारी मार दिस, भुलवार दिस लइका मन सही, इही सब सोचत होही। इस सोच मं भगवान बुड़े रिहिस होही?

अंतरयामी भगवान उधो के मन के सबो बात जानगे। ओला राज दरबार मं लाके ओकर जउन आसन हे तेमा बइठारथे। तेकर बाद कहिथे तोर सबो बात सही हे, फेर आज जउन बात मैं सोचत रेहेंव ओ अलग हे। 

उधो पूछथे- ओ चिंता अउ फिकर के अइसे कोन से बात हे भगवान जउन तोला धर खाथे? थोरकिन ओ बात ल साफ-साफ बताते। 

सुन उधो- मोला भारी चिंता सतावत हे, मोर भारत देश के। उहां अधरम बाढ़गे हे। पापाचार, भ्रष्टाचार, अनाचार, अत्याचार अतेक बढ़गे हे अउ बढ़ते जात हे, दिन दूनी रात चौगुनी। जेकर हाथ मं राज सत्ता होय, धर्म सत्ता हे, अर्थ सत्ता, नियाव के सत्ता हे, ये चारों पाया देश, समाज अउ जनता के सुरक्षा के नींव होथे। ओ चारों पाया आज डगमगाय ले धर ले हे। एमन अतेक मनमानी करत हे- 'करही अनीति जाय नहीं बरनी कस। 

उधो ला कहिथे भगवान हा- तैं तो जानत हस, मोर काम ला। जब-जब होय धरम के हानि, बाढ़ही असुर अधम अभिमानी, तब-तब मैं का करथौं ?

भगवान कहिथे- उधो, मोर देश मं आज पाखंड होवत हे, धरम के नांव ले के, ओकर आड़ लेके सब अपन-अपन रोटी सेंकत हें। कोनो सत्ता मं आय के जुगाड़ करथे, तब कोनो करोड़पति, अरब-खरबपति बने के सपना देखत हे। नकली साधू-साध्वी के बाढ़ आगे हे मोर देश मं। कोनो ककरो बहू, बेटी, बहिनी अउ गोसइन ला सूर्पणखा काहत हे, तब कोनो शिखंडी। सब के जबान बेलगाम होगे हे, कैंची असन कच-कच चलत हे। मरयादा तार-तार होगे हे। धरम के रक्षक मन जब भक्षक होगे हे तब जनता ला कोन बचाही। सब त्राहि-त्राहि करत हे। 

उधो पूछथे- तब एकर का उपाय हे भगवान, भारत के बूड़त बेड़ा ला कोन बचाही, पार लगाही। चिंता मत कर उधो- मोर देश के अइसन दुरदशा नइ देख सकौं, बहुत जल्दी मैं अवतार लेवइया हौं, अउ पापी, दुराचारी, अधरमी, भ्रष्टाचारी मन के नाश करके धरम के इस्थापना करिहौं। सबके के दुख-पीरा ल हरिहौं। अउ हां, तै जा, ये बात के सब जघा ढिंढोरा पिटवा दे, तै ठाढे राह मै आवत है। सत्यमेव जयते, सत्यम् शिवम् सुंदरम् अउ अहिंसा परमो धर्म: के रखवार ये धरती मं जल्दी अवइया हे।

परमानंद वर्मा