मंगलवार, 16 अगस्त 2022

अंधियारी रात के अतियाचार

ये रात, तू अपनी शौर्य, शक्ति, काली घटा रूपी अंधकार पर इतना गर्व और गुमान न कर, न इस दर्प में रह कि तू भारत तो क्या पूरा विश्व मेरी आगोश में है, सबको कैदकर रखा है, बंदरिया की तरह। यह सब तेरी भूल है। दिन बहुत ही करीब है, कुछ घंटे के फासले पर है वह प्रकाश, ज्योति लेकर आ रहा है।तुम्हारी सभी कारगुजारियों का वह पर्दाफाश कर देगा। गिना देगा- ये रात, तुमने प्रजा को क्या-क्या दुख नहीं दिया, अत्याचार किया, दर-दर भटकने के लिए विवश किया, सारे उल्टे-सीधे काम किए। सत्य को असत्य, अहिंसा को हिंसा, प्रेम को नफरत और धर्म को अधर्म और न्याय को अन्याय में तब्दील करने की कोशिश की, बदला है। 'सत्यमेव जयते' के लिए असत्यमेव जयते का नारा का ढिंढोरा पिटवाने का प्रयास किया है। रात तू यह कैसे भूल गया कि अति का भी अंत आता है। इसी संदर्भ में प्रस्तुत है यह छत्तीसगढ़ी आलेख- 'अंधियारी रात के अतियाचार।'

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घपटे अंधियारी रात मं अगास मं चंदा दीखत हे न चंदइनी, गली-खोर-रस्दा घलो नइ दीखत हे, अंधरा कस होगे हे आंखी कोन मेर जांव,कहां जांव, कइसे जांव? न हाथ मं लाठी, न पांव में पनही, अउ न चप्पल, उखरा खड़े हौं। ककरो कांही सहारा नइ हे, काला गोहराऔं, कोन ला हुत करा के बलावौं. जइसे सावन-भादो के घपटे अंधियारी रात मं जब मनखे भटक जथे, तीर मं खड़े मनखे नइ दीखय तइसने कस ये कलजुग घला खरागे हे, घपटगे हे चारो मुड़ा अंधियार, अजगर सही निगलत जात हे, सत, इमान, धरम, अहिंसा अउ परेम ल। ओकर मुंह मं फंसे मेचका असन छटपटावत हे, तडफ़त हे मुक्ति पाय खातिर, ग्राह फंदा मं फंसे गज (हाथी) हाथ-गोड़ मारत हे भरे तरिया मं फेर सबो ओकर कोशिश अकारथ जात हे। काल के गाल मं अरझे अइसन परानी मन ला कोनो कोती सहारा के एक ठन किरन नइ दीखत हे। अब अइसन मं ओमन ला बचावय ते बचावय कोन? कोनो तो होही ये संसार मं, ब्रम्हांड मं बचइया सबके सब तो राक्षस नइ होगे होही। अतेक बड़े धरती हे कोनो तो होही शूरवीर, इमान, धरम के रक्षा करइया?

सियान, ज्ञानवान, अउ वेद, पुरान मं कहे हें,देर हे, अंधेर नइ हे। सत्, इमान, धरम, अहिंसा अउ परेम के टोटा (गला) ला कोनो कतको रेते (मारे) के कोशिश करही मेचका अउ गज (हाथी) बरोबर? फेर ओमन मरय नहीं, भले घायल होही। परान छूटइया हे अब तब तइसे लागही फेर सांस कोनो मेर न कोनो मेर अटके रहि जथे, अउ आखिर मं ओकर परान बच जथे। वइसने कस छल  आज कर दे हे। सबके इमान, धरम, इज्जत, आबरू, मान मरजादा ला मेटे खातिर अइसे उतारू होगे हे जइसे बाजार में आये करोड़पति सब ला खरीदे बर पइसा के लालच देखा-देखा के सत्यानाश करथे। 

आग लग गे हे चारो मुड़ा, सब हाय-हाय मरत हे, त्राहि-त्राहि करत हे, फेर ये भयानक रूप धरे कलयुग राक्षस के आगू मं कखरो सख नइ चलत हे, कोनो मुंह नइ खोल सकत हे। खासकर भारत ला हलाहल कर दे हे। ओकर डर के मारे सब बिके खातिर एक पांव मं खड़े हे। चाहे राजनीतिक म देख ले, चाहे धारमिक, सामाजिक, उद्योग, व्यवसाय सब मं इही हाल हे। बड़े घर के बहू-बेटी होय, चाहे गरीब-मजदूर, चाहे कला, साहित्य, चिकित्सा। कोनो दूध के धुले आज इहां नइहे, जउन अपन सत, इमान, धरम, इज्जत, आबरू ला नइ बेचत होही, अउ बेचे बर तइयार नइ बइठे होही? अइसे हालत बना दे हे के कोनो ओकर चाल,चकरी मं नइ फंसहीं। मरता का नइ करता तइसे कस हाल होगे हे सबके। चारो मुंड़ा अंधियार, करिया-करिया बादर करिया नाग, डोमी, घोड़ा करायत सही फन काढ़े आघू मं खड़े हे डसे बर तइसे लागथे। 

कोन बचही, कोन बचाही, कोरोना ले, ये कइसनो करके अपनी जीव-परान ला बचा लेव, डॉक्टर मन बचा लिन। फेर ये जउन कोरोनो दूसर बदल के आय हे, देश, परिवार, समाज ला डराये बर, तेकर ले कोनो बचाही? एकर डर के मारे तो सत, इमान घला कांपत हे, मुंह लुकावत फिरत हे। कहां जाबे, काकर करा अपन दुख-करलेस ला गुराबे? कहूं ककरो मेर गोठियावत-बतावत सुन लिही तब परान नइ बाचही। देशभर इही, सीबीआई अउ पुलिस के जासूस मन घूमत फिरत हे। मैं कांही नइ करे हौं। सत इमान हौं, ककरो कांही बिगाड़ नइ करे हौं, अपन इज्जत-आबरू, मान-मरियादा ला बना के राखे हौं, अपन घर, परिवार, समाज अउ पारटी के प्रति निष्ठावान हौं, मैं सतवंतिन हौं, सतिव्रता हौं, साधु-महात्मा हौं, अइसन कहूं केहे, गोठियाय तब तो सउंहें हंटर परत हे, जेल मं ठूंसत हे, वेश्यालय मं फेंकत हें अउ रावन सही गुर्रावत काहत हे- जादा सफाई अउ ईमानदारी देखाय के कोशिश झन करौ अउ जइसे हम काहत हन, वइसने करौ। अपत, बेइमानी, झूठ-फरेब, लूट खसोट, डकैती, अनाचार, अत्याचारअउ अधरम के जय बोलव, ये सब के जिंदाबाद के नारा लगावौ। मैं कोन हौं, एला बताय के कोनो ला जरूरत नइहे, समझगे होहू सब। वइसे सब समझदार हौ, चतुरा हौ। सब इहां बिकइया घोड़ी-घोड़ा हौ। मोर करा नहीं के कोनों सवाल नइहे, सब हां काहौ? जतका मं बिकहौ, मैं खरीदे बर तइयार हौं। मोर खजाना खुले हे। मोर डर के मारे देखत हौ- ये सत् इमान कइसे कांपत हे, आंसू ढारत हे। बड़ा चले रिहिस हे 'सत्यमेव जयते', 'अहिंसा परमो धर्म:' के नारा लगावत। मोर एक घुड़की मं मुसुवा (चूहा) बरोबर अइसे बिला मं खुसरगे हे बिलई के देखते साठ खुसर जथे। अब निरनय तुंहर मन के हाथ मं हे।

-परमानंद वर्मा