ऐतिहासिक नालंदा विवि के पहले सत्र की पढ़ाई आज से शुरू हो रही है।
विश्वविद्यालय में प्रथम बार दो विषयों की पढ़ाई शुरू हो रही है, जिसमें
इतिहास एवं पर्यावरण विषय शामिल है। दोनों विषयों में कुल छात्रों की
संख्या 15 हैं। जिसमें 10 छात्र एवं 5 छात्राएं शामिल है। इन विद्यार्थियों
में एक जापान, एक भूटान, तीन बिहार सहित, बंगलोर, हजारीबाग (झारखंड),
हरियाणा, पश्चिम बंगाल आदि जगह राज्यों के हैं।
इसके अलावे फिलहाल 10 प्रोफेसर की भी नियुक्ति हो चुकी है। इनमें
पर्यावरण विषय के प्रोफेसरों में विजिटिंग प्रोफेसर मिहीरदेव, एसोशिएट
प्रोफेसर सोमनाथ बंदोपाध्याय, असिस्टेंट प्रोफेसर अर्ने हार्नस, असिस्टेंट
प्रोफेसर प्रभाकर शर्मा शामिल हैं। वहीं इतिहास विषय के लिये प्रोफेसर एण्ड
डीन आदित्य मल्लिक, प्रोफेसर पंकज मोहन, असिस्टेंट प्रोफेसर सैम्यूल राइट,
असिस्टेंट प्रोफेसर येन कीर, असिस्टेंट प्रोफेसर मुरारी कुमार झा तथा
असिस्टेंट प्रोफेसर कशाफ गांधी शामिल है।
यूनिवर्सिटी आफ नालंदा के कुलपति डा.गोपा सभरवाल ने बताया कि आज से
राजगीर के इंटरनेशनल कंवेन्शन हाल में पहली कक्षा की शुरुआत होगी। पहले दिन
विषय की शुरुआत के बाद छात्र नालंदा खंडहर का अवलोकन करेंगे।
इतिहास के आईने में नालंदा विश्वविद्यालय
- स्थापना 450-470 ई. (अब अवशेष)
-शिक्षक 2000 से अधिक -विद्यार्थी 10,000 से अधिक
परिचय
विश्वविद्यालय प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और
विख्यात केंद्र था। महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केंद्र में हीनयान
बौद्ध-धर्म के साथ ही अन्य धमरें के अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे।
क्या है इतिहास
पटना से 88.5 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर
में अलेक्जेंडर ने इस विश्वविद्यालय की खोज की थी। विश्वविद्यालय के
भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव के बारे में बता देते हैं। अनेक पुराभिलेखों
और सातवीं शती में भारत भ्रमण आये चीनी यात्री ह्वेनसांग व इत्सिंग के
यात्रा विवरणों में भी इस
विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी है। ह्वेनसांग ने 7वीं
शताब्दी में यहां एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक साल शिक्षक के रूप में
व्यतीत किया था। स्थापना व संरक्षण-इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय
गुप्त शासक कुमार गुप्त प्रथम 450-470 को जाता है। इस विश्वविद्यालय को
कुमार गुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग मिला। यह विश्व का प्रथम
पूर्णत: आवासीय विश्वविद्यालय था। नालंदा के विशिष्ट शिक्षा प्राप्त स्नातक
बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय की नौवीं शती
से बारहवीं शती तक अंतरराष्ट्रीय ख्याति रही थी।
स्थापत्य कला का था अद्भुद नमूना यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का
अद्भुद नमूना था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें
प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी
और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की
सुन्दर मूर्तियां थीं। केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके
अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। अब तक खुदाई में
तेरह मठ मिले हैं।
धर्म और विज्ञान का होता था अध्ययन
यहां महायान के प्रवर्तक नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की
रचनाओं का सविस्तार अध्ययन होता था। वेद, वेदांत और सांख्य भी पढ़ाये जाते
थे। व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, च्योतिष, योगशास्त्र व चिकित्साशास्त्र भी
पाठ्यक्त्रम के अन्तर्गत थे। धातु की मूर्तियां बनाने के विज्ञान का भी
अध्ययन होता था। यहां खगोलशास्त्र अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। 13 वीं
सदी तक इस विश्वविद्यालय का पूर्णत: अवसान हो गया।
आक्रमणों से पहुंची क्षति
मुस्लिम इतिहासकार मिनहाज और तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के वृत्तांतों
से पता चलता है कि इस विश्वविद्यालय को तुकरें के आक्रमणों से बड़ी क्षति
पहुंची। तारानाथ के अनुसार तीर्थिकों और भिक्षुओं के आपसी झगड़ों से भी इस
विश्वविद्यालय की गरिमा को भारी नुकसान पहुंचा। इसपर पहला आघात हुण शासक
मिहिरकुल द्वारा किया गया। 1199 में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने
इसे जला कर पूर्णत: नष्ट कर दिया।
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