एक कथा है-
एक बार एक व्यक्ति तपस्या को बैठा। उसने भैरव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया। धूप, बारिश, ठंड पतझड़ बसंत आए गए पर तपस्या चलती रही। एकदिन भैरव आ गए और कहा 'उठो, मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ। वर मांगों।' व्यक्ति ने आंखें खोलीं। देखा कोई नहीं है। वह क्षुब्ध हुआ, पर फिर आंखें मूंद ली और पुनः तपस्या में लीन हो गया। ऐसा ही कई बार घटा। भैरव की आवाज़ आती, व्यक्ति आंखें खोलता और किसी को न पा फिर उदास हो आंखें मूंद लेता। उसकी क्षुब्धता बढ़ती रही, बेचैनी बढ़ती रही। वह अपनी स्थिति से निराश, अवसाद में जाता रहा लेकिन तपस्या बन्द न की। बहुत दिनों बाद एक बार फिर जब भैरव की आवाज़ आई तब उसने झल्लाकर कहा कि कौन है जो भैरव बनकर बार बार मेरी तपस्या भंग कर रहा है। तब आवाज़ आई- 'मैं भैरव ही हूँ।' व्यक्ति ने कहा 'तब आप दिखाई क्यों नहीं देते।' भैरव ने कहा 'तुम पीछे देखो मैं खड़ा हूँ। तुम्हारी तपस्या से तुम्हारी आभा इतनी बढ़ गई है कि तुम मुझे देख नहीं पा रहे हो।' असल में भैरव कब के प्रसन्न हो गए थे लेकिन व्यक्ति तपस्या में इतना मग्न था कि समझ ही नहीं पा रहा था।
हमारी भी यही दशा है. हम बरसों बरस जिस आग में जलकर अपने लिए तप करते हैं, वह अर्जित कर लेने के बाद भी अतीत में ही जीते रहते हैं। हम अतीत के दुखों में ही खुद को स्थित कर रोते हैं, कुढ़ते हैं, झल्लाते हैं जबकि भैरव प्रसन्न हो चुके होते हैं। अपने अपने भैरवों के लिए तपना जितना ज़रूरी है भैरवों के प्रसन्न हो जाने के बाद उन्हें चिन्हित कर जीवन लक्ष्य के लिए और और आगे बढ़ना भी उतना ही ज़रूरी है। दु:ख में रहने को जीते-जीते, सुख के आने की ख़बर ही नहीं होती। सुख आ गया है, ठीक से आंखें खोलिए और पहचानिए। कृपणता जीवन की मृत्यु है, हिन्दू मनीषा ने आनंद को जीवन का लक्ष्य कहा है और आनन्द की प्राप्ति के लिए भीतर स्पेस और स्वीकार्यता की जितनी ज़रूरत है उतनी ही कृपण भावबोध से मुक्त होकर उदारता की भी। योरोप में लोंजाइनस इसी को उदात्तवाद कहते हैं। जब तक मन कृपणता में, संकुचन में, क्षुब्धता में रहेगा वह वर्तमान को स्वीकार नहीं कर सकेगा। आपने देखा होगा कुछलोग कितना भी पा लें, फिर भी भिखारियों जैसा व्यवहार करते हैं कि अभी पाया ही क्या। ऐसे लोगों की असल दिक्क़त असन्तोष है, यह एक ऐसा असन्तोष है जो कभी तुष्ट नहीं होता। इसलिए होश में रहकर जीने को कहा गया है और जिस तरह कृपण व्यक्ति कभी भी आनंद को नहीं पा सकता ठीक वैसे ही अति महत्वाकांक्षी भी आनन्द प्राप्ति में कृपण का ही सहोदर होता है। हम सुख के, वस्तुओं के, अन्य के जितने आग्रही होंगे आनन्द उतना ही दूर होता जाएगा। सुख वस्तुओं में नहीं होता। अगर आप आज, यहीं खुश नहीं तो आप कभी, कहीं खुश नहीं हो सकते। इसलिए कल जब यह, यह और वह अर्जित हो जाएगा तब खुशी आ जाएगी सोचने की जगह उसे आज में, इस में, ऐसे ही में तलाशने की कोशिश करें।
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