-डुमन लाल ध्रुव
बहुमुखी प्रतिभा के लेखक उपन्यासकार श्री परमानंद वर्मा ने ’’करौंदा’’ की महत्ता और प्रेरक भूमिका को खुले दिल से स्वीकार करते हुए उनके साहसिक योगदान को छत्तीसगढ़ी उपन्यास के रूप में प्रस्तुत की है। छत्तीसगढ़ी उपन्यास में करौंदा नारी चरित्र का ऐतिहासिक दृष्टिकोण है। उसका इंटरप्रेटेशन लेखक ने उसी तरह से किया है जैसे इतिहास और वर्तमान का। श्री परमानंद वर्मा जी का उद्देश्य हमेशा इतिहास से वर्तमान की ओर आना है। इसीलिए करौंदा का चरित्र समाज के लिए रेलीवेंट बने हुए हैं। लेखक ने करौंदा उपन्यास में जो सामाजिक द्वंद दिखाया है, उस समय के दबंग, गुंडा- बदमाश को सामने लाती है। उपन्यास को गहराई से देखें तो मिलेगा कि कितनी बड़ी संत्रास और द्वंद छुपा हुआ है। एक ओर समाज की विद्रूपता, समानता और शोषण की अभिव्यक्ति है और उन्हीं नीतियों के कारण करौंदा के मन में उपजे सामाजिक ठहराव का चित्रण है। स्थानीय गौंटिया द्वारा शोषण किये जाने व शराबबंदी से उत्पन्न होती है करौंदा की कहानी। वहीं दूसरी ओर बदलते समाज में रह रहे लोगों के जीवन की जटिलताएं उभरकर सामने आती हैं। उपन्यास में करौंदा शोषण के विरुद्ध संघर्ष करती रही हैं।
यहां श्री परमानंद वर्मा द्वारा लिखित छत्तीसगढ़ी उपन्यास करौंदा की लेखन-प्रक्रिया की निर्माणकारी स्थितियों को भी जान लेना बेहतर होगा। प्रारंभिक जीवन में मिले अप्रत्याशित आघातों ने उनकी मनोभूमि को आत्मसजग, कुछ अंतर्मुखी, कुछ जिज्ञासु बना दिया। परमानंद वर्मा जी छत्तीसगढ़ी के गंभीर लेखक होने के नाते उपन्यास लेखन में उनका मनीषी पक्ष बढ़ता गया और दृष्टि तात्विक होती गई। क्योंकि करौंदा एक ऐसी पात्र है जो व्यक्ति और समाज का परिसंस्कार करने के लिए आगे आयी हैं।
करौंदा के तरेरे आंखी के सुरता ला भला पुरुषोत्तम कइसे भुला सकत हे। सजा कहौ चाहे दुख होय आखिर मं भुगते बर तो उही ल परथे। करौंदा हा अपन गोसइया ला बतावत कहिथे-परिवार मं सुख-शांति रखे बर एके लइका होना चाही।चाहे बेटी होय चाहे बेटा, फरक नइ मानना चाही, मोला बहुत नीक लागिस हे। सपरहिन दीदी ला पूछेंव तब उहू किहिस-हौ रे करौंदा, बेटी-बेटा मं कांही भेद नइ करना चाही। उही मन तो लछमी हे,धन हे घर के।जतका हो सकय,बन सकय पढ़ा-लिखा देना चाही।नइते हमर कमई- धमई अउ खेत- खार तो छुटय नइ बहिनी,इही तो हमन लिखा के आय हन भगवान करा ले। तब मेहनत करे ले काबर जीव ला चुराबो। बस कमाबो तब खाबो,पहिनबो अउ ओढ़बो। आंखी फूटय अनदेखना मन के।
करौंदा के अनुसार देखा जाए तो छत्तीसगढ़ की नारी संक्रमण की स्थिति से गुजर रही है। उसका एक पैर घर से बाहर है तो दूसरा अभी भी रसोई की चौखट के अंदर है। शिक्षण एवं उसके क्षितिज को विस्तार दिया, पर घर-परिवार की लक्ष्मण रेखा अब भी उसे घेरे हुए हैं ।परिवार और शिक्षा आज भी उसकी प्राथमिकता में है। प्रगतिशीलता की कितनी ही बातें कर लें आज भी बेटी- बेटा में अंतर स्पष्ट दिखाई देता है। समाज में सामंती सोच लिए बैठे पुरुष के कारण ही शुरू होती है औरत के संत्रास और शोषण की कहानी। कहने को हालात बदले हैं। पर क्या सचमुच बदले हैं? कई परिवारों में अभी भी स्त्रियां बेटी-बेटा की शिकार हैं। जो मानसिक यंत्रणा शारीरिक यंत्रणा से अधिक त्रासदी होती है।
तैं कइसे गोठियाथस मितान,ओ तो देवी हे देवी ? अइसे तो नइ हो सकय, मैं तोर बात ला पतियावौं नहीं? ओतेक बड़े घर के बेटी,अउ मंडल घर के बहू अइसन कुलछनीन हो नइ सकय? मैं जानत हौं ओला।ओकर असन रुप रंग,गुन-बेवहार कंडिल धर के खोजबे तभो नइ मिलय ये गांव में,तेकर ऊपर तैंहर अइसन बद्दी लगावत हस ? ’’मितान के बात ला सुनके पुरुषोत्तम दंग रहि जथे?’’
उपन्यास लेखक श्री परमानंद वर्मा की शैली, भाषा और अभिव्यक्ति की कौशल ऐसा है कि शुरू करने के बाद उपन्यास को अधूरी छोड़ पाना संभव नहीं होता। अनुभव की पूंजी और कल्पनाशीलता से वे ऐसा ताना बाना बुनते हैं कि हाथ में आ जाने के बाद सिरे को छोड़ पाना संभव नहीं होता। परमानंद जी के अनुसार कथानक से करौंदा का उद्देश्य और अभ्यांतरिक अर्थ स्पष्ट होता है। इस भाषा से लेखक के व्यक्तित्व का भी बोध होता है।
बहुत चतुर सुजान कस लगथस रे पुरुषोत्तम तैंहर, कोनो अनजान लइका मन कस कड़हार-कड़हार के पूछथस,का बात हे तेमा? हड़बड़ाय असन हो जथे तब ओहर कहिथे- ’’नहीं मालिक, नइ जानत हौं तेकर सेती पूछथौं। मनखे अतेक मर-मर के कमाथे तभो ले ओकर पेट नइ भरय,उन्ना के उन्ना रहिथे अउ जौंन नइ कमावय, बेईमानी करथे,परके गर ला रेतथे, ओमन मजा मारथे।अइसन काबर होथे। का ओकर मन के करम मं अइसन लिखाय रहिथे? ’’
श्री परमानंद वर्मा की उपन्यास करौंदा में समय और समाज बहुत कुछ कहती है। मध्यमवर्गीय जीवन की दारूण कथा, समय और समाज के नैतिक संकट बहुत कुछ प्रमाणिक रूप से दर्ज है। मध्यमवर्गीय समाज हमेशा ही नैतिक संकट से घिरा होता है, एक ओर आत्मा को धुंधलके में छोड़कर मान और सम्मान पाने की सीढ़ी है तो दूसरी ओर अभाव और उपेक्षा का अंतहीन संघर्ष जिसमें मालिक के बीच में पुरुषोत्तम को वेदना और यातना को सहना पड़ रहा है।
मैं जानथों मालिक ये देश मं,परदेश मं कलाकार मन के कतेक कदर हे तौंन ला? जइसे मजदूर के किसान के अउ जतका कमजोरहा बनिहार-मजदूर के सोसन होथे तइसने कलाकार, साहित्यकार मन तो घलो सोसन के शिकार होवत हे। बड़े-बड़े दलाल कलाकार मन के आड़ मं देश -विदेश मं नाम अउ पइसा कमावत हे। फेर कलाकार ला का मिलथे, फोकला। अपन बर एक ठन कुरिया घला नइ बना सकय। गरीबी मं जीथे अउ मर खप जथे। हम जानथन एक दिन हमरो उही गति होवइया हे।’’
श्री परमानंद वर्मा जी ने छत्तीसगढ़िया कलाकारों की त्रासद भरी जिंदगी को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है जहां अव्यवस्थित जीवन है। एक कलाकार ही हैं जो ताउम्र कलाकारी पेशे में जीवन जीने के साधन ढूंढते हैं। वैश्वीकरण का प्रभाव तो है ही आज हर कलाकार अपने परिवार के लिए बेहतर जीवन की लालसा को पाले हुए हैं। कलाकारों का काम सिर्फ कला दिखाना ही नहीं, कला से ज्यादा संघर्ष को मांजना पड़ता है। ’’करौंदा’’ उपन्यास में कलाकारों की सृजन यात्रा मन को बेहद प्रभावित करता है। गहरी समझ के साथ छत्तीसगढ़िया कलाकारों की बड़ी विशेषता को प्रदर्शित करता है।
करौंदा के बेवहार अउ बात ला सुनके गांव भर के मन ओकरे कोती होगे हे। गांव मं कुछु होही, बुढ़वा गउंटिया अउ सरपंच ला एक कोती छोड़ दिही, जौंने शरन देन तौंने हर तो नइ हमर अउ ये गांव के मालिक बन जाही ?
लेखक श्री परमानंद वर्मा समाज के गरीब, पिछड़े, मजदूर और महिला वर्ग की चिंताओं और तकलीफों के चितेरे उपन्यासकार हैं। करौंदा का व्यवहार गांव और समाज के लिए प्रासंगिक है। गांव के बुढ़वा गउंटिया और सरपंच के अस्तित्व का संघर्ष गांव में ही देखने को मिलता है। यहां करौंदा अपने समय और परिवेश की भावों को व्यक्त करती है। समय को दुख को निकटता से देखते हैं और समाज के लिए नई बुनियाद का सूत्रपात करते हैं। वहीं करौंदा समाज में मानवीय मूल्यों का आदर्श चित्रण प्रस्तुत करती है।
करौंदा कहिथे- ’सरकार के चाल ला तो देख, कतेक गियानी मन कस जनता ला उपदेश देथे। शराब से सामाजिक बुराई फैलत हे ऐला रोके खातिर ओमन ला खुदे आगू आना चाही। ये तो वइसने कस बात होगे, कचरा गंदगी फैलावय कोनो दूसर अउ साफ सफाई करय जनता ? लगथे भगवान हर तो अक्कल उही मन ला दे है, उही मन अपन दाई के दूध पिये हे।’
श्री परमानंद वर्मा के लेखन में विस्तार और व्यापकता दिखाई देती है। उनके लेखन का कैनवास विस्तृत है। एक ओर उनका लेखन सामाजिक सरोकारों को जोड़ती है साथ ही राजनीतिक पराभाव को भी प्रदर्शित करती है। ’’उही मन अपन दाई के दूध पिये हे’’ ये आवाज सिर्फ श्री परमानंद वर्मा की आवाज नहीं है। ये पूरी छत्तीसगढ़िया लोगों की आवाज है।
जेकर मन अउ हिरदय साफ हे तेकर कांही रोका-छेका नइहे ? जाके देख बाहिर मं माईलोगिन मन आज कहां ले कहां नइ पहंुच गे हे ? काला अंतरिक्ष कइबे, राजनीति, उद्योग, कला, संगीत, खेल, साहित्य, मं सब जगह ओमन बढ़-चढ़ के भाग लेवत हे अउ तुमन घर में गाय छेरी असन बांध के रखबो कइथौ। सियनहा मन समझावत कहिथे- ’अब ओ दिन नई रहिगे बाबू हो, अब बराबरी के दिन आ गे हे। तुमन मन के कुभाव ला मिटा दौ। ओ बपरी मन तो तुंहर संगवारी हे। मिल जुलके सुनता-सलाह काम करौ तब कोनो मेर बात नइ बिगड़य। असल में ओकर मन के बढ़ती ला तुमन देखे अउ सहे नइ सहत हौ। तेखर सेती छटपटावत हौं।
छत्तीसगढ़ी उपन्यास करौंदा बहुत से सवालों के बीच हमें ला छोड़ता है। पहले तो वह कथा के सुथरे विन्यास की अपेक्षाओं को ध्वस्त करती है। करौंदा प्रेमचंद की कथा विन्यास की तरह प्राचीन कथा-कहन की जकड़नों से भरा हुआ है। कुछ मौलिक किस्म के प्रश्नों से घिरे जरूर है परंतु भाषाई विमर्श जरूर करते हैं। एक ओर विमर्शों का परिज्ञान होता है तो दूसरी ओर स्थूल रूप से संस्कृति और समानांतर सृजनधाराओं का परिचयात्मक स्वरूप स्पष्ट होने लगता है और कई अर्थों में यह प्रवृत्ति पारंपरिक तुलनात्मक विवेक की निर्माणधारा का आद्य रुप लगती है।
करौंदा कहिथे-’ले अभी तो बात ला छोड़व, ओ बदमाश मन के मैं परवाह नई करौं। जौंन दिन के बात तौंन दिन देखे जाही। अभी थाना के बात गोठियात रेहेव तेकर बर का करना हे तौंन ला बतावौ ?
जो व्यक्ति समाज को अच्छे-बुरे चश्मे से देखते हैं, यह भूल जाते हैं कि अच्छे और बुरे के अंतर्गत आने वाली चीजों को स्पष्ट रूप से प्रगतिशील और पतनशील रूपों के ढांचे में फिट नहीं किया जा सकता। हमें समाज के विभिन्न रूपों को परिवर्तन के उस निर्धारक तत्व को टोहना पड़ेगा जो ऐसी परिस्थितियों के जन्म के मूल कारक हैं। मसलन गुंडे और बदमाशों की खुलेपन की आमद का अर्थ केवल एकतरफा स्वतंत्रता ही नहीं है इसलिए अराजकता और स्वतंत्रता में अंतर करना ही पड़ेगा, कहना ही पड़ेगा कि अराजकता की हिमायत नहीं की जा सकती। प्रजातांत्रिक मूल्यों की दृष्टि से देखें तो व्यक्तिगत स्वतंत्रता की चाह इतनी बलवती है कि वह कहीं भी अराजकता की सीमाओं पर खड़ी दिखाई देती है।
नदी नरवा मं पूरा आय कस पानी जइसे उफनत, लहरावत दिखते तइसे कस सेठानी के मन उबुक-चुबुक होवत रिहिस। का होगे ओहर चार-पांच लइका के महतारी हे, बहू-बेटी वाली हे फेर रूप रंग उमर अभी ले अटल कुंवारी कस दिखथे। अइसन लंदर-फंदर के फांदा मं कभू नई फंसे रहिसे। फेर आज रामू के रूप ओकर पांव म अइसने कांटे गड़े कस गड़गे ते न आह कर सकत हे न उह....। निकाल हे तब जीवरा अइसे तड़पत हे जइसे कोनो घायल सिपाही के शरीर ले तलवार के घांव लगे मं होथे। कइसनो करके खाना बनाइस। ओखर सेठ एक बजे बाहर आथे अउ खाना खा के मुंह पोंछत फेर निकल जथे धंधा पानी मं।
उपन्यास लेखक श्री परमानंद वर्मा की जीवन दृष्टि मनुष्य जीवन की विभिन्न परिस्थितियों को परखती है। जीवन का गहरा अनुभव उपन्यास की विकास यात्रा को पूरी करते हैं।
’तोर मोर बोली हर लगे हे तन मं,
कोन जादू ला मारे फिरत हौं बन मं।’
जब ये ददरिया ला ओ शांति देवारिन गाइस तब जौंन रंगरेलिहा हा ओला सीटी पार के बलाय रिहिस हे तौंन तो सिरतोन मं जादू मारे कस ओकर रंग रूप ला देखके बइहागे। जब ओकर तीर मं आके ओहर ठुमक-ठुमके के सिनेमा के हिरोइन कस नाचे ले धरित तब ओला पोटार लिस। शांति ला पोटारना का होइस भीड़ ओकर ऊपर उम्हियागे। हुड़दंग मचगे। ओ रंगरेलिहा ला अइसे मरत ले मारिन ते ओकर जतका मस्ती रिहिस हे तौंन घुसड़गे। भीड़ चिल्लाये ले धर लिस। देखव-देखव..... मारव-मारव.... पीटव-पीटव...। नाचा करइया गांव के मुखिया मन शांति ला पंडाल मेर लाइन। नाचा रूकगे रिहिस हे। माइक ले काहत रिहिन हे शांत रहव... फेर भीड़ के हो-हल्ला मं कोन का काहत हे, कोन कहां जात हे, तेन ककरो समझ मं नइ आवत रिहिस हे।
उपन्यास करौंदा में छत्तीसगढ़ में कला और संस्कृति का दर्जा ऊंचा है। लेखक श्री परमानंद वर्मा ने ददरिया शैली का अविष्कार करके संवाद के सहारे कथा की बहुत सी अदृश्य परतों को उघाड़ कर आधुनिक विन्यास संबंधी नई शैली का प्रणयन किया है।
संझाकुन के बस मं दूनो झन घूम-फिर के आथे। अउ उही घर म रहिथे जिहां के बेवस्था करे के बात केहे रहिथे। हफ्ता के बीते ले अपन घर जाथे तब गोसइन मुंह फुलाय, कैकई कस न हुकिस न भुकिस। लइका मन गोठियाइन-बतइन। संझाकन घूमत-फिरत फेर शांति मेर आगे। अब तो दूनो के मजा हे। गउंटनीन बनगे शांति। रात-दिन के नचई-कुदई ले बाचगे। कुसुम घला अब दीदी-भाटो करा आय-जाय ले धर लिस। सुनब मं आय हे के शांति के पुतरी असन एक झन बेटी घलो हो गे। शांति ओकर नाव हरनारायन ला पूछके शीतल रखे हे। कुसुम मुस्कावत कहिथे-अच्छा संुदर नांव हे दीदी।
श्री परमानंद वर्मा छत्तीसगढ़ी उपन्यास करौंदा में जीवन के अनेक अनछुए पहलुओं को एक नई दृष्टि से देखने और विकसित करने का प्रयास किया है। रिश्तों की संजीदगी मन को आकर्षित करती है।
गांव मं दीदी बैंक, रामायन मंडली अउ महिला मजदूर संगठन बनाके करौंदा तो ताकत बना लिस जइसना चुनाव लड़े बर नेता मन बनाथे। अब तो गांव के छोटे-बड़े सब ओकर आदर करथे, कोनो अइसने मनखे नई होही जेन ओकर दुआरी मं आगे तेकर काम नइ बनत होगी। दे दे, देवा दे नइते रस्दा बता दे महामंत्र ओकर अइसे पंचाक्षरी ताकत हे के छिन मं लोगन के काम बन जाथे। रात बारह बजे ककरो घर मं बीमार परे हे, अस्तपाल ले जाना हे कोनो सकरी ला खटखटा दिस ओकर घर के मन तब कइसनों नींद मं रइही करौंदा उठ जथे। लुगरा बदलिस अउ ओकर मन संग चले बर तइयार हो जथे। पटवारी, आरआई, तहसीलदार, बुलाक आफिस, थाना जिहां का हौं चौबीसो घंटा तइयार। घर के काम ला सास संभाल लेथे तेकर सेती अउ जादा चिंता नइ राहय। जनपद अध्यक्ष, विधायक अउ थानादार सब जानथे, पहिचानथे तेकर सेती काम घला ओकर फटाफट हो जथे।
छत्तीसगढ़ी उपन्यास करौंदा बदलते समय की ऐतिहासिक कृति है। हकीकत बयानी के आधार पर कही गई कहानी हमारे समाज के बदलते परिवेश की एक झलक को प्रस्तुत करती है। करौंदा समाज में समस्याओं का अंत करके समाधान की दिशा में उठाए जाने वाले पहलुओं का महत्वपूर्ण हिस्सा है। समाज में अच्छाई को साधने का प्रयास करती है। नई पीढ़ी के बदलते सोच की प्रति ध्वनि को मुखरित करती है। उपन्यासकार श्री परमानंद वर्मा ने करौंदा की प्रतिबद्धता को औपन्यासिक रुप से उजागर किया है।
करौंदा के सास ला जौंने बात के डर रिहिस आखिर उही होइस। ओ तो पहिली ले जान डारे रिहिस हे के ये बहू नोहय कोनो कंकालीन अउ चुड़ेलिन आय जौंन ला ओहर अपन बेटा बर बिहा के लानिस। का जानय बहू के आड़ मं कुलछनीन घर मं समा गे हे। बहू होतिस त बहू असन नइ रहितिस जइसन दूसर मन के रहिथे। चले हे बड़े-बड़े के नाक मारे ले अउ घर ला इंहा देखव तब माहकत परे हे।
इस उपन्यास में करौंदा की सास की भाषा हमेशा ही ग्रामीण भाषा का रूप लेती है।कंकालिन,चुड़ेलिन,कुलकछीन ठेठ ग्रामीण की भाषा के रूप में हमारे सामने आती है। इस भाषा के अनेक रूप व अर्थ हैं। श्री परमानंद वर्मा ने चमत्कारिक और कलात्मक भाषा के प्रयोग से पूरी औपन्यासिक शैली को अद्वितीय ढंग से विश्वसनीय और जीवंत बनाए रखते हैं ।
करौंदा बिहान भर नहा-धोके तइयार होके सबले पहिली महामाया मंदिर जाथे अउ उहां जीत के खुशी मं चढ़ावा चढ़ाथे। उहा ले निकल के अपन गोसइया पुरूषोत्तम संग अपन गांव के भइया भवानी परसाद जौंन ये शहर मं बड़े साहेब हे तेकर घर मिठाई धर के जाथे। घर मं जाके भइया-भउजी के पांव-परत रो डरथे। अउ कहिथे-तुमन मोर लाज बचा लेव। मैं तो उही करौंदा हौं, गांव के बनिहारिन तौंन ला आज कुरसी मं बइठार देव। तोर ये करजा ला मैं कइसे छुटहौं भइया ?
’’तुमन मोर लाज बचा लेव’’ करौंदा की एक सहज समझदारी थी। महामाया माई के समक्ष अपनों के प्रति वैचारिक प्रतिबद्धता, सामाजिक परिवेश के कारण आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास को बनाए रखने में सोचने की शक्ति देता है। करौंदा लोगों की मर्म को भेदता है। उपन्यासकार श्री परमानंद वर्मा के लिए ’’करौंदा’’ जैसी छत्तीसगढ़ी उपन्यास लिखना बेहद जरूरी था क्योंकि करौंदा का इतिहास करौंदा को पहले से अधिक और विकसित करेगी।
डुमन लाल ध्रुव
मुजगहन, धमतरी (छ.ग.)
पिनकोड-493773
मो. नं.- 9424210208
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