- डुमन लाल ध्रुव
हिन्दी साहित्य में कहानी को एक आधार देने का काम कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने किया। मुंशी प्रेमचंद कहानी को जिस मुकाम पर लेकर आए, समय के साथ उसमें और कड़ियां जुड़ती गईं। प्रेमचंद के बाद जैनेंद्र, यशपाल, अज्ञेय आदि आए। प्रेमचंद की कहानी को सामान्यतः सामाजिक कहानी कहा गया। जैनेंद्र और अज्ञेय उसे मनोवैज्ञानिक धरातल पर लेकर गए। वहीं यशपाल ने कहानी को क्रांति के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल किया। कहानी में बुनियादी बदलाव आजादी के बाद आया। ठीक यही बदलाव छत्तीसगढ़ में कहानीकार श्री परमानंद वर्मा जी की छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह ’’तोर सुरता’’ में देखने को मिलती है। जहां ग्रामीण समाज अपनी पूरी विद्रूपता, असमानता और शोषण में अभिव्यक्त होता है। जीवन चरित्रों और घटित घटनाओं सहित नारी की वेदना, अकाल, नाचा-गम्मत की संवादों के कारण उपजे सामाजिक ठहराव का चित्रण है। दूसरी ओर नाटक के कलाकारों की चरित्र और संवाद बदलते रहते हैं जो असल जिंदगी की नाटक है। वैसे कलाकारों के जीवन में जटिलता हमेशा उभर कर सामने आती है। छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह ’’तोर सुरता” में नौ कहानियां हैं । ’’टोड़ा’’ कहानी में वृहत्तर समय की मौजूदगी दर्ज होती है। टोड़ा,पइरी,पुतरी अतीत का वैभव है। आज कठिन समय का दौर है। जालसाजी, मक्कारी, घपलेबाज, बदनियत, असामाजिक तत्वों का हावी होना, असुरक्षा और भय का माहौल तैयार करना, मेहनतकश व्यक्ति भूखा मर रहा है। हमारी प्रतिबद्धता और सोच से संवेदना का भले ही पुनर्जागरण हो सकता है। बदल रहे हैं लोग और बदल रहे हैं कर्तव्य-अकाल परे मं गांव मं सब के हालत खराब होगे हे। गहना बेचागे त का होगे, समय सुकाल आही तहां ओ सबो अऊ लेवा जाही दुबारा ? फेर दाई, भउजी तोर अपन सबो गहना ल पहिने हे ओकर ला काबर नइ बेचिस भइया हा ? फूलचंद के मुंह ले अइसन दुकलहिन ओला समझाथे, ये तोर-मोर के भेद करना अच्छा नइ होवय बेटा, ये गुन तो मं कहां ले अइस ? जब मैं अइसन भेद नइ करौं अउ ना वो ददा कभी जानिस तब का शहर ले भेद नीति, सीख के आय हस ? गुरूजी मन अइसने शिक्षा देथे, अइसने पढ़ाथे ? फूलचंद के मुंह लाडू़ बोजाय असन चुप होगे। एकर आघू फेर एक अक्षर नइ बोल सकिस। फेर ओला रहि-रहि के गुस्सा आवत रिहिस हे। तब भउजी के भड़काय मं कइसे भइया उतरवा ले रिहिस हे ? अपन गोसइन के एक ठन जेवर बर ओला कतेक मया होगे अउ दाई के सबो जेवर ला उतरवा के बेच दिस तेकर बर थोरको ओकर जीव नइ कसकिस ? अपन सग दाई होतिस तब अइसने मांगतिस, बेचतिस का ? ओ अकाल ला देख ले अउ आज तक दाई के शरीर मं एको ठन जेवर नइ चढ़ सकिस। अब तो ददा के घलो इंतकाल होगे। जियत हे बपरी गरीबिन हा कइसना करके। फूलचंद कइथे - मैं काला दोष दौं अकाल ला, ददा अउ भइया ला के अपन ला जौन ओला पहली जइसन सिंगार नइ सकेंव। ओ टोड़ा .... ओ पइरी .... ओ पाटी .... ओ पुतरी ... ओ तितरी पहिने दाई के रूप के सुरता आथे तब आंखी मं आंसू भर जथे अउ रो परथे ...।
नाच शैली के माध्यम से पारिवारिक-सामाजिक मानवीय मूल्यों को ’’तरिया मं रुपिया पर’’ की तर्ज पर कहानी को मजबूत करना चाहती है। नाचा की तरह कहानियां काल्पनिक हैं पर किस्सागोई शैली में कथ्य-कल्पना की जो संगति बैठाई गई है वह पाठक वर्ग को और अधिक रोचक बना देती है। प्रयोजन भले ही बड़े हों पर कहानीकार श्री परमानंद वर्मा ने लोक शब्दों को तरासने में कभी कमी नहीं की है। तोला मोर गीत उपर भरोसा नइ हे ना, मोला तैं अतेक उज्बक अउ बइहा समथस, के चार दाई-माई, भाई-बहिनी अउ गौंटिया मालिक बन बइठे हें तेखर आगू मं मैं आंय बांय बर दुहूं ? इंहा मैं कोनो फाग अउ कविता गाये ले तो नई आय हौं ? ओ जौंन मन आंय हे तब सब झन मोर दाई-ददा अउ भाई बहिनी बरोबर हें। जहर अउ अमरित के अंतर ला जानत हौं संगी। अतेक पान अंधरा नई होगे हौं। फेर मोर बात तोर मगज मं नइ बइठत हे तौंन ला मैं का करौं ?
छै महिना बीते के बाद एक दिन संझा कन तरिया मं जइसे कमल के फूल फूले रहिथे, तइसे कस चारों कोती दस, बीस, पचास अउ सौ रूपया के नोट उफले कोन्हों देख परिन, छिन मं बात बस्ती भर म ं बगरगे। लइका सियान सबो तरिया कोती दंउड़े लागिन। जेकर ले जतका बनिस ओतका नोट धर के घर लहुटिन। गोठियावत रिहिन के कोनों कोनों नोट आधा चिराय रिहिस हे, तब कोनों-कोनों निमगा साफ सुथरा रिहिसे। ये तो ओ सउत मन ला पीछू पता चलिस के ओ खुंसट मरद ह पेंशन और ग्रेच्युटी के सबो रूपया ल धर के तरिया मं जाके मरगे। चुचवावत ले रहिगे दुनो सउत। ये कथा ला ओ जोक्कड़ मन गम्मत के रूप मं गूंथे रहिथे। आखिरी मं पहिली वाला जोक्कड़ दूसर वाले ल पूछथे पता चलिस जी, के ये कोन कांड के कथा हे ? जा घर मं बने आंखी धो के रामायन ला पढ़बे, तहां ले तोला सब पता चल जाही। ये तरिया मं रूपिया फरे कांड के कथा हे बेटा।
पुरुष प्रधान समाज में चमक-दमक और रसूखदार लोगों का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। सकारात्मक सोच को समाज में लाने में बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कुछ ’’खटकायेर’’ जैसे लोग भी मिलते हैं। आधी-अधूरी जानकारी के चलते सकारात्मक विचारों को ओझल कर देती है।
दू एकड़ जमीन नहीं अउ ऐकर डींग ल देख कहां के गररेता बेइमानी करके चीज बटोरिस सब जेती के माल तेती रेंग दिस। हमर आगू मं दूसर के सउंज लगै तौने हमला पाठ पढ़ावत रहिसे। फेर ओ दिन के फैसला मं पंच सरपंच मन एकर जतका हेकड़ी रहिस हे तेकर बुढ़ना झर्रा दिन। आज तो ओकर बोलती बंद हो गेहे। ओकरे टूरा मन अब विही ल सोझ भाखा नइ दैं। जादा के अजलइत अउ जादा के सेखी घला कोनों काम के नोहय।
फूलकुंवर और बाबूलाल छत्तीसगढ़ी कहानी ’’भरम के भूत’’ रचना संसार के लिए एक तरह की उपलब्धि है जो अरसे बाद महतारी बेटा की तरह मुलाकात होती है और अपनी रचनात्मकता को समेटती है। भरम के भूत को नापने का कोई यंत्र अभी तक विकसित नहीं हुआ है। सबके दायरे अलग अलग है। एक बाबूलाल है जो लज्जा के भय से जीवनलीला समाप्त कर जाते हैं वहीं फूलकुंवर अपनी गरीबी को स्त्री की तरह जीती है।
बाबूलाल पांव तरी गिरे भौजी ल उठा के छाती मं लगा लेथे। देवर भौजी-दुनो लिपट के रोवथे जइसे जनम जनम के बिछड़े महतारी बेटा के आज मिलन होवथे। गंगा जमुना कस धार दुनो झन के आँखी ले बोहावत हे। लइका मन समझ नइ पावत हे। फुसुर-फुसुर गोठियावत हे। ये दाई ला का होगे आज बही जकही बन गेहे, कका ला तो देख कइसे लेड़गा बन गेहे। कोनो लइका के कांही हिम्मत नई होवत हे। ओकर मन के तीर म जाय के ? ओमन सोचथे कोनो आ जाही तब तो जंउहर हो जाय, का समझहीं ? थारको एमन ला लाज शरम नइहे, नाक-कान ला कटा डारे हे तइसे लागथे। फेर बाबूलाल फूलकंुवर एक दूसर ला पोटारे अभी अइसे रोवत हे जनामना जनम-जनम के प्रेमी हे। ओमन ला अतको सुध नइहे के हमन कोन हन, घर गोसइया आ जही तब का समझहीं ?
समाज और समय किसी न किसी रूप में साहित्य के माध्यम से अपने को प्रतिबिंबित करते हुए चलता है। बदलते समय के साथ कहानी का स्वरूप भी बदलता रहा है। विभिन्न सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों का प्रभाव कहानी पर पड़ता रहा है। श्री परमानंद वर्मा अपनी छत्तीसगढ़ी कहानियों के माध्यम से छत्तीसगढ़ी के कथा परिदृश्य को समृद्ध किया है। आंचलिक कहानियों के कारण ही ’’तोर सुरता’’ श्री परमानंद वर्मा जी को साहित्यिक परिदृश्य में एक अलग आयाम देती है।
मरे बिहान हे बिसाहिन के। ओहर घर -परिवार अउ जतका सपना देखे रिहिस हे तौन सब टूट के चूर-चूर होगे। इही ला कहिथे चोरी अउ सीना जोरी।
’’गोदनावाली’’ कहानी में कहानीकार श्री परमानंद वर्मा की छत्तीसगढ़ी संस्कृति के प्रति सजग दृष्टि है। गोदना पुरखों की चिन्हा को पुख्ता कर रही है लेकिन आधुनिकता की दौड़ में महिलाओं की अंगों में उकेरे जाने वाली गोदना भी पीछे छुटते जा रहे हैं। वहीं टैटू समयानुसार मानवीयता की उपस्थिति को रेखांकित कर रही है। सभ्यता, संस्कृति और शुचिता की बदलती हुई परिभाषाओं के इस दौर में अपने समय को दर्ज करना गोदना के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण काम हो रहा है।
देख बेटी ये संसार मं जेवर, गहना, पूंजी हे, रूपिया पइसा, जमीन-जायजाद हे। समय के संग-संग खिरावत चले जाथे, संग छोड़त चले जाथे, इहां तक परिवार, रिश्तेदार सब एक-एक करके एक दिन संग ला छोड़ देथे। फेर ये गोदना ऐसे जेवर हे जेला ना कोनो नंगा सकय, चोर चोरी कर सकय, न कोनो एकर बंटवारा कर सकय। मरत दम तक तोर शरीर के संग रइही। आदमी कहूं मरगे हे तभो कहंू ओकर नाव के या कोनो चिन्हारी गोदवाय रहिथे तब एहा संग रेहे के सुरता देवावत रहिथे। इही पायके माई लोगिन बर गोदना हा जरूरी हे बेटी। फेर आज समय बदलत जाथे तेकर संग गोदना घला नंदावत जात हे। अब का जानय आज-कल के नवा बेटी बहुरिया मन, नवा जमाना के नवा-नवा फैशन अउ सिंगार निकल गेहे, चमक-दमक मं सब मरे जाथे। गोदना के नांव सुन के घिनाथे, दुरिहा भागे ले धर लेथे।
’’घर मं कारगिल’’ रचना की पाठनीयता की शर्त को पूरी करती है। मध्यम वर्गीय परिवार की मनोदशा और परिस्थितियों का दुकलहिन प्रतिनिधित्व करती है। घर-गृहस्थी, जेठ- जेठानी के अवसाद को झेलती है लेकिन अंत में शहीद की पत्नी होने के नाते दुकलहिन की डूबती जिंदगी को सहारा मिलता है। यह सच है कि घटनाओं की सपाट-बयानी कहानी अभिव्यक्ति का द्वार खोलती है। किहिन धन के लालच मं आदमी आज कतेक गिरगे हे अंधरा होगे हे के रिश्ता, परिवार ल घलो कांही नई देख पावत हे। अरे दुकलहिन तो ओकर भाई बहू रिहिस हे। ओखर कोख ले बलिदानी बेटा के अंश अभिमन्यु पलत रिहिस हे तेला मारे के खातिर नीच काम करे बर उतरगे रिहिस हे। हत रे चंडाल जा तोर कभू भला नई होय, कुकुर कस मौत मरबे, कीरा परके मरबे।
’’बेटा तोर नोहय’’ कहानी में सुखवंतीन स्पष्ट कर देती है कि बेटा किसका है। कहानी के भाव क्या हैं और इसके माध्यम से वह क्या कहना चाहता है। कहानी का अंत संवेदना के स्तर पर पाठक को अपने साथ जोड़ लेता है। कहानी की मार्मिकता सुखवंतीन के लिए कही गई शब्द ’’बेटा तोर नोहय’’ विस्मित और स्तब्ध कर देती है और अंत में यही कहानी पात्र को साकार करती है।
ये बेटा मोर हे सुखवंतीन लड़े रिहिस हे ओला अउ केहे रिहिस हे बेटा तोर कइसे हो सकत हे,बेटा मोर हे। नौ महीना ले मैं अपन ओदर मं राखे हौं, एक खोची जामन भर दे ला मटका भर के दही परोसी के हो जाही? सेठ तब सकपकागे रिहिस हे,कांही उत्तर नइ दे पाय रिहिस हे,तभो ले मन मं डर बने राहय के सेठ बीच मं कभू अड़ंगा मत डाल दै। फेर शिवपरसाद आज सुखवंतीन के सब संकट अउ दुख ला भगवान बरोबर हर लिस। बिहान भर सुरहुती के तिहार रिहिस हे। दूनो परानी तिहार के तइयारी मं जुटगे। संझौती होइस तहां ले घर मं दिया जलइन। चारों कोती जगमग-जगमग करे ले धर लिस।
जीवन के हर कदम पर तुम्हारी याद आती है। कहानीकार श्री परमानंद वर्मा ’’तोर सुरता’’ में सहजता से अपनी बात पाठकों के समक्ष रखने में विश्वास करते हैं। जीवन में हुई प्रेम को कभी प्रतिशोध का हिस्सा बनाया और न ही जीवन में, समाज में छीनने की प्रवृत्ति बढ़ी। कहानीकार श्री परमानंद वर्मा ने पूरी सच्चाई के साथ आंखों में आंखें डाल कर सच बोलने की क्षमता जुटाते हैं ’’तोर सुरता’’ में-इही जिंदगी के नाटक हे। ये नाटक के कलाकार के चरित्र अउ संवाद बदलत रहिथे। हास-परिहास, करुणा अउ रौद्र रूप के आनंद दर्शक उठावत रहिथें। अउ आखिरी के नाटक खतम हो जाथे। वइसने कस ये नाटक के एक कलाकार महूं रहेंव।
छत्तीसगढ़ी कहानी ’’तोर सुरता’’ की संरचना बहुत ही सीधी और सपाट बयानी है। संग्रह की सभी कहानियां सहज संवेदना के साथ पठनीय है। कहानी में संवेदना नवीनता का आगाज कराती है। शायद यही कारण कहानीकार श्री परमानंद वर्मा ’’तोर सुरता’’ के अधिक निकट हैं।
डुमन लाल ध्रुव
मुजगहन, धमतरी (छ.ग.)
पिन 493773
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