-परमानंद वर्मा
क्या अंधे की औलाद अंधे ही होते हैं, यदि हां तब तो कुछ नहीं कहना और जब नहीं होते हैं तब इस कहावत को अनावश्यक रूप से क्यों गढ़ा गया है? कुछ तो इसका अर्थ निश्चित होगा ही। कहते हैं कलियुग में इसकी प्रचुरता है। यहां सब अंधे हो गए हैं, गलत तो गलत है ही, लेकिन सत्य को भी गलत करार साबित करने में यहां के लोगों ने महारत हासिल कर ली है। जिधर देखो उधर अनैतिक, अधार्मिक, असामाजिक और गैर कानूनी कार्य हो रहे हैं लेकिन इसे मानने को कोई तैयार नहीं। आतंक, अधर्म, अन्याय और पाखंड जिंदाबाद है, और इससे डरकर सत्य छिप गया है निर्जन स्थल जंगल में कहीं जाकर। इसी संदर्भ में प्रस्तुत है यह छत्तीसगढ़ी आलेख...
पखरा ह कभू भगवान हो सकत हे, पीतल ह सोना हो सकत हे, दिन ह रात हो सकत हे, असत (झूठ) ह सत हो सकत हे, चांद ह सूरज हो सकत हे, इस्तीरी ह पुरुष हो सकत हे, नइ हो सकय ना, तीन जुग मं नइ हो सकय, चाहे लाख मुड़ी पटक-पटक के लहूलुहान कर डरौ, फेर कभू हो नइ सकय? 'अंधेर नगरी चउपट राजा, 'टका सेर भाजी-टका सेर खाजा' कस जमाना चलत हे। सच बोले के जउन तीर मनखे के हिम्मत नइ हो सकय, हार गे तउन तीर ओला मरे जान। भले जीव हे, दुनिया के सकल करम करत हे, फेर ओकर कोनो कीमत नइ होवय, मुरदा बरोबर।
सच, सत लुकागे हे, असत के जमाना हे, पूरा संसार नकली होगे हे। सत ल पटक दे हे, अधमरा कर दे हे, हफरत हे, कांपत हे, डेर्रावत हे, कोनो दिन ओला मुरकेट के कोनो खेत-खार, घुरवा, नदिया, नरवा, तालाब कोती फेंक झन दैय। अतेक दुरदसा कइसे होगे, कभू ओहर सपना मं नइ सोचे रिहिस होही के एक दिन अइसन दिन ओला देखे ले परही? अपन ओ दिन, सतयुग के समे ल सुरता करत, आंसू ढारत रोवत रहिथे।
सड़क के तीर मं झोपड़ी करा भिखारी कस रूप मं हाथ लमावत अवइया-जवइया मन करा भीख मांगत देख परेंव। जटर-बटर चूंदी, कोन जनी कभू तेल लगाय हे, चुपरे हे के नहीं, ओकर हालत ल देखेंव तब मोला दया आगे। ओकर तीर मं जाके खटारा साइकिल ल ब्रेक मारेंव। उतरेंव, ओला पहिली खीसा ले निकाल के दस ठन रुपिया ल देंव। लेये बर ओहर मना करत रिहिसे। जोजियाय ऊपर ले मुसकिल मं ओहर धरिस।
सोचेंव पहिली बार अइसन भिखारी देखेंव जउन हा देवत रेहेंव तउन रुपया पइसा ल लेये बर मना करत रिहिसे। पूछेव-बबा, तैं हर ये रुपिया ल लेये बर काबर मना करत रेहे?
ओहर बहुत सरल अउ कोमल बानी मं कहिथे- बेटा, पहिली तैं ये बता के तैं कोन हस, अउ का समझ के मोला दस के नोट दे हस?
भिखारी के ये सवाल ल सुनके सकपका गेंव, सोचेंव- ये कइसन भिखारी हे भगवान, भिखारी हे ते कोनो पहुंचे हुए गियानी, मुनि अउ फकीर तो नोहे? हिम्मत करके पूछेंव- बबा, मंय तोरे सही एक झन मनखे हौं, इंसान हौं। तोर रूप-रंग, हालत ल देखेंव तब मन मं परेम, सरधा जाग गे, दया उमड़गे। अइसन हालत देखे नइ गिस ते रुकगेंव। कुछ गलती कर परे होहूं ते माफी देबे बबा।
एमा माफी देये के कोनो बात नइहे बेटा, तोर कतेक नेक विचार हे, मन मं दया, करुणा लबालब भरे हे सागर सही। बबा, जब अइसन बात किहिसे तब मोर मन मं उथल-पुथल होये ले धर लिस। सोचेंव- कहां-कहां ये बबा के चक्कर मं तो नइ परगेंव, जात रेहेंव सीधा बजार कोती साग-सब्जी लेये बर अउ हपट परेंव त हर-हर गंगा कस ये बबा करा अभर गेंव।
ओ भिखारी बबा फेर उलट के पूछथे- का सोचे ले धर लेस बेटा, तब ओला बात बनावत केहेंव, नहीं बबा, कांही नहीं। महूं पूछेंव उही पहिली वाले बात ल, तैंहर जउन मंय दस ठन रुपिया देवत रेहेंव तेन ला लेये बर काबर मना करत रेहें?
ओहर बताथे- बेटा, मैं भिखारी नो हौं, सतजुग हौं, सतजुग। ओ जुग मं राजा, महाराजा रेहेंव। फेर धीरे-धीरे खसलत-खसलत कलजुग मं ढकलागेंव। होगे अइसे उलटा-सुलटा, कोनो करम होगे रिहिस होही तेकर सेती आज अइसन हाल मं आगे हौं।
भिखारी बताथे- ये कलजुग ल देख के मंय अकबकागे हौं बेटा, बाप रे... याहा का अंधेर जमाना हे, अधरम के राज चलत हे। पखरा ल भगवान मान के रात-दिन पूजा-आरती करत हे, संझा-बिहनिया जल चढ़ावत हें। अतेक अगियानी अउ मूरख बसे हे ये कलजुग मं। देखौ पापाचार, भ्रष्टाचार के राज चलत हे। इही कलजुग हे, जउन जतके गलत, भ्रष्ट अउ पाप करम कर हे तेकर बरकत होवत हे, सच बोलत हे तौन कांप जावत हे, डेर्रावत हें, कहूं जेल झन चल दौं, फांसी मं झन टांग देय।
ओला पूछेंव- तहूं अइसने तो नइ डेर्रावत होबे बबा, के कभू ये कलजुग के सपड़ मं झन आ जांव, कोनो हटकार के ये तीर ले भगा झन दय, झोपड़ी ल तोड़फोड़ झन दय?
एकर कांही बेला-बिचार नइहे बेटा, के कब का कर दिही, जमराज बनगे हे ये कलजुग हा। इहां बड़े-बड़े मन के कुकुर गति होवत हे तउन ल तो देखबे करत हस? तहूं सावधान, सचेत होके रहिबे, अधरम, अनीति अउ कुमारग के रस्दा ले बचके रहिबे ना, तब भगवान हा हितवा होके तोर रक्छा करत रइही।
अतके बेर सायरन बजावत पुलिस के गाड़ी आवत रिहिस तउन ल सुनके कहिथे- जा बेटा, वहि दे जमराज के गाड़ी आवत हे, जा भाग ये मेर ले। बबा के बात ल मान के धरेंव खटारा साइकिल अउ बाजार के रस्दा धर लेंव।
परमानंद वर्मा