नीरज नैयर
आमतौर पर पुलिस अपराधियों का एनकांउटर करती है, लेकिन महाराष्ट्र में एक तेंदुए का एनकाउंटर किया गया। पुलिस के बहादुर जवानों ने तेंदुए पर इतनी पास से गोलियां बरसाईं कि उसे बचने का कोई मौका नहीं मिला। इस लाइव एनकाउंटर को देखने के लिए भारी तादाद में भीड़ मौजूद थी, और शायद यादातर लोग तेंदुए की मौत चाहते थे। तेंदुए का कसूर बस इतना था कि वो भूलवश रिहायशी इलाके में घुसकर घबराहट में इंसान को घायल कर बैठा। अपनी जान को खतरा देख जब इंसान दूसरे की जान लेने से नहीं चूकता तो फिर ये तो जानवर था। उससे इतनी समझ की उम्मीद भला कैसे की जा सकती है कि वो हमला करने के बजाए चुपचाप निकल जाता। और अगर वो ऐसा करने की सोचता भी तो क्या करने दिया जाता। क्या इंसान उसे रिहाइशी इलाके में आने का दंड दिए बिना जाने देता? जंगली जानवरों को इंसानों की बस्ती में आने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है, कुछ एक ही किस्मत वाले होते हैं जो सुरक्षित जंगल तक पहुंच पाते हैं। हाल ही में गुवाहाटी में एक बीमार हाथी के बच्चे को इंसानों की क्रूर भीड़ ने महज इसलिए मार डाला कि वो गलती से खेत का रुख कर बैठा था। बेजुबान की इस छोटी सी गलती पर इंसान इतना हैवान बन बैठा कि लाठी-डंडों से मासूम को तब तक पीटा गया जब तक उसने दम नहीं तोड़ दिया। दरिंदगी के इस खेल को वन विभाग और पुलिस के अधिकारी तमाशबीन बने देखते रहे, किसी ने भी हाथी की चिंघाड़ के दर्द को समझने का प्रयास नहीं किया। अगर वन अमला और पुलिसवाले चाहते तो हाथी के बच्चे को बचाया जा सकता था, लेकिन शायद उन्हें भी वो मासूम बच्चा कुसूरवार नजर आ रहा था। ऐसे ही गत 13 जनवरी को भुवनेश्वर मेें ग्रामीणों ने एक तेंदुए को न सिर्फ मौत के घाट उतारा बल्कि शव के साथ जुलूस निकालकर अपनी वीरता का परिचय भी दिया। दरअसल मैदान में खेलने पहुंचे बच्चों ने वहां तेंदुए को देखा और इसकी जानकारी उन्होंने गांव वालों को दी, इसपर हैवानियत का चोला ओढ़े गांववालों ने तेंदुए को बेदर्दी से तड़पा तड़पाकर मार डाला। गांववाले वनविभाग को भी सूचना दे सकते थे, मगर उन्होंने बेजुबान की जान लेना यादा बेहतर समझा। मनुष्य को संवेदनशील कहा जाता है, लेकिन यह कैसी संवेदनशीलता है जिसमें बेजुबानों को बेदर्दी से मारा जा रहा है। कभी मुनाफे के लिए तो कभी अपना वर्चस्व कायम करने के लिए। तेंदुए या बाघ हम तक नहीं पहुंचें, हमने ही उनके घर उजाड़कर वहां रहना शुरू कर दिया है।
विकास के नाम पर कट रहे जंगल
विकास के नाम पर घने जंगल छितरे किए जा रहे हैं, जानवरों का आशियाना हर रोज सिकुड़ता जा रहा है। भोजन-पानी की उपलब्धता लगातार सीमित होती जा रही है, बावजूद इसके अगर मूक जानवर भूले-भटके कभी रहवासीइलाकों में पहुंच जाए तो उसे मार डाला जाता है। संवेदनशीलता की ऐसी परिभाषा केवल मनुष्य ही गढ़ सकता है। ये कहां का इंसाफ है कि हम अत्याचार करते रहें और अत्याचार सहने वाला जब अपने बचाव में वार करे तो एकजुट होकर उसे मार डाला जाए। कुछ वक्त पहले यूपी में एक बाघ को आदमखोर बताकर मार गिराया गया, और चंद रोज पहले गुजरात के सूरत में एक तेंदुए की मौत का फरमान सुनाया गया है। तेंदुए को मारने के लिए हथियारों से लैस वनविभाग के कर्मचारी जंगलों को छान रहे हैं। हो सकता है कि यूपी के बाघ की तरह इस तेंदुए को भी मौत नसीब हो। ये भी हो सकता है कि इस तेंदुए की जगह किसी दूसरे को मार डाला जाए, सारे तेेंदुए लगभग एक जैसे दिखते हैं, उनके नाम-पते तो होते नहीं कि पहचाना जा सके। इस तेंदुए या उस बाघ ने जो कुछ भी किया वो अनापेक्षित था, उसने किसी प्रतिशोध में नहीं बल्कि हड़बड़ाहट और आत्मरक्षा में इंसान पर हमला बोला। जब खून करने वाले इंसान को आदमखोर घोषितकर उसकी मौत का फरमान जारी नहीं किया जाता तो फिर इन मूक जानवरों के साथ ऐसा क्यों किया जा रहा है। क्या इन्हें मनुष्य की माफिक जीने का हक नहीं। मनुष्य अपने खिलाफ हुए अत्याचार की आवाज उठा सकता है, लेकिन ये जानवर जाएं तो कहां जाएं। इनके लिए न तो कोई अदालत है, और न कोई सुनने वाला। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि एक तरफ हम इन जानवरों को बचाने के लिए पानी की तरह पैसा बहाए जा रहे हैं और दूसरी तरफ अपने ही हाथों से इन्हें मौत के घाट उतार रहे हैं।
130 तेंदुओं की मौत
पिछले साल करीब 130 तेंदुए मारे गए, जबकि गैर सरकारी संगठन ये आंकड़ा 240 के ऊपर बता रहे हैं। इस दौरान तकरीबन 17 तेंदुए मनुष्य से टकराव की भेंट चढ़े, 19 सड़क हादसों में मारे गए और लगभग आठ को वन विभाग ने मार गिराया। बाकी संभवत: शिकारियों का शिकार बने। 2009 में करीब 160 तेंदुओं का शिकार किया गया, जबकि 2008 में यह संख्या 157 थी। 2007 की गणना के मुताबिक देश में महज 2300 तेंदुए ही बचे हैं, और बाघों की संख्या इससे काफी कम 1100 के आसपास है। लेकिन असल आंकड़ा निश्चित तौर पर इससे काफी कम होगा। पिछले कुछ वक्त से बाघ, तेंदुए की मौतों की संख्या में काफी तेजी देखी गई है, तेंदुए की बात करें तो लगभग हर रोज कहीं न कहीं से इसकी मौत की खबर सुनने को मिल जाती है। जिसमें मनुष्य से टकराव की घटनाएं यादा हैं (शिकार छोड़कर)।
बर्बरता का खेल
वैसे मूक जानवरों के साथ बर्बरता केवल भारत तक ही सीमित नहीं है, दुनिया के बाकी हिस्सों में भी कमोबश ऐसा ही हो रहा है। इंडोनेशिया में इन दिनों जंगलों की कटाई चल रही है, जिसका असर यहां रहने वाले आरंगुटान प्रजाति के बंदरों पर सबसे यादा पड़ा है। इंसानों की हैवानियत का आलम ये है कि इन बंदरों को चुन-चुनकर या तो मारा जा रहा है या उन्हें जंजीरों में जकड़कर अपने मनोरंजन के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। मनुष्य की यह निर्दयता जानवरों का अस्तित्व समाप्त कर रही है, अगर सबकुछ ऐसे ही चलता रहा तो आने वाले दिनों में न तो जंगल रहेंगे और न उसमें रहने वाले जानवर। फिर न कोई तेंदुआ रिहायशी इलाके का रुख करेगा, फिर न कोई बाघ आदमखोर घोषित किया जाएगा। अब ये हमें सोचना है कि हम कैसा कल चाहते हैं।
नीरज नैयर
सोमवार, 17 जनवरी 2011
बुधवार, 5 जनवरी 2011
मामला रूपम पाठक का नहीं, नारी अस्मिता का है
डॉ. महेश परिमल
भला एक शिक्षित महिला को हथियार उठाने की क्या आवश्यकता आ पड़ी? वह शिक्षिका जो बच्चों को शिक्षित करती हैं, उनमें ज्ञान का प्रकाश फैलाती है, उसे क्या जरूरत आ पड़ी कि किसी विधायक को चाकू से इतने वार करे कि वह मर ही जाए। इसे ही यदि थोड़े अलग नजरिए से देखें, तो स्पष्ट होगा कि कहीं न कहीं यह मामला महिला उत्पीड़न से जुड़ा है।
इस मामले की मूल में वे घोषणाएँ हैं, जिसे विधायक ने उक्त महिला के स्कूल में मुख्य अतिथि के रूप में की थी। निश्चित ही वे घोषणाएँ अन्य घोषणाओं की तरह पूरी नहीं हो पाई। उक्त शिक्षिका ने इसे व्यक्तिगत रूप से नहीं लिया। उसके पीछे एक सामूहिक उद्धार की भावना थी। आगे चलकर भले ही विघायक और शिक्षिका के संबंध मधुर बन गए हों, पर कालांतर में यही मधुर संबंध विधायक की हत्या का कारण बना। शिक्षिका पूरे तीन वर्ष तक उक्त विधायक की हवस का शिकार बनी। विधायक को अपने पद का गुरूर था, इसलिए मामला दबता रहा। उक्त विधायक पर एक और महिला ने भी यौन शोषण का आरोप लगाया था। शिक्षिका ने अपने पर हुए यौन शोषण की शिकायत पुलिस थानं में की थी, पर मामला विधायक का था, इसलिए कोई कार्रवाई नहीं हुई। कानून सबके लिए समान होता है, यह उक्ति इस मामले में काम नहीं आई। विधायक ने मामला दबा दिया, पर महिला के भीतर उपजे आक्रोश को दबा नहीं पाए। इसकी परिणति नृशंस हत्या से हुई।
उक्त शिक्षिका ने विधायक की हत्या नहीं की, बल्कि नारी अस्मिता को बचाए रखने का एक प्रयास किया है। शिक्षिका ने उस जनसमूह का प्रतिनिधित्व किया है, जो आज भी वोट देकर अपने अधिकार भूल जाता है। रूपम पाठक ने लाखों लोगों की संवेदनाओं को अपनी पीड़ा में पिरोकर एक ऐसा काम किया है, जिस मानव बहुत ही विवशता के साथ करता है। अपना काम करने के बाद शिक्षिका का यह कहना कि अब उसे फाँसी पर भी चढ़ा दिया जाए, तो कोई गम नहीं, यह सोचने को विवश करता है कि आखिर वह भीतर से कितनी आक्रामक थी। एक विधायक के व्यवहार के खिलाफ एक शिक्षिका द्वारा शस्त्र उठा लेना एक ऐसा संकेत है, जिसे आज की राजनीति को समझ लेना चाहिए। इसे गहन आक्रोश की परिणति ही कहा जाएगा कि एक नारी ने अपने सबला होने का परिचय दिया है।
इससे यह सबक तो लिया ही जाना चाहिए कि पीड़ितों का हाथ यदि किसी ने न पकड़ा, तो पीड़ित हथियार उठाने में संकोच नहीं करेंगे। ध्यान रहे कि नक्सलवाद का उदय इन्हीं कारणों से हुआ है। जो आज बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल को बुरी तरह से मथ रहा है। विधायक की इस हत्या को राजनीतिक चश्मे से न देखा जाए, बल्कि शोषितों, पीड़ितों को दी जा रही यातनाओं को सामने रखकर देखा जाए, तभी इस मामले की गंभीरता सामने आएगी। यदि इस मामले को राजनीतिक रंग दिया गया,तो संभव है, मामले की लीपापोती हो जाए और हमेशा की तरह उक्त शिक्षिका को आजीवन कारावास दे दिया जाए।
डॉ. महेश परिमल
भला एक शिक्षित महिला को हथियार उठाने की क्या आवश्यकता आ पड़ी? वह शिक्षिका जो बच्चों को शिक्षित करती हैं, उनमें ज्ञान का प्रकाश फैलाती है, उसे क्या जरूरत आ पड़ी कि किसी विधायक को चाकू से इतने वार करे कि वह मर ही जाए। इसे ही यदि थोड़े अलग नजरिए से देखें, तो स्पष्ट होगा कि कहीं न कहीं यह मामला महिला उत्पीड़न से जुड़ा है।
इस मामले की मूल में वे घोषणाएँ हैं, जिसे विधायक ने उक्त महिला के स्कूल में मुख्य अतिथि के रूप में की थी। निश्चित ही वे घोषणाएँ अन्य घोषणाओं की तरह पूरी नहीं हो पाई। उक्त शिक्षिका ने इसे व्यक्तिगत रूप से नहीं लिया। उसके पीछे एक सामूहिक उद्धार की भावना थी। आगे चलकर भले ही विघायक और शिक्षिका के संबंध मधुर बन गए हों, पर कालांतर में यही मधुर संबंध विधायक की हत्या का कारण बना। शिक्षिका पूरे तीन वर्ष तक उक्त विधायक की हवस का शिकार बनी। विधायक को अपने पद का गुरूर था, इसलिए मामला दबता रहा। उक्त विधायक पर एक और महिला ने भी यौन शोषण का आरोप लगाया था। शिक्षिका ने अपने पर हुए यौन शोषण की शिकायत पुलिस थानं में की थी, पर मामला विधायक का था, इसलिए कोई कार्रवाई नहीं हुई। कानून सबके लिए समान होता है, यह उक्ति इस मामले में काम नहीं आई। विधायक ने मामला दबा दिया, पर महिला के भीतर उपजे आक्रोश को दबा नहीं पाए। इसकी परिणति नृशंस हत्या से हुई।
उक्त शिक्षिका ने विधायक की हत्या नहीं की, बल्कि नारी अस्मिता को बचाए रखने का एक प्रयास किया है। शिक्षिका ने उस जनसमूह का प्रतिनिधित्व किया है, जो आज भी वोट देकर अपने अधिकार भूल जाता है। रूपम पाठक ने लाखों लोगों की संवेदनाओं को अपनी पीड़ा में पिरोकर एक ऐसा काम किया है, जिस मानव बहुत ही विवशता के साथ करता है। अपना काम करने के बाद शिक्षिका का यह कहना कि अब उसे फाँसी पर भी चढ़ा दिया जाए, तो कोई गम नहीं, यह सोचने को विवश करता है कि आखिर वह भीतर से कितनी आक्रामक थी। एक विधायक के व्यवहार के खिलाफ एक शिक्षिका द्वारा शस्त्र उठा लेना एक ऐसा संकेत है, जिसे आज की राजनीति को समझ लेना चाहिए। इसे गहन आक्रोश की परिणति ही कहा जाएगा कि एक नारी ने अपने सबला होने का परिचय दिया है।
इससे यह सबक तो लिया ही जाना चाहिए कि पीड़ितों का हाथ यदि किसी ने न पकड़ा, तो पीड़ित हथियार उठाने में संकोच नहीं करेंगे। ध्यान रहे कि नक्सलवाद का उदय इन्हीं कारणों से हुआ है। जो आज बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल को बुरी तरह से मथ रहा है। विधायक की इस हत्या को राजनीतिक चश्मे से न देखा जाए, बल्कि शोषितों, पीड़ितों को दी जा रही यातनाओं को सामने रखकर देखा जाए, तभी इस मामले की गंभीरता सामने आएगी। यदि इस मामले को राजनीतिक रंग दिया गया,तो संभव है, मामले की लीपापोती हो जाए और हमेशा की तरह उक्त शिक्षिका को आजीवन कारावास दे दिया जाए।
डॉ. महेश परिमल
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