शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

अब जाग उपभोक्ता, तेरी बारी आई


डॉ. महेश परिमल
आजकल के नागरिक अपने अधिकारों के प्रति सजग और सचेत हो गए हैं। देश में भ्रष्टाचार को लेकर जनांदोलन होने लगे हैं। दूसरी ओर उपभोक्ता अदालतें भी काफी व्यस्त हो गई हैं। यह उपभोक्ता की सजगता का एक उदाहरण है। अब तक अपने अधिकारों को न जानने वाला उपभोक्ता जब कुछ जानने की कोशिश करने लगता है, तो मानो हड़कम्प मच जाता है। ऐसा सभी दिशाओं में हो रहा है। लेकिन एक ऐसी भी दिशा है, जिसकी ओर अभी तक बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया गया। वास्तव में यह दिशा हम सबका ध्यान सभी दिशाओं की ओर करती है। यही दिशा अब दिशाहीन होने लगी है।
बात मीडिया की है। टीवी के जिस चैनल से हम असंतुष्ट होते हैं, उसे बंद कर देते हैं। जो अच्छा नहीं लगता, उसे देखना भी पसंद नहीं करते। टीवी के लिए तो यह बात बिलकुल सटीक है, क्योंकि उसका रिमोट हमारे हाथ में होता है। पर इन अखबारों का क्या करें, जो यह कहते नहीं अघाते कि हम वही प्रकाशित करते हैं, जो पाठक चाहते हैं। पर क्या वे सच बोल रहे हैं? पाठक क्या चाहता है, यह तो पाठक को ही नहीं मालूम! पाठक भी दिग्भ्रमित है। वह जो चाहता है, उसे बता नहीं पा रहा है। वह चाहता है कि किसी खबर का असर कब कहाँ किस तरह हो रहा है, वह जान सके। वह चाहता है कि खबर के पीछे की खबर क्या है? ताकि देश-दुनिया में होने वाली घटनाओं पर अपने विचार कायम कर सके।
आज अखबारों की जो हालत है, उसे देखकर पाठकों को केवल सूचनाएँ ही प्राप्त हो रही हैं। पूरी जानकारी उसे कहीं से भी नहीं मिल रही है। कोई अखबार ऐसा नहीं है, जो उसकी ज्ञान-पिपासा को शांत कर सके। आज अखबारों के पेज बढ़ गए हैं, खबरें भी बढ़ गई हैं, पदर वह खबरें किस वर्ग के लिए है, यह कहना मुश्किल है। गले-गले तक विज्ञापनों से अटे अखबारों को यही लगता है कि यह उत्पादों की जानकारी देने वाला माध्यम है या फिर खबरों की जानकारी देने वाला। इस तरह से खबर भी एक उत्पाद हो गई है। अखबारों के अपने-अपने दावे हैं। हर अखबार अपने को ही सर्वश्रेष्ठ बताता है। सभी की नजर में पाठक वर्ग है। पर किस वर्ग का पाठक। आम समस्याओं से जुड़ी खबरें लगातार कम हो रहीं हैं। टीवी की तरह अखबारों पर भी टीआरपी का भूत सवार है। कहीं अखबार का उच्च वर्ग का पाठक नाराज न हो जाए, इसलिए प्रकाशन के सारे समीकरण तैयार किए जाते हैं। अब न तो नल की अंतिम बँूद को चोंच में लेती हुई चिड़िया की तस्वीर दिखाई देती है और न ही ठेला खींचते हुए किसी बाल मजदूर की। कभी-कभी प्रकृति के नयनाभिराम तस्वीर देखने को मिल जाती है, पर संवेदनाएँ जगाने वाली तस्वीर इन दिनों किसी अखबार में प्रकाशित हुई हो, ऐसा याद भी नही आता।
समझ में नहीं आता, पाठक अपने अधिकारों के लिए सचेत क्यों नहीं होता? क्या वह उपभोक्ता फोरम में यह शिकायत नहीं कर सकता कि अमुक अखबार से मुझे शिकायत है कि उसमें विज्ञापनों की संख्या समाचारों से अधिक होती है। उसमें विज्ञापनों की संख्या कम की जाए। यह मेरा अधिकार है कि मैं बिना विज्ञापनों वाला अखबार पढूँ। क्या कोई उपभोक्ता अदालत ने इस दिशा में सोचा? प्रश्न यही उठता है कि जब पाठक ने ही नहीं सोचा, तो अदालत क्यों सोचे?
अब समय आ गया है कि अखबार पढ़ने वाले को भी अपने अधिकारों का ज्ञान होना चाहिए। टीवी पर आने वाले विज्ञापन के समय वह चैनल बदल सकता है, तो अखबार में विज्ञापन के बजाए वह किस तरह के समाचार पढ़े, यह भी उसे ही तय करना है। बहुत से विज्ञापन प्रकाशित होते रहते हैं कि अपने अधिकारों के प्रति जागरुक बनें। वैसे उपभोक्ता अभी तक अपने अधिकारों के प्रति जागरुक बन ही नहीं पाया है। जिस दिन वह जागरुक बन जाएगा, उसी दिन से सरकार ही चलने बंद हो जाएगी। क्योंकि उपभोक्ता के पास कई प्रश्न हैं, जिसका उत्तर सरकार के पास भी नहीं है।
इसलिए अखबार के मामले में भी उपभोक्ता बनाम पाठक को यह सोचना है कि उसे किस तरह का अखबार चाहिए? पहले के अखबार और आज के अखबार में काफी अंतर आ गया है। पहले मृत्यृंजय, फैंटम, मैंड्रेक, फ्लैश गार्डन आदि के लिए सबको इंतजार रहता था, अब वैसी बातें नहीं रही। पहले सुबह केवल शीर्षक पढ़ लिए जाते थे, पूरा अखबार शाम या रात को ही पढ़ा जाता था। अब तो शीर्षक ही पढ़कर सूचना प्राप्त कर ली जाती है, विस्तार जानना भी चाहें, तो नहीं मिलता। इसलिए कम समय में केवल सूचनाओं से ही पाठक जागरुक होने लगे हैं। फिर घर में दिन भर बतियाने वाला बुद्धू बक्सा तो है ही। वह भी काफी कुछ बता ही देता है।
यह सच हे कि आज अखबार चलाना मिशन नहीं, बल्कि कमीशन हो गया है। अब सुबह अखबार के आने से उतना रोमांच नहीं होता, जितना पहले होता था। अखबार का आना एक सामान्य घटना बनकर रह गया है। क्योंकि हम अच्छी तरह से जानते हैं कि आज के अखबार में क्या-क्या हो सकता है? ढेर सारे विज्ञापनों के बीच खबर को खोजना एक रुटीन में शामिल हो गया है। एक समय ऐसा भी था, जब अपने शुरुआती दिनों में जनसत्ता एक बार में पूरा पढ़ा भी नहीं जा सकता था। दो तीन किस्तों में पढ़ना पड़ता था। अब तो अखबारों की उम्र घटकर मात्र 5 मिनट ही रह गई है। अखबार वाले अब पाठकों को अधिक से अधिक समय के लिए बाँधने की जुगत कर रहे हैं। पर क्या अखबारों के खिलाफ कुछ ऐसा नहीं हो सकता, जो आम उपभोक्ता को राहत पहुँचाए? आखिर जब अखबार उत्पाद है, तो उसे खरीदने वाला उपभोक्ता ही तो हुआ ना? फिर क्या अखबार वाले उपभोक्ताओं का ध्यान रख पा रहे हैं? कुछ तो ऐसा होना ही चाहिए कि अखबारों की सूरत बदले। जनसमस्याओं की खबरें पढ़ने को मिले। हम सबको तलाश है एक पूरे अखबार की, क्या आपको भी ऐसे ही अखबार की तलाश है?
डॉ. महेश परिमल