सोमवार, 2 जनवरी 2012

किसने कह दिया कि समाज का विश्‍वास नहीं रहा मीडिया पर!


-मनोज कुमार
अरूण शौ री पत्रकार हैं या राजनेता, अब इसकी पहचान कर पाना बेहद कठिन सा
होता जा रहा है। वे पत्रकार की जुबान बोल रहे हैं या राजनेता की, यह कह
पाना भी संभव नहीं है। पिछले दिनों भोपाल में एक मीडिया सेमीनार में
उन्होंने जो कुछ कहा, उसमें एक पत्रकार तो कहीं था ही, नहीं बल्कि एक
राजनेता की भड़ास दिख रही थी। पता नहीं उन्हें क्या हो गया था, वे भी औरों
की तरह मीडिया को कटघरे में खड़ा कर गये। वे अपनी रौ में कह गये कि मीडिया
पर समाज विष्वास नहीं करता है। अरूण षौरी को कौन बताये कि जिस मीडिया पर
आप सवाल उठा रहे हैं, वह मीडिया भी आपसे ही शुरू होता है। अरूण षौरी षायद
यह भूल रहे हैं कि वे उसी समाज का हिस्सा हैं जहां उनकी बोफोर्स रिपोर्ट
की गूंज दो दषक से ज्यादा समय से हो रही है। वे एक राजनेता के रूप में
मीडिया की विष्वसनीयता पर सवाल उठा सकते हैं किन्तु एक पत्रकार के रूप्
में उन्हें यह कहना षोभा नहीं देता है। मीडिया को अविश्‍सनीय कहने का
मतलब है स्वयं को अविष्वनीय बताना और हमारा मानना है कि अरूण षौरी
अविष्वनीय नहीं हो सकते। पत्रकार अरूण षौरी कतई अविष्वसनीय नहीं हो सकते
हैं, राजनेता अरूण शौरी के बारे में कुछ कहना अनुचित होगा।
अरूण षौरी जिस कद के पत्रकार हैं, उन्हें बहाव का हिस्सा नहीं बनना
चाहिए। उन्हें ऐसा कुछ नहीं बोलना चाहिए जिससे अपनों को ठेस लगे लेकिन
दुर्भाग्य से उन्होंने ऐसा ही सब कहा। वे जिस केन्द्र के आयोजन में बोल
रहे थे, जो इस समय अनेक कारणों से चर्चा में है। इस मंच से ऐसे ही अमृत
वचन की अपेक्षा थी, सो वे उनके मानस को षांत कर गये। लगभग एक दषक से
मीडिया घोर आलोचना के केन्द्र में है। कुछ अपने कर्मों से तो कुछ दूसरों
के रहम पर। मीडिया पर, पत्रकारों पर सवाल उठाने के बजाय उन मीडिया घरानों
पर क्यों पत्थर नहीं उछाले जाते जो लोग अपने कारोबार को बचाने के लिये
मीडिया को कारोबार बना दिया है। जिन लोगों का पत्रकारिता का ,, नहीं
आता, वे लोग मीडिया हाउस बनाते हैं तो अरूण षौरी उन लोगों का विरोध क्यों
नहीं करते। पुरानों की बात छोड़ दें, नयी पीढ़ी को अरूण शौरी पत्रकारिता की
षुचिता का पाठ क्यों नहीं पढ़ाते। अरूण शौरी अब महज एक पत्रकार नहीं हैं
बल्कि अनुभव की एक पाठषाला हैं और पाठषाला ही जब सार्वजनिक मंच से अपनी
ही आलोचना करेगा तो समाज का विष्वास उठना आवश्‍य है।
यह कम दुर्भाग्य की बात नहीं है कि अकेला पत्रकारिता एक ऐसा प्रोफेषन है
जहां उनके गुरू सार्वजनिक रूप से स्वयं की आलोचना करते हैं। इसे भी
सकरात्मक नजर से देखना चाहिए लेकिन बात केवल आलोचना तक ही रह जाती है।
सुधार की कोई कोषिष किसी भी स्तर पर नहीं हो रही है, यह इससे भी बड़ा
दुर्भाग्यजनक बात कहीं जानी चाहिए। मीडिया एवं मीडिया षिक्षण में रहे
लोगों के पास प्रषिक्षण की कमी है। जिस तरह मीडिया में काम करने वालों को
इस बात की समझ पैदा नहीं की जा रही है कि उनकी समाज के प्रति किस गंभीर
किस्म की जवाबदारी है, उसी तरह मीडिया षिक्षकों के पास भी प्रषिक्षण की
कमी है। मीडिया षिक्षकों के लिये अरूण षौरी सरीखे पत्रकार शिक्ष के काम
सकते हैं। सेमिनारों की संख्या में बढ़ोत्तरी करने के बजाय
षिक्षण-प्रषिक्षण में समय और साध्य लगाना उचित होगा। अच्छा होता कि मंच
से मीडिया की आलोचना करने के बजाय वे इसकी सुधार की बात करते। स्वयं कोई
पहल करने का संदेष दे जाते।
हम उम्मीद और केवल उम्मीद कर सकते हैं कि अरूण षौरी एवं उनके समकालीन
पत्रकार पत्रकारिता की नवीन पीढ़ी को यह पाठ बार बार नहीं पढ़ाएगी कि
मीडिया पर समाज का विष्वास उठ गया है बल्कि वह यह बताने की कोषिष करेगी
कि समय के साथ मीडिया का विस्तार हुआ है और यह विस्तार दिषाहीन है।
विस्तार को दिषा देने की जरूरत है। मंच पर खड़े होकर विलाप करने से मीडिया
का भला नहीं होने वाला है और ही समाज का। मेरा अपना मानना तो है कि
समाज का विष्वास मीडिया पर और बढ़ा है और कदाचित इसी विष्वास के कारण
मीडिया की छोटी सी छोटी भूल को भी समाज चिन्हित करता है ताकि मीडिया सजग
और सबल बने। इस बात को सभी को समझना होगा। स्वयं अरूण षौरी जी को भी। और
उन लोगों को भी जिन्हें मंच और माईक मिलते ही मीडिया की आलोचना करने पर
टूट पड़ते हैं। मैं उन सब लोगों से आग्रह करूंगा कि वे लोगों के बीच जाएं
और बतायें कि एक सिंगल कॉलम की खबर लिखने में एक पत्रकार को कितनी मेहनत
करनी होती है। एक पत्रकार सुविधाभोगी नहीं है और नहीं हो सकता है यदि वह
ताउम्र मीडिया में है तो। इस बहाने राजेन्द्र माथुर और प्रभाष जोशी को
याद कर लीजिये। और पहले जाएं तो पराड़करजी का भी स्मरण करना उचित होगा।
मायाराम सुरजन भी इसी कड़ी में एक नाम हैं। नीरा राडिया प्रकरण में उछलने
वाले नाम पर आरोप तो दागे गये लेकिन वे आज किसी किसी माध्यम में बैठे
हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि समाज ने उन्हें अस्वीकार नहीं किया है। ऐसे में
समाज का मीडिया पर से विश्‍वा उठ जाने की बात निराधार है। अरूण शौरी जी एक
राजनेता के रूप् में मीडिया अविश्‍वनीयता की बात करते हैं तो ठीक है
लेकिन पत्रकार अरूण शौरी ऐसा कहते हैं तो उन्हें एक बार फिर सोचना होगा
कि सच क्या है।

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