सुनील मिश्र
आजकल कुनकुनी दोपहर बड़ी सुहाती है। ज्यादातर दफ्तरों में दोपहर का आधा घंटा भोजनावकाश का रहता है। लोग उसका मौसम जरा पहले से काफी बाद तक मनाते हैं। बीच-बीच में भी जितनी बार किसी बहाने से कुर्सी से उठने का मौका मिल गया, तो बोनस ही हुआ। बहरहाल, ऐसी ही एक दोपहर अपने आॅफिस के पीछे जाकर कुछ देर के लिए खड़ा हुआ। सौ कदम की दूरी पर ही वहां एक नाला बरसों से बहता है। काला गंदा पानी ठहर-ठहर कर बहता है। कचरा, पन्नी, कभी-कभार मरे प्राणी भी बहते हैं उसमें। उसी नाले के ऊपर लोहे का अर्धचंद्राकार सेतु सरीखा बना हुआ है। वहीं काफी बगुले इक ट्ठा होते हैं। कुछ-कुछ खाते रहते हैं, मगर दस-पंद्रह की संख्या में उनका उड़-उड़ कर आता जमावड़ा देख कर अच्छा लगता है। उस दिन भी ऐसा ही था। मैंने देखा, जरा दूरी पर सात-आठ साल के दो बच्चे खड़े हैं। उनमें से एक गुलेल ताने एक आंख बंद किए किसी बगुले पर निशाना साध रहा था। मुझे लगा कि कुछ ही पल में आश्वस्त होते ही वह गुलेल में फंसाया कंकड़ किसी न किसी बगुले की तरफ मार ही देगा। अपनी ही जगह से मैंने जोर से डपटा तो दोनों निशाना छोड़ कर भाग गए।
उनको भागते देख कर मुझे हंसी आ गई और याद आ गया अपना बचपन। ऐसा ही कुछ करते हुए अपना बचपन भी बीता है। उस समय पास-पड़ोस और मुहल्ले के चाचा, बाबा इस कृत्य को शैतानी का खेल मानते थे। तब उनके इस फतवे पर बड़ी झुंझलाहट होती थी। गुलेल कोई बना-बनाया नहीं मिलता था। उसके लिए काफी जतन करना होता था। अंगूठे और उसके पड़ोस की उंगली की तरह लकड़ी को हम केटी कहा करते थे। उसकी तलाश बड़ी मुश्किल से पूरी होती थी और उसे किसी पेड़ की डाल में ढूंढ़ कर काटते थे। फिर पास से किसी साइकिल की दुकान से दस-पंद्रह पैसे में ट्यूब को फीतेनुमा कटवा कर लाते थे। कंकड़ फंसाने के लिए मोची से चमड़े का चौकोर टुकड़ा कटवाते थे। इन सबको लेकर भी फीतेनुमा ट्यूब के बीचोंबीच चमड़े का टुकड़ा फंसा कर दोनों छोरों को केटी के सिरों पर अलग-अलग बांध कर फिर चिड़िया, तोता, गिरगिट पर निशाना साध कर बड़ा मजा आता
था। कई बार हाथ में चोट भी लग जाती थी। हम सभी दोस्तों के पास गुलेल का जुगाड़ होता था। मस्ती-मजे में अपने किसी दोस्त के पुट्ठे पर छोटा-मोटा कंकड़ मार कर हंसते थे। जाहिर है, यह खेल शैतानी का खेल कहा जाता था। वक्त रहते यह सब छूट गया। बगुला मारने वाले छोकरों के हाथ गुलेल देख कर बचपन में जैसे जाकर लौट आए।
यों बचपन में जितने खेलों में अपनी महारथ याद आती है, उन सभी को करीब-करीब शैतानी का खेल ही करार दे दिया गया था। चालीस साल पहले पास-पड़ोस के रिश्ते बड़े मायने रखते थे। कोई न कोई चाचा या भैया डांट-फटकार और मारपीट के लिए पूरे मुहल्ले की ओर से अधिकृत होते थे। हममें से कोई भी इसका शिकार हो जाता था। उस समय हम कंचे खेलते थे, जो खालिस जीत-हार का खेल होता था। ‘डालडा’ के खाली डिब्बों में कंचों का संग्रह करते थे। यह खेल भी शैतानी का खेल माना जाता था। गिल्ली-डंडा अपना खुद बनाते थे और खेलते थे। यह भी शैतानी का खेल था, क्योंकि उससे किसी की भी आंख फूट जाने का खतरा होता था। गर्मियों के मौसम में बांस की लग्गी बना कर घरों के पीछे से कैरी चुराने और नमक के साथ खाने की मस्ती भी शैतानी कहलाती थी। घर के पास बिजली घर से चुपचाप अल्यूमीनियम का तार चुराते थे। रोज दोपहर को सोन पापड़ी-गजक करारी वाला सिर पर थाली लेकर निकलता था। उससे आधी तौल सोन पापड़ी लेकर मिल-बांट कर खाते थे। याद है कि एक बार पच्चीस-पचास ग्राम के तार के चक्कर में आधा किलो वजन का बड़ा तार खींच लाए थे, जिस पर सोन पापड़ी वाले ने धमकाया था। हम बहुत डर गए थे और कई दिन उसके आने के समय पर घर के भीतर चले जाते थे।
आज वैसा बचपन भी नहीं है और न उस तरह की शैतानी के खेल और न ही वैसा हौसला। आपस की दोस्ती जिस तरह बचपन में तब निभाई जाती थी, आज उसका एक उदाहरण भी देखने को नहीं मिलता। गुलेल, गिल्ली-डंडा, कंचे, पतंग, गुलाम डंडी जैसे खेल भी समयातीत हो गए। अब खेल से खिलवाड़ जैसा डर बन गया है। इसीलिए खेल की अवधारणा बचपन और किशोरावस्था से एक तरह से गायब ही हो गई है।
सुनील मिश्र
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