बुधवार, 26 सितंबर 2012

बापू को जन्मदिन का उपहार

मनोज कुमार
बापू इस बार आपको जन्मदिन में हम चरखा नहीं, वालमार्ट भेंट कर रहे हैं. गरीबी तो खतम नहीं कर पा रहे हैं, इसलिये गरीबों का खत्म करने का अचूक नुस्खा हम ईजाद कर लिया है. खुदरा बाजार में हम विदेशी पूंजी निवेश को अनुमति दे दी है. हमें ऐसा लगता है कि समस्या को ही नहीं, जड़ को खत्म कर देना चाहिए और आप जानते हैं कि समस्या गरीबी नहीं बल्कि गरीब है और हमारे इन फैसलांे से समस्या की जड़ ही खत्म हो जाएगी. बुरा मत मानना, बिलकुल भी बुरा मत मानना. आपको तो पता ही होगा कि इस समय हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं और आप हैं कि बारम्बार सन् सैंतालीस की रट लगाये हुए हैं कुटीर उद्योग, कुटीर उद्योग. एक आदमी चरखा लेकर बैठता है तो जाने कितने दिनों में अपने एक धोती का धागा जुटा पाता है. आप का काम तो चल जाता है लेकिन हम क्या करें. समस्या यह भी नहीं है, समस्या है कि इन धागों से हमारी सूट और टाई नहीं बन पाती है और आपको यह तो मानना ही पड़ेगा कि इक्कीसवीं सदी में जी रहे लोगों को धोती नहीं, सूट और टाई चाहिए. हमें गांव की ताजी सब्जी खाने की आदत छोड़नी पड़ेगी क्योंकि डीप फ्रीजर की सब्जी हम कई दिनों बाद खा सकते हैं. दरअसल आपके विचार हमेशा से ताजा रहे हैं लेकिन हम लोग बासी विचारों को ही आत्मसात करने के आदी हो रहे हैं. बासा खाएंगे तो बासा सोचेंगे भी. इसमें गलत ही क्या है?
बापू माफ करना लेकिन आपको आपके जन्मदिन पर बार बार यह बात याद दिलानी होगी कि हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं. जन्मदिन, वर्षगांठ बहुत घिसेपिटे और पुराने से शब्द हैं, हम तो बर्थडे और एनवरसरी मनाते हैं. अब यहां भी देखिये कि जो आप मितव्ययिता की बात करते थे, उसे हम नहीं भुला पाये हैं इसलिये शादी की वर्षगांठ हो या मृत्यु की हम मितव्ययिता के साथ एनवरसरी कहते हैं. आप देख तो रहे होंगे कि हमारी बेटियां कितनी मितव्ययी हो गयी हैं. बहुत कम कपड़े पहनने लगी हैं. अब आप इस बात के लिये हमें दोष तो नहीं दे सकते हैं ना कि हमने आपकी मितव्ययिता की सीख को जीवन में नहीं उतारा. सड़क का नाम महात्मा गांधी रोड रख लिया और मितव्ययिता की बात आयी तो इसे एम.जी. रोड कह दिया. यह एम.जी. रोड आपको हर शहर में मिल जाएगा. अभी तो यह शुरूआत है बापू, आगे आगे देखिये हम मितव्ययता के कैसे कैसे नमूने आपको दिखायेंगे.
अब आप गुस्सा मत होना बापू क्योंकि हमारी सत्ता, सरकार और संस्थायें आपके नाम पर ही तो जिंदा है. आपकी मृत्यु से लेकर अब तक तो हमने आपके नाम की रट लगायी है. कांग्रेस कहती थी कि गांधी हमारे हैं लेकिन अब सब लोग कह रहे हैं कि गांधी हमारे हैं. ये आपके नाम की माया है कि सब लोग एकजुट हो गये हैं. आपकी किताब स्वराज हिन्द पर बहस हो रही है, बात हो रही है और आपके नाम की सार्थकता ढूंढ़ी जा रही है. ये बात ठीक है कि गांधी को सब लोग मान रहे हैं लेकिन गांधी की बातों को मानने वाला कोई नहीं है लेकिन क्या गांधी को मानना, गांधी को नहीं मानना है. बापू आप समझ ही गये होंगे कि इक्कसवीं सदी के लोग किस तरह और कैसे कैसे सोच रखते हैं. अब आप ही समझायें कि हम ईश्वर, अल्लाह, नानक और मसीह को तो मानते हैं लेकिन उनका कहा कभी माना क्या? मानते तो भला आपके हिन्दुस्तान में जात-पात के नाम पर कोई फसाद हो सकता था. फसाद के बाद इन नामों की माला जप कर पाप काटने की कोशिश जरूर करते हैं.
बापू छोड़ो न इन बातों को, आज आपका जन्मदिन है. कुछ मीठा हो जाये. अब आप कहंेगे कि कबीर की वाणी सुन लो, इससे मीठा तो कुछ है ही नहीं. बापू फिर वही बातें, टेलीविजन के परदे पर चीख-चीख कर हमारे युग नायक अमिताभ कह रहे हैं कि चॉकलेट खाओ, अब तो वो मैगी भी खिलाने लगे हैं. बापू इन्हें थोड़ा समझाओ ना पैसा कमाने के लिये ये सब करना तो ठीक है लेकिन इससे बच्चों की सेहत बिगड़ रही है, उससे तो पैसा न कमाओ. मैं भी भला आपसे ये क्या बातें करने लगा. आपको तो पता ही नहीं होगा कि ये युग नायक कौन है और चॉकलेट मैगी क्या चीज होती है. खैर, बापू हमने शिकायत का एक भी मौका आपके लिये नहीं छोड़ा है. जानते हैं हमने क्या किया, हमने कुछ नहीं किया. सरकार ने कर डाला. अपने रिकार्ड में आपको उन्होंने कभी कहीं राष्ट्रपिता होने की बात से साफ इंकार कर दिया है. आप हमारे राष्ट्रपिता तो हैं नहीं, ये सरकार का रिकार्ड कहता है. बापू बुरा मत मानना. कागज का क्या है, कागज पर हमारे बापू की श िसयत थोड़ी है, बापू तो हमारे दिल में रहते हैं लेकिन सरकार को आप जरूर बहादुर सिपाही कह सकते हैं. बापू माफ करना हम इक्कसवीं सदी के लोग अब चरखा पर नहीं, वालमार्ट पर जिंदा रहेंगे. इस बार आपके बर्थडे पर यह तोहफा आपको अच्छा लगे तो मुझे फोन जरूर करना. न बापू न.फोन नहीं, मोबाइल करना और इंटरनेट की सुविधा हो तो क्या बात है.
मनोज कुमार

रविवार, 23 सितंबर 2012

मेरे दोस्त दरख्त माफ करना...


मनोज कुमार
वे मेरे दोस्त थे. रोज सुबह घर से दफ्तर जाते समय वे मुझे हंसी के साथ विदा करते. देर शाम जब मैं घर लौट रहा होता तो लगता कि वे मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं. मेरे और उनके बीच एक रिश्‍ता कायम हो गया था. ये ठीक है कि वे बोल नहीं सकते थे तो यह भी सच है कि मैं भी उनसे अपनी बात नही कह सकता था लेकिन बोले से अधिक प्रभावी अबोला होता था. हमारी दोस्ती को कई साल गुजर गये थे. इस बीच मैंने लगभग नौकरी का इरादा त्याग दिया था. यह वह समय था जब न तो मेरे आने का वक्त होता था और न जाने का लेकिन क्योंकर षाम को उनके पास से गुजरना मन को अच्छा लगता था. अचानक कहीं से बुलावा आया और न चाहते हुए भी मैं नौकरी का हिस्सा बन गया. इस नौकरी से मेरा मन जितना खुश नहीं था, शायद मेरे ये दोस्त खुश थे. रोज मिलने और एक दूसरे को देखकर मुस्कराने का सिलसिला लम्बे समय से चल रहा था। यह रिष्ता अनाम थ. आज सुबह मैंने उन्हें हलो कहा था और वे मुस्करा कर मुझे रोज की तरह विदा किया. तब शायद मुझे पता नहीं था कि रोज की तरह जब मैं शाम को घर लौटूंगा तो उसी रास्ते से लेकिन मेरे दोस्त मुझसे बिछड़ गये होंगे। कोई मुस्कराता हुआ आज मेरा स्वागत नहीं करेगा। शाम का मंजर देखते ही जैसे मेरा दिल बैठने लगा। थोड़ी देर के लिये मेरे पैर थम से गये। मैं अवाक था कि ये क्या हो गया। एक हफ्ते में मेरे लिये यह दूसरा हादसा था. दोनों हादसों में कोई साम्य नहीं था लेकिन दोनों के बिछड़ जाने का गम एक जैसा था.मेरी भांजी को विदा कर घर लौटते मेरे अपने जीजाजी सड़क हादसे में नहीं रहे. बहुत दिनों बाद मन जार जार कर रोया. अभी हफ्ता नहीं गुजरा था कि मेरे दोस्त की मौत ने मुझे झकझोर दिया है.
ये दोस्त थे मेरे आने जाने के रास्ते में खड़े हरे-भरे दरख्त. इनकी षाखाओं के लहराते पत्ते जैसे बार बार मुझे गले लगाने को बेताब होते थे. मैं कभी कल्पना भी नहीं की थी कि इस तरह एक दिन कोई निर्दयी इन्हें अकाल मौत दे देगा. कभी अपनी हरियाली के लिये इतराने वाला भोपाल आहिस्ता आहिस्ता कंगाल हो रहा है. क्रांकीट की इमारतों को खड़ा करने, सड़कों की छाती को रौंदने के लिये रोज ब रोज आ रही  महंगी विदेशी कारों के लिये पहले ही सालों से खड़े दरख्तों को अकाल मौत दे दी गयी है. आज एक और दरख्त ऐसा ही मारा गया. किसी आदमी की मौत का गम तो थोड़े वक्त का होता है लेकिन किसी दोस्त की मौत'षायद पूरे जीवन के लिये जख्म दे जाती है. जिस जगह यह दरख्त था, वहां खून का कोई निशान नहीं था लेकिन कटे हुए डंगाल, टूटे हुए पत्ते किसी बेरहम हाथों की कहानी बयान कर रहे थे. रोज की तरह चलता हुआ मैं जब गुजरने लगा तो एकाएक सन्नाटे सा महसूस हुआ. पैरों के नीचे मेरे दोस्त पत्ते कुचल गये तो मुझे झटका सा लगा. लगा कि जैसे मैंने अपने किसी को पैर से रौंदने का पाप कर लिया है. मैं आत्मग्लानी से भर गया.
मेरी आत्मग्लानी केवल पत्ते को पैर से कुचल जाने के लिये नहीं थी. बल्कि इस बात को लेकर भी मन विषाद से भर गया कि हम कितने निरीह हो गये हैं एक जीते-जागते दरख्त को अपने स्वार्थ के लिये बेमौत मार देते हैं. यह तो ठीक है कि हमारे कर्म उस गेंद की तरह होते हैं जो पलट कर हमारे पास आती है अर्थात हम अच्छा करते हैं तो अच्छा पाते हैं. इसे किताबी बात न मानें तो यह मानना ही पड़ेगा कि ऐसे बेमौत मरने वाले दरख्त हमारे दुख का कारण हैं. जीते-जी वे हमारे मुस्काने की वजह थी. उनसे हमंे छांह, पानी और साफ हवा मिलती थी और एक मुस्कान के लिये यह सब जरूरी है. अब जब हम एक बार नहीं, बार बार दरख्त को मौत दे रहे हैं तो उस दरख्त की आह भला हमें कब तक जीने देगी? यह सवाल उन सब लोगों से है जो दरख्त को मौत दे रहे हैं या देने में साथ दे रहे हैं या उसे चुपचाप मरने के लिये मजबूर होने दे रहे हैं. उन सब में मैं भी षामिल हूं. आज इस दरख्त की मौत ने मुझे एक बार फिर उस चिपको आंदोलन की याद दिला दी जिसकी याद आज की युवा पीढी को होगी भी नहीं. हे दरख्त, तुझे न बचा सकने का जो अपराध मुझसे हुआ है, उसके लिये मैं माफी चाहूंगा....सिर्फ माफी...
मनोज कुमार

बुधवार, 12 सितंबर 2012

शुक्रिया, शुक्रिया हिन्दी सिनेमा

मनोज कुमार
हर बरस की तरह जब इस बरस भी चौदह सितम्बर को राष्ट्रभाषा हिन्दी के लिये हिन्दी दिवसए हिन्दी सप्ताह और हिन्दी माह बनाने की तैयारी में जुटे हुये हैं, तब इस बार बात थोड़ा सा अलग अलग सा है। इस बार हिन्दी उत्सवी माह में हम भारतीय सिनेमा के सौ बरस पूरे कर लेने का जश्र मना रहे हैं। हिन्दी और हिन्दी सिनेमा का चोली.दामन का साथ है। राजनीतिक मंचों पर राष्ट्रभाषा हिन्दी को विस्तार देने और उसे आम आदमी की भाषा देने के लिये हल्ला बोला जाता है किन्तु सितम्बर के महीने तक ही लेकिन हिन्दी सिनेमा हिन्दी को आम आदमी की जुबान में न केवल बोलता है बल्कि उसे जीता भी है। हिन्दी सिनेमा हिन्दी ही क्यों, वह तो तमाम हिन्दुस्तानी भाषा और बोली के संरक्षण एवं संवर्धन के लिये कार्य करता रहा है। भारतीय सिनेमा के सौ बरस की इस यात्रा में भाषा और बोली का कोई प्रतिनिधि माध्यम बना हुआ है तो वह है हिन्दी सिनेमा। हिन्दी सिनेमा ने अपने आपको हर किस्म के बंधन से मुक्त रखा हुआ है। वह मानता है कि कहानी के पात्र जिस भाषा और शैली के होंगे,  उसे वह फिल्माना पड़ेगा। यही कारण है कि हिन्दी सिनेमा बार बार और हर बार का प्रतिनिधित्व करता हुआ दिखता है। भारतीय सिनेमा भाषा और बोली को न केवल बचाने का काम कर रहा है बल्कि उसे विस्तार भी देने का काम कर रहा है। हम यह कहते नहीं थकते कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है लेकिन यह कश्मीर से कन्याकुमारी के बीच की भाषाए बोली और संस्कृति से हम परिचित नहीं होते यदि हिन्दी सिनेमा हमारे पास नहीं होता। आंचलिक सिनेमा की अपनी सीमायें हैं। वह किसी एक बोली अथवा भाषा में अपनी बात कह सकता है लेकिन भाषाए बोली और संस्कृति की इंद्रधनुषी तस्वीर तो हिन्दी सिनेमा के परदे पर ही आकार लेता दिखता है।

गुड़ खाये और गुलगुले से परहेज,  यह एक और सच है हिन्दी सिनेमा का। जितनी आलोचना हिन्दी सिनेमा की होती हैए संचार माध्यमों में वह शायद किसी की नहीं होती है। शायद यही आलोचना हिन्दी सिनेमा की ताकत भी है। सौ बरस के सफर में हिन्दी सिनेमा ने लोगों का न केवल भरपूर मनोरंजन किया बल्कि सामाजिकए राजनीतिक और आर्थिक दृश्य को बदलने में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करायी है। आज हिन्दुस्तान तो हिन्दुस्तानए हिन्दुस्तान के बाहर के देशें में भी हमारे हिन्दी सिनेमा की तूती बोल रही है। हमारा गीत.संगीत, हमारे कलाकार के साथ ही समूचा हिन्दी फिल्म उद्योग हमेशा से पूरे संसार के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। इन सबके बाद हिन्दी सिनेमा की आलोचना एक बार नहीं बार बार की जाती है। मीडिया में सिनेमा की आलोचना लगभग तयशुदा है। कई दफा तो ऐसा लगता है कि आलोचना के बिना हिन्दी सिनेमा की चर्चा अधूरी रह जाती है।

हिन्दी की ऐसी दुर्दशा को देखकर इस बात पर संतोष कर लेने के लिये हमारे पास हमारा हिन्दी सिनेमा है। एक ऐसा माध्यम जो आम आदमी का है। संवाद का एक ऐसा माध्यम जो हर तबके की भाषा बोलता है। वह अंग्रेजी साहब की नकल भी उतार लेता है और झुग्गी में रहने वाले टपोरी को भी उसी मुकम्मल रूप में पेश करता है जिसे हम देखते चले आ रहे हैं। हिन्दुस्तान की जमीन पर हर सौ कोस पर भाषा और बोली बदल जाती है। यह बदलती हुई भाषा और बोली आप हिन्दी सिनेमा में ही देख सकते हैं। यह हिन्दी सिनेमा ही है जो भारत की इंद्रधनुषी जीवनशैली, परम्परा और संस्कृति को हर दिन नयी पहचान देता आया है। यह हिन्दी सिनेमा ही है जहां आप अपने आपको पा सकते हैं। अपने होने का अहसास कर सकते हैं और यह अहसास आता है अपनी बोली और भाषा को जस का तस फिल्माने से।

वरिष्ठ पत्रकार एवं सिने विशेष दयानंद पांडे लिखते हैं कि सच यही है कि हिन्दी भाषा के विकास में हमारी हिन्दी फिल्मों और हिन्दी गानों की भी बहुत बड़ी भूमिका है। सिनेमा दादा फाल्के के जमाने से ले कर अब तक हमारे लिए हमेशा नयी और विदेशी टेक्निक थी और रहेगी। बोलने वाली फिल्मों का अविष्कार भी हमारे लिये नया जमाना लेकर आया। हमने विदेशी टेक्निक का इस्तेमाल अपने लाभ के लिये किया। बोली और भाषा को लेकर हिन्दी सिनेमा हमेषा से सजग और संवेदनशील रहा है। लगातार शोध और अध्ययन के बाद फिल्म की जरूरत के अनुरूप उसे ढाला और फिल्माया जाता है। कदाचित यही कारण है कि हिन्दी सिनेमा के बोली और भाषा की सजगता को लेकर आलोचना नहीं की गयी।

ऐसा भी नहीं है कि हिन्दी सिनेमा में बोली और भाषा को लेकर कभी कोई गलती नहीं हुयी हो लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वह संचार के दूसरे माध्यमों की तरह भाषा से खिलवाड़ करता रहा हो। हिन्दी सिनेमा की भाषा सरल, सहज और हिन्दुस्तानी रही है। उर्दू अदब को लेकर हिन्दी सिनेमा ने काम किया है तो जहां जरूरत हुयी, वह बोलचाल की आसान भाषा से ऊपर उठकर हिन्दी के कठिन शब्दों के उपयोग से भी परहेज नहीं किया। दरअसल हिन्दी सिनेमा की यह भाषिक सजगता ही उसके अस्तित्व को बचाने में सहायक बनता रहा है। संचार माध्यमों के लगातार ढहती दीवारों का कारण भाषा के प्रति निर्मम होते जाना है।

मीडिया विश्‍लेषक सुधीश पचौरी का मानना है कि मनोरंजन उद्योग के ग्लोबल बाजार ने बताया है कि बॉलीवुड की फिल्मों और गानों की धुनों को जो लोग भाषा की दृष्टि से नहीं समझते हैं, वे भी उसकी सांस्कृतिक संरचनाओं के प्रभाव में रहते हैं। वे स्पेनिश, फ्रेंच, जापानी या चीनी बोलने वाले हो सकते हैं, कुछ हिन्दी शब्द इस बहाने उनके पास रह जाते हैं। अरबी, फारसी बोलने वालों की दुनिया में हिन्दी भाषा अनजानी नहीं है। हिन्दी मनोरंजन चौनलों ने वहाँ भी फैलाया है।

यह सच है कि हिन्दी सिनेमा के विषय.वस्तु में गिरावट आयी है तो यह गिरावट अकेले हिन्दी सिनेमा में ही नहीं आयी है। हिन्दी सिनेमा पर लगने वाला यह आरोप मिथ्या ही नहीं, भ्रामक भी है क्योंकि हिन्दी सिनेमा अथवा किसी भी भाषा का सिनेमा अपनी तरफ से कुछ गढ़ता नहीं है बल्कि सिनेमा समाज का आईना होता है और आईना वही दिखाता है जो उसके सामने होता है। अर्थात सिनेमा समाज का दर्पण है और दर्पण समाज में घटने वाली घटनाओं और बदलती जीवनशैली का रिफलेक्शन मात्र है। यह भी सच है कि सिनेमा एक उद्योग है और कोई भी उद्योग पहले अपना नफा देखता है और फिर बाजार में उतरता है। हमें हिन्दी सिनेमा का इस बात का शुक्रिया किया जाना चाहिए कि उसने भाषा के मामले में कोई समझौता नहीं किया।

हिन्दी सिनेमा की एक और खूबी है, भाषा और बोली की शुद्वता बनाये रखना। अपने आरंभ से लेकर अब तक की यात्रा में हिन्दी सिनेमा ने हर दौर के बदलते बोली.बात का खयाल रखा है और उसी के मान से सिनेमा को गढ़ा है। सिनेमा में बोली.भाषा की शुद्वता से मीडिया को रश्क हो सकता है।बात टेलीविजन की करें तो सबसे ज्यादा हिन्दी का सत्यानाश करने वाला यही संचार माध्यम है। आम आदमी को समझ आने वाली भाषा के नाम पर समाज को न तो हिन्दी का रखा और न अंग्रेजी का। हिंग्लिश कह कर भाषा का ऐसा सत्यानाश किया कि सौ शब्दों के कथन में साठ फीसद शब्द अंग्रेजी के होते हैं। लगभग यही स्थिति अखबारों की है। हिन्दी हिग्लिश के रूप में बोली और दिखायी जा रही है। हिन्दी की जो दुर्दशा इस माध्यम में हुई है, उससे तौबा कर लेना ही बेहतर होगा। समाचारों के शीर्षक अंग्रेजी में लिखे जा रहे हैं प्रधानमंत्री को पीएम और मुख्यमंत्री को सीएमए विश्वविद्यालय की जगह यूर्निवसिटी तो विद्यालय लिखना ही भूल गये और लिखा जा रहा है स्कूल। एक जगह लिखा गया था एफएमए मुझे लगा कि यह क्या शब्द है और इस जिज्ञासा के साथ आगे पूरी खबर पढ़ा तो ज्ञात हुआ कि फायनांस मिनिस्टर का यह संक्षिप्तिकरण था। अखबारों में तो हिन्दी का अब कोई नामलेवा बचेगाए इस पर भी संदेह है। अखबारों में बोलचाल हिन्दी के नाम पर अंग्रेजी के दर्जनों शब्दों का बेधडक़ उपयोग हो रहा है। इन दिनों हिंग्लिश से भी आगे अखबार निकल गये हैं। एक ऐसा ही अखबार है जिसे हिन्दी का तो कहा जा रहा है लेकिन हिन्दी ढूंढऩे पर ही मिल पाता है। हिन्दी दिवस के अवसर पर जब हिन्दी दिवस की बात करते हैं हिन्दी मास की बात करते हैं तो हम कहते हैं कि हिन्दी वीक मना रहे हैं, हिन्दी मास शुरू हो गया।

ऐसे में संचार के सबसे प्रभावी माध्यम माने जाने वाले टेलीविजन एवं अखबारों की एक तरफ यह दुर्दशा है तो रोज ब रोज आलोचना का शिकार होता हिन्दी सिनेमा ने ही हिन्दी ही नहीं सभी भारतीय भाषाओं और बोलियों को सुरक्षित और संरक्षित करने में अपनी भूमिका निभा रहा है। निश्चित रूप से भाषा और बोलियों के प्रति हिन्दी सिनेमा की यह सजगता हमारे लिये गर्व करने लायक है। बात सीखने की है उन संचार माध्यमों के लिये जो हिन्दी सिनेमा से सीख सकते हैं कि अकेले हिन्दी ही नहींए भारत की सभी भाषाओं और बोलियों की रक्षा कैसे की जाए, बल्कि इनके संवर्धन में उनकी भूमिका क्या हो। अनेकता में एकता हमारे हिन्दुस्तान की पहचान है और इस पहचान को बनाये रखने की जवाबदारी संचार माध्यमों की है। हिन्दी सिनेमा अपनी जवाबदारी पूरी शिद्दत के साथ निभा रहा है। सिनेमा, शुक्रिया। शुक्रिया हिन्दी सिनेमा

शनिवार, 1 सितंबर 2012

सबसे बड़ा सवाल, कसाब को फांसी कब?


डॉ. महेश परिमल
29 अगस्त बुधवार को देश के न्यायप्रणाली की गरिमा और सर्वोपरिता का रहा। एक फैसला अहमदाबाद और दूसरा दिल्ली में सुनाया गया। एक तरफ देश के दुश्मन का फंदा बरकरार रहा, तो दूसरी तरफ सद्भाव के दुश्मन दोषी करार हुए। दोनों ही फैसलों से न्यायप्रणाली की छवि उजली हुई है। दोनों ही फैसलों को सुनकर देश के नागरिकों ने राहत की सांस ली। एक बार फिर यह साबित हो गया है कि हमारी न्याय प्रक्रिया शायद धीमी है, पर ढीली नहीं। उधर अहमदाबाद के नरोडा पाटिया इलाके में हुए नरसंहार के मामले में अदालत ने शुRवार को पूर्व मंत्री माया कोडनानी को कुल 28 साल और बाबू बजरंगी को उम्रकैद की सजा सुनाई है। बाकी 29 दोषियों को भी उम्रकैद की सजा सुनाई गई है। कोडनानी को दो अलग-अलग धाराओं के तहत 18 और 10 साल की सजा सुनाई गई। दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट ने मुंबई आतंकवादी हमले के आरोपी अजमल कसाब की फांसी की सजा बरकरार रखी है।
25 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले में 165 लोग मारे गए और ढाई सौ से अधिक लोग घायल हुए। पाकिस्तान से समुद्र के रास्ते से आए आतंकवादियों में से एकमात्र कसाब ही जिंदा पकड़ा गया। एक अंदाज के मुताबिक अजमल कसाब की सुरक्षा पर अब तक करीब 40 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। अभी उसे जब तक फांसी पर नहीं लटकाया जाता, तब तक उस पर लाखों खर्च होने हैं। अजमल कसाब को जिस तरह से सुरक्षा दी गई है, उसकी खूब आलोचना भी हो रही है। अलबत्ता जिस तरह से न्याय प्रक्रिया चल रही है, उसे भारत के मानव अधिकार और न्याय प्रणाली का श्रेष्ठतम उदाहरण बताया जा रहा है। विश्व में इसकी प्रशंसा भी हो रही है। मुम्बई हमले का यह चौथा वर्ष चल रहा है। यह समय कम नहीं है। फिर भी कहना पड़ेगा कि आतंकवाद के दूसरे अन्य मामलों की अपेक्षा यह मामला जल्दी चला है। वैसे ऐसे मामलों पर फैसला इससे भी जल्दी आ जाना चाहिए। ऐसा लोग मानते हैं। हमारे पास विदेशों का उदाहरण है, जिसमें ऐसे गंभीर मामलों पर बहुत ही जल्द निर्णय ले लिया जाता है। हाल ही में नार्वे की घटना को याद किया जाए, तो स्पष्ट होगा कि 22 जुलाई 2011 को ओस्लो में एंडर्स बेररिंग ब्रेइविक ने धुंआधार गोलीबारी और बम विस्फोट कर 77 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। अभी 24 अगस्त को ही अदालत ने उसे 21 वर्ष की सजा सुनाई है। यह मामला 13 महीने में ही निपटा दिया गया।
विकल्पों के द्वार खुले हैं..
अभी तो कसाब के सामने कई विकल्प हैं। वह राष्ट्रपति के सामने गुहार लगा सकता है। देखना यह है कि आखिर कसाब को फांसी पर कब लटकाया जाता है? 13 दिसम्बर 2001 में संसद में हुए हमले का मुख्य आरोपी अफजल गुरु अभी तक जिंदा है। उसे फांसी की सजा सुना दी गई है, पर वोट की राजनीति हावी होने के कारण वह अभी तक फांसी पर नहीं लटक पाया है। इस बात को 11 साल हो रहे हैं, फिर भी अफजल पर अभी तक कोई ठोस निर्णय नहीं लिया गया है। यह साफ हो गया है कि अजमल कसाब पाकिस्तानी है। अभी तक पाकिस्तान यही कह रहा है कि मुम्बई में हुए आतंकवादी हमले से उसका कोई लेना-देना नहीं है। बाद में यह भी स्पष्ट हो गया कि पूरी घटना पाकिस्तान से ही आपरेट की गई थी। आतंकवादी हमले के समय पाकिस्तान से सूचना मिल रही थी। पाकिस्तानी सेना और जासूसी संस्था आईएसआई ने इस पूरी वारदात को अंजाम दिया गया था। मजे की बात यह है कि अब स्वयं पाकिस्तान ही कह रहा है कि कसाब को फांसी दे देनी चाहिए। 10 नवम्बर 2011 को ही पाकिस्तान के गृह मंत्री रहमान मलिक ने घोषणा की थी कि अजमल कसाब आतंकवादी है और उसे फांसी होनी चाहिए।
अदालत ने मुम्बई हमले को देश पर हमला निरुपित किया गया है। अब देश के एक-एक नागरिक को इसी बात का इंतजार है कि कसाब को कब फांसी दी जाती है। 2004 में पश्चिम बंगाल में धनंजय चटर्जी को बलात्कार और हत्या के मामले पर फांसी की सजा दी गई थी। उसके बाद कई अपराधियों को फांसी की सजा दी गई है। पर उन सभी मामलों को ताक पर रख दिया गया है। राजीव गांधी के तीन हत्यारों मुरुगन, सांथन और पेरारिवलन को फिल्मी घटना की तरह फांसी की तारीख तय होने के बाद भी सजा रोक दी गई। पता नहीं अजमल कसाब आखिर कब तक मुफ्त की रोटियां तोड़ता रहेगा। लोगों को सब्र रखना ही होगा, क्योंकि कसाब लम्बी उम्र लेकर इस दुनिया में आया है। अभी उसके पास तीन विकल्प हैं। यदि वह राष्ट्रपति के सामने दया याचिका करे, तो भी उसका क्रम 18 होगा। जिस व्यक्ति को सभी ने अंधाधुंध गोली चलाते हुए देखा, जिसने पुलिस के अधिकारियों को मार डाला, उस पर चार साल से मुकदमा चल रहा है। अभी तक उसे फाँसी नहीं हुई। उस पर 40 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं, वह अलग। अभी जब तक वह जिंदा है, खर्च जारी रहेगा। उसे बचा रही है, हमारी न्याय प्रणाली। जो इतनी अधिक लम्बी-चौड़ी और पेचीदा है कि साधारण इंसान को तो तुरंत सजा मिल जाती है, पर कुख्यात को सजा देने में सरकार के सारे कानून सामने आ जाते हैं। राष्ट्रपति के पास अभी भी सजायाफ्ताओं के 17 आवेदन हैं, अभी उन पर विचार नहीं हो पाया है। जब तक अफजल गुरु की याचिका पर निर्णय नहीं हो जाता, तब तक कसाब पर भी निर्णय नहीं हो पाएगा। अफजल गुरु पिछले 11 साल से जीवित है ही। बसाब की लम्बी उम्र होने का कारण यह भी है कि अभी हमारे यहां जल्लाद हैं ही नहीं। 2004 में जिस धनंजय चटर्जी को जिस जल्लाद ने फांसी पर चढ़ाया था, उसकी मौत हो चुकी है। जब सरकार ने यह विचार किया कि अब किसी को फांसी नहीं दी जाएगी, तो जल्लादों को प्रशिक्षण देने का काम भी सुस्त हो गया। जल्लाद न होने के कारण ही पंजाब का आतंकवादी वलवंत सिंह तारीख तय होने के बाद भी बच गया। सोचो, कसाब की फाँसी की तारीख तय होने के बाद भी क्या वह जल्लाद की कमी के कारण बच नहीं सकता?
दो जल्लाद सामने आए
दूसरी ओर यह खबर भी आई है कि कसाब को फांसी देने के लिए दो जल्लाद सामने आए हैं। इसमें से एक ने इंदिरा गांधी के हत्यारों को फांसी पर चढ़ाया है। अभी वह जीवन के 70 वें पड़ाव पर है। वह स्वयं ही टीबी का मरीज है, उसकी मौत भी करीब ही है। फिर भी उसने हिम्मत दिखाई, इसके लिए उसकी सराहना की जानी चाहिए। दूसरा जल्लाद है कोलकाता का महादेव मलिक। वह नगर निगम में सफाई कर्मचारी है। पर उसने अभी तक न ही इसका प्रशिक्षण लिया है और न ही उसके किसी को फांसी पर चढ़ाया है। तो क्या कसाब को फांसी नहीं दी जाएगी? कानून कहता है कि ऐसी परिस्थितियों में सीनियर इंस्पेक्टर अथवा उससे ऊंचे पद पर आसीन पुलिस अधिकारी प्रशिक्षण के बाद फांसी दे सकता है। प्रशिक्षण प्राप्त करने में 6 महीने लगते हैं। इसका आशय यही हुआ कि यदि कसाब दया याचिका पेश करता है, तो उसमें जो देर होगी, उसके अलावा 6 महीने और लग जाएंगे। ये स्थिति उसकी सांसों को लम्बा कर सकती है। एक बात और पूरे विश्व में अभी फांसी की सजा न देने के प्रावधान पर बहस चल रही है। 2006 में राष्ट्रसंघ में लिथुआनिया ने मौत की सजा के प्रावधान को विश्व से रद्द करने का प्रस्ताव रखा था, जिस पर कुल 11 देशों ने हस्ताक्षर किए थे, हस्ताक्षर करने वालों में भारत भी एक था। केवल इस बात को लेकर विश्व की मानवाधिकार संस्थाएं सक्रिय हो जाती हैं, तो मानों कसाब को जीवनदान मिल जाएगा। कसाब इस देश का सबसे महंगा कैदी है। उसके नाम पर पकिस्तान में 6 संस्थाएं हैं। कसाब को संरक्षण देने वाली 125 वेबसाइट्स हैं। एक मक्कार आतंकवादी को आखिर हम कब तक सेलिब्रिटी बनाएंगे? ये सवाल जीतने तीखें हैं, उसका जवाब उतना ही मुश्किल है।

डॉ. महेश परिमल