सुनील मिश्र
जनसत्ता 6 नवंबर, 2012: पता नहीं ऐसा क्या है कि खंडवा इलाके में आते-आते मन भारी होने लगता है। हालांकि साल में कम से कम एक बार यहां आना ही होता है। हर वर्ष तेरह अक्तूबर को किशोर कुमार की पुण्यतिथि के दिन मध्यप्रदेश सरकार यहां किशोर कुमार सम्मान का अलंकरण समारोह आयोजित करती है, जिसमें निर्देशक, अभिनेता, पटकथाकार और गीतकार सम्मानित होते हैं। सिनेमा पर लिखने-पढ़ने का रुझान है और मेरे कम ही दोस्त यह जानते-मानते हैं कि इस पुरस्कार की परिकल्पना मेरी ही थी जो पंद्रह साल पहले साकार हुई थी। जाहिर है, इससे जुड़ कर किशोर कुमार खंडवे वाले के स्वर-व्यक्तित्व प्रभाव और ऊष्मा से कहीं न कहीं अपने भीतर एक ऊर्जा महसूस करता हूं।
1995-96 की बात रही होगी, जब मैं खंडवा आया था। तब खबर छपती थी कि समाधि खस्ताहाल है, उसके पत्थर तक लोग उखाड़ कर ले गए हैं। किशोर कुमार के बालसखा रमणीक भाई मेहता और फतेह मुहम्मद रंगरेज ने महान गायक का पुश्तैनी घर ऊपर-नीचे, एक-एक कमरा दिखाया था। अब रमणीक भाई अत्यंत वृद्ध हो चुके हैं और फतेह मुहम्मद दुनिया में नहीं हैं। किशोर कुमार ताजिंदगी इन स्वाभिमानी और निस्वार्थ मित्रों की कद्र करते रहे। आज समाधि तो बहुत संवर गई है, लेकिन पुश्तैनी घर की वे निशानियां भी नहीं दिखतीं जो तब थीं। मसलन, किशोर कुमार के पिता कुंजीलाल गांगुली और माता गौरा देवी की मढ़ी तस्वीर, वह पलंग जिस पर किशोर दा का जन्म हुआ, बरसों की बंद पड़ी घड़ी, 1986 के अप्रैल माह को दर्शाता कैलेंडर, पूजा की जगह, क्लिक थर्ड कैमरे से खींचे गए छोटे-छोटे फोटो, जिनमें गांगुली परिवार की छवि कैद थी, ईपी रेकॉर्ड आदि। यह घर अब आसपास तमाम दुकानों से घिर गया है।
पहले किशोर कुमार सम्मान समारोह भोपाल में आयोजित होता था। पर बाद में शहर के भावनात्मक आग्रह पर यह खंडवा में किया जाने लगा। जिन्हें सम्मान प्रदान किया जाता है, उनके साथ इंदौर से खंडवा सड़क मार्ग से आना और इंदौर तक लौटना अविस्मरणीय होता है। ऐसे मौके मुझे मिले और जावेद अख्तर, श्याम बेनेगल, यश चोपड़ा और इस बार सलीम खान साहब के साथ ये यात्राएं हुर्इं। इस बार पटकथा लेखन के लिए सलीम खान को राष्ट्रीय किशोर कुमार सम्मान प्रदान किया गया था। सलीम खान सत्तर के दशक में व्यावसायिक सिनेमा में लोकप्रियता के संवेदनशील तत्त्वों के साथ-साथ तब के समय और समाज की चुनौतियों के साथ युवा तेवर को सर्वाधिक गहराई से समझने वाले पटकथा और संवाद लेखक
रहे हैं। जावेद अख्तर के साथ मिल कर उन्होंने ‘हाथी मेरे साथी’, ‘सीता और गीता’, ‘अंदाज’, ‘जंजीर’, ‘दीवार’, ‘त्रिशूल’ ‘दोस्ताना’, ‘काला पत्थर’ और ‘शोले’ जैसी कई सफल फिल्में लिखीं। बाद में जावेद अख्तर से अलग होने के बाद भी वे फिल्में लिखते रहे। इस समय उनके बेटे सलमान खान हिंदी सिनेमा के सर्वाधिक लोकप्रिय सितारे हैं।
सलीम खान ने खंडवा में दाखिल होने से पहले ही यह इच्छा व्यक्त की कि वे किशोर कुमार की समाधि पर श्रद्धांजलि अर्पित करने जाएंगे। समाधि-स्थल पर सुबह से संगीत चल रहा था। स्थानीय कलाकार किशोर कुमार के गाने गा रहे थे। समाधि फूलों से सजी थी। दीया जल रहा था। कुछ दोने रखे थे, जिनमें दूध-जलेबी दिखाई दे रही थी। किशोर दा को दूध-जलेबी बहुत पसंद थी। खंडवा में उनके मकान के पीछे लाला की दूध-जलेबी की दुकान आज भी मौजूद है। लाला तो अब रहे नहीं, उनके बेटे दुकान चला रहे हैं। दुकान में किशोर कुमार की बड़ी फोटो लगी हुई है। अपने जीवन के आखिरी दिनों में किशोर कुमार कहते थे- ‘दूध-जलेबी खाएंगे, खंडवा में बस जाएंगे।’ लेकिन उनका यह सपना अधूरा ही रहा। लाला की दुकान से दूध-जलेबी खाने वाला संवाद किशोर दा ने फिल्म ‘हाफ-टिकट’ में भी बोला था।
बहरहाल, सलीम साहब से काफी बातें हुर्इं। इधर सलमान की फिल्मों की पटकथा को एक तरह से परिष्कृत करने और परामर्श देने का काम भी करते हैं। उनका बहुत सारा समय पढ़ने में व्यतीत होता है। वे बहुत सामाजिक हैं, हर एक के सुख-दुख में उनकी उपस्थिति और उदारता बहुत मायने रखती है। जो भीतर हैं, वही व्यक्त भी करते हैं। दोपहर में घर आने वाला बिना खाना खाए लौट जाए, यह संभव नहीं। किशोर कुमार पुरस्कार के संदर्भ में उनका कहना था कि मेरे लिए यह बहुत मायने रखता है, क्योंकि जिनके नाम पर यह पुरस्कार है उस परिवार से मैं बहुत गहरे जुड़ा रहा हूं। दादा मुनि ने ‘दो भाई’ फिल्म के लिए मेरी पहली कहानी खरीदी थी और जमने के लिए मुझे जमीन दी थी।
अपने जीवन में मिले ‘फिल्म फेयर’ सहित तमाम पुरस्कारों को सिनेमा में नई पीढ़ी के अच्छे कामों से खुश होकर बांट देने वाले सलीम खान ने यह भी कहा कि इंदौर मेरा शहर है, जहां मैं पैदा हुआ, बचपन गुजारा। आज भी मेरे बड़े भाई और परिवार वहां हैं। खंडवा दादामुनि और किशोर कुमार का शहर। दरअसल, यह पट्टी भावुक और संवेदनशील लोगों की है, जिनका दिल नापने के लिए शायद इतना बड़ा फीता नहीं बना है!
जनसत्ता 6 नवंबर, 2012: पता नहीं ऐसा क्या है कि खंडवा इलाके में आते-आते मन भारी होने लगता है। हालांकि साल में कम से कम एक बार यहां आना ही होता है। हर वर्ष तेरह अक्तूबर को किशोर कुमार की पुण्यतिथि के दिन मध्यप्रदेश सरकार यहां किशोर कुमार सम्मान का अलंकरण समारोह आयोजित करती है, जिसमें निर्देशक, अभिनेता, पटकथाकार और गीतकार सम्मानित होते हैं। सिनेमा पर लिखने-पढ़ने का रुझान है और मेरे कम ही दोस्त यह जानते-मानते हैं कि इस पुरस्कार की परिकल्पना मेरी ही थी जो पंद्रह साल पहले साकार हुई थी। जाहिर है, इससे जुड़ कर किशोर कुमार खंडवे वाले के स्वर-व्यक्तित्व प्रभाव और ऊष्मा से कहीं न कहीं अपने भीतर एक ऊर्जा महसूस करता हूं।
1995-96 की बात रही होगी, जब मैं खंडवा आया था। तब खबर छपती थी कि समाधि खस्ताहाल है, उसके पत्थर तक लोग उखाड़ कर ले गए हैं। किशोर कुमार के बालसखा रमणीक भाई मेहता और फतेह मुहम्मद रंगरेज ने महान गायक का पुश्तैनी घर ऊपर-नीचे, एक-एक कमरा दिखाया था। अब रमणीक भाई अत्यंत वृद्ध हो चुके हैं और फतेह मुहम्मद दुनिया में नहीं हैं। किशोर कुमार ताजिंदगी इन स्वाभिमानी और निस्वार्थ मित्रों की कद्र करते रहे। आज समाधि तो बहुत संवर गई है, लेकिन पुश्तैनी घर की वे निशानियां भी नहीं दिखतीं जो तब थीं। मसलन, किशोर कुमार के पिता कुंजीलाल गांगुली और माता गौरा देवी की मढ़ी तस्वीर, वह पलंग जिस पर किशोर दा का जन्म हुआ, बरसों की बंद पड़ी घड़ी, 1986 के अप्रैल माह को दर्शाता कैलेंडर, पूजा की जगह, क्लिक थर्ड कैमरे से खींचे गए छोटे-छोटे फोटो, जिनमें गांगुली परिवार की छवि कैद थी, ईपी रेकॉर्ड आदि। यह घर अब आसपास तमाम दुकानों से घिर गया है।
पहले किशोर कुमार सम्मान समारोह भोपाल में आयोजित होता था। पर बाद में शहर के भावनात्मक आग्रह पर यह खंडवा में किया जाने लगा। जिन्हें सम्मान प्रदान किया जाता है, उनके साथ इंदौर से खंडवा सड़क मार्ग से आना और इंदौर तक लौटना अविस्मरणीय होता है। ऐसे मौके मुझे मिले और जावेद अख्तर, श्याम बेनेगल, यश चोपड़ा और इस बार सलीम खान साहब के साथ ये यात्राएं हुर्इं। इस बार पटकथा लेखन के लिए सलीम खान को राष्ट्रीय किशोर कुमार सम्मान प्रदान किया गया था। सलीम खान सत्तर के दशक में व्यावसायिक सिनेमा में लोकप्रियता के संवेदनशील तत्त्वों के साथ-साथ तब के समय और समाज की चुनौतियों के साथ युवा तेवर को सर्वाधिक गहराई से समझने वाले पटकथा और संवाद लेखक
रहे हैं। जावेद अख्तर के साथ मिल कर उन्होंने ‘हाथी मेरे साथी’, ‘सीता और गीता’, ‘अंदाज’, ‘जंजीर’, ‘दीवार’, ‘त्रिशूल’ ‘दोस्ताना’, ‘काला पत्थर’ और ‘शोले’ जैसी कई सफल फिल्में लिखीं। बाद में जावेद अख्तर से अलग होने के बाद भी वे फिल्में लिखते रहे। इस समय उनके बेटे सलमान खान हिंदी सिनेमा के सर्वाधिक लोकप्रिय सितारे हैं।
सलीम खान ने खंडवा में दाखिल होने से पहले ही यह इच्छा व्यक्त की कि वे किशोर कुमार की समाधि पर श्रद्धांजलि अर्पित करने जाएंगे। समाधि-स्थल पर सुबह से संगीत चल रहा था। स्थानीय कलाकार किशोर कुमार के गाने गा रहे थे। समाधि फूलों से सजी थी। दीया जल रहा था। कुछ दोने रखे थे, जिनमें दूध-जलेबी दिखाई दे रही थी। किशोर दा को दूध-जलेबी बहुत पसंद थी। खंडवा में उनके मकान के पीछे लाला की दूध-जलेबी की दुकान आज भी मौजूद है। लाला तो अब रहे नहीं, उनके बेटे दुकान चला रहे हैं। दुकान में किशोर कुमार की बड़ी फोटो लगी हुई है। अपने जीवन के आखिरी दिनों में किशोर कुमार कहते थे- ‘दूध-जलेबी खाएंगे, खंडवा में बस जाएंगे।’ लेकिन उनका यह सपना अधूरा ही रहा। लाला की दुकान से दूध-जलेबी खाने वाला संवाद किशोर दा ने फिल्म ‘हाफ-टिकट’ में भी बोला था।
बहरहाल, सलीम साहब से काफी बातें हुर्इं। इधर सलमान की फिल्मों की पटकथा को एक तरह से परिष्कृत करने और परामर्श देने का काम भी करते हैं। उनका बहुत सारा समय पढ़ने में व्यतीत होता है। वे बहुत सामाजिक हैं, हर एक के सुख-दुख में उनकी उपस्थिति और उदारता बहुत मायने रखती है। जो भीतर हैं, वही व्यक्त भी करते हैं। दोपहर में घर आने वाला बिना खाना खाए लौट जाए, यह संभव नहीं। किशोर कुमार पुरस्कार के संदर्भ में उनका कहना था कि मेरे लिए यह बहुत मायने रखता है, क्योंकि जिनके नाम पर यह पुरस्कार है उस परिवार से मैं बहुत गहरे जुड़ा रहा हूं। दादा मुनि ने ‘दो भाई’ फिल्म के लिए मेरी पहली कहानी खरीदी थी और जमने के लिए मुझे जमीन दी थी।
अपने जीवन में मिले ‘फिल्म फेयर’ सहित तमाम पुरस्कारों को सिनेमा में नई पीढ़ी के अच्छे कामों से खुश होकर बांट देने वाले सलीम खान ने यह भी कहा कि इंदौर मेरा शहर है, जहां मैं पैदा हुआ, बचपन गुजारा। आज भी मेरे बड़े भाई और परिवार वहां हैं। खंडवा दादामुनि और किशोर कुमार का शहर। दरअसल, यह पट्टी भावुक और संवेदनशील लोगों की है, जिनका दिल नापने के लिए शायद इतना बड़ा फीता नहीं बना है!
सुनील मिश्र
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