गुरुवार, 9 मई 2013

ना डरना लाडो इस देस में !

अक्षय तृतीया भारतीय समाज और संस्कृति का एक पावनपर्व है, लेकिन इसकी आड़ में नादान बच्चों के ब्याह का जो खेल खेला जाता है, उसे समझने और सुधारने की दरकार हम सभी को है
मनोज कुमार / मेरे घर की दो नन्हीं परी स्कूल में गर्मी की छुट्टी लगने के बाद से बहुत ज्यादा व्यस्त हो गई हैं. आने वाली 13 तारीख को अक्षय तृतीया है और इन दोनों को अपनी बेटियों के ब्याह की चिंता लगी हुई. उनके कपड़े कैसे सिये जाएंगे, गहने कौन से पहनाया जाये, खाने में क्या बनेगा और मेहमानों में किस किस को बुलाया जाय आदि-आदि की चिंता में दुबली होती जा रही हैं. इन दोनों की चिंता देखकर बचपन की यादें ताजा हो जाती हैं. अम्मां और अम्मां के बाद बड़ी भाभी पूरे उत्साह के साथ घर पर पूजन की व्यवस्था करतीं. मिट्टी से तैयार किये गये गुड्डे और गुडिय़ा का ब्याह किया जाता. इसी में मंगल कामना की जाती कि घर में जवान होती बिटिया का ब्याह अगले बरस इसी मंडप में कर दिया जाये. बड़ा मजा आता था. सत्तू खाने को मिलता और शायद थोड़ा-बहुत नजराना भी.  आज अपनी परियों को चिंता में रहकर तैयारी करते देख मन खुश हो रहा है. कुछ चिंता भी है तो इस दिन की उस रूढि़वादी परम्परा का जो हमें हर बरस शर्मसार करती हैं.
अक्षय तृतीया का यह पर्व शहरी इलाकों के लिये तो शायद एक पर्व होता है किन्तु देहाती इलाकों में बसे मासूमों के लिये किसी दुर्भायजनक दिन. अनजाने में, अनजाने रिश्तों से गांठ बांधने की रस्म इस विश्वास के साथ की जाती है कि इससे रिश्ते मजबूत होते हैं. जिनका देह कच्चा हो और मन समझने लायक भी न हो, उस रिश्ते के पक्केपन की बात एक दिमागी बीमारी ही हो सकती है. भारतीय समाज कई जगहों पर पिछड़ा है तो अनेक स्थानों पर समाज सुधारकों ने गलतियों को सुधारने के लिये पूरा इंतजाम कर रखा है. शारदा एक्ट इसी का उदाहरण मात्र है. यह ठीक है कि कानून का पालन हमें ही कराना है लेकिन मुश्किल तब खड़ी हो जाती है जब कानून पालन करने वाले ही इस पाप के भागीदार बनने के लिये आगे आ जाते हैं. पहले का अनुभव रहा है कि वोटपकाऊ नेता बालविवाह में शरीर होते रहे हैं और शायद इस बार भी वे मोह न छोड़ पायें.
अक्षय तृतीया भारतीय समाज और संस्कृति का एक पावनपर्व है और इसकी मीमांसा अलग से समझी जा सकती है लेकिन इसकी आड़ में नादान बच्चों के ब्याह का जो खेल खेला जाता है, उसे समझने और सुधारने की दरकार हम सभी को है. बीते समय में भारतीय समाज जिस दंश से गुजर रहा है, वह पीड़ादायक है. प्रति दिन अनाचार की दिल दहला देने वाली खबरें आ रही हैं. सभी सहम गये हैं. डर सता रहा है. लगता है कि जाने अब क्या घट जाये. डर लगना अस्वाभाविक नहीं है लेकिन डर अकेला इस बीमारी का इलाज नहीं है. जरूरत इस बात की है कि हम बच्चों, खासकर बेटियों को जितना ज्यादा शिक्षित करेंगे, उनके भीतर आत्मविश्वास भरेंगे, उतनी ही तेजी से हम अनाचारियों से निपट सकेंंगे. ना आना लाडो इस देस में लिखने, बोलने और बताने के बजाय ना डरना लाडो इस देस में प्रचारित करेंगे तभी हमारा कल महफूज रह पायेगा. नकरात्मक विचार हमेशा डर को बढ़ाता है और डरना हम भारतीयों को नहीं आता है. रानी लक्ष्मीबाई इस बात का हमारे सामने उदाहरण है कि कैसे वो अपने दुश्मनों से अकेले निपट सकती है. जिस देश में लक्ष्मीबाई की विरदावली गायी जाती हो, उस देश में लाडो को आने से कौन रोक सकता है..?
बस, इस बार अक्षय तृतीया पर किसी लाडो को न भेजना पराया घर रे..

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