1
सीमा
मेरे जीवन के
प्रत्येक कोण का
केन्द्र बिन्दु
तुम्हारे अस्तित्व का हिस्सा
बन गया है
कितना सिमट गया है
मेरी सोच का दायरा !
2
रीतते हुए
मेरे दोनों हाथों की
मुट्ठियाँ बन्द थीं
एक में थे अनगिनत
रंगीन सपने
और दूसरे में
आशा और विश्वास के संगम का
निर्मल पानी
जिन्हें सहजे-सहेजे
पग-पग धरती
धीमे-धीमे चलती रही थी मैं…
लेकिन अचानक उठा था
न जाने कैसा तूफ़ान कि अनायास ही
खुल गई थीं मेरी मुट्ठियाँ
और बिखर गया था
एक-एक सपना
रीत गया था उँगलियों के पोरों से
आशा और विश्वास का पानी भी…
अब मेरी हथेलियों में चुभती है
उदासी, निराशा और अविश्वास की रेत
तुम्हीं कहो दोस्त –
कब तक सहनी होगी मुझे यह चुभन…?
3
सुखद सपना
बिल्लौरी काँच की
खनखनाहट-सी
तुम्हारी हँसी, जब
मेरी पलकों पर
अँगड़ाई लेने लगती है, तब
अपनेपन की मादक गंध
हमारे बीच
आकर ठहर जाती है !
इस गंध को
अपनी-अपनी साँसों में
सहेजते हुए हम
करने लगते हैं
सुखद भविष्य की कल्पना
और हमारी आँखों में
खिल उठती है
गुलाब की छोटी-सी बगिया !
4
आस्था
तुम्हें छूकर
लौटी हर नज़र
मेरी ज़िन्दगी की राह में
मील का पत्थर हो गई।
5
बदलते मौसम के साथ
वो उम्र थी
कच्ची धूप-सी
गुनगुनी, सौंधी –
जब हमन
इच्छाओं के रोएँदार
नरम ऊन को
बुनना शुरू किया था
बुना था…
और आज यथार्थ ने
हमें मज़बूर कर दिया है
अपने बुने को, अपने ही हाथों
एक-एक फंदा कर उधेड़ने को…!
दोस्त –
उम्र की धूप, जब
अकेलेपन की खोह में
उतरने लगती है
तब क्या
ऐसा ही होता है…?
6
बेमानी जीवन
न धूप खिलती है
न बदरी छाती है
जब से तुम गए हो
यहाँ कुछ भी तो नहीं होता-
जहाँ कुछ भी न घटता हो
वहाँ जीवन का
घटते चले जाना
कितना बेमानी होता है…!
7
वर्जित बोल
तुम्हारी अबोली आँखों ने भी
सीख लिया है –
अनवरत बोलना/बतियाना
तब ऐसे में
कुछ भी कहना व्यर्थ है…!
बेहतर होगा –
बिछा दी जाएँ चुप्पी की सुरंगें
क्या जानते नहीं तुम दोस्त
कि प्रेम की दुनिया में
बोल वर्जित होते हैं…!
8
मान-अभिमान
स्वाति बूँद-सी मैं
तुम्हारी सीपी-सी आँखों में
खुद को
मोती होते देख
अभिमान से भर उठती हूँ
पर जब
तुम स्वयं ही
इस शुभ्र मोती को
आँसू-सा ढुलका देते हो
तब ऐसे में
मेरे मान करने का प्रश्न ही
कहाँ शेष रह जाता है!
9
उम्र का दौर
इक उम्र
वो भी आएगी, जब
चढ़ी धूप
मुंडेर से उतर
आँगन के किसी कोने में
सिमटती/खिसकती चली जाएगी
बदलने लगेंगे शब्दों के
चीज़ों के अर्थ
बदलती जाएगी हर परिभाषा
और होने लगेगा यकीं, कि
आसमाँ छू लेना
सचमुच असंभव है…!
10
उदास रात
रात उदास है
बेहद उदास
ज़िन्दगी क्या है
महज
कब्र की-सी खामोशी…
तुम्हीं कहो दोस्त
आज की रात
दर्द को
कविता में ढालूँ
या फिर
कविता को
दर्द बन जाने दूँ…?
उमा अर्पिता
जन्म : 14 जून 1956
शिक्षा : एम ए (राजनीति शास्त्र एवं हिन्दी)
लेखन : गत 35 वर्षों से देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, लघुकथाएँ, व्यंग्य व लेख आदि प्रकाशित। आकाशवाणी, नई दिल्ली के कविताओं व वार्ताओं का प्रसारण्।
प्रकाशित कृतियाँ : दो कविता संग्रह ‘धूप के गुनगुने अहसास’ (1986) और ‘कुछ सच, कुछ सपने’(2011) इसके अतिरिक्त ‘चतुरंगिनी’ काव्य संग्रह में चार कवयित्रियों में से एक। हिंदी की चर्चित कवयित्रियाँ- काव्य संग्रह में कविताएँ संकलित। कई लघुकथा संग्रहों में लघुकथाएँ संकलित।
मूल लेखन के अतिरिक्त लगभग 25 पुस्तकों का अंग्रेज़ी, उर्दू और पंजाबी से हिंदी में अनुवाद।
संप्रति : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नई दिल्ली में हिंदी संपादक व हिंदी अधिकारी के पद पर कार्यरत।
संपर्क : 113-ए, पॉकेट-6, एम आई जी डी डी ए फ़्लैट्स, मयूर विहार, फ़ेज-3, दिल्ली-110096
ई मेल : uma_62@hotmail.com
इन कविताओं में आपका चिन्तन,दर्शन और शब्दों को उनकी जगह पर संजोने की कला मिली ..!
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