''खा के गुजिया, पीके भंग/ लगा के थोड़ा सा रंग/ बजा के ढोलक और मृदंग/ खेलें होली हम सब संग.''
फागुन महीने के आते ही कानों में 'होली हैऽऽ' की गूंज, मृदंग की आहट और ढोलकों की धाप सुनाई देने लगती है. सभी होली पूर्णिमा का बेसब्री से इंतजार करने लगते हैं. होली चांदनी के शुभ्र वातावरण में रंगों से श्रृंगार करती है.
होली एक स्वास्थ्यवर्धक त्यौहार है, इससे हमारे तन-मन पर सकारात्मक प्रभाव पड.ता है. हमारे पूर्वजों ने रंग, संगीत और नृत्य के सामंजस्य के साथ इस त्यौहार को स्वास्थ्यवर्धक बनाया. फरवरी-मार्च (पूस और माघ) के महीने में मनुष्य आलसी और ऊर्जाविहीन महसूस करता है. यह समय ठंड और गर्मी के समन्वय का है. ठंड धीरे-धीरे जाने लगती है और गर्मी के मौसम का आगमन होता है. इस समय उत्साह और ऊर्जा को पुन: संगठित करने के लिए जोरदार संगीत व नृत्य की आवश्यकता होती है. फागुन में फगवा लोकनृत्य किया जाता है. इसमें लय, गति, भाव-भंगिमा, मुद्राओं तथा विभिन्न रंगों का विशेष ध्यान रखा जाता है. सभी स्त्री-पुरुष विशेष रंगों के परिधान पहनते हैं.
एक्युप्रेशर : यह नृत्य नंगे पैरों से किया जाता है. इसे करते समय ढोल की थाप पर पैरों को थिरकाया जाता है. इससे तलवे में एक्युप्रेशर के कारण हममें एक ऊर्जा का संचार होता है, भाव-भंगिमाओं के कारण मानसिक तनाव कम होता है तथा वात्सल्य, प्रेम व शांति की अनुभूति होती है.
इस समय तेज संगीत, ढोल, मृदंग के कारण तरंगें पैदा होती हैं. उनका सीधा असर हमारी ग्रंथियों पर होता है. उससे अति सूक्ष्म रासायनिक स्राव से शरीर में ऊर्जा और उत्साह का संचार होने लगता है. नृत्य करते समय पैरों की थिरकन, भाव-भंगिमाओं से कई अतिसूक्ष्म रासायनिक द्रव्यों के स्राव होते हैं जिससे हमारे रक्त प्रवाह, श्वसन प्रक्रिया, मांसपेशियों, मस्तिष्क में सकारात्मक असर होता है और हम शारीरिक-मानसिक रूप से तनाव रहित महसूस करते हैं.
विशेष संगीत लहरी का उत्पन्न करने के लिए होली नृत्य में ढोल, जाज, चिमटा, करताल, थाली व घुंघरू का प्रयोग किया जाता है. ऊंचे स्वरों में चौपाई व चंबुला गाई जाती है. रंग अबीर, गुलाल व ताकत के साथ रंगों की बौछार आपस में की जाती है.
होली में शेखावती में चेंग नृत्य किया जाता है. इसमें 10-15 व्यक्ति एक गोला बनाकर जोर-जोर से चांग वाद्य, ढोलक बजाकर उच्च स्वरों में गा-गाकर नाचते हैं. फतेहपुर-सीकर में भी यह लोकनृत्य किया जाता है.
होली में नृत्य व संगीत का इतना महत्व है कि यह लोक नृत्य, लोक संगीत के रूप में समाज में किया जाता है, जिससे एक सकारात्मक ऊर्जा का बहाव हमारे बीच में हो और ज्यादा से ज्यादा व्यक्तियों को इसका लाभ मिले. इस नृत्य में ज्यादा अनुभव व सहयोग की जरूरत नहीं रहती है. यह समय फसलों के पकने का भी है जिससे सभी किसान अपने हर्ष और उल्लास का भी प्रदर्शन करते हैं.
प्रकृति में भी इस समय टेसू (पलाश) व अरंडी के वृक्षों की अधिकता होती है. जंगलों में पलाश के नारंगी व लाल फूलों की अलग ही छटा बिखर जाती है. इन फूलों की लालिमा को देखकर ऐसा प्रतीत होत है मानो जंगल में आग लगी हो. इन फूलों की सुगंध व वातावरण में इनका छिड.काव मक्खी-मच्छरों, विषाणुओं को भगाने में सक्षम होता है.
फागुन महीने के आते ही कानों में 'होली हैऽऽ' की गूंज, मृदंग की आहट और ढोलकों की धाप सुनाई देने लगती है. सभी होली पूर्णिमा का बेसब्री से इंतजार करने लगते हैं. होली चांदनी के शुभ्र वातावरण में रंगों से श्रृंगार करती है.
होली एक स्वास्थ्यवर्धक त्यौहार है, इससे हमारे तन-मन पर सकारात्मक प्रभाव पड.ता है. हमारे पूर्वजों ने रंग, संगीत और नृत्य के सामंजस्य के साथ इस त्यौहार को स्वास्थ्यवर्धक बनाया. फरवरी-मार्च (पूस और माघ) के महीने में मनुष्य आलसी और ऊर्जाविहीन महसूस करता है. यह समय ठंड और गर्मी के समन्वय का है. ठंड धीरे-धीरे जाने लगती है और गर्मी के मौसम का आगमन होता है. इस समय उत्साह और ऊर्जा को पुन: संगठित करने के लिए जोरदार संगीत व नृत्य की आवश्यकता होती है. फागुन में फगवा लोकनृत्य किया जाता है. इसमें लय, गति, भाव-भंगिमा, मुद्राओं तथा विभिन्न रंगों का विशेष ध्यान रखा जाता है. सभी स्त्री-पुरुष विशेष रंगों के परिधान पहनते हैं.
एक्युप्रेशर : यह नृत्य नंगे पैरों से किया जाता है. इसे करते समय ढोल की थाप पर पैरों को थिरकाया जाता है. इससे तलवे में एक्युप्रेशर के कारण हममें एक ऊर्जा का संचार होता है, भाव-भंगिमाओं के कारण मानसिक तनाव कम होता है तथा वात्सल्य, प्रेम व शांति की अनुभूति होती है.
इस समय तेज संगीत, ढोल, मृदंग के कारण तरंगें पैदा होती हैं. उनका सीधा असर हमारी ग्रंथियों पर होता है. उससे अति सूक्ष्म रासायनिक स्राव से शरीर में ऊर्जा और उत्साह का संचार होने लगता है. नृत्य करते समय पैरों की थिरकन, भाव-भंगिमाओं से कई अतिसूक्ष्म रासायनिक द्रव्यों के स्राव होते हैं जिससे हमारे रक्त प्रवाह, श्वसन प्रक्रिया, मांसपेशियों, मस्तिष्क में सकारात्मक असर होता है और हम शारीरिक-मानसिक रूप से तनाव रहित महसूस करते हैं.
विशेष संगीत लहरी का उत्पन्न करने के लिए होली नृत्य में ढोल, जाज, चिमटा, करताल, थाली व घुंघरू का प्रयोग किया जाता है. ऊंचे स्वरों में चौपाई व चंबुला गाई जाती है. रंग अबीर, गुलाल व ताकत के साथ रंगों की बौछार आपस में की जाती है.
होली में शेखावती में चेंग नृत्य किया जाता है. इसमें 10-15 व्यक्ति एक गोला बनाकर जोर-जोर से चांग वाद्य, ढोलक बजाकर उच्च स्वरों में गा-गाकर नाचते हैं. फतेहपुर-सीकर में भी यह लोकनृत्य किया जाता है.
होली में नृत्य व संगीत का इतना महत्व है कि यह लोक नृत्य, लोक संगीत के रूप में समाज में किया जाता है, जिससे एक सकारात्मक ऊर्जा का बहाव हमारे बीच में हो और ज्यादा से ज्यादा व्यक्तियों को इसका लाभ मिले. इस नृत्य में ज्यादा अनुभव व सहयोग की जरूरत नहीं रहती है. यह समय फसलों के पकने का भी है जिससे सभी किसान अपने हर्ष और उल्लास का भी प्रदर्शन करते हैं.
प्रकृति में भी इस समय टेसू (पलाश) व अरंडी के वृक्षों की अधिकता होती है. जंगलों में पलाश के नारंगी व लाल फूलों की अलग ही छटा बिखर जाती है. इन फूलों की लालिमा को देखकर ऐसा प्रतीत होत है मानो जंगल में आग लगी हो. इन फूलों की सुगंध व वातावरण में इनका छिड.काव मक्खी-मच्छरों, विषाणुओं को भगाने में सक्षम होता है.