राजीव दीक्षित
आपमें से अगर कोई वकील मित्र है तो उनको बात जरा जल्दी समझ में आएगी। हमारे देश में न्याय व्यवस्था का जो सबसे बड़ा कानून है, उसका नाम है IPC इंडियन पीनल कोड, एक दूसरा कानून है CPC सिविल प्रोसीजर कोड, एक तीसरा कानून है क्रिमिनल प्रोसीजर कोड (अपराध दंड सहीता), ये 3 कानून है, जो भारतीय न्याय व्यवस्था के आधार बताए गए हैं या जिन्हें आधार माना जाता है आपको मालूम है ये तीनो कानून अंग्रेजो के ज़माने के बने हुए हैं। IPC को बनाने का काम तो खुद मैकाले ने किया था, IPC की ड्राफ्टिंग खुद मेकाले की बने हुई है जिसको इंडियन पीनल कोड यानि भारतीय दंड सहीता कहते है जिसके आधार पर दंड की व्यवस्था होती है,
मेकाले ने अपने पिता को एक पत्र लिखा है उस पत्र में वो कहता है कि मैंने भारत में ऐसे न्याय के कानून का आधार रख दिया है जिसपर भारतवाशियों कभी को न्याय मिलेगा ही नहीं, जिसके आधार पर भारतवाशी न्याय पा ही नहीं सकते। हमेशा इनके ऊपर अन्याय होगा ये अच्छा ही होगा क्योकि गुलाम जिनको बनाया जाता है उनके ऊपर अन्याय ही किया जाता है उनको न्याय नहीं दिया जाता फिर जब राजीव दीक्षित जी और उनके साथियों ने ढूंढ़़ना शुरू किया तो पाया कि जो IPC नाम का कानून भारत में मैकाले ने 1860 में लागु किया यही कानून अंग्रेजो ने आयरलैंड में सबसे पहले लागु किया था आयरलैंड को अंग्रेजो ने गुलाम बनाकर रखा हुआ है हजार साल से। तो आयरलैंड को गुलाम बनाकर रखने के लिए अंग्रेजो ने कानून बनाया Irish Penal Code उसी कानून को भारत में कह दिया Indian Penal Code ।
आप जानते है जब आयरलैंड लिखते हैं तो A से नहीं लिखा जाता, I से लिखा जाता है Ireland तो आयरलैंड का I ले लिया और इंडिया का भी I है तो कानून वैसे का वैसा ही लगा दिया इस देश पर, जो आयरलैंड का कानून था आयरिश पीनल कोड वही इंडियन पीनल कोड है।
जब राजीव दीक्षित जी ने आयरलैंड के पीनल कोड को खरीदकर पढ़ा और इंडियन पीनल कोड को पढ़ा, दोनों को सामने रखा, तो राजीव दीक्षित जी को इतना गुस्सा आया कि इसमें तो कोमा और फुल स्टॉप तक नहीं बदला गया है वो भी वैसे का वैसे ही है। बस इतना ही किया मैकाले ने कि आयरिश पीनल कोड में जहाँ-जहाँ आयरिश है, वहां वहां इंडियन और इंडिया कर दिया बाकी की सब धाराए वैसी की वैसी हैं, सब अनुछेद वैसे के वैसे है तो आयरलैंड को गुलाम बनाकर रखना है, इसलिए आयरिश पीनल कोड बनाया और भारत को गुलाम बनाकर रखना है तो इंडियन पीनल कोड बना दिया।
जिस कानून को गुलाम बनाने के लिए तैयार किया गया हो उस कानून के आधार पर न्याय कैसे मिलेगा बताइए जरा, अन्याय ही होने वाला है सबसे बड़ा अन्याय क्या होता है कि जब IPC के आधार पर जब कोई मुकदमा दर्ज होता है, इस देश में, तो सबसे पहले तो मुकदमा दर्ज होने में ही महीनो महीनो लग जाते है FIR करनी पड़ती है, उसके बाद पुलिस को साबित करना पड़ता है, सबूत जुटाने पड़ते है, अदालत में जाना पड़ता है इस पूरी प्रक्रिया में ही देर लगती है, क्योकि तरीका अंग्रेजो का यही है, फिर अगर वो मुकदमा दाखिल हो जाए तो सुनवाई शुरू होती है सुनवाई के लिए सबूत इकठे किए जाते हैं उन सबूतों के लिए अंग्रेजो के ज़माने का एक कानून है Indian Evidence Act. और वो सबूत जल्दी इकट्ठे हो नहीं पाते हैं, धीरे धीरे समय बढता जाता है और एक मुकदमे को 4 साल 5 साल 10 साल 15 साल 20 साल 25 साल 30 साल 35 साल समय निकल जाता है मुक़दमे को दाखिल करने वाला मर जाता है फिर उसके लड़के-लड़कियाँ उस मुक़दमे को लड़ते है वो जवान होकर बूढ़े हो जाते हैं तब भी मुकदमा चलता ही रहता है चलता ही रहता है उसमे कभी अंतिम फैसला नहीं आ पाता।
हमारे देश का दुर्भाग्य है कि आजादी ने 63 वर्षो में हमारे देश की अदालतों में लगभग साढ़े 3 करोड़ (2009 के आकड़ो के अनुसार) मुक़दमे हैं जो दर्ज किए गए हैं अलग अलग प्रार्थियो के द्वारा लेकिन उनमे कोई फैसला नहीं आ पा रहा है, साढ़े 3 करोड़ मुक़दमे लम्भित पड़े हुए हैं पेंडिंग हैं। हमारे देश के न्याय व्यवस्था के अधिकारियो से जब पूछा जाता है कि इन साढ़े 3 करोड़ मुकदमो का फैसला कब आएगा तो वो मजाक करते हुए कहते हैं कि 300 -400 साल में फैसला आ जाएगा तो जब कोई उनसे पूछते हैं कि वो कैसे ? तो वो कहते हैं कि जिस गति से कानून व्यवस्था चल रही है इस गति से तो इन सभी मुकदमो का फैसला आने में 300- 400 साल तो लग ही जाएगे तो ना वादी (मुकदमा दर्ज करने वाला) जिन्दा रहेगा ना प्रतिवादी (जिसके खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया है) जिन्दा रहेगा, न्याय व्यवस्था को इससे कुछ लेना देना नहीं है कि वादी जिन्दा है या प्रतिवादी जिन्दा है उनको को लेना देना है अंग्रेजो के बनाए गए कानून के आधार पर फैसला देने से।
अब राजीव दीक्षित जी बहुत गहरी बात आपके बीच रखते हैं और सारे राष्ट्र का ध्यान इस और आकर्षित करते हुए कहते हैं कि “कोई न्यायधीश अंग्रेजो के बनाए गए कानून के आधर पर अगर फैसला दे रहा हैं तो वो न्याय कैसे कर सकता है ये पूछिए? अपने दिल से पूछिए उस न्यायधीश से पूछिए ”
न्यायाधीशो से जब जब राजीव दीक्षित जी ने ये पूछा है कि “क्या आप न्याय देते हैं” तो वो कहते हैं कि ईमानदारी से हम न्याय नहीं दे पाते, हम को मुकदमो का फैसला करते हैं। फैसला देना अलग बात है न्याय देना बिलकुल अलग बात है।
अब आपको एक उदहारण से समझाते हैं फैसला क्या होता है और न्याय क्या होता है। मान लीजिए आपने एक गाय को एक डंडे से पिटा तो कानून के हिसाब से आपको जेल हो जाएगी, गाय को डंडे से पीटना भारत में अपराध है जुर्म है इसके लिए जेल हो जाती है लेकिन अगर उसी गाय को आपने गर्दन से काट दिया और उसके मास की बोटी-बोटी आपने बेच दी बाजार में, आपको कुछ नहीं होगा क्योकि कानून से वो न्याय सम्मत है अब गाय को डंडे से मारो तो जेल हो जाती है लेकिन गाय को गर्दन से काटकर उसकी बोटी-बोटी बेचो तो भारत सरकार करोड़ो रूपए की सब्सिडी देती है आपको।
मै अगर गोशाला खोलना चाहूं तो इस देश की कानून व्यवस्था के अनुसार मुझे बैंक से कर्ज नहीं मिल सकता, लेकिन गाय को कत्ल करने के लिए कत्लखाना बनाना हो तो उसके लिए बैंक करोड़ो रूपए कर्ज देने को तैयार है मुझे। आप सोचिए मैं गौशाला बनाकर गाय का दूध बेचना चाहता हूँ, बैंक के पास जाता हूँ कि मुझे कर्ज दे दो। बैंक कहता है कि हमारी योजना में गाय को कर्ज देने की व्यवस्था नहीं है लेकिन उसी बैंक के पास मै जाता हूँ कि मुझे कत्लखाना खोलना है और मुझे कर्ज दे दो तो बैंक ख़ुशी से कर्ज देता है उस कर्जे पर ब्याज सबसे कम लिया जाता है और करोड़ों रूपए का कर्ज तो मुफ्त में दिया जाता है सब्सिडी के रूप में। आप बताओ कि अगर हम गाय का मास बेचने के लिए कतलखाना खोलू तो हमारे लिए कर्ज है सब्सिडी है गौशाला खोले गाय के पालन करने के लिए तो हमें ना तो सब्सिडी है ना बैंक की कोई मदद है ऐसी व्यवस्था में न्याय कहा हो सकता है।
और एक उदहारण से समझे अगर किसी बच्चे को जन्म लेने से पहले कोई मारे ना तो उसे गर्भपात कहके छोड़ देते हैं, लेकिन जन्म लेने के बाद मारे तो हत्या हो जाती है धारा 302 का मामला बनता है, बच्चे को गर्भ में मारे तो भी हत्या है जन्म लेने के बाद मारे तो भी हत्या है दोनों में सजा एक जैसी होनी चाहिए और वो फांसी ही होनी चाहिए, लेकिन जन्म से पहले मारो तो गर्भपात है और जन्म के बाद मारो तो हत्या है इसलिए इस देश के लाखों लालची डॉक्टर करोड़ो बेटियों को गर्भ में ही मार डालते है क्योकि गर्भ में मार देने से उन्हें फांसी नहीं होती है, गर्भ में बाहर मरेंगे तो उन्हें फांसी होने की संभावना है, एक करोड़ बेटियों को हर साल इस देश में गर्भ में ही मार दिया जाता है इसी कानून की मदद से। अब आप बताओ कि बेटी को गर्भ में मार दो तो गर्भपात और गर्भ में बहार मारो तो हत्या। अगर इन कानूनों के आधार पर कोई फैसला होगा तो क्या वो न्याय दे सकता है, फैसला हो सकता है न्याय नहीं दे सकता,
इसलिए राजीव दीक्षित जी इस देश के बड़े न्यायाधीशों को कहते हैं कि आप लोगो को अपना नाम बदलना चाहिए, कायदाधीश लिखना चाहिए, कानूनाधीश लिखना चाहिए आप न्यायाधीश तो हैं ही नहीं, क्योकि आप न्याय तो दे ही नहीं पा रहे है आप तो मुकदमो का फैसला कर रहे हैं, अगर अंग्रेजी में उनके शब्दों में कहे तो वो कहते हैं हम तो केस डीसाइड करते है, जजमेंट नहीं करते क्योकि न्याय देना बिलकुल अलग है मुक़दमे का फैसला देना बिलकुल अलग है। मुक़दमे का फैसला होता है कानून के आधार पर और न्याय होता है धर्म के आधार पर, सत्य के आधार पर। धर्म और सत्य से न्याय की स्थापना हो सकती है कानून से न्याय की स्थापना नहीं हुआ करती है। दुर्भाग्य से हमारे देश में धर्म और सत्य की सत्ता नहीं है कानून की सत्ता है लॉ एंड आर्डर की बात होती है धर्म और न्याय की बात नहीं होती तो ये अंग्रेज छोड़ के चले गए कानून व्यवस्था को और वही ढो रही है हम आजादी के 70 साल के बाद भी।
राजीव दीक्षित
आपमें से अगर कोई वकील मित्र है तो उनको बात जरा जल्दी समझ में आएगी। हमारे देश में न्याय व्यवस्था का जो सबसे बड़ा कानून है, उसका नाम है IPC इंडियन पीनल कोड, एक दूसरा कानून है CPC सिविल प्रोसीजर कोड, एक तीसरा कानून है क्रिमिनल प्रोसीजर कोड (अपराध दंड सहीता), ये 3 कानून है, जो भारतीय न्याय व्यवस्था के आधार बताए गए हैं या जिन्हें आधार माना जाता है आपको मालूम है ये तीनो कानून अंग्रेजो के ज़माने के बने हुए हैं। IPC को बनाने का काम तो खुद मैकाले ने किया था, IPC की ड्राफ्टिंग खुद मेकाले की बने हुई है जिसको इंडियन पीनल कोड यानि भारतीय दंड सहीता कहते है जिसके आधार पर दंड की व्यवस्था होती है,
मेकाले ने अपने पिता को एक पत्र लिखा है उस पत्र में वो कहता है कि मैंने भारत में ऐसे न्याय के कानून का आधार रख दिया है जिसपर भारतवाशियों कभी को न्याय मिलेगा ही नहीं, जिसके आधार पर भारतवाशी न्याय पा ही नहीं सकते। हमेशा इनके ऊपर अन्याय होगा ये अच्छा ही होगा क्योकि गुलाम जिनको बनाया जाता है उनके ऊपर अन्याय ही किया जाता है उनको न्याय नहीं दिया जाता फिर जब राजीव दीक्षित जी और उनके साथियों ने ढूंढ़़ना शुरू किया तो पाया कि जो IPC नाम का कानून भारत में मैकाले ने 1860 में लागु किया यही कानून अंग्रेजो ने आयरलैंड में सबसे पहले लागु किया था आयरलैंड को अंग्रेजो ने गुलाम बनाकर रखा हुआ है हजार साल से। तो आयरलैंड को गुलाम बनाकर रखने के लिए अंग्रेजो ने कानून बनाया Irish Penal Code उसी कानून को भारत में कह दिया Indian Penal Code ।
आप जानते है जब आयरलैंड लिखते हैं तो A से नहीं लिखा जाता, I से लिखा जाता है Ireland तो आयरलैंड का I ले लिया और इंडिया का भी I है तो कानून वैसे का वैसा ही लगा दिया इस देश पर, जो आयरलैंड का कानून था आयरिश पीनल कोड वही इंडियन पीनल कोड है।
जब राजीव दीक्षित जी ने आयरलैंड के पीनल कोड को खरीदकर पढ़ा और इंडियन पीनल कोड को पढ़ा, दोनों को सामने रखा, तो राजीव दीक्षित जी को इतना गुस्सा आया कि इसमें तो कोमा और फुल स्टॉप तक नहीं बदला गया है वो भी वैसे का वैसे ही है। बस इतना ही किया मैकाले ने कि आयरिश पीनल कोड में जहाँ-जहाँ आयरिश है, वहां वहां इंडियन और इंडिया कर दिया बाकी की सब धाराए वैसी की वैसी हैं, सब अनुछेद वैसे के वैसे है तो आयरलैंड को गुलाम बनाकर रखना है, इसलिए आयरिश पीनल कोड बनाया और भारत को गुलाम बनाकर रखना है तो इंडियन पीनल कोड बना दिया।
जिस कानून को गुलाम बनाने के लिए तैयार किया गया हो उस कानून के आधार पर न्याय कैसे मिलेगा बताइए जरा, अन्याय ही होने वाला है सबसे बड़ा अन्याय क्या होता है कि जब IPC के आधार पर जब कोई मुकदमा दर्ज होता है, इस देश में, तो सबसे पहले तो मुकदमा दर्ज होने में ही महीनो महीनो लग जाते है FIR करनी पड़ती है, उसके बाद पुलिस को साबित करना पड़ता है, सबूत जुटाने पड़ते है, अदालत में जाना पड़ता है इस पूरी प्रक्रिया में ही देर लगती है, क्योकि तरीका अंग्रेजो का यही है, फिर अगर वो मुकदमा दाखिल हो जाए तो सुनवाई शुरू होती है सुनवाई के लिए सबूत इकठे किए जाते हैं उन सबूतों के लिए अंग्रेजो के ज़माने का एक कानून है Indian Evidence Act. और वो सबूत जल्दी इकट्ठे हो नहीं पाते हैं, धीरे धीरे समय बढता जाता है और एक मुकदमे को 4 साल 5 साल 10 साल 15 साल 20 साल 25 साल 30 साल 35 साल समय निकल जाता है मुक़दमे को दाखिल करने वाला मर जाता है फिर उसके लड़के-लड़कियाँ उस मुक़दमे को लड़ते है वो जवान होकर बूढ़े हो जाते हैं तब भी मुकदमा चलता ही रहता है चलता ही रहता है उसमे कभी अंतिम फैसला नहीं आ पाता।
हमारे देश का दुर्भाग्य है कि आजादी ने 63 वर्षो में हमारे देश की अदालतों में लगभग साढ़े 3 करोड़ (2009 के आकड़ो के अनुसार) मुक़दमे हैं जो दर्ज किए गए हैं अलग अलग प्रार्थियो के द्वारा लेकिन उनमे कोई फैसला नहीं आ पा रहा है, साढ़े 3 करोड़ मुक़दमे लम्भित पड़े हुए हैं पेंडिंग हैं। हमारे देश के न्याय व्यवस्था के अधिकारियो से जब पूछा जाता है कि इन साढ़े 3 करोड़ मुकदमो का फैसला कब आएगा तो वो मजाक करते हुए कहते हैं कि 300 -400 साल में फैसला आ जाएगा तो जब कोई उनसे पूछते हैं कि वो कैसे ? तो वो कहते हैं कि जिस गति से कानून व्यवस्था चल रही है इस गति से तो इन सभी मुकदमो का फैसला आने में 300- 400 साल तो लग ही जाएगे तो ना वादी (मुकदमा दर्ज करने वाला) जिन्दा रहेगा ना प्रतिवादी (जिसके खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया है) जिन्दा रहेगा, न्याय व्यवस्था को इससे कुछ लेना देना नहीं है कि वादी जिन्दा है या प्रतिवादी जिन्दा है उनको को लेना देना है अंग्रेजो के बनाए गए कानून के आधार पर फैसला देने से।
अब राजीव दीक्षित जी बहुत गहरी बात आपके बीच रखते हैं और सारे राष्ट्र का ध्यान इस और आकर्षित करते हुए कहते हैं कि “कोई न्यायधीश अंग्रेजो के बनाए गए कानून के आधर पर अगर फैसला दे रहा हैं तो वो न्याय कैसे कर सकता है ये पूछिए? अपने दिल से पूछिए उस न्यायधीश से पूछिए ”
न्यायाधीशो से जब जब राजीव दीक्षित जी ने ये पूछा है कि “क्या आप न्याय देते हैं” तो वो कहते हैं कि ईमानदारी से हम न्याय नहीं दे पाते, हम को मुकदमो का फैसला करते हैं। फैसला देना अलग बात है न्याय देना बिलकुल अलग बात है।
अब आपको एक उदहारण से समझाते हैं फैसला क्या होता है और न्याय क्या होता है। मान लीजिए आपने एक गाय को एक डंडे से पिटा तो कानून के हिसाब से आपको जेल हो जाएगी, गाय को डंडे से पीटना भारत में अपराध है जुर्म है इसके लिए जेल हो जाती है लेकिन अगर उसी गाय को आपने गर्दन से काट दिया और उसके मास की बोटी-बोटी आपने बेच दी बाजार में, आपको कुछ नहीं होगा क्योकि कानून से वो न्याय सम्मत है अब गाय को डंडे से मारो तो जेल हो जाती है लेकिन गाय को गर्दन से काटकर उसकी बोटी-बोटी बेचो तो भारत सरकार करोड़ो रूपए की सब्सिडी देती है आपको।
मै अगर गोशाला खोलना चाहूं तो इस देश की कानून व्यवस्था के अनुसार मुझे बैंक से कर्ज नहीं मिल सकता, लेकिन गाय को कत्ल करने के लिए कत्लखाना बनाना हो तो उसके लिए बैंक करोड़ो रूपए कर्ज देने को तैयार है मुझे। आप सोचिए मैं गौशाला बनाकर गाय का दूध बेचना चाहता हूँ, बैंक के पास जाता हूँ कि मुझे कर्ज दे दो। बैंक कहता है कि हमारी योजना में गाय को कर्ज देने की व्यवस्था नहीं है लेकिन उसी बैंक के पास मै जाता हूँ कि मुझे कत्लखाना खोलना है और मुझे कर्ज दे दो तो बैंक ख़ुशी से कर्ज देता है उस कर्जे पर ब्याज सबसे कम लिया जाता है और करोड़ों रूपए का कर्ज तो मुफ्त में दिया जाता है सब्सिडी के रूप में। आप बताओ कि अगर हम गाय का मास बेचने के लिए कतलखाना खोलू तो हमारे लिए कर्ज है सब्सिडी है गौशाला खोले गाय के पालन करने के लिए तो हमें ना तो सब्सिडी है ना बैंक की कोई मदद है ऐसी व्यवस्था में न्याय कहा हो सकता है।
और एक उदहारण से समझे अगर किसी बच्चे को जन्म लेने से पहले कोई मारे ना तो उसे गर्भपात कहके छोड़ देते हैं, लेकिन जन्म लेने के बाद मारे तो हत्या हो जाती है धारा 302 का मामला बनता है, बच्चे को गर्भ में मारे तो भी हत्या है जन्म लेने के बाद मारे तो भी हत्या है दोनों में सजा एक जैसी होनी चाहिए और वो फांसी ही होनी चाहिए, लेकिन जन्म से पहले मारो तो गर्भपात है और जन्म के बाद मारो तो हत्या है इसलिए इस देश के लाखों लालची डॉक्टर करोड़ो बेटियों को गर्भ में ही मार डालते है क्योकि गर्भ में मार देने से उन्हें फांसी नहीं होती है, गर्भ में बाहर मरेंगे तो उन्हें फांसी होने की संभावना है, एक करोड़ बेटियों को हर साल इस देश में गर्भ में ही मार दिया जाता है इसी कानून की मदद से। अब आप बताओ कि बेटी को गर्भ में मार दो तो गर्भपात और गर्भ में बहार मारो तो हत्या। अगर इन कानूनों के आधार पर कोई फैसला होगा तो क्या वो न्याय दे सकता है, फैसला हो सकता है न्याय नहीं दे सकता,
इसलिए राजीव दीक्षित जी इस देश के बड़े न्यायाधीशों को कहते हैं कि आप लोगो को अपना नाम बदलना चाहिए, कायदाधीश लिखना चाहिए, कानूनाधीश लिखना चाहिए आप न्यायाधीश तो हैं ही नहीं, क्योकि आप न्याय तो दे ही नहीं पा रहे है आप तो मुकदमो का फैसला कर रहे हैं, अगर अंग्रेजी में उनके शब्दों में कहे तो वो कहते हैं हम तो केस डीसाइड करते है, जजमेंट नहीं करते क्योकि न्याय देना बिलकुल अलग है मुक़दमे का फैसला देना बिलकुल अलग है। मुक़दमे का फैसला होता है कानून के आधार पर और न्याय होता है धर्म के आधार पर, सत्य के आधार पर। धर्म और सत्य से न्याय की स्थापना हो सकती है कानून से न्याय की स्थापना नहीं हुआ करती है। दुर्भाग्य से हमारे देश में धर्म और सत्य की सत्ता नहीं है कानून की सत्ता है लॉ एंड आर्डर की बात होती है धर्म और न्याय की बात नहीं होती तो ये अंग्रेज छोड़ के चले गए कानून व्यवस्था को और वही ढो रही है हम आजादी के 70 साल के बाद भी।
राजीव दीक्षित
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