छत्तीसगढ़ के दण्डकारण्य के आदिवासी बाहुल्य बस्तर अंचल का 75 दिन चलने वाला बस्तर दशहरा मात्न एक पर्व और धाíमक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यहाँ रहने वाले विभिन्न वर्गो को एकता के सूत्र में बांधने वाला एक ऐसा अभियान है, जिसकी मिसाल विश्व के किसी भी राजवंश के इतिहास में देखने को नहीं मिलती है। बस्तर अंचल में जहां पर जाति व्यवस्था की जड़ंे बहुत गहरे तक जमीं हैं, जिससे कई जातियां आज भी परंपरागत रूढियों तथा छूआछूत तथा अंधविश्वासों से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाई है। बस्तर के चालुक्य वंश के नरेशो ने इस समाज की कुल देवी मां मणिकश्वरी देवी को मां दंतेश्वरी के रूप में प्रतिष्ठापित किया और इन्हें श्रद्धा भक्ति एवं माई के वाíषकोत्सव बस्तर दशहरा से जोड़कर जातीय समभाव की एक ऐसी आदर्श परंपरा के रूप में स्थापित किया। जो गत 598 वषरे से भाई चारे और एकता की धारा के रूप में अबाध गति से निरंतर प्रवाहित हो रही है।
बस्तर के चालुक्य नरेशो के 624 वषरे के इतिहास में कोई ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक उपलब्धि माई दंतेश्वरी के दंतेवाडा और जगदलपुर स्थित मंदिरों के अलावा कुछ भी नहीं है, लेकिन अपनी कुल देवी के वाíषकोत्सव को जिस तरह से सूझ-बूझ के साथ जन जन की आंतरिक श्रद्धा और सहभागिता की भावना से संयोजित किया वह अदभुत है।
चालुक्य वंश के नरेशों ने क्षेत्रीय एकता की भावना का तिरोहण आदिदेवी मां दंतेश्वरी के प्रति श्रद्धा व भक्ति को इस रूप में किया कि जो मात्न राजा की भावना तक सीमित न रहकर जन जन की भावनाओं से जुड़ गया। इस वंश के नरेशों ने अपनी कुल देवी के वाíषक उत्सव में इस प्रकार के पूजा विधानों और अनुष्ठानों की व्यवस्था की, जिसमें बस्तर अंचल की समस्त जातियों के सम्मान की व्यवस्था है। प्रत्येक जाति और समाज के लोगों को इस वाíषकोत्सव में विभिन्न उत्तरदायित्वों को अधिकृत रूप से सौंपा गया है। जो संबंधित जाति के लिए जातीय गौरव सम्मान और प्रतिष्ठा का कारण बन गई है। बस्तर दशहरा मूल रूप से माई दंतेश्वरी आदि शक्ति की उपासना का वाíषकोत्सव है। उसका कोई भी सीधा संबंध राम कथा से नहीं है । इसलिए बस्तर दशहरा में रावण वध का कोई विधान नहीं है। बस्तरवासियों के लिए दशहरा शक्ति पूजा का माध्यम है। बस्तर दशहरा पर्व को संचालित करने और विशालकाय रथ की परिक्रमा के लिए समग्र व्यवस्था पूर्व नरेशों ने की थी। जिसके तहत रथ की लकडी ् निर्माण रस्सी बुनने रथ खींचने सजावट भोजन ् स्वागत सत्कार बलि के बकरों की लाढी बाज गाजे परिक्रमा का संयोजन अनुष्ठान करने वाले जोगी आयोजन की अनुमति और काछनगादी व रैला पूजा किस क्षेत्न किन लोगों द्वारा की जाएगी कि व्यवस्था की गई है। लाखों लोगों की श्रध्दा से जुडे इस महापर्व की सुव्यवस्था भव्य स्वरूप और गरीमा पूर्ण संचालन के मूल में जातीय समभाव का ऐसा अद्भुत और आर्दश स्वरूप देखा जा सकता है जिसकी अन्य कोई मिसाल शायद ही अन्यत्र कहीं देखने को मिले। वषरे से इस जातीय समागम की जिस अनूठी परम्परा का सूत्रपात चालुक्य वंश के नरेशों ने बस्तर दशहरा के रूप में किया था, उसका संचालन आज भी प्रशासनिक स्तर पर उसकी सम्पूर्ण गरिमा भव्यता और आदर्श भावनाओं के साथ सतत रूप से किया जा रहा है। जिसकी अनुगूँज राष्ट की सीमा से परे अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी सुनी जाने लगी है। इस महापर्व का अदभूत आकर्षण विदेशी सैलानियों, इतिहासकारों, पुरातात्विक विषेषज्ञों और समाजशाियों को बरबस बस्तर तक खींच लाता है। जो बस्तर दशहरा के महत्व को दर्शाने वाला ज्वंलत प्रतीक है।