गुरुवार, 30 अगस्त 2012

ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना

दर्द भरे नगमों के बेताज बादशाह मुकेश आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपनी दर्दभरी सुरीली आवाज के दम पर वह आज भी अपने प्रशंसकों के दिल में ¨जदा हैं। उनकी दिलकश आवाज सुनकर बरबस श्रोताओं के दिल से बस एक ही आवाज निकलती है ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना। 22 जुलाई 1923 को दिल्ली मे एक मध्यम परिवार मे जन्में मुकेश चंद्र माथुर उर्फ मुकेश बचपन के दिनों में के एल सहगल से प्रभावित रहने के कारण उन्हीं तरह गायक बनना चाहते थे। हिन्दी फिल्मों के जाने माने अभिनेता मोतीलाल ने मुकेश की बहन की शादी में उनके गानों को सुना। मोतीलाल उनकी आवाज से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने मुकेश को मुंबई बुला लिया। मोतीलाल मुकेश के दूर के रिश्तेदार भी थे। फिल्मों में कदम रखने के पहले मुकेश पी.डब्ल्यू.डी. में एक सहायक के रूप मे काम करते थे। वर्ष 1940 में अभिनेता बनने की चाह के साथ उन्होंने मुंबई का रुख किया। मोतीलाल ने मुकेश को अपने घर में ही रखकर उनके लिए संगीत की शिक्षा की व्यवस्था की और वह पंडित जगन्नाथ प्रसाद से संगीत की शिक्षा लेने लगे। मुकेश को बतौर अभिनेता वर्ष 1941 मे प्रदíशत फिल्म निदरेष में काम करने का मौका मिला, लेकिन इस फिल्म केजरिए वह ुछ खास पहचान नहीं बना पाए । इसके बाद अनिल विश्वास के संगीत निर्देशन मे मुकेश ने अपना पहला गाना दिल जलता है तो जलने दे वर्ष   945 मे प्रदíशत फिल्म पहली नजर केलिए गाया। इसे महज एक संयोग कहा जा सकता है कि यह गाना अभिनेता मोतीलाल पर ही फिल्माया गया। फिल्म की कामयाबी केबाद मुकेश गायक के रूप मे रातो।रात अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए।
सहगल की गायकी के अंदाज से प्रभावित रहने के कारण अपनी शुरुआती दौर की फिल्मों में वह सहगल के अंदाज में ही गीत गाया करते थे। हालांकि वर्ष 1948 मे नौशाद के संगीत निर्देशन में फिल्म अंदाज में गाए उनकेगीत तू कहे अगर जीवन भर, मैं गीत सुनाता जाऊँ, झूम झूम केनाचो आज. .हम आज कहीं दिल खो बैठे आदि जैसे सदाबहार गाने की कामयाबी के बाद मुकेश ने गायकी का अपना अलग अंदाज बनाया।
 मुकेश की ख्वाहिश थी कि वह गायक के साथ साथ अभिनेता केरूप में भी अपनी पहचान बनाए। वर्ष 1951 मे प्रदíशत फिल्म आवारा की कामयाबी के बाद उन्होंने गायकी के साथ-साथ ही अभिनय में एक बार फिर हाथ आजमाया लेकिन इस बार भी निराशा ही उनके हाथ आई। बतौर अभिनेता वर्ष 1953 मे प्रदíशत माशूका और वर्ष 1956 में प्रदíशत फिल्म अनुराग की विफलता के बाद उन्होंने पुन: गाने की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया। इसके बाद वर्ष 1958 मे प्रदíशत फिल्म यहूदी के गाने ये मेरा दीवानापन है गाने की कामयाबी के बाद मुकेश को एक बार फिर से बतौर गायक पहचान मिली। इसके बाद मुकेश ने एक से बढ़कर एक गीत गाकर श्रोताओं को भाव विभोर कर दिया। मुकेश ने अपने तीन दशक के सिने कैरियर मे 200 से भी ज्यादा फिल्मों के लिए गीत गाए। उन्हें चार बार फिल्म फेयर के सर्वŸोष्ठ पाश्र्व गायक के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
 मुकेश को सबसे पहले वर्ष 1959 में प्रदíशत फिल्म अनाड़ी केसब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी गीत के लिए सर्वŸोष्ठ पाश्र्व गायक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसकेबाद वर्ष 1970 में प्रदíशत पहचान सबसे बड़ा नादान वही है, जो समझे नादान मुझे .फिल्म बेईमान जय बोलो बेईमान की। 1972 और वर्ष 1976 मे प्रदíशत फिल्म कभी कभी  के गाने कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है के लिए भी मुकेश को सर्वŸोष्ठ पाश्र्व गायक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए।
इसके अलावा वर्ष 1974 मे प्रदíशत रजनीगंधा का गाना कई बार यूं ही देखा है, ये जो मन की सीमा रेखा है, के लिए मुकेश नेशनल अवार्ड से भी सम्मानित किए गए। मुकेश के पसंदीदा संगीत निर्देशक के तौर पर शंकर जयकिशन और गीतकार मे शैलेन्द्र का नाम सबसे पहले आता है। वर्ष 1949 मेंप्रदíशत फिल्म बरसात  मुकेश .शैलेन्द्र और शंकर जयकिशन कीजोड़ी वाली पहली हिट फिल्म थी। इसके बाद वर्ष 1951 मे फिल्म आवारा की कामयाबी के पश्चात पश्चात मुकेश .शैलेन्द्र और शंकर जयकिशन की जोड़ी के गीत संगीत से श्रोताओं को भाव विभोर कर दिया। वर्ष 1941 में बतौर अभिनेता फिल्म निदरेष से अपनेकैरियर की शुरुआत करने वाले मुकेश बतौर अभिनेता सफल नहीं हो सके। उन्होंने बतौर अभिनेता दुख सुख .1942 आदाब अर्ज .1943.माशूका.1953 आह .1953 .आक्रमण .1956 दुल्हन .1974 फिल्मे की। बतौर निर्माता मुकेश ने वर्ष 1951 में मल्हार और वर्ष 1956 में आक्रमण फिल्में भी बनाई और इसके साथ ही इसी फिल्म के लिए उन्होंने संगीत भी दिया।  26 अगस्त 1976 को राज कपूर की फिल्म सत्यम शिवम सुंदरम के गाने चंचल निर्मल शीतल की रिकाíडग पूरी करने के बाद मुकेश अमेरिका में कन्सर्ट मे भाग लेने के लिए चले गए। इसके ठीक अगले दिन 27 अगस्त 1976 को मिशिगिन.अमेरिका. में दिल का दौरा पड़ा और वह अपने करोड़ों प्रशंसको को छोड़ सदा के लिए चले गए। इसके बाद उनके पाíथव शरीर को भारत लाया गया। राज कपूर ने उनके मरने की खबर मिलने पर कहा था मुकेश के जाने के बाद ऐसा लगता है कि जैसे मेरी आवाज और आत्मा दोनों ही चली गई है। 
प्रेम कुमार

रविवार, 26 अगस्त 2012

हंगल के जाने से उपजा सन्‍नाटा

 उमाशंकर सिंह
 फिल्म शोले के दृष्टिहीन इमाम साहब के बेटे को गब्बर सिंह के गिरोह ने मार कर गांव भेज दिया है। वहां चारों तरफ एक डरावनी और मार्मिक चुप्पी पसरी है। उस चुप्पी को तोड़ते हुए अपने बेटे की मौत से बेखबर इमाम साहब की भूमिका जी रहे एके हंगल साहब पूछते हैं- इतना सन्नाटा क्यों है भाई? वैसे तो शोले का हर डायलॉग मशहूर हुआ, पर इमाम साहब का यह डॉयलॉग जितने सामाजिक-राजनीतिक अर्थ-प्रसंगों में प्रयुक्त हुआ, उतना शायद ही कोई और डायलॉग हुआ हो। आपातकाल के दौर में जब सरकारी दमन ने लोगों की जबान पर ताला लगा दिया था तब आपातकाल के खिलाफ संघर्ष कर रहे नेता लोगों को ललकारते हुए कहते थे- इतना सन्नाटा क्यों है भाई। कुछ तो बोलो, कोई तो बोलो। सिने जगत का माहौल इतना हलचल भरा है कि यहां मौतें भी सन्नाटा पैदा नहीं कर पातीं। अलबत्ता उपेक्षित और सच्चे कलाकारसन्नाटे में अलविदा जरूर कह जाते हैं। फिल्मों के सौ-सौ करोड़ कमाने और नायकों के करोड़ों के मेहनताने के इस सुनहरे दौर में भी गाहे-बगाहे कभी एके हंगल और मुबारक बेगम जैसे कई कलाकार अपने इलाज तक के लिए दूसरों के मोहताज हो जाते हैं। 1966 में बासु भट्टाचार्या की तीसरी कसम से अपनी सिने यात्रा शुरू करने वाले अवतार कृष्ण हंगल जल्द ही हिंदी सिनेमा के उन चेहरों में शुमार हो गए थे जिनके बगैर उस दौर के सिनेमा की तस्वीर मुकम्मल नहीं होती थी। थियेटर उनका पहला प्यार था। हर कोई जानता था कि फिल्म में अभिनय वह महज जीवन चलाने के लिए करते थे। लेकिन जितनी संजीदगी उन्होंने अपनी छोटी-छोटी भूमिकाएं जीने में दिखाई, उससे कहीं नहीं लगा कि सिनेमा उनका दूसरा प्यार है या वह सिनेमा को दोयम दर्जे का माध्यम मानते हैं। सिनेमा में कदम रखने तक वह पचास मौसमों के लू के थपेड़े खा चुके थे। उन्होंने दर्जीगीरी की थी। आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था। करीब तीन साल जेल की कालकोठरी में सुबह के सूरज तक से महरूम रहे। भूख-प्यास सहते रहे और अपने जमाने के उदास मौसम के लिए लड़ते रहे। उन्होंने कभी इस सबके लिए सहानुभूति नहीं बटोरी। कभी किसी रावण के घर पानी नहीं भरा। किसी पुरस्कार-इमदाद की न तो कभी आरजू की और न ही कोशिश। फिल्मों में आने से पहले हंगल ने जिंदगी के हर रंग देखे। यही वजह रही कि वह अपनी भूमिकाओं में प्राण फूंक पाए। गरीब, लाचार और निरीह लोगों के किरदार में हंगल साहब भारत की 70 फीसदी वंचित जनता का दर्द और अभाव बयां कर देते थे। संभवत: यह प्रकाश मेहरा की खून-पसीना फिल्म का दृश्य है- गांव में पंगत में भोज किया जा रहा है। अचानक किसी की घड़ी गायब हो जाती है। तय होता है कि उस पंगत में बैठे सभी लोग तलाशी देंगे। सभी सहर्ष तैयार भी हो जाते हैं, पर हंगल साहब साफ मना कर देते हैं। सब लोग उन्हें घड़ी का चोर मान रहे होते हैं। चारों तरफ से व्यंग्य बाण चल रहे होते हैं। इस जलालत के बीच वे अपनी जेब से उन पूडि़यों को निकालकर रख देते हैं, जो उन्होंने अपने घर के अन्य सदस्यों का पेट भरने के लिए चोरी की थी। जिस दौर में हंगल साहब फिल्मों में नुमायां हुए वह प्राण, महमूद, उत्पल दत्त, ओमप्रकाश और इफ्तेखार खान जैसे मंझे हुए चरित्र अभिनेताओं का दौर था। अपने सहज अभिनय के दम पर उन्होंने जल्द ही इस फेहरिस्त में अपना भी नाम शामिल कर लिया। उस वक्त के अन्य चरित्र अभिनेताओं के अभिनय में सहजता के साथ नाटकीयता का पुट भी था और हल्का लाउडनेस भी। लेकिन हंगल साहब के साथ ऐसा नहीं था। सहजता और सादगी उनके अभिनय के दो बुनियादी गुण थे। अभिनय की कशिश उनमें दिखती थी, कोशिश नहीं। वह पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, ऋत्विक घटक, सलिल चौधरी, अली सरदार जाफरी, कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी और हेमंत कुमार आदि की उस परंपरा में थे, जिन्होंने इप्टा (इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) से आकर भारतीय सिनेमा को समृद्ध किया था। हिंदी सिनेमा के पितृ पुरुष पृथ्वीराज कपूर की तरह वह हंगल साहब भी संपत्ति संचय में यकीन नहीं करते थे। दोनों ताउम्र किराए के मकान में रहे। जीवनभर काम करते रहने और उससे मिले धन में जीवन चलाने को दोनों ने एक मूल्य की तरह सहेजा और अंत तक इस पर कायम रहे। हंगल साहब ने अपने निधन से कुछ दिन पहले तक शूटिंग की। उनकी प्रतिबद्धता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि लगान में वह सेट पर स्ट्रेचर पर बैठकर एक दृश्य की शूटिंग के लिए आए थे। हालांकि लंबी फिल्म को छोटा करने के चलते बाद में उस दृश्य को फिल्म से हटाना पड़ा। हमारे यहां बाद के वर्र्षो में अपनी विचारधाराओं से डिगकर प्रसाद पाने वालों की लंबी फेहरिस्त रही है, लेकिन हंगल साहब यहां भी अपवाद नजर आते हैं। अपने निधन से करीब तीन महीने पहले अस्पताल से छुट्टी मिलने पर उन्होंने अपने दो-चार शुरुआती काम किए। इनमें कम्युनिस्ट पार्टी की अपनी सदस्यता को रीन्यू कराना भी शामिल था। हंगल साहब फिल्मों के फिलर नहीं थे, बल्कि एक जरूरी तत्व थे। ऐसे सहायक अभिनेता जिनके बिना न हीरो का किरदार ही पूरा होता था और न फिल्म की कहानी। आजकल कुछ फिल्म कलाकार ब्रांड एंबेस्डर बनकर खुद को समाज सुधारक मान लेते हैं और उसकी डुगडुगी बजवाते हैं। एके हंगल प्रचार से दूर रहकर चुपचाप समाज के लिए काम किया करते थे। सांप्रदायिकता के खिलाफ उनका संघर्ष एक मिसाल रहा है। चार्ली-चैपलिन का समाजवाद की तरफ हल्का-सा रुझान ही हुआ था कि उन पर कई तरह के सवाल उठाए गए थे। फिर हंगल साहब तो भारत में थे और घोषित कम्युनिस्ट भी। एक ऐसा भी दौर आया, जब शिवसेना की आपत्ति के चलते उन्हें फिल्मों में काम देना बंद कर दिया गया। इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि जीवन के आखिरी समय में इलाज के लिए उन्हें दूसरों से मदद लेनी पड़ी। ऐसे हंगल साहब के जाने से सिने जगत में खालीपन का जो सन्नाटा पैदा हुआ है, उसे हर कहीं महसूस किया जा सकता है।
(दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण से साभार)

सोमवार, 20 अगस्त 2012

आपकी की नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे

आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे दिल की ऐ धड़कन ठहर जा मिल गई मंजिल मुझे हिन्दी फिल्मों के मशहूर संगीतकार मदनमोहन के इस गीत से संगीत सम्राट, नौशाद, इस कदर प्रभावित हुए थे कि उन्होंने इस धुन के बदले अपने संगीत का पूरा खजाना लुटा देने की इच्छा जाहिर कर दी थी। मदन मोहन कोहली का जन्म २५ जून १९२४ को बगदाद में हुआ था। उनके पिता राय बहादुर चुन्नी लाल फिल्म व्यवसाय से जुड़े हुए थे और बाम्बे टाकीज और फिल्मीस्तान जैसे बड़े फिल्म स्टूडियो में साझीदार थे। घर में फिल्मी माहौल होने के कारण मदन मोहन भी फिल्मों में काम करके नाम करना चाहते थे, लेकिन पिता के कहने पर उन्होंने सेना मे भर्ती होने का फैसला ले लिया। उन्होंने देहरादून में नौकरी शुरू कर दी। कुछ दिन बाद उनका तबादला दिल्ली हो गया। लेकिन कुछ समय के बाद उनका मन सेना की नौकरी से ऊब गया और वह नौकरी छोड़कर लखनऊ आ गए और आकाशवाणी के लिए काम करने लगे। आकाशवाणी में उनकी मुलाकात संगीत जगत से जुडे उस्ताद फैयाज खान, उस्ताद अली अकबर खान, बेगम अख्तर और तलत महमूद जैसी जानी मानी हस्तियों से हुई, जिनसे वे काफी प्रभावित हुए। उनका रूझान संगीत की ओर हो गया। अपने सपनों को नया रूप देने के लिए मदन मोहन लखनऊ से मुंबई आ गए।
मुंबई आने के बाद मदन मोहन की मुलाकात एस डी बर्मन, श्याम सुंदर और सी.रामचंद्र जैसे प्रसिद्व संगीतकारों से हुई। वह उनके सहायक के तौर पर काम करने लगे। संगीतकार के रुप में १९५क् में प्रदíशत फिल्म आंखें के जरिए वह फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में सफल हुए। फिल्म आंखें के बाद लता मंगेशकर मदन मोहन की चहेती पाश्र्वगायिका बन गई और वह अपनी हर फिल्म के लिए लता मंगेशकर से ही गाने की गुजारिश किया करते थे। लता मंगेशकर भी मदनमोहन के संगीत निर्देशन से काफी प्रभावित थीं और उन्हें गजलों का शहजादा कहकर संबोधित किया करती थीं। पचास के दशक में मदन मोहन के संगीत निर्देशन में राजेन्द्र कृष्ण के रूमानी गीत काफी लोकप्रिय हुए थे, इनमें कौन आया मेरे मन के द्वारे पायल की झंकार लिए, देख कबीरा रोया, मेरा करार ले जा मुझे बेकरार कर जा, आशियाना और, ऐ दिल मुझे बता दे, भाई-भाई १९५६ जैसे गीत शामिल हैं।
मदन मोहन के संगीत निर्देशन में आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे, अनपढ़ लग जा गले, वो कौन थी, नैनों में बदरा छाए और मेरा साया साथ होगा, मेरा साया, जैसे राजा मेहंदी अली खां के गीत श्रोताओं के बीच आज भी लोकप्रिय हैं। उन्होंने अपने संगीत निर्देशन से कैफी आजमी के जिन गीतों को अमर बना दिया, उनमें, कर चले हम फिदा जानो तन साथियों अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो, हकीकत मेरी आवाज सुनो प्यार का राग सुनो, नौनिहाल, ए दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं, हीर रांझा, सिमटी सी शर्माई सी तुम किस दुनिया से आई हो, परवाना और तुम जो मिल गए हो ऐसा लगता है कि जहां मिल गया हंसते जख्म जैसे गीत शामिल हैं। महान संगीतकार ओ पी नैयर अक्सर कहा करते थे, ,मैं नहीं समझता कि लता मंगेशकर, मदन मोहन के लिए बनी हुई है या मदन मोहन, लता मंगेश्कर के लिए लेकिन अब तक न तो मदन मोहन जैसा संगीतकार हुआ और न लता जैसी पार्श्‍वगायिका। मदनमोहन के संगीत निर्देशन मे आशा भोंसले ने फिल्म मेरा साया के लिए, झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में गाना गाया जिसे सुनकर श्रोता आज भी झूम उठते हैं। उनसे आशा भोसले को अक्सर यह शिकायत रहती थी कि वे अपनी हर फिल्म के लिए लता दीदी को हीं क्यों लिया करते हैं इस पर मदनमोहन कहा करते, जब तक लता जिदां है उनकी फिल्मों के गाने वही गाएगी। वर्ष १९६५ मे प्रदर्शित फिल्म हकीकत में मोहम्मद रफी की आवाज में मदन मोहन के संगीत से सजा गीत, कर चले हम फिदा जानों तन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों, ,आज भी श्रोताओ मे देशभक्ति के जज्बे को बुलंद कर देता है। आंखों को नम कर देने वाला ऐसा संगीत मदन मोहन ही दे सकते थे।
 वर्ष १९७क् मे प्रदर्शित फिल्म दस्तक के लिए मदन मोहन सर्वश्रेष्‍ठ संगीतकार के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किए गए। उन्होंने अपने ढाई दशक लंबे सिने करियर में लगभग १क्क् फिल्मों के लिए संगीत दिया। अपनी मधुर संगीत लहरियों से श्रोताओं के दिल में खास जगह बना लेने वाला यह सुरीला संगीतकर १४ जुलाई १९७५ को इस दुनिया से अलविदा कह गया। मदन मोहन के निधन के बाद १९७५ में ही उनकी मौसम और लैला मजनू जैसी फिल्में प्रदíशत हुई, जिनके संगीत का जादू आज भी श्रोताओं को मंत्नमुग्ध करता है। मदन मोहन के पुत्न संजीव कोहली ने अपने पिता की बिना इस्तेमाल की हुई ३क् धुनें यश चोपडा को सुनाई जिनमें आठ का इस्तेमाल उन्होंने अपनी फिल्म वीर जारा के लिए किया। ये गीत भी श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय हुए।





शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

हम सबके जीवन में बाधक है टाइम रॉबर

डॉ. महेश परिमल
समय मूल्यवान है, कीमती है, अनमोल है, अमोल है, इन सारी बातों को हम अच्छी तरह से समझते हैं, पर क्या हमने कभी सोचा कि हमारे आसपास समय के डकैत भी हैं। जो हमारा समय चुरा लेते हैं, हमें जीवन में पीछे धकेल देते हैं। जब हम कोई महत्वपूर्ण काम करना चाहते हैं, तब हमारे पास समय का अभाव होता है। जिन्होंने जीवन में विफलता का स्वाद चखा है, वे अच्छी तरह से जानते हैं कि उनका समय कब, कहाँ, किस तरह और किसने बरबाद किया है। विफलता के बाद ही हमें याद आता है कि हमारा कितना समय बरबाद हुआ। सफल वही, जिसने समय को बरबाद नहीं किया। आशय यही है कि हम सबके जीवन में टाइम रॉबर और टाइम सेवर काम करते हैं। टाइम रॉबर समय बरबाद करते हैं और टाइम सेवर जीवन सँवारते हैं। हमें इनको पहचानना होगा। अपने अनुभवों से ही हम इन्हें पहचान सकते हैं, क्योंकि दोनों में कोई विशेष भेद नहीं है। बहुत ही बारीक लकीर इन दोनों को विभाजित करती है। हमने अक्सर देखा होगा कि कुछ लोग कभी-कभी बातचीत में इतने अधिक तल्लीन हो जाते हैं कि उन्हें समय का भान ही नहीं होता। इस बीच वे अपने कई आवश्यक काम नहीं कर पाते। यहाँ दोनों ही परस्पर टाइम रॉबर हैं। दोनों ने एक-दूसरे का समय बरबाद किया। एक ओर जहाँ सार्थक बातचीत हमें कुछ सबक देती है, तो दूसरी तरफ निरर्थक बातचीत भी वह सबक देती है कि इस प्रकार की बातचीत में समय लगाना अच्छी बात नहीं है। जहाँ हमारा समय किसी काम नहीं आ रहा है, न हमारे और न ही किसी अन्य के लिए, तो समझो, वहाँ टाइम रॉबर काम कर रहा है। टाइम सेवर का एक छोटा सा रूप आप पानी-पूरी खिलाने वाले के पास देख सकते हैं, किस तरह से वह कई ग्राहकों को एक साथ पानी-पूरी देता है, उन्हें गिन भी लेता है, साथ-साथ ग्राहकों की पसंद के अनुसार पानी-पूरी तैयार करता है। एक साथ कई काम करने के बाद भी वह स्वयं को चुस्त-दुरुस्त रखता है।
 कई बार ऐसा होता है कि हम कहीं जा रहे हैं, तो कोई हमसे कहता है कि आगे रास्ता खराब है, आप नहीं जा पाएँगे। उस समय वह हमें टाइम रॉबर के रूप में दिखाई देता है। यदि आगे जाकर सचमुच ही रास्ता खराब मिलता है, तो वही व्यक्ति हमारे लिए टाइम सेवर बन जाता है। बस इतना ही फर्क होता है दोनों में। अक्सर ऐसा होता है, जिसे हम टाइम सेवर मानते हैं, वह टाइम रॉबर निकलता है। कभी इसके विपरीत भी होता है। टाइम रॉबर की सक्रियता अक्सर महिलाओं में अधिक होती है। पर पुरुष भी किसी मामले में पीछे नहीं होते। आप स्वयं अनुभव करें। कभी-कभी किसी काम में हमें आवश्यकता से अधिक समय लगता है। इसका आशय यही है कि वहाँ टाइम रॉबर काम कर रहा है। कभी कोई काम आसानी से हो जाता है, तो अनजाने में हमारा टाइम सेवर हमें काम आता है। आप यदि तय कर लें कि इस काम में हमें इससे अधिक समय नहीं देना है, तो बस आप हो गए टाइम सेवर। कंप्यूटर पर बैठने वाले कई बार घंटों ई मेल चेक करने और जवाब देने में ही लगा देते हैं। जबकि उससे आवश्यक काम उनका इंतजार कर रहे होते हैं। निंदा पुराण, साड़ी पुराण, ईष्र्या पुराण आदि टाइम रॉबर के ही रूप हैं। दूसरी ओर संतों के प्रवचन सुनना, अपने आराध्य की पूजा करना, बच्चों के साथ बच्चा बनकर खेलना और वह काम करना जिसमें आपकी रुचि हो, ये सब हमारे टाइम सेवर हैं।
आजकल बच्चों का काफी समय इंटरनेट पर फेसबुक में समय जाया होता है। इसे वे नहीं समझ पाते। पर बाद में जब कई काम उनसे नहीं हो पाते, तब समझ में आता है कि उन्होंने कितना समय खराब कर दिया। जो लोग अपना टेबल साफ नहीं रख सकते, टाइम रॉबर उसका सबसे बड़ा दुश्मन है। ऐसा दुश्मन, जो उसे कभी सही समय पर सही काम करने नहीं देगा। टाइम रॉबर को समझने के लिए विद्यार्थी की किताबें-कापियाँ, कपड़े, बेग आदि देखकर ही पर्याप्त हैं। करीने से रखी हुई हर चीज यह बताती है कि टाइम सेवर उनके साथ है। बेतरतीब चीजों के अटाले के पास टाइम रॉबर ही मिलेंगे। हाँ इन अटालों से आप कोई उपयोगी चीज निकाले लें, वही होगा आपका टाइम सेवर। जो समय बचाने में हमारी मदद करे, वही है सच्चा टाइम सेवर। समय बरबाद करने के कारक हमारे आसपास ही बिखरे हैं। बस जरा ध्यान से देखें, तो समझ में आ जाएगा कि कौन हमारा जीवन संवारने में मददगार है। हर किसी को अपना समय देने की एक सीमा होती है, जो प्रेमिका या प्रेमी को आवश्यकता से अधिक समय देते हैं, उससे बड़ा टाइम रॉबर और कोई हो ही नहीं सकता। जो विफल रहे हैं, उनके जीवन में टाइम रॉबर की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। टाइम रॉबर हमें समय को खोना सिखाते हैं और टाइम सेवर समय को बोना सिखाते हैं। समय बरबाद करने का काम टाइम रॉबर करते हैं और समय को बोने का काम टाइम सेवर। यह आप पर निर्भर है कि आप किसे अपना दोस्त बनाना चाहते हैं? इससे भी आवश्यक यह है कि हमें इसकी भी जाँच और पहचान कर लेनी चाहिए कि कहीं हम ही तो किसी के लिए टाइम रॉबर तो नहीं हैं?
डॉ. महेश परिमल