उमाशंकर सिंह
फिल्म शोले के दृष्टिहीन इमाम साहब के बेटे को गब्बर सिंह के गिरोह ने मार कर गांव भेज दिया है। वहां चारों तरफ एक डरावनी और मार्मिक चुप्पी पसरी है। उस चुप्पी को तोड़ते हुए अपने बेटे की मौत से बेखबर इमाम साहब की भूमिका जी रहे एके हंगल साहब पूछते हैं- इतना सन्नाटा क्यों है भाई? वैसे तो शोले का हर डायलॉग मशहूर हुआ, पर इमाम साहब का यह डॉयलॉग जितने सामाजिक-राजनीतिक अर्थ-प्रसंगों में प्रयुक्त हुआ, उतना शायद ही कोई और डायलॉग हुआ हो। आपातकाल के दौर में जब सरकारी दमन ने लोगों की जबान पर ताला लगा दिया था तब आपातकाल के खिलाफ संघर्ष कर रहे नेता लोगों को ललकारते हुए कहते थे- इतना सन्नाटा क्यों है भाई। कुछ तो बोलो, कोई तो बोलो। सिने जगत का माहौल इतना हलचल भरा है कि यहां मौतें भी सन्नाटा पैदा नहीं कर पातीं। अलबत्ता उपेक्षित और सच्चे कलाकारसन्नाटे में अलविदा जरूर कह जाते हैं। फिल्मों के सौ-सौ करोड़ कमाने और नायकों के करोड़ों के मेहनताने के इस सुनहरे दौर में भी गाहे-बगाहे कभी एके हंगल और मुबारक बेगम जैसे कई कलाकार अपने इलाज तक के लिए दूसरों के मोहताज हो जाते हैं। 1966 में बासु भट्टाचार्या की तीसरी कसम से अपनी सिने यात्रा शुरू करने वाले अवतार कृष्ण हंगल जल्द ही हिंदी सिनेमा के उन चेहरों में शुमार हो गए थे जिनके बगैर उस दौर के सिनेमा की तस्वीर मुकम्मल नहीं होती थी। थियेटर उनका पहला प्यार था। हर कोई जानता था कि फिल्म में अभिनय वह महज जीवन चलाने के लिए करते थे। लेकिन जितनी संजीदगी उन्होंने अपनी छोटी-छोटी भूमिकाएं जीने में दिखाई, उससे कहीं नहीं लगा कि सिनेमा उनका दूसरा प्यार है या वह सिनेमा को दोयम दर्जे का माध्यम मानते हैं। सिनेमा में कदम रखने तक वह पचास मौसमों के लू के थपेड़े खा चुके थे। उन्होंने दर्जीगीरी की थी। आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था। करीब तीन साल जेल की कालकोठरी में सुबह के सूरज तक से महरूम रहे। भूख-प्यास सहते रहे और अपने जमाने के उदास मौसम के लिए लड़ते रहे। उन्होंने कभी इस सबके लिए सहानुभूति नहीं बटोरी। कभी किसी रावण के घर पानी नहीं भरा। किसी पुरस्कार-इमदाद की न तो कभी आरजू की और न ही कोशिश। फिल्मों में आने से पहले हंगल ने जिंदगी के हर रंग देखे। यही वजह रही कि वह अपनी भूमिकाओं में प्राण फूंक पाए। गरीब, लाचार और निरीह लोगों के किरदार में हंगल साहब भारत की 70 फीसदी वंचित जनता का दर्द और अभाव बयां कर देते थे। संभवत: यह प्रकाश मेहरा की खून-पसीना फिल्म का दृश्य है- गांव में पंगत में भोज किया जा रहा है। अचानक किसी की घड़ी गायब हो जाती है। तय होता है कि उस पंगत में बैठे सभी लोग तलाशी देंगे। सभी सहर्ष तैयार भी हो जाते हैं, पर हंगल साहब साफ मना कर देते हैं। सब लोग उन्हें घड़ी का चोर मान रहे होते हैं। चारों तरफ से व्यंग्य बाण चल रहे होते हैं। इस जलालत के बीच वे अपनी जेब से उन पूडि़यों को निकालकर रख देते हैं, जो उन्होंने अपने घर के अन्य सदस्यों का पेट भरने के लिए चोरी की थी। जिस दौर में हंगल साहब फिल्मों में नुमायां हुए वह प्राण, महमूद, उत्पल दत्त, ओमप्रकाश और इफ्तेखार खान जैसे मंझे हुए चरित्र अभिनेताओं का दौर था। अपने सहज अभिनय के दम पर उन्होंने जल्द ही इस फेहरिस्त में अपना भी नाम शामिल कर लिया। उस वक्त के अन्य चरित्र अभिनेताओं के अभिनय में सहजता के साथ नाटकीयता का पुट भी था और हल्का लाउडनेस भी। लेकिन हंगल साहब के साथ ऐसा नहीं था। सहजता और सादगी उनके अभिनय के दो बुनियादी गुण थे। अभिनय की कशिश उनमें दिखती थी, कोशिश नहीं। वह पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, ऋत्विक घटक, सलिल चौधरी, अली सरदार जाफरी, कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी और हेमंत कुमार आदि की उस परंपरा में थे, जिन्होंने इप्टा (इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) से आकर भारतीय सिनेमा को समृद्ध किया था। हिंदी सिनेमा के पितृ पुरुष पृथ्वीराज कपूर की तरह वह हंगल साहब भी संपत्ति संचय में यकीन नहीं करते थे। दोनों ताउम्र किराए के मकान में रहे। जीवनभर काम करते रहने और उससे मिले धन में जीवन चलाने को दोनों ने एक मूल्य की तरह सहेजा और अंत तक इस पर कायम रहे। हंगल साहब ने अपने निधन से कुछ दिन पहले तक शूटिंग की। उनकी प्रतिबद्धता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि लगान में वह सेट पर स्ट्रेचर पर बैठकर एक दृश्य की शूटिंग के लिए आए थे। हालांकि लंबी फिल्म को छोटा करने के चलते बाद में उस दृश्य को फिल्म से हटाना पड़ा। हमारे यहां बाद के वर्र्षो में अपनी विचारधाराओं से डिगकर प्रसाद पाने वालों की लंबी फेहरिस्त रही है, लेकिन हंगल साहब यहां भी अपवाद नजर आते हैं। अपने निधन से करीब तीन महीने पहले अस्पताल से छुट्टी मिलने पर उन्होंने अपने दो-चार शुरुआती काम किए। इनमें कम्युनिस्ट पार्टी की अपनी सदस्यता को रीन्यू कराना भी शामिल था। हंगल साहब फिल्मों के फिलर नहीं थे, बल्कि एक जरूरी तत्व थे। ऐसे सहायक अभिनेता जिनके बिना न हीरो का किरदार ही पूरा होता था और न फिल्म की कहानी। आजकल कुछ फिल्म कलाकार ब्रांड एंबेस्डर बनकर खुद को समाज सुधारक मान लेते हैं और उसकी डुगडुगी बजवाते हैं। एके हंगल प्रचार से दूर रहकर चुपचाप समाज के लिए काम किया करते थे। सांप्रदायिकता के खिलाफ उनका संघर्ष एक मिसाल रहा है। चार्ली-चैपलिन का समाजवाद की तरफ हल्का-सा रुझान ही हुआ था कि उन पर कई तरह के सवाल उठाए गए थे। फिर हंगल साहब तो भारत में थे और घोषित कम्युनिस्ट भी। एक ऐसा भी दौर आया, जब शिवसेना की आपत्ति के चलते उन्हें फिल्मों में काम देना बंद कर दिया गया। इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि जीवन के आखिरी समय में इलाज के लिए उन्हें दूसरों से मदद लेनी पड़ी। ऐसे हंगल साहब के जाने से सिने जगत में खालीपन का जो सन्नाटा पैदा हुआ है, उसे हर कहीं महसूस किया जा सकता है।
फिल्म शोले के दृष्टिहीन इमाम साहब के बेटे को गब्बर सिंह के गिरोह ने मार कर गांव भेज दिया है। वहां चारों तरफ एक डरावनी और मार्मिक चुप्पी पसरी है। उस चुप्पी को तोड़ते हुए अपने बेटे की मौत से बेखबर इमाम साहब की भूमिका जी रहे एके हंगल साहब पूछते हैं- इतना सन्नाटा क्यों है भाई? वैसे तो शोले का हर डायलॉग मशहूर हुआ, पर इमाम साहब का यह डॉयलॉग जितने सामाजिक-राजनीतिक अर्थ-प्रसंगों में प्रयुक्त हुआ, उतना शायद ही कोई और डायलॉग हुआ हो। आपातकाल के दौर में जब सरकारी दमन ने लोगों की जबान पर ताला लगा दिया था तब आपातकाल के खिलाफ संघर्ष कर रहे नेता लोगों को ललकारते हुए कहते थे- इतना सन्नाटा क्यों है भाई। कुछ तो बोलो, कोई तो बोलो। सिने जगत का माहौल इतना हलचल भरा है कि यहां मौतें भी सन्नाटा पैदा नहीं कर पातीं। अलबत्ता उपेक्षित और सच्चे कलाकारसन्नाटे में अलविदा जरूर कह जाते हैं। फिल्मों के सौ-सौ करोड़ कमाने और नायकों के करोड़ों के मेहनताने के इस सुनहरे दौर में भी गाहे-बगाहे कभी एके हंगल और मुबारक बेगम जैसे कई कलाकार अपने इलाज तक के लिए दूसरों के मोहताज हो जाते हैं। 1966 में बासु भट्टाचार्या की तीसरी कसम से अपनी सिने यात्रा शुरू करने वाले अवतार कृष्ण हंगल जल्द ही हिंदी सिनेमा के उन चेहरों में शुमार हो गए थे जिनके बगैर उस दौर के सिनेमा की तस्वीर मुकम्मल नहीं होती थी। थियेटर उनका पहला प्यार था। हर कोई जानता था कि फिल्म में अभिनय वह महज जीवन चलाने के लिए करते थे। लेकिन जितनी संजीदगी उन्होंने अपनी छोटी-छोटी भूमिकाएं जीने में दिखाई, उससे कहीं नहीं लगा कि सिनेमा उनका दूसरा प्यार है या वह सिनेमा को दोयम दर्जे का माध्यम मानते हैं। सिनेमा में कदम रखने तक वह पचास मौसमों के लू के थपेड़े खा चुके थे। उन्होंने दर्जीगीरी की थी। आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था। करीब तीन साल जेल की कालकोठरी में सुबह के सूरज तक से महरूम रहे। भूख-प्यास सहते रहे और अपने जमाने के उदास मौसम के लिए लड़ते रहे। उन्होंने कभी इस सबके लिए सहानुभूति नहीं बटोरी। कभी किसी रावण के घर पानी नहीं भरा। किसी पुरस्कार-इमदाद की न तो कभी आरजू की और न ही कोशिश। फिल्मों में आने से पहले हंगल ने जिंदगी के हर रंग देखे। यही वजह रही कि वह अपनी भूमिकाओं में प्राण फूंक पाए। गरीब, लाचार और निरीह लोगों के किरदार में हंगल साहब भारत की 70 फीसदी वंचित जनता का दर्द और अभाव बयां कर देते थे। संभवत: यह प्रकाश मेहरा की खून-पसीना फिल्म का दृश्य है- गांव में पंगत में भोज किया जा रहा है। अचानक किसी की घड़ी गायब हो जाती है। तय होता है कि उस पंगत में बैठे सभी लोग तलाशी देंगे। सभी सहर्ष तैयार भी हो जाते हैं, पर हंगल साहब साफ मना कर देते हैं। सब लोग उन्हें घड़ी का चोर मान रहे होते हैं। चारों तरफ से व्यंग्य बाण चल रहे होते हैं। इस जलालत के बीच वे अपनी जेब से उन पूडि़यों को निकालकर रख देते हैं, जो उन्होंने अपने घर के अन्य सदस्यों का पेट भरने के लिए चोरी की थी। जिस दौर में हंगल साहब फिल्मों में नुमायां हुए वह प्राण, महमूद, उत्पल दत्त, ओमप्रकाश और इफ्तेखार खान जैसे मंझे हुए चरित्र अभिनेताओं का दौर था। अपने सहज अभिनय के दम पर उन्होंने जल्द ही इस फेहरिस्त में अपना भी नाम शामिल कर लिया। उस वक्त के अन्य चरित्र अभिनेताओं के अभिनय में सहजता के साथ नाटकीयता का पुट भी था और हल्का लाउडनेस भी। लेकिन हंगल साहब के साथ ऐसा नहीं था। सहजता और सादगी उनके अभिनय के दो बुनियादी गुण थे। अभिनय की कशिश उनमें दिखती थी, कोशिश नहीं। वह पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, ऋत्विक घटक, सलिल चौधरी, अली सरदार जाफरी, कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी और हेमंत कुमार आदि की उस परंपरा में थे, जिन्होंने इप्टा (इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) से आकर भारतीय सिनेमा को समृद्ध किया था। हिंदी सिनेमा के पितृ पुरुष पृथ्वीराज कपूर की तरह वह हंगल साहब भी संपत्ति संचय में यकीन नहीं करते थे। दोनों ताउम्र किराए के मकान में रहे। जीवनभर काम करते रहने और उससे मिले धन में जीवन चलाने को दोनों ने एक मूल्य की तरह सहेजा और अंत तक इस पर कायम रहे। हंगल साहब ने अपने निधन से कुछ दिन पहले तक शूटिंग की। उनकी प्रतिबद्धता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि लगान में वह सेट पर स्ट्रेचर पर बैठकर एक दृश्य की शूटिंग के लिए आए थे। हालांकि लंबी फिल्म को छोटा करने के चलते बाद में उस दृश्य को फिल्म से हटाना पड़ा। हमारे यहां बाद के वर्र्षो में अपनी विचारधाराओं से डिगकर प्रसाद पाने वालों की लंबी फेहरिस्त रही है, लेकिन हंगल साहब यहां भी अपवाद नजर आते हैं। अपने निधन से करीब तीन महीने पहले अस्पताल से छुट्टी मिलने पर उन्होंने अपने दो-चार शुरुआती काम किए। इनमें कम्युनिस्ट पार्टी की अपनी सदस्यता को रीन्यू कराना भी शामिल था। हंगल साहब फिल्मों के फिलर नहीं थे, बल्कि एक जरूरी तत्व थे। ऐसे सहायक अभिनेता जिनके बिना न हीरो का किरदार ही पूरा होता था और न फिल्म की कहानी। आजकल कुछ फिल्म कलाकार ब्रांड एंबेस्डर बनकर खुद को समाज सुधारक मान लेते हैं और उसकी डुगडुगी बजवाते हैं। एके हंगल प्रचार से दूर रहकर चुपचाप समाज के लिए काम किया करते थे। सांप्रदायिकता के खिलाफ उनका संघर्ष एक मिसाल रहा है। चार्ली-चैपलिन का समाजवाद की तरफ हल्का-सा रुझान ही हुआ था कि उन पर कई तरह के सवाल उठाए गए थे। फिर हंगल साहब तो भारत में थे और घोषित कम्युनिस्ट भी। एक ऐसा भी दौर आया, जब शिवसेना की आपत्ति के चलते उन्हें फिल्मों में काम देना बंद कर दिया गया। इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि जीवन के आखिरी समय में इलाज के लिए उन्हें दूसरों से मदद लेनी पड़ी। ऐसे हंगल साहब के जाने से सिने जगत में खालीपन का जो सन्नाटा पैदा हुआ है, उसे हर कहीं महसूस किया जा सकता है।
(दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण से साभार)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें