रोना, यह अच्छा गुण नहीं है लेकिन लोग रोते हैं? क्यों रोते हैं, किसके लिए रोते हैं, क्या मिलता है रोने से? क्या रोना है, कहां तक उचित है? इतने ढेर सारे सवाल, एक साथ मानस पटल पर उभरना आश्चर्यजनक है और उतना ही मुश्किल है उसका उत्तर ढूंढ पाना, एकत्र कर पाना।
जहां तक मुझे याद है, रोने से मैं कतराता था, बचने की कोशिश करता था। स्थिति, परिस्थितियां कभी-कभार ऐसी निर्मित हो जाया करती थी तब ऐसा लगता था, मन द्रवित हो गया है और अब तब रो पड़ूंगा लेकिन इससे बचने के लिए घर से बाहर निकल जाता था और ऐसी जगह पहुंच जाता था जहां लोगों की भीड़ हुआ करती थी। बच्चे अथवा साथी मैदान में केलकूद कर रहे होते थे और फिर क्या था, उन लोगों की टीम में शामिल होकर खेलने लग जाता था। इसका फायदा यह होता था, मनसा में आने वाला भावाभिव्यक्ति अथवा द्रवित होने वाले विचारों का शमन हो जाता था, और बच जाता था रोने से। मुझे याद पड़ता है, तीस-पैंतीस सालों में कभी रोया नहीं। रोने पर विजय प्राप्त कर लिया था। बचपन से गुरु दीक्षा ले लिया था, जिसका फायदा मिला, कुछ-कुछ साधना भी किया करता था जिसका लाभ मिल रहा था।
लेकिन एक दिन ऐसा भूचाल आया कि सारा ज्ञान, साधना का कचूमर निकल गया। पूजा करके उठा ही था कि इसी दौरान गांव से सूचना आई कि पिताश्री नहीं रहे। इस सूचना से विचलित तो नहीं हुआ और तटस्थ भाव से सूचना देने आने वाले व्यक्ति के साथ गांव के लिए रवाना हुआ। साइकिल पर जा रहा था, पीछे बैठा था, साइकिल चालक से कोई बातचीत नहीं। लेकिन मन झकझोर रहा ता। कभी कहता रोना नहीं है, आने वालों को तो एक दिन जाना ही होता है, सभी लोग चले जाते हैं चाहे वह राजा हो, रंक हो, फकीर हो, अथवा आम आदमी। तुम्हें भी एक दिन इस संसार से विदा लेना होगा। यह तो रंगशाला है, सब अ्भिनय करने वाले लोग होते हैं। पिताश्री का रोल खत्म हो गया और चला गया। तर्क-वितर्क, विचारों का उधेड़बुन, ऐसा लग रहा था जैसे संग्राम चल रहा हो। लेकिन इस संग्राम में आखिरकार मुझे पराजित होना पड़ा, मेरे आंखों से आंसू बच्चों की तरह नदियों के पानी की तरह झर-झर बहने लगे। घर पहुंचते तक यही स्थिति रही। मन ने कहा- देखो, पिताश्री की याद ने तुम्हें रूला दिया ना.
हां, मैं पराजित हो गया और यह 'रोना ने विजय प्राप्त कर लिया।
बातें चल रही है लोग राते क्यों हैं, उन्हें रोना नहीं चाहिए लेकिन कभी-कभी शिकारी भी ऐसे शिकार में फंस जाता है कि उसका संकट से उबरना मुश्किल हो जाता है। ऐसी ही एक बार की बात है, एक आश्रम में प्रवचन का कार्यक्रम शुरू होने वाला था। कथा वाचक मंच पर विराजमान हो चुके थे। उसका परिचय और कार्यक्रम का विवरण देने के लिए आश्रम के प्रभारी ने माइक संभाला। वे बड़े ज्ञानी और योगी महापुरुष थे। उनके बड़े भाई का हाल ही में निधन हुआ था। कार्यक्रम का विवरण देते वक्त दिवंगत भाई का उन्हें स्मरण हो आया। उनका गला रुंध गया। पंछे से आंखों से झर रहे आंसुओं को पोंछने लगे। सभा में सन्नाटा पसर गया। कुछ देर के लिए शांति का माहौल निर्मित हो गया। श्रोताओं के बीच मैं भी बैठा हुआ था। सोचने लगा, मन में तर्क-वितर्क उठने लगा- इतने ज्ञानी, योगी, तपस्वी, साधक और संसार को ज्ञान, योग का प्रसाद बांटने वाले महात्मा के आंखों में आंसू क्यों, भाईश्री की मौत पर इनके मन में शोक की साया क्यों? जब घर-बार छोड़कर ब्रम्हचर्य जीवन यापन करने वाले महात्मा की यह स्थिति है तब सामान्य आदमी और इनमें अंतर क्या है? इनकी साधना, ज्ञान, योग और तपस्या सब निष्फल है। इससे बेहतर तो आम इंसान ही है जो सुख-दुखों के बीच जीवन यापन करते हैं। सच मुच बड़ी अजीब है यह दुनिया । कभी किसी को हंसाती है तो रुलाने से बाज भी नहीं आती। इसी बीच एक फिल्मी गीत का स्मरण हो आया। गीत के बोल इस प्रकार हैं- 'रोना कभी नहीं रोना, चाहे टूट जाए तेरा खिलौना । हीरो अपने बच्चे को सीने में लेकर कहता है- 'जिंदगी में कभी रोना नहीं, भले ही खिलौना टूट जाए। बच्चों को खिलौनों से कितना प्यार होता है, इसे कौन नहीं जानता? कदाचित जाने-अनजाने में वह टूट-फूट जाए तब वह कैसे नहीं रोयेगा। अर्थात जिस चीज से जिसका प्यार होता है, लगाव और संबंध होता है और यदि उससे विच्छेद हो जाए, अंत हो जाए तब शोक भला किसे नहीं होगा? यह संसार है, बच्चा जन्म लेता है तब खुशी होती है और मर जाता है पूरे घर में मातम छा जाता है। मां बच्चे के वियोग में छाती पीट-पीटकर रोती है। इसी तरह बच्चे भी खिलौना टूट जाने पर रोते हैं। माता-पिता उसे दूसरा खिलौना लाने का आश्वासन देते हैं तब कहीं वह चुप होता है।
प्यार, लगाव, संबंध- यही तो माया है। इसी से तो सारा संसार चल रहा है। जकड़े हुए हैं सब। जब ज्ञानी, ध्यानी भी माया के च्ककर में फंस जाते हैं तब आम जन की बात जाने दीजिए। कोई चाहे कितना भी दावा करे कि वह मोह मुक्त है, तो यह असंभव है। बिरले ही लोग मिलेंगे। इसी प्रसंग में एक वाक्या का स्मरण सुनाते हुए एक साध्वी का 'आप बीती बता रहा हूं। इस शहर में एक कार्यक्रम के दौरान श्रोताओं को उसने बताया कि एक बार उसके जीवन में अजीबो गरीब संकट आया। वह असमंजस में पड़ गई कि अब करे तो क्या करे। नष्टोमोहा की परीक्षा की घड़ी थी। उन्हें यह दीक्षा मिली थी कि जीवन में चाहे कैसी भी परिस्थिति आ जाए लेकिन आंखों से एक बूंद आंसू नहीं टपकना चाहिए। उसने बताया कि मां के निधन का समाचार आया तब वह स्तब्ध रह गई। दूसरे दिन घर पहुंचने का बुलावा था। सोचने लगी- क्या करूं, क्या न करूं। जाना तो था, रास्तेभर ट्रेन में सोचती-गुनती रही कि मां तो मां है, उसकी बेटी हूं, संतान हूं। उसकी कोख से जन्म लिया है तब उससे जरूर लगाव और संबंध होना स्वाभाविक है। और इधर ज्ञान में आने के बाद वह सब संबंध विलुप्त सा हो गया और एक परमात्मा से सब संबंध जोड़ लिया। लेकिन मां की याद उसकी ममता और प्यार को कैसे विस्मृत किया जा सकता है? सोचने लगी- जब उसके मृत देह और चेहरे को देखूंगी तब क्या धैर्य का बांध टूट नहीं जाएगा, कैसे नहीं छलकेंगे आंसू? लेकिन उसे इस वक्त यह स्मरण हो रहा था कि बाबा ने कहा है- बेटी, मां मरे तो हलुवा खावो, बाप मरे तब हलुवा खाना। जब मां के मृत शरीर को देखा तब मन एकदम शांत हो गया। आंखें निहारती रही, ऐसा लग रहा था जैसे कुछ हुआ ही नहीं है। यहां नष्टोमोहा की डिग्री मिल गई, परीक्षा में सफल हो गया। सचमुच रोते तो बच्चे हैं जो अनजान और अज्ञानी की तरह होते हैं, वे नहीं जानते कि खिलौने को तो एक न एक दिन टूटना-फूटना ही है। इसी तरह यह मानव शरीर है, नश्वर देह है। इसको भी एक दिन इस संसार से विदा लेना है तब इसके लिए क्या रोना-धोना, सिर पिटना?
परमानंद वर्मा
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