पत्रकारिता से मीडिया तक वरिष्ठ पत्रकार मनोज कुमार की नई किताब
वर्तमान में पत्रकारिता हाशिये पर है और मीडिया शब्द चलन में है.
पत्रकारिता के गूढ़ अर्थ और मीडिया की व्यापकता को रेखांकित करता
मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार एवं भोपाल से प्रकाशित शोध पत्रिका समागम के सम्पादक मनोज कुमार की नई किताब पत्रकारिता से मीडिया तक का प्रकाशन वैभव प्रकाशन रायपुर ने किया है. मनोज कुमार विगत तीन दशकों से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं. अपने अनुभवों को और समय समय पर लिखे गये लेखों का यह संग्रह महज संकलन न होकर एक दस्तावेज बन पड़ा है. मनोज कुमार की यह पांचवीं किताब है.
पत्रकारिता के विविध विषयों पर ऐसे आलेख हैं जो हमेशा सामयिक बने रहेंगे.
किताब में शामिल पहला लेख पत्रकारिता से मीडिया तक में उन्होंने इस बात पर अफसोस जाहिर किया है कि कभी हम अर्थात श्रमजीवी कहलाते थे और आज हम मीडिया कर्मी हो गये हैं. यह एक गंभीर सवाल है जिस पर हम सबको विचार करने की जरूरत है कि हम तो हमेशा से श्रमजीवी रहे हैं और रहेंगे. इसी तरह पत्रकारिता की भाषा, पाठकों की उदासीनता, अखबार के पन्नों पर बढ़ते विज्ञापन, पेडन्यूज, पीत पत्रकारिता आदि आदि विषयों पर उनके तल्ख टिप्पणियों वाले लेख शामिल है. यह किताब कई बार मन को भीतर तक परेशान कर जाती है.
मनोज कुमार की इस किताब में कुछ अन्य आलेख सामाजिक सरोकार के हैं. वह भी समय की नब्ज पर हाथ रखते दिखते हैं. 128 पेज की इस किताब में तीस लेख शामिल किये गये हैं. छपाई खूबसूरत है और कीमत भी अधिक नहीं महज दो सौ रूपये. वैभव प्रकाशन को इस बात की दाद देनी चाहिये कि इस कठिन समय में वे ऐसी किताब छापने का साहस किया जब इसके खरीददार शायद ना मिले. यह किताब प्रोफेशनल्स के साथ ही पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिये जरूरी किताब है.
-अभिनव तैलंग, कला समीक्षक, भोपाल
वर्तमान में पत्रकारिता हाशिये पर है और मीडिया शब्द चलन में है.
पत्रकारिता के गूढ़ अर्थ और मीडिया की व्यापकता को रेखांकित करता
मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार एवं भोपाल से प्रकाशित शोध पत्रिका समागम के सम्पादक मनोज कुमार की नई किताब पत्रकारिता से मीडिया तक का प्रकाशन वैभव प्रकाशन रायपुर ने किया है. मनोज कुमार विगत तीन दशकों से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं. अपने अनुभवों को और समय समय पर लिखे गये लेखों का यह संग्रह महज संकलन न होकर एक दस्तावेज बन पड़ा है. मनोज कुमार की यह पांचवीं किताब है.
पत्रकारिता के विविध विषयों पर ऐसे आलेख हैं जो हमेशा सामयिक बने रहेंगे.
किताब में शामिल पहला लेख पत्रकारिता से मीडिया तक में उन्होंने इस बात पर अफसोस जाहिर किया है कि कभी हम अर्थात श्रमजीवी कहलाते थे और आज हम मीडिया कर्मी हो गये हैं. यह एक गंभीर सवाल है जिस पर हम सबको विचार करने की जरूरत है कि हम तो हमेशा से श्रमजीवी रहे हैं और रहेंगे. इसी तरह पत्रकारिता की भाषा, पाठकों की उदासीनता, अखबार के पन्नों पर बढ़ते विज्ञापन, पेडन्यूज, पीत पत्रकारिता आदि आदि विषयों पर उनके तल्ख टिप्पणियों वाले लेख शामिल है. यह किताब कई बार मन को भीतर तक परेशान कर जाती है.
मनोज कुमार की इस किताब में कुछ अन्य आलेख सामाजिक सरोकार के हैं. वह भी समय की नब्ज पर हाथ रखते दिखते हैं. 128 पेज की इस किताब में तीस लेख शामिल किये गये हैं. छपाई खूबसूरत है और कीमत भी अधिक नहीं महज दो सौ रूपये. वैभव प्रकाशन को इस बात की दाद देनी चाहिये कि इस कठिन समय में वे ऐसी किताब छापने का साहस किया जब इसके खरीददार शायद ना मिले. यह किताब प्रोफेशनल्स के साथ ही पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिये जरूरी किताब है.
-अभिनव तैलंग, कला समीक्षक, भोपाल
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