प्रमोद भार्गव
यह हमारे देश की कानून व्यवस्था की ही विडंबना है कि जेल में कैद निर्दोष आरोपी तो मतदान करने के अधिकार से वंचित रहता है, लेकिन किसी सांसद और विधायक को गंभीर आपराधिक मामले में सजा भी हो जाए तो भी उसकी सदस्यता बेअसर रहती है। कानून की इस विसंगति को दूर करने और इनकी सदस्यता खत्म करने के सिलसिले में सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान न्यायालय ने केंद्र सरकार से भी राय चाही थी। किंतु यहां गौरतलब है कि सरकार ने दागियों के फेबर में शपथ-पत्र देकर यह सुनिश्चित कर दिया कि वह मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में कोई सुधार या बदलाव नहीं चाहती। इस हलफनामे ने यह भी तय किया कि राहुल गांधी कांग्रेस में जिस शुचिता, पारदर्शिता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बहाली की मंचों से दुहाई दे रहे हैं, कांग्रेस नेतृत्व वाली संप्रग सरकार का उससे कोई वास्ता नहीं है ? नेताओं का दागी अतीत, वर्तमान और भविष्य में भी राजनीतिक नेतृत्व की अगुआई करता रहेगा।
केंद्र सरकार ने शीर्ष - न्यायालय में हलफनामा दायर करके यह साफ कर दिया है कि वह जनप्रतिनिधित्व कानून के किसी भी मौजूदा प्रस्ताव में परिवर्तन नहीं चाहती। मौजूदा कानून में प्रावधान है कि यदि सांसद या विधायक को किसी आपराधिक मामले में सजा हो जाए तो उसकी सदस्यता बरकरार रहेगी। बीते कुछ सालों में यह लगातार देखने में आ रहा है कि कई मंत्रियों, सांसदों व विधायकों को आपराधिक मामलों में हवालात के सींखचों के पीछे जाना पड़ा है। किंतु यहां यह विरोधाभासी स्थिति है कि सजायाफ्ता नेता संसद और विधानसभा सत्रों के दौरान सदन की कार्यवाही में बेहिचक भागीदारी कर सकते हैं। मतदान कर सकते हैं। किसी नए कानून की संहिताएं रचने में राय देकर निर्णयात्मक भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं।
हमारे संविधान का यह कितना अजीबोगरीब लचीलापन है कि कानून की अवज्ञा का अपराधी ही नए कानून का निर्माता बन जाता है। दरअसल नामजद और सजायाफ्ता दोषियों को चुनाव लड़ने का अधिकार जनप्रतिनिात्व कानून के जरिये मिला हुआ है। इस कानून में प्रावधान है कि सजा सुनाए जाने के छह साल बाद राजनेता मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज करा सकता है और चुनाव भी लड़ सकता है। यदि निचली अदालत में दोषी पाए व्यक्ति की अपील उपरी अदालत स्वीकार कर लेती है और जब तक उसका फैसला नहीं आ जाता तब तक दोषी व्यक्ति को न तो मतदान से वंचित किया जा सकता है और न ही चुनाव लड़ने के अधिकार से ? इस विधि-सम्मत व्यवस्था के विपरीत संविधान के अनुच्छेद 173 और 326 में प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा अपराधी करार दिए लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जा सकते हैं। यहां सवाल उठता है कि जब संविधान के अनुसार कोई अपराधी मतदाता भी नहीं बन सकता है तो वह जनप्रतिनिधि बनने के लिए निर्वाचन प्रक्रिया में भागीदारी कैसे कर सकता है? जनहित याचिका इसी विसंगति को दूर करने के बाबत दाखिल की गई थी और शीर्ष न्यायालय ने अपने अभिलेख में टिप्पणी दर्ज करते हुए केंद्र सरकार से पूछा था कि यदि अन्सजायाफ्ता लोगों को निर्वाचन प्रक्रिया में हिस्सा लेने का अधिकार नहीं है तो सजायाफ्ता सांसदों व विधायकों को यह सुविधा कयों मिलनी चाहिए ?
केंद्र सरकार ने बतौर हलफनामा पेश करते हुए दलील दी कि कई बार सरकार बनाने या गिराने में चंद वोट ही बेहद महत्वपूर्ण होते हैं और यदि सजा मिलने पर किसी जनप्रतिनिधि की सदस्यता समाप्त हो जाती है तो सरकार की स्थिरता ही खतरे में पड़ सकती है। सरकार ने यह भी तर्क दिया कि यह उन मतदाताओं के संवौधानिक अधिकार का हनन होगा, जिन्होंने उन्हें चुना है। यहां सवाल उठता है कि जो जनप्रतिनिधि जेल की हवा खा रहा है, वह क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकता है ? यहां यह भी प्रश्न पैदा होता है कि जब किसी प्रतिनिधि की सदस्यता समाप्त होती है तो छह माह के भीतर नया जनप्रतिनिधि चुनने की संवौधानिक अनिवार्यता है, तब न तो कोई क्षेत्र नेतृत्व विहीन रह जाता है और न ही किसी सरकार की स्थिरता खतरे में पड़ती है। दरअसल सजायाफ्ता प्रतिनिधि की सदस्यता को नेतृत्व और सरकार में उसकी भूमिका से कहीं ज्यादा नैतिकता के औचित्यों से आंकने की जरुरत है। हालांकि इस विसंगति को दूर करने के लिए यदि राजनीतिक नेतृत्व दृढ़ता दिखाएं तो बड़ी सरलता से जनप्रतिनिधत्व विधान के उस प्रावधान को विलोपित किया जा सकता है, जिसके अंतर्गत सजा प्राप्त नेता को मतदाता बनने का अधिकार प्राप्त है। पर जब संसद में ही 162 दागी बैठे हों तो वे ऐसा कानून संसद से कैसे पारित होने देंगे, जिससे उन्हीं की गर्दन नपने लग जाए ? क्योंकि हमारे देश में बीते ढाई दशकों में राजनीतिक अपराधियों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है। महिलाओं की हत्या उनसे बलात्कार और छेड़छाड़ करने वाले राजनीतिक अपराधी भी संसद और विधानसाभाओं में है। यह कोई कल्पित अवाारणा नहीं है, बल्कि खुद इन जनप्रतिनिधियों ने अपनी आपरधिक पृष्ठभूमि का खुलासा चुनाव लड़ते वक्त जिला निर्वाचन अधिकारी को दिए शपथ-पत्रों में किया है। इस जानकारी को सूचना अधिकार के तहत हासिल 'एसोसिएशन फॉर डेमोके्रटिक रिर्फोम' में किया है। इस रिर्पोट के मुताबिक 369 सांसदों और विधायकों महिलाओं को प्रताड़ित व यौन उत्पीड़ित करने के मामले पुलिस थानों में पंजीबद्ध हैं। कई मामले आदालातों में विचाराधीन हैं।
यदि सर्वोच्च न्यायलय में सेवानिवृत महिला आईएस अधिकारी और सामाजिक कार्यकरता ओमिका दुबे द्वारा दायर याचिका पर गौर करें तो देश में 4835 सांसदों और विधायकों में से 1448 के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि हमारे यहां अपराध भी अपराध की प्रकृति के अनुसार नहीं,व्यक्ति की हैसियात के मुताबिक पंजीबद्ध किए जाते हैं और उसी अंदाज में मामला न्यायायिक प्रकिया से गुजरता है। अलबत्ता कभी - कभी तो यह लगता है कि पूरी कानूनी प्रक्रिया दोषी को निर्दोषी सिद्ध करने की मानसिकता से आगे बढ़ रही है। यही वजह है कि आपराधिक छवि वाले जनप्रतिनिधियों की संख्या में निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही है। ऐसे में यह मुगालता हमेशा बना रहता है कि राजनीति का अपराधीकारण हो रहा है या अपराा का राजनीतिकरण।
ऐसे में क्यों न हत्या और बलात्कार जैसे जद्यन्य अपराधों के आरोपी संसादों व विधायको के खिलाफ मामलों की सुनवाई त्वरित न्यायालयों में हो और इन प्रकारणों को छह माह में निपाटने की बाध्यकारी शर्त छोड़ दी जाए ? हालांकि इस दिशा में पहल करते हुए तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जयललीता ने अनुकरणीय पहल कर दी है। जयललिता ने 13 सूत्रिय कार्ययोजना पेश करते हुए महिलाओं के विरूद्ध अपराधों की सुनवाई की दृष्टि से हर जिले में विशेष त्वरित अदालतों का गठन किया है। साथ ही लोक अभियोजकों का दायित्व भी महिला लोक अभियोजकों को सौंपा है। हांलाकि यह जरूरी नहीं है कि महिला लोक अभियोजक, जज, वकील अथवा पुलिस होने से कानूनी प्रकिया निर्विवाद रूप से आगे बढ़ जाए। क्योंकि बलात्कार में मौत की सजा पाए पांच अभियुक्तों को अभयदान देने का काम पूर्व राष्ट्र्रपति प्रतिभा देवी पटिल ने ही किया था। लेकिन त्वरित अदालतें गठित करने का निर्णय प्रशंसनीय है।
संवेदनशील राज्य सरकारें एक कदम और आगे बढ़ाते हुए यह भी कर सकती हैं कि भारतीय दण्ड संहिता की जो 354,506 और 509 धारांए है,इनके दायरे में आने वाले अपराधों को गैर जमानती अपराध घोषित कर दिया जाए। धारा 354 और 506 हमला और महिला का शीलभांग करने के लिए बल प्रयोग और आपराधिक भय से संबद्ध है। वहीं 509 अश्लील शब्द,अमर्यादिता भाव-भंगिमा या महिला कि आबरू को तार-तार करने की कोश्शि से जुड़ी गतिविधि से सबद्ध है। लेकिन राज्य सरकारें आईपीसी और जनप्रतिनिधित्व कानून की प्रचलित धाराओं में कोई बदलाव नहीं चाहती। जबकि संभवित कई परिर्वतन राज्य सरकारें अपने स्तर पर भी कर सकती है। दरअसल ऐसा इसलिए नहीं हो पा रहा है, क्योंकि यौन उत्पीड़न के मामलों में राजनेताओं के साथ प्रशासन व पुलिस के आला अधिकारी भी संलिप्त हैं। इस लिहाज से कई अवसारों पर पुलिसकर्मी अपराा रोकने में सहायक की संवेदनशील भूमिका का निर्वाह करने की बजाए पीड़ित महिला के साथ निर्ममता से पेश आने के कारण उसकी पीड़ा और बढ़ाने का काम करते है। जाहिर है राजनीतिक व्यवस्था पुलिस प्रजातंत्र में लोक कल्याणकारी भूमिका कैसे निभाए,इसे गंभिरता से नही ले रही ? इसीलिए पुलिस सुधार आयोग की सिफारिशें अर्से से ठण्डे बस्ते में पड़ी हैं। तय है सभी राष्ट व राजसत्ताएं पुलिस पर अपना एकाधिकार बनाए रखना चाहती है जिससे कानून में संवेदनशीलता और पारदर्शिता की बजाए, सनातन जड़ता बनी रहे।
प्रमोद भार्गव
यह हमारे देश की कानून व्यवस्था की ही विडंबना है कि जेल में कैद निर्दोष आरोपी तो मतदान करने के अधिकार से वंचित रहता है, लेकिन किसी सांसद और विधायक को गंभीर आपराधिक मामले में सजा भी हो जाए तो भी उसकी सदस्यता बेअसर रहती है। कानून की इस विसंगति को दूर करने और इनकी सदस्यता खत्म करने के सिलसिले में सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान न्यायालय ने केंद्र सरकार से भी राय चाही थी। किंतु यहां गौरतलब है कि सरकार ने दागियों के फेबर में शपथ-पत्र देकर यह सुनिश्चित कर दिया कि वह मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में कोई सुधार या बदलाव नहीं चाहती। इस हलफनामे ने यह भी तय किया कि राहुल गांधी कांग्रेस में जिस शुचिता, पारदर्शिता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बहाली की मंचों से दुहाई दे रहे हैं, कांग्रेस नेतृत्व वाली संप्रग सरकार का उससे कोई वास्ता नहीं है ? नेताओं का दागी अतीत, वर्तमान और भविष्य में भी राजनीतिक नेतृत्व की अगुआई करता रहेगा।
केंद्र सरकार ने शीर्ष - न्यायालय में हलफनामा दायर करके यह साफ कर दिया है कि वह जनप्रतिनिधित्व कानून के किसी भी मौजूदा प्रस्ताव में परिवर्तन नहीं चाहती। मौजूदा कानून में प्रावधान है कि यदि सांसद या विधायक को किसी आपराधिक मामले में सजा हो जाए तो उसकी सदस्यता बरकरार रहेगी। बीते कुछ सालों में यह लगातार देखने में आ रहा है कि कई मंत्रियों, सांसदों व विधायकों को आपराधिक मामलों में हवालात के सींखचों के पीछे जाना पड़ा है। किंतु यहां यह विरोधाभासी स्थिति है कि सजायाफ्ता नेता संसद और विधानसभा सत्रों के दौरान सदन की कार्यवाही में बेहिचक भागीदारी कर सकते हैं। मतदान कर सकते हैं। किसी नए कानून की संहिताएं रचने में राय देकर निर्णयात्मक भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं।
हमारे संविधान का यह कितना अजीबोगरीब लचीलापन है कि कानून की अवज्ञा का अपराधी ही नए कानून का निर्माता बन जाता है। दरअसल नामजद और सजायाफ्ता दोषियों को चुनाव लड़ने का अधिकार जनप्रतिनिात्व कानून के जरिये मिला हुआ है। इस कानून में प्रावधान है कि सजा सुनाए जाने के छह साल बाद राजनेता मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज करा सकता है और चुनाव भी लड़ सकता है। यदि निचली अदालत में दोषी पाए व्यक्ति की अपील उपरी अदालत स्वीकार कर लेती है और जब तक उसका फैसला नहीं आ जाता तब तक दोषी व्यक्ति को न तो मतदान से वंचित किया जा सकता है और न ही चुनाव लड़ने के अधिकार से ? इस विधि-सम्मत व्यवस्था के विपरीत संविधान के अनुच्छेद 173 और 326 में प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा अपराधी करार दिए लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जा सकते हैं। यहां सवाल उठता है कि जब संविधान के अनुसार कोई अपराधी मतदाता भी नहीं बन सकता है तो वह जनप्रतिनिधि बनने के लिए निर्वाचन प्रक्रिया में भागीदारी कैसे कर सकता है? जनहित याचिका इसी विसंगति को दूर करने के बाबत दाखिल की गई थी और शीर्ष न्यायालय ने अपने अभिलेख में टिप्पणी दर्ज करते हुए केंद्र सरकार से पूछा था कि यदि अन्सजायाफ्ता लोगों को निर्वाचन प्रक्रिया में हिस्सा लेने का अधिकार नहीं है तो सजायाफ्ता सांसदों व विधायकों को यह सुविधा कयों मिलनी चाहिए ?
केंद्र सरकार ने बतौर हलफनामा पेश करते हुए दलील दी कि कई बार सरकार बनाने या गिराने में चंद वोट ही बेहद महत्वपूर्ण होते हैं और यदि सजा मिलने पर किसी जनप्रतिनिधि की सदस्यता समाप्त हो जाती है तो सरकार की स्थिरता ही खतरे में पड़ सकती है। सरकार ने यह भी तर्क दिया कि यह उन मतदाताओं के संवौधानिक अधिकार का हनन होगा, जिन्होंने उन्हें चुना है। यहां सवाल उठता है कि जो जनप्रतिनिधि जेल की हवा खा रहा है, वह क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकता है ? यहां यह भी प्रश्न पैदा होता है कि जब किसी प्रतिनिधि की सदस्यता समाप्त होती है तो छह माह के भीतर नया जनप्रतिनिधि चुनने की संवौधानिक अनिवार्यता है, तब न तो कोई क्षेत्र नेतृत्व विहीन रह जाता है और न ही किसी सरकार की स्थिरता खतरे में पड़ती है। दरअसल सजायाफ्ता प्रतिनिधि की सदस्यता को नेतृत्व और सरकार में उसकी भूमिका से कहीं ज्यादा नैतिकता के औचित्यों से आंकने की जरुरत है। हालांकि इस विसंगति को दूर करने के लिए यदि राजनीतिक नेतृत्व दृढ़ता दिखाएं तो बड़ी सरलता से जनप्रतिनिधत्व विधान के उस प्रावधान को विलोपित किया जा सकता है, जिसके अंतर्गत सजा प्राप्त नेता को मतदाता बनने का अधिकार प्राप्त है। पर जब संसद में ही 162 दागी बैठे हों तो वे ऐसा कानून संसद से कैसे पारित होने देंगे, जिससे उन्हीं की गर्दन नपने लग जाए ? क्योंकि हमारे देश में बीते ढाई दशकों में राजनीतिक अपराधियों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है। महिलाओं की हत्या उनसे बलात्कार और छेड़छाड़ करने वाले राजनीतिक अपराधी भी संसद और विधानसाभाओं में है। यह कोई कल्पित अवाारणा नहीं है, बल्कि खुद इन जनप्रतिनिधियों ने अपनी आपरधिक पृष्ठभूमि का खुलासा चुनाव लड़ते वक्त जिला निर्वाचन अधिकारी को दिए शपथ-पत्रों में किया है। इस जानकारी को सूचना अधिकार के तहत हासिल 'एसोसिएशन फॉर डेमोके्रटिक रिर्फोम' में किया है। इस रिर्पोट के मुताबिक 369 सांसदों और विधायकों महिलाओं को प्रताड़ित व यौन उत्पीड़ित करने के मामले पुलिस थानों में पंजीबद्ध हैं। कई मामले आदालातों में विचाराधीन हैं।
यदि सर्वोच्च न्यायलय में सेवानिवृत महिला आईएस अधिकारी और सामाजिक कार्यकरता ओमिका दुबे द्वारा दायर याचिका पर गौर करें तो देश में 4835 सांसदों और विधायकों में से 1448 के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि हमारे यहां अपराध भी अपराध की प्रकृति के अनुसार नहीं,व्यक्ति की हैसियात के मुताबिक पंजीबद्ध किए जाते हैं और उसी अंदाज में मामला न्यायायिक प्रकिया से गुजरता है। अलबत्ता कभी - कभी तो यह लगता है कि पूरी कानूनी प्रक्रिया दोषी को निर्दोषी सिद्ध करने की मानसिकता से आगे बढ़ रही है। यही वजह है कि आपराधिक छवि वाले जनप्रतिनिधियों की संख्या में निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही है। ऐसे में यह मुगालता हमेशा बना रहता है कि राजनीति का अपराधीकारण हो रहा है या अपराा का राजनीतिकरण।
ऐसे में क्यों न हत्या और बलात्कार जैसे जद्यन्य अपराधों के आरोपी संसादों व विधायको के खिलाफ मामलों की सुनवाई त्वरित न्यायालयों में हो और इन प्रकारणों को छह माह में निपाटने की बाध्यकारी शर्त छोड़ दी जाए ? हालांकि इस दिशा में पहल करते हुए तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जयललीता ने अनुकरणीय पहल कर दी है। जयललिता ने 13 सूत्रिय कार्ययोजना पेश करते हुए महिलाओं के विरूद्ध अपराधों की सुनवाई की दृष्टि से हर जिले में विशेष त्वरित अदालतों का गठन किया है। साथ ही लोक अभियोजकों का दायित्व भी महिला लोक अभियोजकों को सौंपा है। हांलाकि यह जरूरी नहीं है कि महिला लोक अभियोजक, जज, वकील अथवा पुलिस होने से कानूनी प्रकिया निर्विवाद रूप से आगे बढ़ जाए। क्योंकि बलात्कार में मौत की सजा पाए पांच अभियुक्तों को अभयदान देने का काम पूर्व राष्ट्र्रपति प्रतिभा देवी पटिल ने ही किया था। लेकिन त्वरित अदालतें गठित करने का निर्णय प्रशंसनीय है।
संवेदनशील राज्य सरकारें एक कदम और आगे बढ़ाते हुए यह भी कर सकती हैं कि भारतीय दण्ड संहिता की जो 354,506 और 509 धारांए है,इनके दायरे में आने वाले अपराधों को गैर जमानती अपराध घोषित कर दिया जाए। धारा 354 और 506 हमला और महिला का शीलभांग करने के लिए बल प्रयोग और आपराधिक भय से संबद्ध है। वहीं 509 अश्लील शब्द,अमर्यादिता भाव-भंगिमा या महिला कि आबरू को तार-तार करने की कोश्शि से जुड़ी गतिविधि से सबद्ध है। लेकिन राज्य सरकारें आईपीसी और जनप्रतिनिधित्व कानून की प्रचलित धाराओं में कोई बदलाव नहीं चाहती। जबकि संभवित कई परिर्वतन राज्य सरकारें अपने स्तर पर भी कर सकती है। दरअसल ऐसा इसलिए नहीं हो पा रहा है, क्योंकि यौन उत्पीड़न के मामलों में राजनेताओं के साथ प्रशासन व पुलिस के आला अधिकारी भी संलिप्त हैं। इस लिहाज से कई अवसारों पर पुलिसकर्मी अपराा रोकने में सहायक की संवेदनशील भूमिका का निर्वाह करने की बजाए पीड़ित महिला के साथ निर्ममता से पेश आने के कारण उसकी पीड़ा और बढ़ाने का काम करते है। जाहिर है राजनीतिक व्यवस्था पुलिस प्रजातंत्र में लोक कल्याणकारी भूमिका कैसे निभाए,इसे गंभिरता से नही ले रही ? इसीलिए पुलिस सुधार आयोग की सिफारिशें अर्से से ठण्डे बस्ते में पड़ी हैं। तय है सभी राष्ट व राजसत्ताएं पुलिस पर अपना एकाधिकार बनाए रखना चाहती है जिससे कानून में संवेदनशीलता और पारदर्शिता की बजाए, सनातन जड़ता बनी रहे।
प्रमोद भार्गव
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