बुधवार, 17 सितंबर 2014

साझी विरासत के साक्षी पाकिस्तान के मंदिर

पाकिस्तान के पंजाब के चकवाल जिले के कटास राज क्षेत्र में मंदिर समूह और बारादरी
पाकिस्तान में हिंदू मंदिर? महीने भर पहले दिल्ली में अपनी किताब के विमोचन के मौके पर रीमा अब्बासी से कुछ नौजवान श्रोताओं ने इस तरह के सवाले पूछे तो हैरान होने की बजाए वे खुश हुईं, ‘‘मुझे लगा कि मैंने आज के हिसाब से बेहद मौजूं विषय पर और ठीक समय पर यह किताब लिखी है.’’

पाकिस्तान की पत्रकार रीमा अब्बासी कराची में रहती हैं. वे लंदन में पढ़ी हैं. परिवार के कई लोग हिंदुस्तान में हैं. संगीत और सिनेमा के अलावा योग में भी उनकी दिलचस्पी है. पाकिस्तान और भारत के कई अखबारों में अरसे से नियमित कॉलम लिखती हैं. वे पिछले एक दशक से धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को रेखांकित करने में जुटी हैं.

उनकी किताब हिस्टोरिक टेंपल्स इन पाकिस्तान का मजमून, उसकी कवर फोटो और उपशीर्षक अ कॉल टु कॉनशंस (अंतरात्मा की आवाज) भी इसी ओर इशारा करते हैं. करीब 300 पन्नों की यह किताब एक दस्तावेजी साक्ष्य है. लाहौर और कराची जैसे राजधानी शहरों से लेकर ठेठ बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा तक के बीहड़ इलाकों में साथी महिला फोटोग्राफर मदीहा ऐजाज के साथ जाकर अब्बासी ने करीब दो दर्जन ऐतिहासिक मंदिरों की रचनात्मक परिक्रमा की है.
(कराची में 15,00 वर्ष पुराना पंचमुखी हनुमान मंदिर)
भारत में पाकिस्तान के मंदिरों की खबरें उन पर कथित ‘‘हमलों’’ या अतिक्रमणों के संदर्भ में ही आती रही हैं. उनकी ऐतिहासिकता, आज के वहां के परिवेश और तथ्यों को एक संवेदनशील आंख से देखने-बताने की कोशिश ही नहीं की गई. कभी-कभी चर्चा हुई भी तो मोटे तौर पर दो मंदिरों-कटास राज और हिंगलाज माता की. पंजाब (पाकिस्तान) के चकवाल जिला मुख्यालय से 25 किमी दूर पहाड़ी पर बने कटासराज मंदिर के बारे में मान्यता है कि शिव की अर्द्धांगिनी सती ने यहीं देह त्यागी थी और पांडवों ने वनवास के चार साल वहां बिताए थे.
नागरपारकर के इस्लामकोट में पाकिस्तान का इकलौता राम मंदिर
नागरपारकर के इस्लामकोट में पाकिस्तान
 का इकलौता ऐतिहासिक राम मंदिर
कई विद्वानों का मानना है कि कटास ऋग्वेद, रामायण, उपनिषदों और महाभारत के लिए प्रेरणास्थल रहा है. वहीं बलूचिस्तान प्रांत के लासबेला जिले में हिंगोल नदी के किनारे स्थित हिंगलाज (दुर्गा का एक नाम) माता का मंदिर दुस्साहसी तीर्थयात्रियों का भी कड़ा इम्तिहान लेता है. ऊंचे-नीचे, संकरे दुर्गम पहाड़ी, मैदानी इलाकों के अलावा बुनियादी सुविधाओं से दूर जनजातीय आबादी को पार कर वहां पहुंचना, लेखिका के मुताबिक एक दूसरी दुनिया में होने का एहसास कराता है.

कभी सिंध, कभी थार और नागरपारकर तो कभी पंजाब, अब्बासी ने अपनी टीम के साथ एक साल तीन माह तक इसी तरह खाक छानी. सिंध में सक्खर का साधु बेला मंदिर, अरोड़ का कालका मंदिर और सिंध के दलितों-मुसलमानों की अगाध श्रद्धा वाला रामा पीर मंदिर या फिर खैबर के हजारा जिले में मनसेहरा का शिवाला मंदिर. आठ-नौ महीने अब्बासी ने इन पर शोध और अध्ययन में लगाए.
बलूचिस्तान के दूरदराज इलाके में स्थित दुर्गा का हिंगलाज मंदिर
(बलूचिस्तान प्रांत के दूरदराज इलाके में स्थित दुर्गा का हिंगलाज मंदिर)

इस दौरान उन्होंने पाया कि 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद पंजाब प्रांत समेत पाकिस्तान में करीब 1,000 मंदिर ध्वस्त किए गए. पंजाब वह इलाका है, जहां से पाकिस्तान के ज्यादातर हुक्मरान आते हैं. इस बारे में सवाल करने पर वे कहती हैं, ‘‘हैरत की बात है कि मुझे पेशावर में ऐसी कोई मुश्किल नहीं आई जबकि लोगों को लगता है कि वहां हालात ठीक नहीं होंगे. उस लिहाज से देखें तो पंजाब में हरेक के लिए मुश्किल है, क्या हिंदू, क्या शिया, क्या अहमदी और क्या खवातीन (महिलाएं). यह सब देखकर एक लेखक के तौर पर मुझे दुख हुआ.’’

लेकिन फिर वे जैसे एक झटके के साथ उस विषय से बाहर आते हुए स्पष्ट कहती हैं कि और भी 500 या 1,000 मंदिर होंगे लेकिन चूंकि उनकी किताब का मजमून ‘‘ऐतिहासिक मंदिर्य है, इसलिए उन्होंने, ‘‘इतिहास, सौहार्द, पुरातत्व और उपमहाद्वीप की साझा विरासत के मूल्यों पर ही फोकस रखा है.’’ उन्होंने पाया कि हिंगलाज माता के मंदिर में हिंदुओं के अलावा स्थानीय बलूच और यहां तक कि ईरान से गैर-हिंदू भी मन्नतें मांगने आते हैं. किताब में कई जगहों पर मंदिरों में मिले गैर-हिंदुओं का हवाला दिया गया है.
हिंगलाज मंदिर क्षेत्र का बाहर से दिखता बेहद खूबसूरत नजारा
(हिंगलाज मंदिर क्षेत्र का बाहर से दिखता बेहद खूबसूरत नजारा)

‘‘मैं जहां-जहां जिस मंदिर में भी गई, पुजारी हो, भक्त हो, बलूची हो या पेशावर के मुसलमान हों, जब मैंने उन्हें किताब का मजमून और इसके हिंदुस्तान में छपने की बात कही तो यकीन जानिए, हर किसी ने खुशी जताते हुए यही कहा कि हिंदुस्तान तक यह बात पहुंचनी चाहिए.’’ यही वह ताकत थी जिसने अब्बासी को इस जुनूनी काम में लगाए रखा. वरना ऊबड़-खाबड़ बीहड़ों के हड्डियां चटका देने वाले रास्तों से गुजरते वक्त उन्हें एक वक्त लगा भी कि यह क्या बला मोल ले ली.

 ‘‘हिंगलाज पहुंचना तो वाकई बड़ा ही दुश्वार और चैलेंजिंग था. टीम का साजो-सामान लेकर चलना और फंड की दिक्कत. लेकिन चूंकि हमारे पास एक बड़ा मकसद था. एक धर्म विशेष की बजाए इसमें इंसानियत, बहुलतावाद और मंदिरों से जुड़े जीवन पर बात करनी थी. इस किताब में इतिहास को सेलिब्रेट किया गया है.’’
सिंध में दलित हिंदुओं और मुसलमानों का प्रमुख धर्म स्थल रामा पीर मंदिर
(सिंध में दलित हिंदुओं और मुसलमानों का प्रमुख धर्म स्थल रामा पीर मंदिर)

लेखिका के लिए मुल्क के कोने-कोने का सफर सिर्फ किताबी यात्रा नहीं थी. इससे वे खुद अपने मुल्क को कहीं बेहतर ढंग से जान पाईं, ‘‘पाकिस्तान के एक नागरिक के नाते अब इसे मैं पहले से बेहतर समझ पाई हूं. इन यात्राओं ने जेहनी तौर भी मुझे समृद्ध किया है.’’ इस किताब को लेकर भारत से मिली प्रतिक्रियाओं ने उनका हौसला बढ़ाया है. वे कहती हैं कि किताब के लिए जुटाए गए तमाम तथ्य और फोटो वगैरह लाहौर के पुरातत्व संग्रहालय में रखे जाएंगे.
रीमा अब्बासी‘‘यह सब तो ठीक है लेकिन हिंदुस्तान इस विषय पर सपोर्ट करने के लिए इतना ज्यादा खुला होगा, इसकी मुझे उम्मीद न थी.’’ 29 अगस्त को दिल्ली के हैबिटाट सेंटर में एक संस्था की ओर से उन्हें राजीव गांधी एक्सीलेंस अवार्ड दिया गया. इसमें वे खुद नहीं थीं पर अक्तूबर में एक साहित्य उत्सव में वे यहां होंगी. तब शायद यह किताब हिंदी में लाने की बात वे आगे बढ़ाएं, ‘‘मेरी दिली इच्छा है कि यह हिंदी में आए क्योंकि यहां की अहम जबान है हिंदी. हिंदी के लोग इसे पढ़ेंगे तो इससे मेरे मजमून को ताकत मिलेगी.’’ 
शिवकेश | सौजन्‍य: इंडिया टुडे | नई दिल्ली, 3 सितम्बर 2014 |



    मंगलवार, 9 सितंबर 2014

    नेहरू के नाम मंटो का खत

    पंडित जी,
    अस्‍सलाम अलैकुम।
    यह मेरा पहला खत है जो मैं आपको भेज रहा हूँ। आप माशा अल्‍लाह अमरीकनों में बड़े हसीन माने जाते हैं। लेकिन मैं समझता हूँ कि मेरे नाक-नक्श भी कुछ ऐसे बुरे नहीं हैं। अगर मैं अमरीका जाऊँ तो शायद मुझे हुस्‍न का रुतबा अता हो जाए। लेकिन आप भारत के प्रधानमंत्री हैं और मैं पाकिस्‍तान का महान कथाकार। इन दोनों में बड़ा अंतर है। बहरहाल हम दोनों में एक चीज साझा है कि आप कश्‍मीरी हैं और मैं भी। आप नेहरू हैं, मैं मंटो... कश्‍मीरी होने का दूसरा मतलब खूबसूरती और खूबसूरती का मतलब, जो अभी तक मैंने नहीं देखा।
    मुद्दत से मेरी इच्‍छा थी कि मैं आपसे मिलूँ (शायद बशर्ते जि़ंदगी मुलाकात हो भी जाए)। मेरे बुजुर्ग तो आपके बुजुर्गों से अक्सर मिलते-जुलते रहे हैं लेकिन यहाँ कोई ऐसी सूरत न निकली कि आपसे मुलाकात हो सके।
    यह कैसी ट्रेजडी है कि मैंने आपको देखा तक नहीं। आवाज रेडियो पर अल‍बत्ता जरूर सुनी है, वह भी एक बार।
    जैसा कि मैं कह चुका हूँ कि मुद्दत से मेरी इच्‍छा थी कि आपसे मिलूँ, इसलिए कि आपसे मेरा कश्‍मीर का रिश्‍ता है, लेकिन अब सोचता हूँ इसकी जरूरत ही क्‍या है? कश्‍मीरी किसी न किसी रास्‍ते से, किसी न किसी चौराहे पर दूसरे कश्‍मीरी से मिल ही जाता है।
    आप किसी नहर के करीब आबाद हुए और नेहरू हो गये और मैं अब तक सोचता हूँ कि मंटो कैसे हो गया? आपने तो खैर लाखों बार कश्‍मीर देखा होगा। मुझे सिर्फ बानिहाल तक जाना नसीब हुआ है। मेरे कश्‍मीरी दोस्‍त जो कश्‍मीरी जबान जानते हैं, मुझे बताते हैं कि मंटो का मतलब 'मंट' है यानी ढेढ़ सेर का बट्टा। आप यकीनन कश्‍मीरी जबान जानते होंगे। इसका जवाब लिखने की अगर आप जहमत फरमाएँगे तो मुझे जरूर लिखिए कि 'मंटो' नामकरण की वजह क्‍या है?
    अगर मैं सिर्फ डेढ़ सेर हूँ तो मेरा आपका मुकाबला नहीं। आप पूरी नहर हैं और मैं सिर्फ डेढ़ सेर। आपसे मैं कैसे टक्‍कर ले सकता हूँ? लेकिन हम दोनों ऐसी बंदूकें हैं जो कश्‍मीरियों के बारे में प्रचलित कहावत के अनुसार 'धूप में ठस करती हैं...'
    मुआफ कीजिएगा, आप इसका बुरा न मानिएगा। मैंने भी यह फर्जी कहावत सुनी तो कश्‍मीरी होने की वजह से मेरा तन-बदन जल गया। चूँकि यह दिलचस्‍प है, इसलिए मैंने इसका जिक्र तफरीह के लिए कर दिया है। हालाँकि मैं आप दोनों अच्‍छी तरह जानते हैं कि हम कश्‍मीरी किसी मैदान में आज तक नहीं हारे।
    राजनीति में आपका नाम मैं बड़े गर्व के साथ ले सकता हूँ क्‍योंकि बात कह कर फौरन खंडन करना आप खूब जानते हैं। पहलवानी में हम कश्‍मीरियों को आज तक किसने हराया है, शाइरी में हमसे कौन बाजी ले सका है। लेकिन मुझे यह सुनकर हैरत हुई है कि आप हमारा दरिया बंद कर रहे हैं। लेकिन पंडित जी, आप तो सिर्फ नेहरू हैं। अफसोस कि मैं डेढ़ सेर का बट्टा हूँ। अगर मैं तीस-चालीस हजार मन का पत्‍थर होता तो खुद को इस दरिया में लुढ़ा देता कि आप कुछ देर के लिए इसको निकालने के लिए अपने इंजीनियरों से मशविरा करते रहते।
    पंडित जी, इसमें कोई शक नहीं कि आप बहुत बड़े आदमी हैं, आप भारत के प्रधान मंत्री हैं। उस पर मुल्‍क, जिससे हमारा संबंध रहा है, आपकी हुक्‍मरानी है। आप सब कुछ हैं लेकिन गुस्‍ताखी मुआफ कि आपने इस खाकसार (जो कशमीरी है) की किसी बात की परवाह नहीं की।
    देखिए, मैं आपसे एक दिलचस्‍प बात का जिक्र करता हूँ। मेरे वालिद साहब (स्‍वर्गीय), जो जाहिर है कि कश्‍मीरी थे, जब किसी हातो को देखते तो घर ले आते, ड्योढ़ी में बिठाकर उसे नमकीन चाय पिलाते साथ कुलचा भी होता। इसके बाद वे बड़े गर्व से उस हातो से कहते, "मैं भी काशर हूँ।"
    पंडित जी, आप काशर हैं... खुदा की कसम अगर आप मेरी जान लेना चाहें तो हर वक्त हाजिर हैं। मैं जानता हूँ बल्कि समझता हूँ कि आप सिर्फ इसलिए कश्‍मीर के साथ चिमटे हुए हैं कि आपको कश्‍मीरी होने के कारण कश्‍मीर से चुंबकीय किस्‍म का प्‍यार है। यह हर कश्‍मीरी को चाहे उसने कश्‍मीर कभी देखा भी हो या न देखा हो, होना चाहिए।
    जैसा कि मैं इस खत में पहले लिख चुका हूँ। मैं सिर्फ बानिहाल तक गया हूँ। कद, बटौत, किश्‍तबार ये सब इलाके मैंने देखे हैं लेकिन हुस्‍न के साथ मैंने दरिद्रता देखी। अगर आपने दरिद्रता को दूर कर दिया है तो आप कश्‍मीर अपने पास रखिए। मगर मुझे यकीन है कि आप कश्‍मीरी होने के बावजूद उसे दूर नहीं कर सकते, इसलिए कि आपको इतनी फुरसत ही नहीं।
    आप ऐसा क्‍यों नहीं करते... मैं आपका पंडित भाई हूँ, मुझे बुला लीजिए। मैं पहले आपके घर शलजम की शब देग खाऊँगा। इसके बाद कश्‍मीर का सारा काम सम्‍हाल लूँगा। ये बख्‍शी वगैरह अब बख्‍श देने के काबिल है... अव्वल दर्जे के चार सौ बीस हैं। इन्‍हें आपने ख्‍वाहमख्‍वाह अपनी जरूरतों के मुताबिक आला रुतबा बख्‍श रखा है... आखिर क्‍यों? मैं समझता हूँ कि आप राजनेता हैं जो कि मैं नहीं हूँ। लेकिन यह मतलब नहीं कि मैं कोई बात समझ न सकूँ।
    आप अंग्रेजी जबान के लेखक हैं। मैं भी यहाँ उर्दू में कहानियाँ लिखता हूँ... उस जबान में जिसको आपके हिंदुस्‍तान में मिटाने की कोशिश की जा रही है। पंडित जी, मैं आपके बयान पढ़ता रहता हूँ। इनसे मैंने यह नतीजा निकाला है कि आपको उर्दू से प्‍यार है। लेकिन मैंने आपकी एक तकरीर रेडियो पर, जब हिंदुस्‍तान के दो टुकड़े हुए थे, सुनी... आपकी अंग्रेजी के तो सब कायल हैं लेकिन जब आपने नाम निहाद उर्दू में बोलना शुरू किया तो ऐसा मालूम होता था कि आपकी अंग्रेजी तकरीर का तर्जुमा किसी ने ऐसा किया है जिसे पढ़ते वक्त आपकी जबान का जायका दुरुस्त नहीं था। आप हर फिक्रे पर उबकाइयाँ ले रहे थे।
    मेरी समझ में नहीं आता कि आपने ऐसी तहरीर पढ़ना कुबूल कैसे की... यह उस जमाने की बात है जब रैडक्लिफ ने हिंदुस्‍तान की डबल रोटी के दो तोश बना कर रख दिए थे लेकिन अफसोस है अभी तक वे सेंके नहीं गए। उधर आप सेंक रहे हैं और इधर हम। लेकिन आपकी हमारी अंगीठियों में आग बाहर से आ रही है।
    पं‍डित जी, आजकल बगू गोशों का मौसम है... गोशे तो खैर मैंने बेशुमार देखे हैं लेकिन बगू गोशे खाने को जी बहुत चाहता है। यह आपने क्‍या जुल्‍म किया कि बख्‍शी को सारा हक बख्‍श दिया कि वह बख्‍शीश में भी मुझे थोड़े से बगू गोशे नहीं भेजता।
    बख्‍शी जाए जहन्‍नुम में और बगू गोशे... नहीं, वे जहाँ हैं सलामत रहें। मुझे दरअसल आपसे कहना यह था, आप मेरी किताबें क्‍यों नहीं पढ़ते? आपने अगर पढ़ी हैं तो मुझे अफसोस है कि आपने दाद नहीं दी। और अगर नहीं पढ़ी हैं तो और भी ज्यादा अफसोस का मुकाम है, इसलिए कि आप एक लेखक हैं।
    अश्‍लील लेखन के आरोप में मुझ पर कई मुकदमे चल चुके हैं मगर यह कितनी बड़ी ज्‍यादती है कि दिल्‍ली में, आपकी नाक के ऐन नीचे वहाँ का एक पब्लिशर मेरी कहानियों का संग्रह 'मंटो के फोह्श अफसाने' के नाम से प्रकाशित करता है।
    मैंने किताब लिखी है। इसकी भूमिका यही खत है जो मैंने आपके नाम लिखा है... अगर यह किताब भी आपके यहाँ नाजायज तौर पर छप गई तो खुदा की कसम मैं किसी न किसी तरह दिल्‍ली पहुँच कर आपको पकड़ लूँगा। फिर छोड़ूँगा नहीं आपको... आपके साथ ऐसा चिमटूँगा कि आप सारी उम्र याद रखेंगे। हर रोज सुबह को आपसे कहूँगा कि नमकीन चाय पिलाएँ। साथ में कुलचा भी हो। शलजमों की शबदेग तो खैर हर हफ्ते के बाद जरूर होगी।
    यह किताब छप जाए तो मैं इसकी प्रति आपको भेजूँगा। उम्‍मीद है कि आप मुझे इसकी प्राप्ति सूचना जरूर देंगे और मेरी तहरीर के बारे में अपनी राय से जरूर आगाह करेंगे।
    आपको मेरे इस खत से जले हुए गोश्‍त की बू आएगी... आपको मालूम है, हमारे वतन कश्‍मीर में एक शाइर 'गनी' रहता था जो गनी काश्‍मीरी के नाम से मशहूर है। उसके पास ईरान से एक शाइर आया। उसके घर के दरवाजे खुले थे, इसलिए कि वह घर में नहीं था। वह लोगों से कहा करता था कि मेरे घर में क्‍या है जो मैं दरवाजे बंद रखूँ? अलबत्ता जब मैं घर में होता हूँ, दरवाजे बंद कर देता हूँ। इसलिए कि मैं ही तो इसकी इकलौती दौलत हूँ। ईरानी शाइर उसके सूने घर में अपनी बयाज छोड़ गया। इसमें एक शेर नामुकम्‍मल था। मिसरा सानी हो गया था, मगर मिसरा ऊला उस शाइर से नहीं कहा गया था। मिसरा सानी यह था :
    कि अज लिबास तो बू-ए-कबाब भी आयद
    जब वह ईरानी शाइर कुछ देर के बाद वापस आया, उसने अपनी बयाज देखी। मिसरा ऊला मौजूद था :
    कदाम सोख्‍ता जाँ दस्‍त जो बदामानत
    पंडित जी, मैं भी एक सोख्‍ताजाँ (दग्‍ध-हृदय) हूँ। मैंने आपके दामन पर अपना हाथ दिया है, इसलिए कि मैं यह किताब आपको समर्पित कर रहा हूँ।
    27 अगस्‍त, 1954
    सआदत हसन मंटो
    ( यह पत्र मंटो ने अपनी मृत्यु से चार महीना बाईस दिन पहले लिखा था।
    उर्दू से अनुवाद : डॉ. जानकी प्रसाद शर्मा)

    सोमवार, 1 सितंबर 2014

    इतिहास के आईने में नालंदा विश्वविद्यालय

    ऐतिहासिक नालंदा विवि के पहले सत्र की पढ़ाई आज से शुरू हो रही है। विश्वविद्यालय में प्रथम बार दो विषयों की पढ़ाई शुरू हो रही है, जिसमें इतिहास एवं पर्यावरण विषय शामिल है। दोनों विषयों में कुल छात्रों की संख्या 15 हैं। जिसमें 10 छात्र एवं 5 छात्राएं शामिल है। इन विद्यार्थियों में एक जापान, एक भूटान, तीन बिहार सहित, बंगलोर, हजारीबाग (झारखंड), हरियाणा, पश्चिम बंगाल आदि जगह राज्यों के हैं।
    इसके अलावे फिलहाल 10 प्रोफेसर की भी नियुक्ति हो चुकी है। इनमें पर्यावरण विषय के प्रोफेसरों में विजिटिंग प्रोफेसर मिहीरदेव, एसोशिएट प्रोफेसर सोमनाथ बंदोपाध्याय, असिस्टेंट प्रोफेसर अर्ने हार्नस, असिस्टेंट प्रोफेसर प्रभाकर शर्मा शामिल हैं। वहीं इतिहास विषय के लिये प्रोफेसर एण्ड डीन आदित्य मल्लिक, प्रोफेसर पंकज मोहन, असिस्टेंट प्रोफेसर सैम्यूल राइट, असिस्टेंट प्रोफेसर येन कीर, असिस्टेंट प्रोफेसर मुरारी कुमार झा तथा असिस्टेंट प्रोफेसर कशाफ गांधी शामिल है।
    यूनिवर्सिटी आफ नालंदा के कुलपति डा.गोपा सभरवाल ने बताया कि आज से राजगीर के इंटरनेशनल कंवेन्शन हाल में पहली कक्षा की शुरुआत होगी। पहले दिन विषय की शुरुआत के बाद छात्र नालंदा खंडहर का अवलोकन करेंगे।
    इतिहास के आईने में नालंदा विश्वविद्यालय
    - स्थापना 450-470 ई. (अब अवशेष)
    -शिक्षक 2000 से अधिक -विद्यार्थी 10,000 से अधिक
    परिचय
    विश्वविद्यालय प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केंद्र था। महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केंद्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के साथ ही अन्य धमरें के अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे।
    क्या है इतिहास
    पटना से 88.5 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में अलेक्जेंडर ने इस विश्वविद्यालय की खोज की थी। विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव के बारे में बता देते हैं। अनेक पुराभिलेखों और सातवीं शती में भारत भ्रमण आये चीनी यात्री ह्वेनसांग व इत्सिंग के यात्रा विवरणों में भी इस
    विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी है। ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में यहां एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक साल शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। स्थापना व संरक्षण-इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमार गुप्त प्रथम 450-470 को जाता है। इस विश्वविद्यालय को कुमार गुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग मिला। यह विश्व का प्रथम पूर्णत: आवासीय विश्वविद्यालय था। नालंदा के विशिष्ट शिक्षा प्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय की नौवीं शती से बारहवीं शती तक अंतरराष्ट्रीय ख्याति रही थी।
    स्थापत्य कला का था अद्भुद नमूना यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुद नमूना था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुन्दर मूर्तियां थीं। केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। अब तक खुदाई में तेरह मठ मिले हैं।
    धर्म और विज्ञान का होता था अध्ययन
    यहां महायान के प्रवर्तक नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं का सविस्तार अध्ययन होता था। वेद, वेदांत और सांख्य भी पढ़ाये जाते थे। व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, च्योतिष, योगशास्त्र व चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्त्रम के अन्तर्गत थे। धातु की मूर्तियां बनाने के विज्ञान का भी अध्ययन होता था। यहां खगोलशास्त्र अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। 13 वीं सदी तक इस विश्वविद्यालय का पूर्णत: अवसान हो गया।
    आक्रमणों से पहुंची क्षति
    मुस्लिम इतिहासकार मिनहाज और तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के वृत्तांतों से पता चलता है कि इस विश्वविद्यालय को तुकरें के आक्रमणों से बड़ी क्षति पहुंची। तारानाथ के अनुसार तीर्थिकों और भिक्षुओं के आपसी झगड़ों से भी इस विश्वविद्यालय की गरिमा को भारी नुकसान पहुंचा। इसपर पहला आघात हुण शासक मिहिरकुल द्वारा किया गया। 1199 में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने इसे जला कर पूर्णत: नष्ट कर दिया।