फोक्सवैगन कार कंपनी पर आरोप यह है कि उसने अपनी कारों से निकलने वाले धुएं (उत्सर्जन) की जांच के साथ छेड़छाड़ की। उन्होंने अपनी कारों के इंजिनों में एक सॉफ्टवेयर फिट किया। जब उत्सर्जन की जांच का समय आता था तो यह सॉफ्टवेयर इंजिनों की सेटिंग को कुछ समय के लिए बदल देता था। तो ये कारें उत्सर्जन की जांच में सफल हो जाती थीं। मगर सड़क पर पहुंचते ही ये एक बार फिर 35 गुना ज़्यादा नाइट्रोजन ऑक्साइड उगलने लगती थीं। कार निर्माता के मुताबिक दुनिया भर में 1.1 करोड़ कारों में इस तरह का सॉफ्टवेयर फिट किया गया है। यह तो हुई जानबूझकर की गई धोखाधड़ी की बात। मगर एक बात यह पता चली है कि आम तौर पर सड़कों पर कारों से निकलने वाले नाइट्रोजन ऑक्साइड्स की मात्रा प्रयोगशाला जांच के दौरान निकलने वाले नाइट्रोजन ऑक्साइड्स से 7 गुना ज़्यादा होती है। प्रयोगशाला जांच में कार को एक ट्रेडमिल पर निर्धारित पैटर्न में दौड़ाया जाता है। यह भी देखा गया है कि अन्य प्रदूषक (कणीय पदार्थ और कार्बन डाईऑक्साइड) भी वास्तविक ड्राइविंग के दौरान ज़्यादा निकलते हैं। इसीलिए युरोपीय संघ में 2017 से वास्तविक स्थिति में जांच की व्यवस्था लागू की जा रही है। खास तौर से नाइट्रोजन ऑक्साइड पर नज़र रखना ज़रूरी है क्योंकि ये सांस सम्बंधी रोगों और ह्मदय रोगों के लिए ज़िम्मेदार पाए गए हैं। ऐसी वास्तविक स्थिति में की जाने वाली जांच कोई नई बात नहीं है। इससे पहले यूएस में भारी वाहनों के मामले में इसी तरह की धोखाधड़ी की घटनाएं प्रकाश में आई थीं और तब यूएस की पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी ने भारी वाहन निर्माताओं पर मुकदमा चलाया था। तब से सड़क चलते वाहनों के उत्सर्जन की जांच लागू की गई थी। इसमें कुछ वाहनों में पोर्टेबल उपकरणों की मदद से वास्तविक परिस्थिति में जांच की जाती है। इस तरह की जांच को लेकर वाहननि र्माता बहुत खुश नहीं हैं। उनका कहना है कि वास्तविक उत्सर्जन कई बातों पर निर्भर करता है - जैसे वाहन कितनी खड़ी चढ़ाई पर है, ड्राइवर कितनी तेज़ी से गाड़ी की स्पीड बढ़ाता है वगैरह। इन समस्याओं से निपटने के लिए युरोपीय संघ में जो जांच व्यवस्था लागू की जा रही है, उसमें एक निर्धारित ड्राइविंग पैटर्न का पालन किया जाएगा। इस व्यवस्था को कारों पर लागू करने में दिक्कत यह है कि पोर्टेबल जांच उपकरण काफी बड़ा है और उसे कारों में फिट नहीं किया जा सकता। अभी यह देखना बाकी है कि क्या सिर्फ फोक्सवैगन ने ही धोखाधड़ी की है या अन्य कार निर्माता भी ऐसा करते रहे हैं। और मुख्य चुनौती यह है कि जांच की प्रयोगशाला परिस्थिति से आगे बढ़कर वास्तविक उत्सर्जन की जांच कैसे की जाए ताकि स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभावों को कम से कम किया जा सके।
एक भारतीय जिसने फॉक्सवैगन का झूठ पकड़कर उसे 41 अरब डॉलर की चोट लगा दी
अमेरिका में रह रहे भारतीयों की प्रखर बुद्धि का सभी लोहा मानते हैं. अब तक वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ऊपर उठाने के लिए ही जाने जाते थे. अब नीचे गिराने के लिए भी जाने जाएंगे. जर्मनी की फॉक्सवैगन इसी साल जापान की टोयोटा को पछाड़ कर दुनिया की सबसे बड़ी वाहन निर्माता कंपनी बनी थी. इसी साल उसकी सबसे ज्यादा मिट्टीपलीद भी हो रही है. उसका नाम उच्च कोटि की जर्मन इंजीनियरिंग और विश्वसनीयता का पर्याय बन गया था. लेकिन शुक्रवार 18 सितंबर के बाद से यह परिहास का विषय बन गया है. यही वह दिन है, जब फॉक्सवैगन से कहा गया कि वह अमेरिका में चल रही अपनी करीब पांच लाख डीज़ल कारों को तुरंत वापस बुलाए. अमेरिका की पर्यावरण रक्षा एजेंसी ‘ईपीए’ का कहना था कि इन कारों में चकमा देने वाला एक ऐसा सॉफ्टवेयर लगा है, जो पल भर में जान जाता है कि मोटर से निकलने वाले धुंए की कब प्रदूषण-जांच हो रही है और कब कार सड़क पर सरपट दौड़ रही है. प्रदूषण जांच के समय इन कारों से निकलने वाले धुंए में जितनी नाइट्रोजन ऑक्साइड की मात्रा मिलती है, सड़क पर दौड़ते हुए वह उससे 35 गुना तक अधिक पाई गई है. ऐसा तभी हो सकता है, जब कहीं न कहीं कोई हेराफेरी हो रही हो.
फॉक्सवैगन का नाम उच्च कोटि की जर्मन इंजीनियरिंग और विश्वसनीयता का पर्याय बन गया था. लेकिन शुक्रवार 18 सितंबर के बाद से यह परिहास का विषय बन गया है.
‘ईपीए’ का ध्यान इस धोखाधड़ी की तरफ इंटरनेशनल काउंसिल ऑन क्लीन ट्रांसपोर्टेशन (आईसीसीटी) नाम की एक ग़ैर-सरकारी और ग़ैर-लाभकारी संस्था ने खींचा था. दो दर्जन परिवहन व पर्यावरण विशेषज्ञों वाली इस संस्था के सदस्य़ यूरोपीय संघ, अमेरिका, चीन, जापान और भारत जैसे देशों के इंजीनियर, वैज्ञानिक और अकादमिक शोधकर्ता होते हैं. यही देश परिवहन साधनों के प्रमुख बाज़ार भी हैं.
भांडाफोड़ कैसे हुआ?
आईसीसीटी ने ही अमेरिका में पहली बार ऐसी डीज़ल कारों से होने वाले वायु प्रदूषण का अध्ययन करवाने का फ़ैसला किया, जो यूरोप में बनी हैं. 50 हज़ार डॉलर अनुदान वाले इस अध्ययन के लिए वेस्ट वर्जीनिया यूनिवर्सिटी की एक टीम को चुना गया. यह टीम दो प्रोफ़ेसरों, एक सहायक प्रोफ़ेसर और दो छात्रों से मिलकर बनी थी. सहायक प्रोफ़ेसर थे भारत में जन्मे और पढ़े डॉ. अरविंद तिरुवेंगड़म. दो छात्रों में भी एक भारत के हेमंत कप्पान्ना थे. डॉ. तिरुवेंगड़म 2013 से वेस्ट वर्जीनिया यूनीवर्सिटी के बेंजामिन एम स्टैटलर कॉलेज में सहायक प्रोफ़ेसर हैं.
(रुाोत फीचर्स)
एक भारतीय जिसने फॉक्सवैगन का झूठ पकड़कर उसे 41 अरब डॉलर की चोट लगा दी
अमेरिका में रह रहे भारतीयों की प्रखर बुद्धि का सभी लोहा मानते हैं. अब तक वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ऊपर उठाने के लिए ही जाने जाते थे. अब नीचे गिराने के लिए भी जाने जाएंगे. जर्मनी की फॉक्सवैगन इसी साल जापान की टोयोटा को पछाड़ कर दुनिया की सबसे बड़ी वाहन निर्माता कंपनी बनी थी. इसी साल उसकी सबसे ज्यादा मिट्टीपलीद भी हो रही है. उसका नाम उच्च कोटि की जर्मन इंजीनियरिंग और विश्वसनीयता का पर्याय बन गया था. लेकिन शुक्रवार 18 सितंबर के बाद से यह परिहास का विषय बन गया है. यही वह दिन है, जब फॉक्सवैगन से कहा गया कि वह अमेरिका में चल रही अपनी करीब पांच लाख डीज़ल कारों को तुरंत वापस बुलाए. अमेरिका की पर्यावरण रक्षा एजेंसी ‘ईपीए’ का कहना था कि इन कारों में चकमा देने वाला एक ऐसा सॉफ्टवेयर लगा है, जो पल भर में जान जाता है कि मोटर से निकलने वाले धुंए की कब प्रदूषण-जांच हो रही है और कब कार सड़क पर सरपट दौड़ रही है. प्रदूषण जांच के समय इन कारों से निकलने वाले धुंए में जितनी नाइट्रोजन ऑक्साइड की मात्रा मिलती है, सड़क पर दौड़ते हुए वह उससे 35 गुना तक अधिक पाई गई है. ऐसा तभी हो सकता है, जब कहीं न कहीं कोई हेराफेरी हो रही हो.
फॉक्सवैगन का नाम उच्च कोटि की जर्मन इंजीनियरिंग और विश्वसनीयता का पर्याय बन गया था. लेकिन शुक्रवार 18 सितंबर के बाद से यह परिहास का विषय बन गया है.
‘ईपीए’ का ध्यान इस धोखाधड़ी की तरफ इंटरनेशनल काउंसिल ऑन क्लीन ट्रांसपोर्टेशन (आईसीसीटी) नाम की एक ग़ैर-सरकारी और ग़ैर-लाभकारी संस्था ने खींचा था. दो दर्जन परिवहन व पर्यावरण विशेषज्ञों वाली इस संस्था के सदस्य़ यूरोपीय संघ, अमेरिका, चीन, जापान और भारत जैसे देशों के इंजीनियर, वैज्ञानिक और अकादमिक शोधकर्ता होते हैं. यही देश परिवहन साधनों के प्रमुख बाज़ार भी हैं.
भांडाफोड़ कैसे हुआ?
आईसीसीटी ने ही अमेरिका में पहली बार ऐसी डीज़ल कारों से होने वाले वायु प्रदूषण का अध्ययन करवाने का फ़ैसला किया, जो यूरोप में बनी हैं. 50 हज़ार डॉलर अनुदान वाले इस अध्ययन के लिए वेस्ट वर्जीनिया यूनिवर्सिटी की एक टीम को चुना गया. यह टीम दो प्रोफ़ेसरों, एक सहायक प्रोफ़ेसर और दो छात्रों से मिलकर बनी थी. सहायक प्रोफ़ेसर थे भारत में जन्मे और पढ़े डॉ. अरविंद तिरुवेंगड़म. दो छात्रों में भी एक भारत के हेमंत कप्पान्ना थे. डॉ. तिरुवेंगड़म 2013 से वेस्ट वर्जीनिया यूनीवर्सिटी के बेंजामिन एम स्टैटलर कॉलेज में सहायक प्रोफ़ेसर हैं.
(रुाोत फीचर्स)
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