जयंती रंगनाथन |
उसने
अपना नाम बताया—सौम्या। बड़ी सी गाड़ी से उतरी जरूर,पर उसके चाल-ढाल में
बड़ा होने वाली बात नजर नहीं आई। उसका कद मुझ जितना ही था। मुझसे ज्यादा
दुबली थी। बाल घुंघराले।
मां कहती थी कि मैं हमेशा अपने से अमीर घर की लड़कियों से दोस्ती करती हूं। सौम्या…मेरे घर के सामने आलीशान कोठी में रहती थी।
हम किराए के छुटकू से घर में। दो बहनें, एक भाई,एक दादी और मां-पापा।
पापा के पास एक स्कूटर। भाई के पास एक साइकिल। घर में कुल जमा एक मोबाइल।
और उसके घर में ना जाने कितने कमरे। कितनी गाडिय़ां, कितने मोबाइल। मैं
स्कूल में नई थी। आठवीं में यूं भी नए दोस्त बनाना मुश्किल होता है। सब
पहले से अपना गुट बना चुके होते हैं। सौम्या का भी एक गुट था। पर वह कुछ
अलग-थलग सी रहती थी। मैंने आगे बढ़ कर दोस्ती की। वह कुछ बेपरवाह लगी। अमीर
लड़कियों में ये सब बातें होती हैं। कुछ झक्की होती हैं, तो कुछ घमंडी।
सौम्या शायद ये दोनों नहीं थी। पर बड़ी मुश्किल से वह मुझसे बात करने लगी।
फिर मैंने उसे अपने जन्मदिन पर घर बुलाया। वह आई,अपने लाल बैग में से निकाल कर उसने उपहार दिया। भाई देखते ही फुसफुसाया–मोबाइल।
सच में। वह मेरे लिए मोबाइल लाई थी। मेरी आंखें चमकने लगीं। मां ने उसकी
कुछ ज्यादा खातिर की। उसे दही बड़े पसंद आए। मां ने एक बड़े से डिब्बे में
उसे पैक करके दे दिया।
मेरा रुतबा बढ़ गया। बड़ी कोठी वाली सौम्या की सहेली पूर्णा। सौम्या को
मैं कोंचती रहती–घर में खाने में क्या बनता है? उसके पास कौन-कौन सी चीजें
हैं? पापा उसे कहां घुमाने ले जाते हैं? वह कपड़े कहां से खरीदती है? वह
अनमनी हो जाती। उसने बताया था कि उसकी मम्मी नहीं रहीं। बड़ा परिवार था। कई
सारी ज्वैलरी की दुकानें थी। एक सिनेमा थियेटर, दो रेस्तरां। यह सब वो
नहीं बताती थी। वह शायद कुछ भी नहीं बताती थी।
घर की पूछो तो कहती,आज सुबह गिलहरी बिस्किट खाने नहीं आई। बगीचे में नीले रंग का गुलाब खिला है।
फिर उसका जन्मदिन आया। उसने एक दिन पहले कह दिया कि वह अपना जन्मदिन घर
पर नहीं मनाती। पर जन्मदिन वाले दिन भाई ने उकसाया–तुम्हारी इतनी अ‘छी
दोस्त है। पास में रहती है। उसने तुम्हें मोबाइल दिया तो तुम्हें भी तो उसे
कुछ देना चाहिए। वह घर पर नहीं मनाती तो क्या हुआ, तुम जा कर उसे विश तो
कर सकती हो ना?
भाई की बात में तर्क था। मैं उसके घर कभी गई नहीं। बस बाहर-बाहर से देखा
था। अब सवाल। उसे क्या दूं? दोस्त को उपहार देने के नाम पर मुझे पैसे
मिलने से रहे। बहुत सोच कर मैंने अपने पुराने एक सिल्क के लहंगे से अपनी
दीदी की मदद से बैग तैयार किया। दीदी हाथ के कामों में अच्छी थी। बैग में
मैंने दस रुपए वाले दो चॉकलेट भी रख दिए।
वैसे तो भाई और दीदी भी आना चाहते थे सौम्या के घर। पर मैंने मना कर दिया। कोई बुलावा तो था नहीं।
मैं गेट के पास पहुंची। सिक्योरिटी गार्ड ने ना जाने मुझसे कितने सवाल
पूछे। डर लगा। डटी रही। आखिरकार उसने फोन लगाया। कहा कि बेबी की दोस्त आई
है। अंदर आने दें?
पता नहीं उसे क्या कहा गया? सिक्योरिटी गार्ड ने मुझे वहीं बैठने को
कहा–तनिक रुको। अभी बड़े मालिक निकलने वाले हैं। उनके जाने के बाद तुम्हें
अंदर भेजेंगे।
दस मिनट बाद एक बड़ी सी गाड़ी कोठी के बाहर निकली। इसके बाद सिक्योरिटी गार्ड ने मुझसे कहा,‘बरामदे में जाओ। वहीं बेबी जी आवेंगी।’
मैं बरामदे तक पहुंची ही थी कि सौम्या आ गई। उसन पीले रंग का लहंगा पहन
रखा था। बालों की चोटी। माथे पर बिंदी। बड़ी-बड़ी लग रही थी। लगा कि उसे
मुझे वहां देख कर खुशी नहीं हुई। मैंने हैप्पी बर्थडे कह कर गिफ्ट पकड़ा
दिया। उसने ले लिया। फिर बोली,‘हम लोग बाहर जाने वाले हैं। कल स्कूल में
मिलेंगे।’
वह मुड़ कर चली गई अंदर। मैं ठगी सी खड़ी रही। अपमान सा लगा। शरीर जलने
लगा। आंखें बरसने को हो उठीं। मैं बहुत मुश्किल से सिक्योरिटी गार्ड को पार
कर बाहर निकली। बिल्कुल सामने मेरा घर। कहीं कोई मुझे देख ना रहा हो। मैं
जल्दी से पास की गली में निकल गई। आंख से जार-जार आंसू बह रहे थे। घर जा कर
सबको क्या बताऊंगी?
आधा घंटा मैं गली के किनारे वाली मंदिर की सीढिय़ों पर बैठी रही। अंधेरा
होने लगा। मंदिर में लोग आने लगे। मैं उठ कर तेज कदमों से चलती हुई घर आ
गई।
रसोई से दाल पकने की महक आ रही थी। मुझे देखते ही भाई लपक कर मेरे पास आया,‘तू आ गई? कैसा रहा? खाने को क्या मिला?’
मैंने अपने को संभाल कर कहा,‘बहुत कुछ। सब तो मैं खा भी नहीं पाई।’
भाई मुझे घेर कर कमरे में ले आया,‘ठीक से बता। मुंह में बात मत रख। पूरा बता।’
मैंने धीरे से बताना शुरू किया,‘घर बहुत सुंदर सजा हुआ था। हर तरफ
लाइट्स थे। गाना चल रहा था। एक तरफ एक सुंदर सा पेड़ था। उसमें ना जाने
कितनी चीजें टंगी थी। बर्गर, पिज्जा, आइसक्रीम,जो मन हो,वहां से निकालो और
खा लो।’
आइसक्रीम? क्या बोल रही है?वो तो पिघल गया होगा ना।’
क्यों पिघलेगा? कमरा इतना ठंडा जो था। बहुत सारे बैच्चे थे। पर मैं तो
किसी को जानती नहीं थी। इसलिए बस थोड़ा इधर-उधर बैठी। बाहर आतिशबाजी चल रही
थी। ऐसे कि हमने दिवाली पर भी ना देखे हों। मैं तो वही देखती रही। फिर आ
गई।’
‘इतनी जल्दी क्यों आ गई? पूरा रह कर आना था ना?’
मैंने रुक कर जवाब दिया,’हां,रुक तो सकती थी। सौम्या ने कहा भी। पर मैं दूसरे बच्चों से क्या बातें करती?’
‘तुझे रिटर्न गिफ्ट नहीं दिया?’भैया ने पूछा। मैंने अपने बर्थडे पर भी सबको एक पेंसिल बॉक्स दिया था।
‘सौम्या जब बाहर तक छोडऩे आई ना,तो उसने कहा कि मेरा रिटर्न गिफ्ट वह कल स्कूल ले आएगी।‘कहते-कहते मैं थक गई।
भाई यह सब दीदी को बताने चले गए। मैं चुपचाप कमरे में आ गई। इंतजार था
कि मां कब खाने पर बुलाएंगी। शायद यह सोच कर ना ही बुलाए कि यह तो सौम्या
के घर खा कर आई होगी। पेट की भूख बड़ी थी कि मन में अवहेलना की आग,समझ में
नहीं आया।
रात सबके सोने के बाद मैंने बिस्तर के नीचे से अपना छोटा सा पर्स
निकाला। उसमें मैं साल भर पैसे जमा करती थी। फिर दीवाली में कुछ लेती थी।
उसमें कुल जमा उनतीस रुपए निकले। इतने में तो कोई अच्छी चीज आ नहीं सकती
थी। अपने लिए रिटर्न गिफ्ट के नाम पर क्या लूं?
सुबह पैसे साथ रख लिए। स्कूल के बाहर मुझे सौम्या नजर आई, मैंने हिकारत से उसकी तरफ देखा और सिर घुमा कर अंदर चली गई।
क्लास में हम साथ बैठते थे। और कोई जगह खाली नहीं थी। वह मेरे पास बैठने आई, तो मैंने गुस्से से कहा,‘कहीं और जा कर बैठो।’
वह अकड़ गई,‘क्यों, मेरी सीट है, मैं यहीं बैठूंगी।’
मैं अपना बस्ता ले कर पीछे चली गई। पीछे की बैंच पर दो लड़कियों के साथ
सट कर बैठ गई। गनीमत थी कि आर्ट एंड क्रॉफ्ट का पीरिएड था इसलिए सर का
ध्यान मेरी तरफ नहीं गया। लंच टाइम में सब अपना डिब्बा खोल कर बैठे। सौम्या
केक ले कर आई थी। मैं चिढ़ गई, ‘किस बात का केक? कोई बर्थडे तो था ही
नहीं। मैं गई थी इसके घर गिफ्ट ले कर। वहां क्या हुआ इससे पूछो।’
सौम्या अचानक उठ गई और जोर से बोली, ‘तुम क्यों आई थी? मैंने बुलाया था क्या?’
मैं भी उठ गई और मुठ्ठियां भींच कर बोली,‘तुम भी तो आई थी मेरे बर्थ डे पर।’
वह उसी रौ में बोली,‘तो मैं इतना महंगा गिफ्ट ले कर आई थी।’
‘मैंने भी दिया था तुम्हें गिफ्ट।’
‘हां, हां, बैग ही ना। मैं तुम्हें वापस कर दूंगी कल ही।’
‘मैं भी ला दूंगी तुम्हारा स्टुपिड मोबाइल।’
हम दोनों तेज आवाज में बोल रहे थे, मैं इससे पहले कभी किसी के साथ नहीं
झगड़ी थी। मुझे पता नहीं था कि जब आप गुस्सा होते हैं तो आप भीतर से जलने
लगते हैं। मुंह से शब्द की बजाय झाग निकलने लगता है और दिमाग में आग सी लग
जाती है। शरीर कांपने लगता है।
किसी तरह दोस्तों ने हमें अलग किया। इसके बाद मैं रोने लगी। पता नहीं क्या-क्या कहती जा रही थी कि उसने मेरे साथ क्या-क्या किया।
जबकि मैं सिर्फ सौम्या से यह जानना चाहती थी कि उसने मेरे साथ ऐसा क्यों किया?
सौम्या से दोस्ती टूट गई। मोबाइल वापस लौटाना था। मुझे समझ नहीं आया कि
भैया से क्या कहूंगी,मैंने घर जा कर कुछ नहीं कहा। हां,जाते समय एक सेकंड
हैड किताब की दुकान से एक कॉमिक खरीद कर ले गई अपना रिटर्न गिफ्ट दिखाने।
अगले दिन सौम्या स्कूल आते ही मेरी सीट पर मेरा दिया बैग फेंक कर चली
गई। सिल्क का कपड़ा पुराना तो था ही,एक तरफ से फट गया। मैंने बैग उसकी तरफ
उछाल कर जोर से कहा, ‘तुमने बैग फाड़ दिया। अब क्यों लौटा रही हो?’
उसने बैग को उलट-पुलट कर देखा, कुछ नहीं बोली,बस उसे ले कर वापस चली गई। इसके बाद उसने मोबाइल के बारे में भी कुछ नहीं पूछा।
हमारी बातचीत बिलकुल बंद हो गई। आठवीं के बाद अगले साल हमारे सेक्शन बदल
गए। मैं उसे कभी कभार देखती, स्कूल में आते हुए या खेल के मैदान में। वह
लंबी होती जा रही थी। घुंघराले बालों को छोटे कटवा लिए थे। कुछ दिनों तक
मुझे उसकी दोस्ती सालती रही। अफसोस हुआ कि उसने ऐसा क्यों किया। कई बार मन
हुआ कि उसे रोक कर बात करूं,पूछूं कि उसने उस दिन मेरे साथ ऐसा क्यों किया।
दसवीं के बाद मैंने उसके बारे में उड़ती-उड़ती खबर सुनी कि उसका किसी
लडक़े से अफेयर चल रहा है। शायद अपने घर के ड्राइवर से। हम लड़कियों ने खूब
चटकारे लिए। ग्यारहवीं के बाद उसने स्कूल छोड़ दिया।
अर्से बाद, मैंने उसे दिल्ली में कनाट प्लेस में देखा। मैं दिल्ली
युनिवरसिटी में पढऩे आई थी। हॉस्टल में रहती थी। मेरी दुनिया बदल रही थी।
साइकोलॉजी पढ़ती थी। पहले के मुकाबले गंभीर और गुरु-ज्ञानी हो चली थी।
नवंबर की एक सुहानी शाम मैं अपने मित्रों के साथ घूम रही थी। वह एक
रेस्तरां से निकलती दिखी। पहचानी शक्ल। दिमाग पर जोर डालना पड़ा। रंगे हुए
बॉय कट बाल। जरूरत से ज्यादा दुबली। अजीब से कपड़े। शार्ट स्कर्ट और बेहद
झीना कुर्ता। शायद उसने पी रखी थी। मुझे देख कर वह ठिठक गई,‘पूर्णा?..
राइट? अहा,लॉन्ग टाइम बड्डी।’
मैं अचकचा गई। छह साल का फासला। मैं मुस्कराई,‘कैसी हो सौम्या?’
वह कुछ चहक कर बोली, ‘कैसी हूं? अच्छी हूं, बहुत अच्छी। मजे कर रही
हूं।’फिर पता नहीं क्या हुआ, मेरा हाथ पकड़ कर बोली, ‘वो जो तुमने मुझे एक
बार गिफ्ट दिया था ना एक बैग, मेरे बर्थडे पर, वो आज भी है मेरे पास।’ उसकी
आंखें चमकने लगी थीं और मेरी आंखों में कौतुहल था।
सौम्या के पीछे एक विदेशी हिप्पी सा दिखने वाला युवक खड़ा था। सौम्या को
उसने पीछे से ठोका। सौम्या मेरा हाथ छोड़ आगे बढ़ गई, बाय कहती हुई।
कितने सवाल रह गए उस समय वहां। मैं बटोर कर सुलझाना चाहती थी। सौम्या को
रोक कर पूछना चाहती थी कि उसने वह फटा हुआ पुराने कपड़े से बना बैग आज तक
क्यों रखा है अपने पास, उसके पीछे तो कितना झगड़ा हो चुका था हमारा। मैं
खड़ी रही,वह चली गई।
मैं उसके बारे में जितना सोचती, पाती कि मैंने उसके साथ कुछ गलत किया
था। मैं चाहती, तो उस दिन उसके साथ इतने बुरे से पेश ना आती। वो गलत कहां
थी? उसने तो सच में मुझे नहीं बुलाया था अपने घर? मैंने स्कूल में अगले दिन
उसे कुछ कहने का मौका भी तो नहीं दिया था।
मन की गुत्थियां अब मुझे लुभाने लगी थी। आगे की पढ़ाई के लिए
छात्रवृत्ति ले कर मैं अमेरिका चली गई। डॉक्टर पूर्णा राव बन कर लौटी।
बैंगलोर के एक नामी अस्पताल से जुड़ गई। जिंदगी व्यस्त हो गई। रोज ना जाने
कितने केस आते। रात हो जाती।
मां-पिता मेरे साथ रहते थे। रात पहुंचती तो मां खाना गर्म कर देती। फिर
उनके साथ खूब बतियाती,अगले दिन के लिए दिमाग खाली भी तो करना था। बत्तीस की
हो चली थी मैं। मां शादी के लिए कहती,तो हंस देती। मन तैयार नहीं था।
फिलहाल तो काम ही रास आ रहा था।
महीने में एकाध सेमिनार,मीटिंग के लिए बाहर निकल जाती।
कभी अपने दोस्तों से मिलने चली जाती। भाई दिल्ली में बस गया था। दीदी लखनऊ में। अब हम सबके पास बड़ा घर और गाड़ी थी।
मां ने फिर से राग छेड़ा,‘पूर्णा,कोई तो होगा तेरे लायक? शादी क्यों नहीं कर लेती?’
इस बार मैं नहीं हंसी,‘ठीक है,तुम ही देख लो।’
मां खुश,उन्हें एक काम मिल गया। इस बीच मुझे मुंबई जाना पड़ा एक सेमिनार
के लिए। मां ने एक नाम और पता पकड़ा दिया कि यह शख्स तुमसे मिलेगा। अपने
होटल के कमरे में मत बुलाना। रेस्तरां में मिलना। ठीक से बात करना। डॉक्टर
है। तेरी तरह बाहर से पढ़ कर आया है। तेरी फोटो उसे अच्छी लगी,वो भी दिखने
में ठीक है।
मैंने हामी भर दी। सोचा कि मिल भी लूंगी, एक शाम ठीक कट जाएगी।
सेमिनार वाले दिन सुबह ही डॉक्टर विश्वास का फोन आ गया। शाम को होटल के ही कॉफी शॉप में मिलना तय हुआ।
शाम तक थक गई। मन हुआ उसे मना कर दूं। पर वह समय से पहले आ पहुंचा। मां
गलत नहीं थी। दिखने में आकर्षक था। हम कॉफी शॉप छोड़ कर बार में आ बैठे।
वाइन की चुस्की और फिश फिंगर के बीच बातचीत शुरू हुई। खत्म होने का नाम
ही नहीं लिया। तय हुआ कि अगले दिन लंच पर मिलेंगे। सेमिनार एक बजे खत्म
हुआ। दो बजे हम मिले।
शाम तक गपशप की। रात उसने कहा कि डिनर उसके घर पर करते हैं। आधी रात वह
मुझे छोडऩे मेरे होटल आया। हमने काफी शॉप में बैठ कर कैपीचोनो पी।
जाते-जाते उसने पूछा,‘कल घर पर एक छोटा सा गेटटुगेदर रख लूं? अपने दोस्तों
से तुम्हें मिलाना चाहता हूं।’
मुझे दिक्कत नहीं थी। बल्कि अच्छा लगा।
दिन में मैं अपने काम में व्यस्त रही। शाम को विश्वास मुझे लेने होटल आ
गया। मैं हमेशा की तरह जीन्स और कुर्ते में तैयार थी। बस,चेहरे पर ठीक सा
मेकअप था।
विश्वास के घर पर ठीक सी भीड़ थी। वह अपने दोस्तों से मिलवा रहा था। डॉ.
रूपा और उनके पति डॉ. अवनीश। मीरा भाटिया फिल्में बनाती हैं। ये हैं इनके
पार्टनर फिलिप्स। प्रोफेसर मोहसिन और उनकी पार्टनर…
मोहसिन सत्तर के आसपास पहुंचे हुए थे। सफेद बाल, दाढ़ी, चेहरे पर झुर्रियां और उनकी पार्टनर लंबी, तन्वी सी… सौम्या।
क्या यह सौम्या थी? उसने मुझे नहीं पहचाना। वह खोई-खोई सी थी। मैंने
उसका हाथ पकड़ कर कहा—सौम्या, मैं पूर्णा… हम भोपाल में साथ में पढ़ते थे।
उसके चेहरे पर अजीब से भाव आए। उसने धीरे से सिर हिलाया। विश्वास मुझे
आगे ले गया। मैं पीछे मुड़ कर उसे देखती रही। वह बार काउंटर में पहुंच गई
थी और अपने लिए बड़ा सा जाम भर रही थी।
मैं सबसे मिलने के बाद एक बार फिर सौम्या के पास गई। उसने अबकि औपचारिक
होते हुए कहा, ‘विश्वास और तुम्हारे लिए मुझे बड़ी खुशी है। अच्छी जोड़ी
रहेगी तुम दोनों की।’
मैं ठहरी, ‘सौम्या, पिछली बार जब तुम्हें दिल्ली में देखा था, तो बात नहीं कर पाई थी। तुम मुंबई में कब से हो?’
उसने मेरी तरफ देखा, उसकी आंखों में खालीपन था। अजीब सा खालीपन। लगा कि
इस तरह उसे कई बार देखा है। हां,स्कूल में जब पहली बार मिली थी, तब भी ऐसी
ही नजरें थी उसकी।
सौम्या ने सोच कर कहा, ‘कई साल हो गए। इट्स ए कूल प्लेस,’ और वह अपना जाम उठा कर मोहसिन के पास चल दी।
कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं किसी और को सौम्या समझ रही हूं? पर थी तो
वही,बाएं गाल पर बड़ा सा काला तिल,वही बादामी आंखें। मैं पहचानने में इतनी
गलती नहीं कर सकती।
खाने-पीने का दौर चला। मेरी नजरें सौम्या से हट नहीं रही थीं। अचानक
सौम्या जमीन पर गिरी और बेहोश हो गई। विश्वास तुरंत पहुंच गया। डॉक्टर था,
उसे पता था कि क्या करना है।
सौम्या को बेडरूम ले जाया गया। विश्वास ने इंजेक्शन दिया। मोहसिन उसके
पास था। बाहर आ कर विश्वास ने कहा,‘स्ट्रेस है। डिहाइड्रेशन हो गया है।
इसलिए तो मैं सभी यंग और खूबसूरत लड़कियों से कहता रहता हूं कि शराब के
अलावा पानी भी पिया करो।’
दो-तीन लोग हलके से हंसे। धीरे-धीरे मेहमानों ने विदा लेना शुरू किया।
बस मोहसिन और सौम्या रह गए। सौम्या को होश आ गया था, पर कमजोरी थी। विश्वास
ने कहा कि मोहसिन और वो यहीं रह जाए। घर जाकर कहीं तबीयत और बिगड़ ना जाए।
मैं और विश्वास ब्लैक कॉफी का मग ले कर बालकनी में आ गए। अच्छी हवा चल
रही थी। दूर से कहीं समंदर की कल-कल आवाज आ रही थी और मौसम में खारापन सा
समाने लगा। मोहसिन आए। विश्वास ने उठ कर उन्हें कुर्सी पर बैठने को कहा। वो
परेशान लग रहे थे।
मैंने पूछ लिया,‘आप सौम्या को कितने समय से जानते हैं?’
वे चौंके, फिर अनमने भाव से कहा,‘यही कोई छह महीने से।’
मैंने सिर हिलाया। वे मेरी तरफ देखने लगे, मैंने रुक कर कहा,‘एक समय में
मैं और सौम्या एक ही क्लास में पढ़ते थे, दोस्ती भी थी, फिर..’
मोहसिन और विश्वास को आगे जानने की उत्सुकता हो आई, दोनों मेरा चेहरा ताकने लगे।
मैंने संभल कर कहा,‘वही जो टीनएज में होता है। किसी बात पर लड़ाई हो गई, बस…’
विश्वास ने सिर हिलाया। मोहसिन पता नहीं क्या सोचने लगे। बड़ी देर बाद पूछा,‘पूर्णा, तुम्हें कोई खास बात नजर आई थी सौम्या में?’
मैं सोचने लगी। मोहसिन ने लंबी सांस ली, ‘सौम्या से मुझे शिकायत नहीं
है। मैं उसे ले कर परेशान रहता हूं। जो बच्चियां बचपन में एब्यूस का शिकार
होती हैं, कई तरह के कॉम्पलेक्स होते हैं उनके अंदर।’
मैं चौंकी, ‘बचपन में कुछ हुआ था उसके साथ?’
‘उसने पूरी बात नहीं बताई। टुकड़ों-टुकड़ों में बताई है कभी-कभी। वह गोद
ली बच्ची थी। मां जब तक रही, ठीक-ठाक परवरिश हुई उसकी। पर शायद दस या
ग्यारह साल की थी, जब मां गुजर गई। इसके बाद एक बड़े परिवार में उसे कभी वो
दर्जा नहीं मिला, जो एक बच्चे को मिलना चाहिए। जिसे वह पापा कहती थी, उसने
ही…’
मैं अंदर तक सुलगने लगी। मेरी आंखों के आगे बारह-तेरह साल की, आठवीं में
मेरे साथ पढऩे वाली सौम्या आ गई। घुंघराले बाल, अपने आप से बेखबर बड़ी
होती बच्ची।
मुझे लगा मेरे अंदर कुछ टूटने सा लगा है। उसकी आंखों में वो खालीपन,उसका
दुनिया से बेखबर रहना,उसका मुझे अपने घर के अंदर ना बुलाना,किसी दोस्त को
अपने परिवार वालों से ना मिलाना,अपने परिवार की सुख-समृद्धि से असंपृक्त
रहना…
मेरे दिमाग में फ्लैश सा होने लगा। आज कितना आसान लग रहा है सबकुछ
समझना। और उस समय शायद मैंने उसकी पहले से दुरूह जिंदगी को और भी पेचीदा
बना दिया था।
और फिर कनाट प्लेस पर उसका मुझसे मिल कर यह कहना कि उसे मेरा दिया पर्स
आज भी संभाल कर रखा है… ओह, क्या मेरी आंखें बंद थी उस समय, मेरी चेतना को
क्या हो गया था? क्यों नहीं समझ पाई उसकी आंखों की बात?
मैं काफी खत्म कर उठी। कप किचन में रखने के बहाने बैडरूम का दरवाजा खोल
बिस्तर पर सोई सौम्या को देखने लगी। उस वक्त उसके चेहरे पर किसी किस्म का
मलाल नहीं था, किसी से कोई शिकायत नहीं थी। वह मेरी तरफ चेहरा किए सो रही
थी,चादर से उसकी कमजोर बांहें बाहर निकल आई थीं। मैं धीरे से उसके पास गई,
उसके ठीक से चादर उढ़ा दिया और उसका हाथ थाम कर वहीं बैठ गई।
सौम्या ने करवट ली। उसके चेहरे पर अब चिंता नहीं थी, हलका सा मुस्करा रही थी।
मोहसिन और विश्वास भी कमरे में आ गए। मोहसिन को देख मैं उठ गई। मोहसिन
ने मुझे बैठने का इशारा किया और धीरे से फुसफुसाहटों में भरे बोले, ‘मैडम,
विश्वास बता रहा था कि आप एक नामी साइकॉलोजिस्ट है। आप उससे बात करेंगी? आप
तो रोज ऐसे कई पेशेंट का इलाज करती होंगी?’
मैंने सिर हिलाया,‘सौम्या को आप बैंगलोर ले आइए। यह मेरे पास,मेरे घर
में रहेगी। आप चिंता ना करें,अब उसकी गुत्थियों को सुलझाना मेरी जिम्मेदारी
है।’
मोहसिन के चेहरे से लगा कि उनके सिर से कोई भार निकल गया है।
अगले दिन मुझे बैंगलोर लौटना था। विश्वास मुझे एयरपोर्ट छोडऩे आए।
रास्ते में बताया कि मोहसिन का अपनी दूसरी बीवी से तलाक नहीं हुआ है। जब
पहली बार मोहसिन ने सौम्या को अपनी गर्लफ्रेंड कह कर मिलवाया था, अजीब लगा
था। सौम्या डाक्यूमेंट्री फिल्में बनाती हैं और इसी सिलसिले में मोहसिन से
मिली थी। इससे पहले वह छह महीने ड्रग छोडऩे के लिए रिहाबिलेशन सेंटर में भी
रह चुकी थी।
बैंगलोर से मुंबई आने के दो दिन बाद मैंने मोहसिन को फोन लगाया।
उन्होंने मुझे जो खबर बताई,वो आश्चर्यजनक थी। जिस रात वे दोनों विश्वास के
घर रहे थे, अगले दिन सुबह सौम्या और उनका झगड़ा हो गया। सौम्या ने यहां तक
कह दिया कि वह उनमें अपने गोद लिए पिता की झलक देखती है।
उस दिन सौम्या अपना सामान ले कर पता नहीं कहां चली गई। वह मेरे नाम एक
पैकेट छोड़ गई है। उसने विश्वास से कहा था कि किसी भी हाल मुझे वो पैकेट
पहुंचा दें।
सौम्या चली गई? मुझे समझने का मौका दिए बगैर? विश्वास ने कहा कि वो अगले सप्ताह बैंगलोर आ रहा है, अपने साथ पैकेट लेता आएगा।
मैं उत्सुक थी यह जानने को… क्या छोड़ कर गई है सौम्या मेरे लिए? इससे
अच्छा होता कि हम आमने-सामने बैठते,कुछ वो कहती,कुछ मैं। शनिवार को विश्वास
को आना था। उसने एयरपोर्ट से फोन किया, मुझे लगा वो टेक ऑफ की सूचना दे
रहा है। पर वो तो थोड़ा तनाव में था,‘पूर्णा, मुझे पता नहीं था कि तुम्हारी
फ्रेंड तुम्हारे लिए गिफ्ट में एक पिस्तौल भेजेगी। सामान की चैकिंग हुई,
तो उस लिफाफे में से एक पुरानी पिस्तौल निकली। पुलिस की पूछताछ चल रही है।
साथ में एक लेटर भी है। शायद उससे कुछ क्लू मिले। देखो तो,पूरा फंसवा दिया
मुझे तुम्हारी फ्रेंड ने।’
विश्वास की आवाज कांप रही थी। उसने बताया कि उसने मोहसिन को भी वहां
बुलवा लिया है। पुलिस की इन्क्वायरी होने के बाद वह फ्लाइट बोर्ड करेगा।
पिस्तौल? सौम्या मुझे भेज रही थी? क्या मुझे मुंबई जाना चाहिए?
आधे घंटे बाद विश्वास का फोन आ गया कि जांच पूरी हो गई। पुलिस ने
पिस्तौल अपने कब्जे में ले ली है और वह रात की फ्लाइट से बैंगलोर आ रहा है।
रात साढ़े बारह बजे उसकी फ्लाइट लैंड हुई। मैं पिताजी के साथ उसे लेने
एयरपोर्ट पहुंची। वह कुछ बदहवास सा लगा। मुझसे मिलते ही फिर से
कहा,‘तुम्हारी दोस्त से मेरा पुलंदा बंधवाने का पूरा इंतजाम कर रखा था। ऐसे
दोस्त हैं तुम्हारे?’
मैंने कहना चाहा—दोस्त कहां थी वो मेरी? हां, बनाना जरूर चाहती थी। बचपन
में कुछ वक्त हमने साथ बिताए थे। जिंदगी के इस मोड़ पर शायद वह मेरे साथ
कुछ बांटना चाहती थी।
मैं चाहती थी कि वह सौम्या का दिया लिफाफा मुझे फौरन सौंप दे। उसका मूड
देख कर मैं चुप रही। पापा उससे कुछ बातें करते रहे। होटल में उसका कमरा बुक
था। उसे अपनी गाड़ी से छोडऩे गए। होटल पहुंचते ही उसने कहा,‘रात बहुत हो
गई है। मैं आराम करना चाहता हूं। कल मिलेंगे।’
दरवाजा खोल वह बाहर निकला। मैं और पापा भी निकले। वह आगे बढ़ गया रूम
चैक करवाने। उस एक क्षण में मुझे वह निहायत आत्मकेंद्रित व्यक्ति लगा। मैं
अब लोगों के मूड से उनका व्यक्तित्व भांपने लगी थी। मैंने तय कर लिया कि इस
व्यक्ति के साथ मेरा लंबा चलना मुमकिन नहीं।
मैंने पीछे से पुकारा,‘मिस्टर विश्वास, मुझे मेरी दोस्त का पैकेट दे दें। अगर आपको आपत्ति ना हो तो?’
विश्वास चिंहुक कर पीछे मुड़ा, उसने अपना किटबैग खोल कर एक फटा हुआ
पैकेट मुझे थमा दिया और इस बार कुछ रूखे स्वर में बोला, ‘मैडम, आप दूर रखिए
अपने ऐंसे दोस्तों से मुझे।’
मैं मुस्कराई, मन में बोली- इससे भी आसान रास्ता है मेरे पास। मैं अपने दोस्त की तरह खुद दूर होना पसंद करूंगी।’
पलट कर मैं होटल से बाहर आ गई, पापा गाड़ी के पास खड़े थे। ड्राइवर ने तुरंत गाड़ी स्टार्ट कर दिया।
पापा रास्ते भर विश्वास की बात कर रहे थे। मैंने कुछ कहा नहीं। कल सुबह बताऊंगी कि मैंने इस लडक़े को भी रिजेक्ट कर दिया है।
पापा को सोने भेज कर मैंने अपने लिए बड़े कप में चाय बनाया और बालकनी
में आ गई। झूले पर बैठ कर मैंने छोटा लैंप जला लिया। सौम्या का भेजा पैकेट
हाथ में था। पीले रंग का लिफाफा। बुरी तरह खोला गया। गुस्से में। मैंने
हलके से लिफाफे पर हाथ फेरा। अंदर से कुछ कपड़े सा झांक रहा था—ओह, वही
पर्स… सिल्क का पर्स, जो अपनी अंतिम अवस्था में था। पर्स के नीचे कुछ
पन्ने। पर्स के बीच में शायद उसने पिस्तौल रखा था। मैंने पन्ने खोले।
बड़े-बड़े अक्षरों में सौम्या ने लिखा था—
मेरी मुक्ति का दिन आ गया है…जीने की वजह नहीं रही। जिस वजह,गुस्से और सीने में धधकते आग के साथ जी रही थी,वह मर गया।
तुम्हें समझ नहीं आ रहा होगा कि मैं क्या कर रही हूं और तुमसे क्यों कह
रही हूं। पर लगता है कि अगर मुझे कोई समझ पाएगा तो वो तुम ही होगी।
कल रात तुम्हारे घर आने से पहले मुझे पता चला कि मेरा पिता मर गया है।
पिछले तीन साल से वह मुंबई में था,कैंसर हो गया था उसे। दरअसल उसे मरना तो
मेरे हाथों था…
मैंने बहुत पहले तय कर लिया था…शायद जब मैं ग्यारह साल की थी। मम्मी के
मरने के बाद ही। उस आदमी ने मुझे पहले भी कभी अपनी बेटी नहीं माना था।
मम्मी बचा कर रखती थी मुझे। मेरे ग्यारहवें जन्मदिन पर उस आदमी ने कहा कि
वह मुझे कोई बहुत बड़ा तोहफा देने जा रहा है। उसने मुझे ऐसा तोहफा दिया कि
तोहफों के नाम से नफरत हो गई। रातें मेरे लिए एक राक्षस की खोह की तरह होती
थी। घर में सबको पता था,पर कोई कुछ कहता नहीं था। एक अनाथ बच्ची को
रहने-खाने की जगह दे रहे थे, क्या यह कम था?
मैं घर से भाग गई। उस राक्षस से बचने के लिए। मैं अपने आप से भागती रही।
ड्रग एडिक्ट बन गई। कॉर्ल गर्ल बन गई। मौका ढूंढ़ती रही कि जिंदगी में एक
बार जब वो मेरे सामने आएगा, तो मैं उसे ऐसी मौत दूंगी कि…
उसी के पीछे-पीछे मैं नेपाल से दिल्ली, दिल्ली से गोआ और फिर मुंबई आ
गई। मोहसिन के साथ रहना मेरे लिए मुफीद था क्योंकि सेक्स में उसकी रुचि
नहीं थी।
कल मेरे रहने का प्रयोजन खत्म हो गया। वो मर गया। मैंने बहुत पहले नेपाल
में उसे मारने के लिए एक पिस्तौल खरीदी थी। इसमें गोली है भी या नहीं,
मुझे नहीं पता। तुम प्लीज इस पिस्तौल को और और मेरे सबसे प्यारे तोहफे को
किसी नदी में बहा देना। एक तुम्हारा ही दिया तोहफा था, जिसमें से मुझे कभी
किसी स्वार्थ की बू नहीं आई। सच कहूं, तो मां के पास बिलकुल ऐसी सिल्क की
साड़ी थी, जो मुझे बहुत पसंद थी। मुझे मां की खुशबू आती थी।
पता नहीं तुम मेरी क्या हो? मुझे समझने की कोशिश मत करना। पर इस समय मैं और किसी से यह नहीं कह सकती थी— मैं मुक्त हुई!
मेरे हाथ से पन्ने फडफ़ड़ा कर उड़ने लगे। मैंने पकडऩे की कोशिश नहीं की। सौम्या को मुक्ति चाहिए थी… उसे मुक्त होना ही था!
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