सुप्रसिद्ध कथाकार और 'पहल ' के यशस्वी संपादक *ज्ञानरंजन* जी का आज 21 नवम्बर को जन्मदिन है .उनके जन्मदिवस के अवसर उन्हें शुभकामनाओं सहित प्रस्तुत है 7 फरवरी 2016 को उन्हें 'मुक्तिबोध सम्मान' प्रदान किये जाने के अवसर पर उनके द्वारा दिया गया व्याख्यान जिसमें मुक्तिबोध से उनकी पहली मुलाकात का ज़िक्र और उनके अंतिम दिनों की बातें हैं और इलाहाबाद के साहित्यिक परिदृश्य का इतिहास है - शरद कोकास
🔴 अध्यक्ष महोदय, आज के विशिष्ट वक्ता माननीय खांदेवले जी, महाराष्ट्र मंडल के संचालकों और निर्माताओं, जूरी के रचनाकार सदस्यगण और उपस्थित भाइयों बहनों ।
मेरी जीवन में छत्तीसगढ़ और रायपुर की छाया गहरी और अविस्मरणीय है। इस क्षेत्र में हमने कभी सुदूर बस्तर तक यादगार गतिविधियां की हैं और उसमें हमारे शानदार पूर्वजों की बड़ी भूमिका भी रही है। जाहिर है कि वह सब अब जीवित नहीं हैं। मैं रायपुर लम्बे समय बाद आया। इस बीच विवादास्पद आयोजन और सांस्कृतिक असहमतियों वाला वातावरण था जिसके कारण मेरी अनुपस्थिति रही है - लेकिन आज का आयोजन एक अकस्मात् अहमियत बन कर आ गया। इसमें मैं कोई भी किसी प्रकार का तमाशा नहीं कर सकता था। एक तो मुक्तिबोध, दूसरे सम्मान प्राप्त पिछले महारथी रमेशचंद्र शाह और विनोद कुमार शुक्ल जी, तीसरे जूरी के विद्वान सदस्य और चौथे महाराष्ट्र मंडल की अपनी स्वतंत्र कीर्ति। बहुत पहले युवकोचित दिनों में ‘विवेचना’ नाटक समूह के साथ संभवतः दो बार मैं महाराष्ट्र मंडल के परिसर में रहा भी हूँ। विवेचना निर्माता हरिशंकर परसाई थे जिसको अब 50 वर्ष पूरे हो गये हैं, उसी तरह जिस तरह मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ को 50 वर्ष हुए। मुक्तिबोध के समय से आज और भावी के तापमान में अंधेरे बढ़ रहे हैं। कल यह मिथक बन जायेगा और आने वाली संतानें मिथक फोड़ती रहेंगी। एक और उल्लेख करूंगा कि इसी 2016 के उत्तरार्द्ध में गजानन माधव मुक्तिबोध की जन्म शताब्दी का आगाज़ भी है। इसके अलावा मेरी झोली में मुक्तिबोध को लेकर दो तीन छोटे मोटे संस्मरण है जो आज के सम्मान के अवसर की कीमत मेरे लिये बहुत बढ़ा देते हैं।
मित्रों, अपने समकालीनों में, मैं अल्पज्ञात हूँ इससे मुझे मेरे एकांत, खामोशी, प्राचीनता और सक्रियता सभी को अनुकूल अवसर मिलते रहे हैं। मैं संक्षेप में आपको अपने युवाकाल की जानदार सोहबतों का संक्षिप्त संकेत दूंगा जिसने मेरा जैसा तैसा निर्माण किया है और मेरी धातु को एलॉय की तरह बचाया है।
मैं भाग्यशाली हूँ कि उत्तर छायावाद के सभी बड़े कवि कथाकार और आलोचकों को अपनी सक्रिय अवस्था में बिल्कुल आमने सामने निकटता से देखा सुना।
मेरे जीवन का प्रारम्भ कुछ ऐसा ही था। पुराने पत्ते गिर रहे थे, नये आ रहे थे। छायावाद की परछाई लम्बी होकर गुम होने लगी थी।
मैंने पढ़ने-पाठ करने, किताबों की दुनिया से कम सोहबतों से अधिक सीखा। इलाहाबाद में मेरे घर से पत्थर फेंकने की दूरी पर दबंग कथाकार उपेन्द्र नाथ अश्क, बलवंत सिंह, भैरव प्रसाद गुप्त, शेखर जोशी, अमरकांत, रवीन्द्र कालिया, कमलेश्वर, नरेश मेहता और दूधनाथ सिंह रहते थे। यह सूची मैंने संक्षिप्त कर दी है। मेरे घर से उड़ती हुई पतंगों की दूरी पर निराला, महादेवी, पंत, अमृत राय, शैलेश मटियानी, रघुवर सहाय फिराक, धर्मवीर भारती, दुष्यंत कुमार, मार्कण्डेय और मलयज के घर थे। मैंने इसको तारमंडल लिखा है। इस तारमंडल में कभी कभार भटकते हुए नक्षत्रों की तरह अज्ञेय आते, फणीश्वरनाथ रेणु आते, नामवर सिंह आते, राहुल सांकृत्यायन, शंभू मित्रा और इब्राहिम अलकाजी आते थे। उन दिनों आज की तरह लोग दिल्ली नहीं इलाहाबाद आते थे। आज सब दिल्ली जाते हैं। वह हिन्दी का दशाश्वमेध घाट बन गया है।
जब रेणु इलाहाबाद आये, मेरे ठेठ पड़ोस में थे, शाम की सैर में उनकी गोद में एक खरगोश जैसा कुत्ता रहता था, ‘मैला आंचल’ वे लिख चुके थे और उसका बड़ा हल्ला था, शायद ‘परती परिकथा’ लिख रहे थे। जब राहुल जी आते जाते थे, वे एशिया के दुर्गम भूखंड लिख रहे थे और जब अज्ञेय आये तब उत्तर तार सप्तक योजनाएं बन रही थीं। इस प्रकार व्यक्तित्वों की उपस्थितियों, आवागमनों, सृजनात्मक क्रियाकलापों और एक शब्द ज़रूरी जोड़ूंगा कि व्यक्तित्वों के रूमान की बदौलत मेरा रसायन बन रहा था।
मेरे प्रारंम्भिक जीवन की इतनी झलक पर्याप्त है। मुझे सीधे गजानन माधव मुक्तिबोध पर ही आना था जिसके नाम से मुझे पुरस्कृत किया गया है। मुक्तिबोध से मेरे दो तीन खामोश साक्षात्कार हैं जिसका उल्लेख आपसे करूंगा। मैंने मुक्तिबोध को सबसे पहले तब देखा जब मैं युवक था, स्नातक हो गया था, इलाहाबाद में था और सूरतों से सीख की तरफ जा रहा था। यादगार स्वरबेला थी जिसमें आधुनिक हिन्दी कविता की प्रायः बड़ी हस्तियां उपस्थित थीं। वहाँ इन्द्रधनुष से भी अधिक रंग थे। उन दिनों तार सप्तक के कवि गिरिजा कुमार माथुर इलाहाबाद आकाशवाणी के प्रमुख थे। उन्होंने इस ऐतिहासिक काव्य पाठ का आयोजन किया था जिसमें मुक्तिबोध जी उपस्थित थे। हमने उनका नाम हवा में सुना हुआ था। इस पाठ में पंत, शमशेर, केदार नाथ अग्रवाल, नरेश मेहता जगदीश गुप्त, अज्ञेय, प्रभाकर माचवे, भारती मौजूद थे। और भी थे मुझे याद नहीं। हमारी मानसिकता यह थी कि हम पुरानी कविता के खिलाफ नयी आती कविता के समर्थक हो गये थे। एक युवकोचित काव्योन्माद था। नयी कविता, निकष, क ख ग जैसी दमदार पत्रिकाएं निकल रही थीं। इलाहाबाद नयी कविता की तीर्थ बन गया था। यद्यपि आज यह तीर्थ जनतांत्रिक तरीकों से माच्चू पिच्चू या हड़प्पा के खंडहरों की तरफ जा रहा है।
काव्य पाठ खुले लान में था। हम आमंत्रित नहीं थे। हमें इलाहाबाद का आवारागर्द समझा जाता था। तो हम फेंस के बाहर थे और सुन रहे थे। मुक्तिबोध ने अपनी प्रसिद्ध कविता ‘औरांग ऊटांग’ पढ़ी। उनके हाथ में कविता का कागज़ कांप रहा था, संभवतः ऐसे भद्रलोक में मुक्तिबोध पहली बार आए थे। वे ऊबड़ खाबड़ लगते थे। नख शिख पोशाक कवियों जैसी तो नहीं थी। साधारण थे और सादे कुछ कुछ शमशेर के करीब। औरांग ऊटांग समझ में नहीं आई थी, अधूरी ही बूझी पर लगता था कि यह कविता कुछ भिन्न है और हलाल कर रही है, बेचैन कर रही है और सर से भी ऊपर जा रही है। मुक्तिबोध के काव्य पाठ के बाद हम लगभग बायकॉट करते हुए वापस कॉफी हाउस आ गये। *यह मेरा मुक्तिबोध से पहला साक्षात्कार था।*
इलाहाबाद के काव्य संसार में जो गुटबाजी थी उसमें तार सप्तक का जोर था, परिमल का जोर था। इसके बाद मैं जबलपुर आ गया। आने के साल भर बाद मैं मुक्तिबोध से फिर मिला। इस बार राजनांदगांव में हरिशंकर परसाई के साथ। राजनांदगांव के तालाब में उन दिनों स्वर्ण कमल का प्रतिबिंब था, मुक्तिबोध अपनी पूरी स्फूर्ति और जागरण में थे। मुक्तिबोध के घर से निकट तालाब, भुतही कोठी, महल फिल्म जैसी लड़खड़ाती उजड़ती सीढ़ियां, बार बार चाय बनाती आई और बच्चे जो अब बहुत बड़े हो गये हैं और उनके बच्चे भी बड़े हो गये हैं। वे अद्भुत दिन थे। परसाई की उपस्थिति में मुक्तिबोध चहकने लगते थे, उत्तेजित हो जाते थे, राहत और आश्वस्ति पनपने लगती थी। इन दिनों की कोई चमक नहीं थी, भरपूर जिज्ञासाएं और कौतूहल के दिन थे। मैं सीख रहा था, और सीखते व्यक्ति को उन दिनों शर्म से नहीं देखा जाता था। मेरी एक कहानी भी मुक्तिबोध ने पढ़ी जो ज्ञानोदय में छपी थी। वे उससे बहुत खुश नहीं थे, उन्होंने कुछ टिप्पणियां भी कीं, परसाई ने मेरा मुराल ऊँचा रखा था।
इसके बाद मुक्तिबोध के अंतिम दिन, 1964 के साल में। दिल्ली एम्स जहां मुक्तिबोध के कैंसर का इलाज हो रहा था। सफदरजंग का चौराहा उन दिनों एक बड़े कस्बे का चौराहा था। दवा की दुकानें, जूस सेंटर और एस टी टी सेंटर। देश के बड़े जाने माने लेखक कवि वहाँ डटे होते थे। आते जाते थे। पूरे दिन का एक सेट बन गया था। प्रभाकर माचवे और नेमिचंद जैन के हाथ में कमान थी। शमशेर जी बीच बीच में भावुक हो जाते थे और प्रेमलता से अंतरंग गपशप करनेे लगते थे। प्रेमलता विदुषी थीं मलयज की बहन थीं। श्रीकांत वर्मा, कमलेश, अशोक बाजपेयी जो पढ़ाई पूरी करके निकले ही थे, वहां आते जाते थे, मैं भी इन्हीं में घुसता था, कोई आवाज़ नहीं थी पर घुसता था। शीला संधू राजकमल की मालकिन मदद कर रही थीं। ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’, का मुख पृष्ठ और उसके रेखांकन बार बार बनते थे। रामकुमार यह काम कर रहे थे जो आज विश्व के महान चित्रकार हैं। एक बिस्तरे पर शांत लेटे अर्द्धचेत मुक्तिबोध को कवर डिजाइन दिखाई जाती थी। वे कुछ नहीं कहते थे। चांद का मुंह टेढ़ा है के प्रकाशन की तैयारी सब मिल जुल के कर रहे थे। चिंता यह थी कि मुक्तिबोध दिवंगत हों उसके पहले संग्रह आ सके। संभवतः ऐसा हुआ नहीं, मुझे ठीक से याद नहीं है। लेकिन एक चीज़ पक्की याद है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने स्व. मुक्तिबोध की सुगम और प्रभावी चिकित्सा के लिये अपनी गहरी संवेदनशीलता प्रदर्शित की थी।
मेरा अंतिम और एक बहुत छोटा सा काम मुक्तिबोध को लेकर तब पूरा हुआ जब सुप्रसिद्ध प्रमोद वर्मा का तैयार किया मोनोग्राफ ‘पहल’ ने प्रकाशित किया। इसी के आसपास ग्रंथावली आई थी। यह मोनोग्राफ हमने पहली बार लेटर प्रेस छोड़ कर ऑफसेट पद्धति से छापा था और यह ‘पहल’ का पहला कदम इस नज़रिये से था।
श्रोताओं मुक्तिबोध के साथ मेरी यही मौन, एकतरफा पर आत्मिक स्मृति है जिसे आप सबसे शेयर कर सका। इसे मात्र विनम्र सूचना ही मानें।
शुरू में मैंने ‘अंधेरे में’ के पचास वर्ष का उल्लेख किया है। यह कविता हिन्दी आधुनिक कविता का सबसे बड़ा उजाला है। यह उल्लेख इसलिये भी कर रहा हूँ कि इस कविता के आसपास ही हम अपना कहानी का संसार बुन रहे थे। इसलिये ‘अंधेरे में’ कविता के नये खुलते पाठों से मुझे बहुत कुछ मिला जिसका उल्लेख कठिन है। मेरी रचना प्रक्रिया में हर कहीं इस कविता ने आग रोशन कर दी है। इसके बिंब भीतर काम करते रहे। मित्रों एक लेखक दूसरे लेखक को किस तरह स्पर्श करता है इसे बताना कठिन ही नहीं असंभव और अधूरा है। यह मैं आपको इसलिये बता रहा हूँ कि अवसर कृतज्ञता का है।
पुरस्कृत होने पर स्मृति में जाना और वाचाल होना दो ऐसी चीजें हैं जिन्हें काबू करना मुश्किल है मेरे लिये। प्रायः पुरस्कृत लोग आत्मकथा की तरफ जाते हैं। आप सब लोग लेखन और सांस्कृतिक संसार की विभूतियां हैं और एक तरह से सहयात्री। एक सक्रिय कार्यकर्त्ता, लेखक और संपादक होने की वजह से सांस्कृतिक लोगों के बीच ही मेरा जीवन बीत गया। मैंने दूसरे समाजों को लगभग नहीं देखा। इसलिये मुझे यहां अच्छा लग रहा है, मैं धन्यवाद दे रहा हूँ लेकिन केवल इतना ही नहीं। जब मैं आज के भीतरी अंधेरों की तरफ बढ़ते शोर और चमक की तरफ देखता हूँ तो लगता है साहित्य संसार में गैर रचनात्मक उथल पुथल और मारामारी है। मत मतांतरों के साथ अवसरों की विलक्षणता की ऐसी घड़ी चल रही है जिसमें घातक हिंसा पैदा हो चुकी है। ऐसी हिंसा पहले दृश्य में नहीं थी। इसलिये मेरा विनम्र आग्रह है कि हमें अपने समग्र सांस्कृतिक उपक्रमों और उसके प्रबंधन पर बाज़ार के रिवाजों से हटकर नए सिरे से विचार करना चाहिए। अकादमियों और लेखक संगठनों ने इस उद्देश्य से लगभग अपना नाता तोड़ लिया है, वे संगठित सम्पदा बनाने, वर्चस्व स्थापित करने और एनक्रोचमेंट की राह पर चल पड़े हैं और हमारी लड़ाईयां अपने ही समूहों से हो रही हैं। हमें कोशिश करके अपने पुरस्कारों की प्रक्रिया को खोल देना चाहिए और गोपनीयता भंग कर देनी चाहिए। क्योंकि समकालीन समाजों में पुरस्कार बवाल, तूफान और कटखनी मानसिकताओं में तब्दील हो रहे हैं। हमने अपने समकालीन रचनाकारों को सेलेब्रेट करने की दिशा पक्की ही नहीं की है। और आपको पुरस्कारों से जितना हासिल हो रहा है उससे अधिक छीना जा रहा है। एक धुरंधर लेखक को यह कहना पड़ा कि उच्चतर समाजो में लोग उनके पुरस्कार की चर्चा उनकी कृति से भी अधिक करते हैं।
इन गड़बड़झालाओं के बीच मैं बहुत खुश हूँ और इस मुक्तिबोध पुरस्कार के पीछे जो भी कारक हैं उनको हार्दिक धन्यवाद देता हूँ।
*ज्ञानरंजन*
महाराष्ट्र मंडल परिसर- मुक्तिबोध सम्मान
7 फरवरी 2016
प्रस्तुति: *शरद कोकास*