डॉ. महेश परिमल
सुबह हुई और सूरज की सिंदूरी आभा के साथ पूरब दिशा मुस्करा उठी। अल्लसुबह जो चिड़िया उनींदी होकर अपने पंखों को समेटते हुए घोसले में दुबक गई थी, उसने पहली किरण के साथ ही अपनी आँखें खोली और पंखों को फैलाकर उसमें रश्मियों का पुंज भर दिया। हवा के गुलाबी झौंके से पेड़ों की डालियों ने दोस्ती की और शांत वातावरण में पत्तों का संगीत गुनगुनाने लगा। धीरे-धीरे सूरज का साम्राज्य चारोंे दिशाओं में फैलता गया और धरती का रूप उसकी किरणों के श्रंगार से सँवर उठा।
प्रकृति का यह अद्भुत और मोहक दृश्य देखकर मन ने कहा- आज इस सुखद सुबह की शुरुआत भी सुखद कार्य से होनी चाहिए। सुखद कार्य ? मगर कौन सा कार्य सुखद कहा जा सकता है ? आज तो इंसानों की भीड़ में खुद को खोजना ही मुश्किल है! यदि घड़ी भर के लिए खुद से ही मुलाकात हो भी गई, तो जब तक यकीन करें कि ये हम खुद ही हैं, तब तक इंसानी भीड़ का एक रेला आता है और खुद को ही धकेलकर दूर ले जाता है। ऐसे में क्षण भर पहले हुई खुद से मुलाकात ही एक युग का सफर बन कर रह जाती है। आप सोचेंगे, शब्दों का कैसा जाल फैलाया जा रहा है, जिसमें केवल उलझन ही उलझन है! लेकिन यह उलझन नहीं, हमारी जि़ंदगी की हकीकत है।
आज इंसान के पास सभी के लिए समय है, लेकिन केवल खुद के लिए ही समय नहीं है। जब-जब खुद से बातें करने के लिए मोबाइल पर अपना ही नंबर लगाया जाए, तो वह व्यस्त ही मिलता है। व्यस्तताओं की पैनी धार पर बैठा आदमी धीरे-धीरे समय के साथ कटता चला जा रहा है। ऐसा कोई क्षण, कोई लम्हा नहीं, जब उसे एकांत मिला हो, और इस एकांत में उसने अपने आप से बातें की हों। खुद को अपना दोस्त बनाने की बात, खुद को अपना सुख-दुख कहने की साध तो सबके मन में होती है। पर कहाँ कर पाते हैं हम ऐसा। हम सबके बारे में जानने का दावा भले ही कर लें, पर अपने आप को जानने का दावा कभी नहीं कर सकते।
आजकल डॉक्टर मरीज को दवाओं के रूप में एक सलाह देने लगे हैं। अखबार, टीवी, मोबाइल से दूर होकर एक सप्ताह के लिए अपनों से इतनी दूर चले जाओ, जहाँ बिजली तक न हो। यानी सुदूर गाँव में। वहाँ जाकर सुनो एकांत का संगीत। अकेलेपन में भीतर से आवाज आएगी। इस आवाज को पहचानो, यह अपनी ही आवाज होगी, जो हमें पुकारती है। कई बार कोशिश करोगे, तो इस आवाज को साफ सुनने लगोगे। फिर शुरू कर देना, अपने आप से बातचीत। बात करते रहना, करते रहना। एक समय ऐसा भी आएगा, जब आप खुद को अजनबी लगने लगेंगे। अरे! ये तो मैं ही हूं, ये तो मेरे बचपन की आवाज है, अब तक कहाँ थी यह आवाज? इसी आवाज को सुनने के लिए मैं तरस गया था। आखिर कहाँ थी यह आवाज? मेरे ही भीतर थी, तो सुनाई क्यों नहीं दी मुझे?
अक्सर ऐसा ही होता है,जब हम एकांत का संगीत सुनते हैं, तब हम अपने बेहद करीब होते हैं। यही क्षण होता है, जब हम अपनी आवाज सुनें। हम क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं, हमें क्या करना है, कहाँ जाना है, हमारी मंजिल क्या है आदि। इन सबका उत्तर मिल जाएगा, जब हम वास्तव में अपनी दुनिया में लौट आएँगे। जहाँ हमारे अपने हमारा इंतजार कर रहे होते हैं। बहुत ही कम होती है, इन अपनों की संख्या। पर हौसला बढ़ाने मे इनका कोई सानी नहीं। शायद इसीलिए कहा जाता है कि एकांत का संगीत सुनो..
डॉ. महेश परिमल