भारत डोगरा
नवीनतम पशु गणना के आंकड़ों सेपता चला है कि सदियों से मनुष्य के लिए बेहद उपयोगी भूमिका निभाने वाले कुछ पशुओं की संख्या में तेज़ी से कमी हो रही है। खास तौर से गधे और ऊंट की संख्या में बहुत तेज़ कमी हुई है। वर्ष 2012 की पशुगणना के आंकड़े बताते हैं कि पिछली जनगणना (2007) की तुलना में गधों की संख्या में 27 प्रतिशत और ऊंटों की संख्या में 22 प्रतिशत की कमी हुई है। मात्र 5 वर्ष में इतनी कमी से पता चलता है कि ये पशु गंभीर संकट के दौर से गुज़र रहे हैं। गधे के साथ मनुष्य ने बहुत अन्याय किया है। गधे ने कभी पानी लाने में, कभी धोबी के कपड़े ढोने में, कभी निर्माण कार्य के लिए बालू-रेत या बजरी ढोने में, तरह-तरह से गधों ने मनुष्य का साथ दिया है। चाहे रेगिस्तान की गर्म दोपहरी हो या नदी किनारे के बालू के मैदान की सर्द हवाएं, गधों ने प्यासे लोगों तक पानी पहुंचाया है, आपदाग्रस्त क्षेत्रों में राहत सामग्री पहुंचाई है। इसके बदले में गधे को मारपीट व बुरा व्यवहार ही मिला। ‘गधा’ शब्द को ही अपमानसूचक अर्थ में उपयोग में लाया गया। बहुत सेवा करने के बावजूद गधे ने पेट भरने के लिए कोई पकवान नहीं, घास ही मांगी थी। वह घास भी उसे पर्याप्त नहीं मिली और अब सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि गधों की संख्या तेज़ी से कम हो रही है।
संभव है कि बदलते समय और तकनीकों के साथ गधे के कुछ परंपरागत कार्यों की अब पहले जितनी ज़रूरत न रही हो पर इसका अर्थ यह नहीं है कि उसकी ऐसी उपेक्षा की जाए कि अस्तित्व ही संकट में पड़ जाए। यह भी चिंता का विषय होना चाहिए कि उपेक्षा के अतिरिक्त अन्य कारण भी हैं इनके संकट में पड़ने के (जैसे कोई बीमारी या पर्यावरण में बदलाव)। यदि ऐसे कोई कारण हैं तो उन्हें दूर करने के प्रयास होने चाहिए। इसी तरह ऊंट की संख्या में 22 प्रतिशत कमी के कारण समझने चाहिए व उनकी रक्षा के उपाय करने चाहिए। ऊंट ने रेगिस्तानी क्षेत्रों व आसपास के अन्य क्षेत्रों में भी बहुत उपयोगी भूमिका निभाई है और उसे इस भूमिका के अनुकूल अपनी देखरेख का व सम्मानजनक स्थान का पूरा हक है। पशु गणना के आंकड़े आगे यह भी बताते हैं कि भेड़ों की संख्या में भी काफी कमी हो रही है हालांकि यह उतनी नहीं है जितनी कि ऊंटों व गधों के संदर्भ में है। भेड़ पालन की महत्वपूर्ण भूमिका विशेषकर अनेक रेगिस्तानी व पर्वतीय क्षेत्रों में रही है। अनेक घुमंतू समुदायों के लिए भेड़ पालन आजीविका का महत्वपूर्ण रुाोत रहा है। अंतर्राष्ट्रीय ऊन व्यापार में उतार-चढ़ाव के साथ ही कई बार लाखों भेड़ों के जीवन को जोड़ दिया जाता है। 1990-92 के दौरान अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में ऊन की कीमत गिरने पर ऊन के बड़े निर्यातक ऑस्ट्रेलिया में लगभग 2 करोड़ भेड़ों को मारने की योजना बनाई गई। इस बारे में एक ह्मदयविदारक रिपोर्ट में टाईम पत्रिका ने लिखा था कि किसान अपने आंसू रोकते हुए अपनी भेड़ों को उस स्थान पर छोड़ जाते हैं जहां उन्हें गोली मारी जाती है। भेड़ों को दफनाने की व्यवस्था बड़े पैमाने पर की गई। इस उदाहरण से साफ है कि मनुष्य ने मददगार पशु-पक्षियों से रक्षा का सम्बंध नहीं बनाया है। इन पशु-पक्षियों से मात्र लाभ प्राप्त करने की प्रवृत्ति हाल के समय में हावी होती गई है। मनुष्य की भूमिका रक्षक की होनी चाहिए, और इन जीव-जंतुओं की रक्षा के कदम समय रहते उठाने चाहिए। (रुाोत फीचर्स)
नवीनतम पशु गणना के आंकड़ों सेपता चला है कि सदियों से मनुष्य के लिए बेहद उपयोगी भूमिका निभाने वाले कुछ पशुओं की संख्या में तेज़ी से कमी हो रही है। खास तौर से गधे और ऊंट की संख्या में बहुत तेज़ कमी हुई है। वर्ष 2012 की पशुगणना के आंकड़े बताते हैं कि पिछली जनगणना (2007) की तुलना में गधों की संख्या में 27 प्रतिशत और ऊंटों की संख्या में 22 प्रतिशत की कमी हुई है। मात्र 5 वर्ष में इतनी कमी से पता चलता है कि ये पशु गंभीर संकट के दौर से गुज़र रहे हैं। गधे के साथ मनुष्य ने बहुत अन्याय किया है। गधे ने कभी पानी लाने में, कभी धोबी के कपड़े ढोने में, कभी निर्माण कार्य के लिए बालू-रेत या बजरी ढोने में, तरह-तरह से गधों ने मनुष्य का साथ दिया है। चाहे रेगिस्तान की गर्म दोपहरी हो या नदी किनारे के बालू के मैदान की सर्द हवाएं, गधों ने प्यासे लोगों तक पानी पहुंचाया है, आपदाग्रस्त क्षेत्रों में राहत सामग्री पहुंचाई है। इसके बदले में गधे को मारपीट व बुरा व्यवहार ही मिला। ‘गधा’ शब्द को ही अपमानसूचक अर्थ में उपयोग में लाया गया। बहुत सेवा करने के बावजूद गधे ने पेट भरने के लिए कोई पकवान नहीं, घास ही मांगी थी। वह घास भी उसे पर्याप्त नहीं मिली और अब सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि गधों की संख्या तेज़ी से कम हो रही है।
संभव है कि बदलते समय और तकनीकों के साथ गधे के कुछ परंपरागत कार्यों की अब पहले जितनी ज़रूरत न रही हो पर इसका अर्थ यह नहीं है कि उसकी ऐसी उपेक्षा की जाए कि अस्तित्व ही संकट में पड़ जाए। यह भी चिंता का विषय होना चाहिए कि उपेक्षा के अतिरिक्त अन्य कारण भी हैं इनके संकट में पड़ने के (जैसे कोई बीमारी या पर्यावरण में बदलाव)। यदि ऐसे कोई कारण हैं तो उन्हें दूर करने के प्रयास होने चाहिए। इसी तरह ऊंट की संख्या में 22 प्रतिशत कमी के कारण समझने चाहिए व उनकी रक्षा के उपाय करने चाहिए। ऊंट ने रेगिस्तानी क्षेत्रों व आसपास के अन्य क्षेत्रों में भी बहुत उपयोगी भूमिका निभाई है और उसे इस भूमिका के अनुकूल अपनी देखरेख का व सम्मानजनक स्थान का पूरा हक है। पशु गणना के आंकड़े आगे यह भी बताते हैं कि भेड़ों की संख्या में भी काफी कमी हो रही है हालांकि यह उतनी नहीं है जितनी कि ऊंटों व गधों के संदर्भ में है। भेड़ पालन की महत्वपूर्ण भूमिका विशेषकर अनेक रेगिस्तानी व पर्वतीय क्षेत्रों में रही है। अनेक घुमंतू समुदायों के लिए भेड़ पालन आजीविका का महत्वपूर्ण रुाोत रहा है। अंतर्राष्ट्रीय ऊन व्यापार में उतार-चढ़ाव के साथ ही कई बार लाखों भेड़ों के जीवन को जोड़ दिया जाता है। 1990-92 के दौरान अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में ऊन की कीमत गिरने पर ऊन के बड़े निर्यातक ऑस्ट्रेलिया में लगभग 2 करोड़ भेड़ों को मारने की योजना बनाई गई। इस बारे में एक ह्मदयविदारक रिपोर्ट में टाईम पत्रिका ने लिखा था कि किसान अपने आंसू रोकते हुए अपनी भेड़ों को उस स्थान पर छोड़ जाते हैं जहां उन्हें गोली मारी जाती है। भेड़ों को दफनाने की व्यवस्था बड़े पैमाने पर की गई। इस उदाहरण से साफ है कि मनुष्य ने मददगार पशु-पक्षियों से रक्षा का सम्बंध नहीं बनाया है। इन पशु-पक्षियों से मात्र लाभ प्राप्त करने की प्रवृत्ति हाल के समय में हावी होती गई है। मनुष्य की भूमिका रक्षक की होनी चाहिए, और इन जीव-जंतुओं की रक्षा के कदम समय रहते उठाने चाहिए। (रुाोत फीचर्स)
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