उत्तर प्रदेश में इटावा से लगे चम्बल सेंचुरी क्षेत्र में देश से लगभग विलुप्त हो चुके गिद्ध की ¨कग प्रजाति पाए जाने के बाद अब वन्य जीव विशेषज्ञ तथा राज्य का वन विभाग राज्य से लगी नेपाल की सीमा के तराई इलाके में गिद्ध संरक्षण क्षेत्र बनाने पर गंभीरता से विचार कर रहा है।
पर्यावरण प्रेमियों के लिए यह सूचना किसी खुश खबरी से कम नहीं है कि लगभग विलुप्त हो चुकी ¨कग वल्चर प्रजाति को बहुत अरसे बाद चंम्बल सेंचुरी क्षेत्र में देखा गया। इससे यह उम्मीद जग गई है कि गिद्धों के संरक्षण के लिए चल रहे प्रयास कहीं न कहीं कामयाब हो रहे हैं। गिद्धों की नौं प्रजातियों में तीन पर गहरा संकट मंडराया हुआ है। लांग बिल्ड वल्चर ‘’ बाइट बैक्ड वल्चर और ¨कग वल्चर देखने को पर्यावरणविद तरस गए थे। एक दशक से स्थिति ज्यादा ही खराब होती जा रही थी।
उत्तर प्रदेश वन विभाग और वन्य प्राणि विशेषज्ञ संयुक्त रूप से गिद्ध संरक्षित क्षेत्न बनाने पर काम कर रहे हैं। वन विभाग‘’बम्बई प्राकृतिक इतिहास सोसायटी और कतíनयाघाट फाउंडेशन गिद्ध संरक्षित क्षेत्न बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं। योजना में अफ्रीका की तरह गिद्ध प्रजनन केन्द्र तथा उनके खाने के लिए गिद्ध रेस्टोरेंट खोलने पर भी विचार किया जा रहा है। अस्सी के दशक के अंत तक देश में करीब आठ करोड गिद्ध पाए जाते थे जिनकी संख्या घटकर अब चार हजार रह गई है। गिद्धों के नहीं होने के दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। मृत पशुओं के सड़ते शवों की दरुगध से वातावरण प्रदूषित होने लगा है। गिद्ध संरक्षित क्षेत्र सैंकडों किलोमीटर में फैला होगा। इसमें उत्तराखंड के जिम कार्बेट पार्क के कुछ हिस्से को भी शामिल किया गया है। इसके अलावा यह लखीमपुरखीरी के दुधवा और कतíनयाघाट के अलावा राज्य से लगे नेपाल के तराई इलाके तक फैला होगा।
गिद्धों के संरक्षण के लिए हरियाणा’ बिहार और पश्चिम बंगाल में पहल हुई तो माना गया कि चंम्बल सेंचुरी क्षेत्र में कुछ गिद्ध भटककर आ गए हैं। पर्यावरण के मित्र कहे जाने वाले गिद्ध को प्राकृतिक सफाई कर्मी भी माना जाता है, क्योंकि यह खेतों और सडकों पर पड़े आवारा जानवरों के शवों को अपना निवाला बनाता हैं, जिससे पर्यावरण संतुलित होता है। वैसे तो गिद्ध पूरी दुनिया में पाए जाते हैं, परन्तु कभी भारत के अलावा नेपाल और पाकिस्तान में इनकी संख्या काफी थी। पर्यावरणीय ²ष्टि से चितांजनक बात यह है कि इन देशों में इनकी संख्या में 99 फीसदी से ज्यादा की गिरावट आ गई है। गिद्धों के अस्तित्व पर मंडराने खतरे को देखने के बावजूद केन्द्र और राज्य सरकारें इसे समझ भी नहीं पाती, यदि सन् 2000 में वर्ल्ड कंजर्वेशन यूनियन ‘डब्ल्यू सी यू’ ने सरकार का ध्यान इस ओर आकृष्ट नहीं कराया होता। इसके बाद ही गिद्ध को 2002 में वन्य जीव अधिनियम के तहत तत्कालीन प्रघान मंत्नी अटल बिहारी वाजपेई ने संरक्षित करने के उद्देश्य से अनुसूची एक में स्थान दिया। गिद्धों को संरक्षित करने के लिए हरियाणा सरकार के पर्यावरण मंत्नालय ने राज्य के ¨पजौर में पहला वल्चर कंजर्वेशन केन्द्र खोला। इस पहल को पश्चिम बंगाल सरकार ने जारी रखा और बक्सा में एक और केन्द्र स्थापित किया। प्रख्यात पक्षी विशेषज्ञ डॉ. सालिम अली ने कहा था कि गिद्ध मानवों के लिए ईश्वर की अदभुत देन है। यही कारण है कि पर्यावरण और पारिस्थतिकी की रक्षा के लिए समाज को गिद्धों की जरूरत महसूस होंने लगी है। गिद्ध लोगों को कई तरह की जानलेवा बीमारियों से महफूज रखते हैं। जानकारों के मुताबिक गिद्ध की नौ में आठ प्रजातियां उत्तर प्रदेश में पाई जाती हैं। कभी इनकी उड़ान पूरे उत्तर प्रदेश में फैली थी और इनकी संख्या असीमित थी लेकिन प्रतिकूल वातावरण ‘पेडों के कटान’ समाप्त होते खंडहर‘’ ग्लोबल वाìमग और कंक्रीट के जंगलों में तब्दील होते शहरों ने इनके प्रजनन पर भी प्रभाव डाला है, जिसके चलते इनकी संख्या बहुत कम हो गई। कुछ प्रजातियां अभी भी बुंदेलखंड‘’ उरई‘’झांसी और ललितपुर के तराई वाले इलाकों में पाई जाती हैं। गिद्धों की संख्या में तेजी से वृद्धि न होने का एक कारण यह है कि मादा गिद्ध एक साल में केवल एक ही अंडा देती है। अपना घोंसला बनाने के लिए यह विशालकाय पक्षी ऐसे पेड का इस्तेमाल करता है जिसमें पत्ता बिल्कुल नहीं हो।
पर्यावरण प्रेमियों के लिए यह सूचना किसी खुश खबरी से कम नहीं है कि लगभग विलुप्त हो चुकी ¨कग वल्चर प्रजाति को बहुत अरसे बाद चंम्बल सेंचुरी क्षेत्र में देखा गया। इससे यह उम्मीद जग गई है कि गिद्धों के संरक्षण के लिए चल रहे प्रयास कहीं न कहीं कामयाब हो रहे हैं। गिद्धों की नौं प्रजातियों में तीन पर गहरा संकट मंडराया हुआ है। लांग बिल्ड वल्चर ‘’ बाइट बैक्ड वल्चर और ¨कग वल्चर देखने को पर्यावरणविद तरस गए थे। एक दशक से स्थिति ज्यादा ही खराब होती जा रही थी।
उत्तर प्रदेश वन विभाग और वन्य प्राणि विशेषज्ञ संयुक्त रूप से गिद्ध संरक्षित क्षेत्न बनाने पर काम कर रहे हैं। वन विभाग‘’बम्बई प्राकृतिक इतिहास सोसायटी और कतíनयाघाट फाउंडेशन गिद्ध संरक्षित क्षेत्न बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं। योजना में अफ्रीका की तरह गिद्ध प्रजनन केन्द्र तथा उनके खाने के लिए गिद्ध रेस्टोरेंट खोलने पर भी विचार किया जा रहा है। अस्सी के दशक के अंत तक देश में करीब आठ करोड गिद्ध पाए जाते थे जिनकी संख्या घटकर अब चार हजार रह गई है। गिद्धों के नहीं होने के दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। मृत पशुओं के सड़ते शवों की दरुगध से वातावरण प्रदूषित होने लगा है। गिद्ध संरक्षित क्षेत्र सैंकडों किलोमीटर में फैला होगा। इसमें उत्तराखंड के जिम कार्बेट पार्क के कुछ हिस्से को भी शामिल किया गया है। इसके अलावा यह लखीमपुरखीरी के दुधवा और कतíनयाघाट के अलावा राज्य से लगे नेपाल के तराई इलाके तक फैला होगा।
गिद्धों के संरक्षण के लिए हरियाणा’ बिहार और पश्चिम बंगाल में पहल हुई तो माना गया कि चंम्बल सेंचुरी क्षेत्र में कुछ गिद्ध भटककर आ गए हैं। पर्यावरण के मित्र कहे जाने वाले गिद्ध को प्राकृतिक सफाई कर्मी भी माना जाता है, क्योंकि यह खेतों और सडकों पर पड़े आवारा जानवरों के शवों को अपना निवाला बनाता हैं, जिससे पर्यावरण संतुलित होता है। वैसे तो गिद्ध पूरी दुनिया में पाए जाते हैं, परन्तु कभी भारत के अलावा नेपाल और पाकिस्तान में इनकी संख्या काफी थी। पर्यावरणीय ²ष्टि से चितांजनक बात यह है कि इन देशों में इनकी संख्या में 99 फीसदी से ज्यादा की गिरावट आ गई है। गिद्धों के अस्तित्व पर मंडराने खतरे को देखने के बावजूद केन्द्र और राज्य सरकारें इसे समझ भी नहीं पाती, यदि सन् 2000 में वर्ल्ड कंजर्वेशन यूनियन ‘डब्ल्यू सी यू’ ने सरकार का ध्यान इस ओर आकृष्ट नहीं कराया होता। इसके बाद ही गिद्ध को 2002 में वन्य जीव अधिनियम के तहत तत्कालीन प्रघान मंत्नी अटल बिहारी वाजपेई ने संरक्षित करने के उद्देश्य से अनुसूची एक में स्थान दिया। गिद्धों को संरक्षित करने के लिए हरियाणा सरकार के पर्यावरण मंत्नालय ने राज्य के ¨पजौर में पहला वल्चर कंजर्वेशन केन्द्र खोला। इस पहल को पश्चिम बंगाल सरकार ने जारी रखा और बक्सा में एक और केन्द्र स्थापित किया। प्रख्यात पक्षी विशेषज्ञ डॉ. सालिम अली ने कहा था कि गिद्ध मानवों के लिए ईश्वर की अदभुत देन है। यही कारण है कि पर्यावरण और पारिस्थतिकी की रक्षा के लिए समाज को गिद्धों की जरूरत महसूस होंने लगी है। गिद्ध लोगों को कई तरह की जानलेवा बीमारियों से महफूज रखते हैं। जानकारों के मुताबिक गिद्ध की नौ में आठ प्रजातियां उत्तर प्रदेश में पाई जाती हैं। कभी इनकी उड़ान पूरे उत्तर प्रदेश में फैली थी और इनकी संख्या असीमित थी लेकिन प्रतिकूल वातावरण ‘पेडों के कटान’ समाप्त होते खंडहर‘’ ग्लोबल वाìमग और कंक्रीट के जंगलों में तब्दील होते शहरों ने इनके प्रजनन पर भी प्रभाव डाला है, जिसके चलते इनकी संख्या बहुत कम हो गई। कुछ प्रजातियां अभी भी बुंदेलखंड‘’ उरई‘’झांसी और ललितपुर के तराई वाले इलाकों में पाई जाती हैं। गिद्धों की संख्या में तेजी से वृद्धि न होने का एक कारण यह है कि मादा गिद्ध एक साल में केवल एक ही अंडा देती है। अपना घोंसला बनाने के लिए यह विशालकाय पक्षी ऐसे पेड का इस्तेमाल करता है जिसमें पत्ता बिल्कुल नहीं हो।