सोमवार, 28 मई 2012

लुप्त होते गिद्धों को बचाने की एक कोशिश

त्तर प्रदेश में इटावा से लगे चम्बल सेंचुरी क्षेत्र में देश से लगभग विलुप्त हो चुके गिद्ध की ¨कग प्रजाति पाए जाने के बाद अब वन्य जीव विशेषज्ञ तथा राज्य का वन विभाग राज्य से लगी नेपाल की सीमा के तराई इलाके में गिद्ध संरक्षण क्षेत्र बनाने पर गंभीरता से विचार कर रहा है।
पर्यावरण प्रेमियों के लिए यह सूचना किसी खुश खबरी से कम नहीं है कि लगभग विलुप्त हो चुकी ¨कग वल्चर प्रजाति को बहुत अरसे बाद चंम्बल सेंचुरी क्षेत्र में देखा गया। इससे यह उम्मीद जग गई है कि गिद्धों के संरक्षण के लिए चल रहे प्रयास कहीं न कहीं कामयाब हो रहे हैं। गिद्धों की नौं प्रजातियों में तीन पर गहरा संकट मंडराया हुआ  है। लांग बिल्ड वल्चर ‘’ बाइट बैक्ड वल्चर और ¨कग वल्चर देखने को पर्यावरणविद तरस गए थे। एक दशक से स्थिति ज्यादा ही खराब होती जा रही थी।
उत्तर प्रदेश वन विभाग और वन्य प्राणि विशेषज्ञ संयुक्त रूप से गिद्ध संरक्षित क्षेत्न बनाने पर काम कर रहे हैं। वन विभाग‘’बम्बई प्राकृतिक इतिहास सोसायटी और कतíनयाघाट फाउंडेशन गिद्ध संरक्षित क्षेत्न बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं। योजना में अफ्रीका की तरह गिद्ध प्रजनन केन्द्र तथा उनके खाने के लिए गिद्ध रेस्टोरेंट खोलने पर भी विचार किया जा रहा  है। अस्सी के दशक के अंत तक देश में करीब आठ करोड गिद्ध पाए जाते थे जिनकी संख्या घटकर अब चार हजार रह गई है। गिद्धों के नहीं होने के दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। मृत पशुओं के सड़ते शवों की दरुगध से वातावरण प्रदूषित होने लगा  है। गिद्ध संरक्षित क्षेत्र सैंकडों किलोमीटर में फैला होगा। इसमें उत्तराखंड के जिम कार्बेट पार्क के कुछ हिस्से को भी शामिल किया गया  है। इसके अलावा यह लखीमपुरखीरी के दुधवा और कतíनयाघाट के अलावा राज्य से लगे नेपाल के तराई इलाके तक फैला होगा।
गिद्धों के संरक्षण के लिए हरियाणा’ बिहार और पश्चिम बंगाल में पहल हुई तो माना गया कि चंम्बल सेंचुरी क्षेत्र में कुछ गिद्ध भटककर आ गए हैं। पर्यावरण के मित्र कहे जाने वाले गिद्ध को प्राकृतिक सफाई कर्मी भी माना जाता है, क्योंकि यह खेतों और सडकों पर पड़े आवारा जानवरों के शवों को अपना निवाला बनाता हैं, जिससे पर्यावरण संतुलित होता है। वैसे तो गिद्ध पूरी दुनिया में पाए जाते हैं, परन्तु कभी भारत के अलावा नेपाल और पाकिस्तान में इनकी संख्या काफी थी। पर्यावरणीय ²ष्टि से चितांजनक बात यह है कि इन देशों में इनकी संख्या में 99 फीसदी से ज्यादा की गिरावट आ गई है। गिद्धों के अस्तित्व पर मंडराने खतरे को देखने के बावजूद केन्द्र और राज्य सरकारें इसे समझ भी नहीं पाती, यदि सन् 2000 में वर्ल्ड कंजर्वेशन यूनियन ‘डब्ल्यू सी यू’ ने सरकार का ध्यान इस ओर आकृष्ट नहीं कराया होता। इसके बाद ही गिद्ध को 2002 में वन्य जीव अधिनियम के तहत तत्कालीन प्रघान मंत्नी अटल बिहारी वाजपेई ने संरक्षित करने के उद्देश्य से अनुसूची एक में स्थान दिया। गिद्धों को संरक्षित करने के लिए हरियाणा सरकार के पर्यावरण मंत्नालय ने राज्य के ¨पजौर में पहला वल्चर कंजर्वेशन केन्द्र खोला। इस पहल को पश्चिम बंगाल सरकार ने जारी रखा और बक्सा में एक और केन्द्र स्थापित किया। प्रख्यात पक्षी विशेषज्ञ डॉ. सालिम अली ने कहा था कि गिद्ध मानवों के लिए ईश्वर की अदभुत देन है। यही कारण है कि पर्यावरण और पारिस्थतिकी की रक्षा के लिए समाज को गिद्धों की जरूरत महसूस होंने लगी है। गिद्ध लोगों को कई तरह की जानलेवा बीमारियों से महफूज रखते हैं। जानकारों के मुताबिक गिद्ध की नौ में आठ प्रजातियां उत्तर प्रदेश में पाई जाती हैं। कभी इनकी उड़ान पूरे उत्तर प्रदेश में फैली थी और इनकी संख्या असीमित थी लेकिन प्रतिकूल वातावरण ‘पेडों के कटान’ समाप्त होते खंडहर‘’ ग्लोबल वाìमग और कंक्रीट के जंगलों में तब्दील होते शहरों ने इनके प्रजनन पर भी प्रभाव डाला है, जिसके चलते इनकी संख्या बहुत कम हो गई। कुछ प्रजातियां अभी भी बुंदेलखंड‘’ उरई‘’झांसी और ललितपुर के तराई वाले इलाकों में पाई जाती हैं। गिद्धों की संख्या में तेजी से वृद्धि न होने का एक कारण यह है कि मादा गिद्ध एक साल में केवल एक ही अंडा देती है। अपना घोंसला बनाने के लिए यह विशालकाय पक्षी ऐसे पेड का इस्तेमाल करता है जिसमें पत्ता बिल्कुल नहीं हो।

शुक्रवार, 25 मई 2012

इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल

’महान शायर और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी का अपनी ¨जिंदगी  और शायरी के बारे में नजरिया कुछ ऐसा था ‘’‘’इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल जग मे रह जाएंगे घ्यारे तेरे बोल ‘’‘’ मुशायरों और महफिलों मे मिली शोहरत तथा कामयाबी ने एक यूनानी हकीम असरारूल हसन खान को फिल्म जगत का एक अजीम शायर और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी बना दिया जिन्होंने चार दशक से भी ज्यादा लंबे सिने कैरियर मे करीब 300 फिल्मों के लिए लगभग 4000 गीतों की रचना कर श्रोताओं को परम आनंद प्रदान किया। मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म उत्तरप्रदेश के सुल्तानपुर शहर मे एक अक्तूबर 1919 में हुआ था। उनके पिता सब इस्पैक्टर थे और वह मजरूह सुल्तानपुरी को ऊंची से ऊंची तालीम देना चाहते थे। मजरूह सुल्तानपुरी ने लखनऊ के तकमील उल तीब कॉलेज से यूनानी पद्धति की मेडिकल की परीक्षा उत्तीर्ण की और बाद मे वह हकीम के रूप में काम करने लगे।
 बचपन से ही मजरूह सुल्तानपुरी को शेरो‘’शायरी करने का काफी शौक था और वह अक्सर सुल्तानपुर मे हो रहे मुशायरों में हिस्सा लिया करते थे जिनसे उन्हें काफी शोहरत मिली। उन्होंने अपनी मेडिकल की प्रैक्टिस बीच में ही छोड़ दी और अपना ध्यान शेरो-शायरी की ओर लगाना शुरू कर दिया । इसी दौरान उनकी मुलाकात मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी से हुई। वर्ष 1945 मे सब्बो सिद्दिकी इंस्टीट्यूट द्वारा संचालित एक मुशायरे में हिस्सा लेने मजरूह सुल्तानपुरी मुंबई आ गए। मुशायरे के कार्यक्रम मे उनकी शायरी सुन मशहूर निर्माता ए‘’आर‘’कारदार काफी प्रभावित हुए और उन्होंने मजरूह सुल्तानपुरी से अपनी फिल्म के लिए गीत लिखने की पेशकश की। मजरूह सुल्तानपुरी ने कारदार साहब की इस पेशकश को ठुकरा दिया, क्योंकि फिल्मों के लिए गीत लिखना वह अच्छी बात नही समझते थे। जिगर मुरादाबादी ने मजरूह सुल्तानपुरी को तब सलाह दी कि फिल्मों के लिए गीत लिखना कोई बुरी बात नही है। गीत लिखने से मिलने वाली धन राशि में से कुछ पैसे वह अपने परिवार के खर्च के लिए भेज सकते है । जिगर मुरादाबादी की सलाह पर मजरूह सुल्तानपुरी फिल्म मे गीत लिखने के लिए राजी हो गए । संगीतकार नौशाद ने मजरूह सुल्तानपुरी को एक धुन सुनाई और उनसे उस धुन पर एक गीत लिखने को कहा । मजरूह सुल्तानपुरी ने उस धुन पर ‘’‘’ जब उनके गेसू बिखराए ‘’बादल आए झूम के ‘’‘’ गीत की रचना की। मजरूह के गीत लिखने के अंदाज से नौशाद काफी प्रभावित हुय और उन्होंने अपनी नई फिल्म ‘’‘’शाहजहां ‘’‘’ के लिए गीत लिखने की पेशकश की। अपनी वामपंथी विचारधारा के कारण मजरूह सुल्तानपुरी को कई कठिनाइयों का सामना करना पडा। उन्हें जेल भी जाना पड़ा। मजरूह सुल्तानपुरी को सरकार ने सलाह दी कि अगर वह माफी मांग लेते हैं, तो उन्हें जेल से आजाद कर दिया जाएगा, लेकिन वह इस बात के लिए राजी नही हुए और उन्हें दो वर्ष के लिए जेल भेज दिया गया।
 जेल मे रहने के कारण मजरूह सुल्तानपुरी के परिवार की माली हालत काफी खराब हो गई। राजकपूर ने उनकी सहायता करनी चाही, लेकिन मजरूह सुल्तानपुरी ने उनकी सहायता लेने से मना कर दिया। इसके बाद राजकपूर ने उनसे एक गीत लिखने की पेशकश की। मजरूह ने ‘’‘’इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल ‘’‘’गीत की रचना की जिसके एवज मे राजकपूर ने उन्हें एक हजार रूपए दिए । लगभग दो वर्ष तक जेल में रहने के बाद मजरूह ने एक बार फिर से नए जोशो खरोश के साथ काम करना शुरू कर दिया। वर्ष 1953 मे प्रदíशत फिल्म फुटपाथ और आरपार मे अपने गीतों की
कामयाबी के बाद मजरूह सुल्तानपुरी फिल्म इंडस्ट्री मे पुन: अपनी खोई हुई पहचान बनाने मे सफल हो गए।  मजरूह के महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए वर्ष 1993 मे उन्हें फिल्म जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाजा गया। इसके अलावा वर्ष 1964 मे प्रदíशत फिल्म‘’‘’दोस्ती ‘’‘’ में अपने रचित गीत ‘चाहूंगा मै तुझे सांझ सवेरे’ के लिए भ्वह सर्वŸोष्ठ गीतकार के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किएगए । मजरूह ने चार दशक से भी ज्यादा लंबे सिने कैरियर में लगभग 300 फिल्मों के लिए लगभग 4000 गीतों की रचना की। अपने गीतों से श्रोताओं को भावविभोर करने वाले यह महान शायर और गीतकार 24 मई 2000 को इस दुनिया को अलविदा कह गए। मजरूह के गीतों की लंबी फेहरिस्त मे से कुछ हैं:-
तू कहे अगर जीवन भर मै गीत सुनाता जाऊँ ‘अंदाज’ बाबूजी धीरे चलना‘’आरपार‘’जाने कहां मेरा जिगर गया जी‘’मिस्टर एंड मिसेज 55 माना जनाब ने पुकारा नहंी ‘’छोड़ दो आंचल जमाना क्या कहेगा ‘’पेइंग गेस्ट ‘’है अपना दिल तो आवारा ‘’सोलहवां साल‘’दीवाना मस्ताना हुआ दिल’ बंबई का बाबू ‘’बार बार देखो हजार बार देखो‘चाईना टाउन‘ ’ना तुम हमे जानो ना हम तुम्हें जाने ‘बात एक रात की’ चाहूंगा मै तुझे शाम सवेर’ दोस्ती‘’ख्वाब हो तुम या कोई हकीकत‘’तीन देवियां‘’ इन्हीं लोगों ने ले लिना दुपट्टा मेरा ‘’पाकीजा‘’ पिया तू अब तो आजा ‘’कारवां ‘मीत ना मिला रे मन का ‘’अभिमान‘’ हमें तुमसे प्यार कितना ये हम नहीं जानते कुदरत आदि।
मजरूह आज हमारे बीच नहीं हैं, पर ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जिस दिन रेडियो पर उनके गीत न बजते हों। ये गीत हमें हमेशा उनकी याद दिलाते रहते हैं। उन्होंने सच ही कहा है कि इंसान भले ही माटी के मोल बिक जाए, पर उसके बोल हमेशा जिंदा रहते हैं। मजरूह के बोल आज भी हमारे आसपास जिंदा हैं। जब कभी हम निराशा के अंधेरे में डूबे हों, तो उनके कई गीत हमें प्रेरणा देते रहेंगे।
प्रेम कुमार

गुरुवार, 17 मई 2012

जीवन की एक सच्‍चाई

अनोखे अंदाज में मनाया माधुरी का जन्मदिन

अपनी मनमोहक मुस्कान और दिलकश अदाओं से विश्व प्रसिद्ध चित्नकार स्वर्गीय मकबूल फिदा हुसैन समेत लाखों लोगों को घायल कर चुकी दिग्गज फिल्म अभिनेत्नी माधुरी दीक्षित की ‘अनोखी भक्ति’ के कारण दुनिया भर में चíचत तथा अमेरिका में शोध का विषय तक बन चुके युवा सिख व्यवसायी पप्पू सरदार ने आज जमशेदपुर में एक बार फिर भव्य और अनूठे अंदाज में गुजरे जमाने की इस ‘धकधक गर्ल’ का ४५ वां जन्मदिन मनाया वर्ष १९९६ से ही हर वर्ष हजारों रूपए खर्च कर धूमधाम से माधुरी दीक्षित का जन्मदिन मनाते आ रहे पप्पू ने अपने घर को भी माधुरी के मंदिर में तब्दील कर रखा है1 माधुरी के प्रति उनके इस अनोखे दीवानेपन के कारण ही अमेरिका की एक प्रवासी भारतीय छात्ना ने उन पर शोध प्रबंध भी लिखा है। मात्न चौथी कक्षा तक पढ़े ४८ साल के पप्पू को देश के इस प्रमुख औद्योगिक नगर में हर कोई माधुरी के दीवाने के रूप में पहचानता है। वह हर साल माधुरी के ‘जन्मोत्सव‘ को यहां साकची स्थित अपनी चाट की दुकान पर १४ मई की रात से ही मनाना शुरू कर देते हैं। इस अवसर पर सैकड़ो लोगों का हुजूम उमड़ जाता है। वह केक काटने के अलावा माधुरी की पूजा भी करते हैं । गरीब और अपाहिज बच्चों तथा बेसहारा लोगो को भोजन भी कराते हैं। उनके कार्यक्रम की लोकप्रियता के कारण कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी इसमें उनका साथ देती रही हैं। पप्पू ने इस बार १५ मई से शुरू होने वाले एक अनूठे कैलेंडर की करीब दस हजार प्रतियां वितरित की जिन पर माधुरी तथा लंदन के मैडम तुसाद गैलरी में बनी उनकी मोम की प्रतिमा का चित्न है। पप्पू ने माधुरी के जन्मदिन का केक एक घोड़ागाड़ी पर काटा और उनके द्वारा प्रचारित एक खास ब्रांड के चावल और चॉकलेट का वितरण भी किया। कल उन्होंने अपंग बच्चों और बेसहारा बुजुर्गो के बीच चेशायर होम में किन्नरों से भी एक केक कटवाया था। माधुरी के इस दीवाने ने अपना एक अनूठा बीमा भी करा रखा है जिसके अनुसार उसकी मौत होने पर बीमे की राशि यहां अपाहिज और मंद बुद्धि बच्चों के लिए बने चेशायर होम को दी जाएगी। मजेदार बात यह है कि उसने बीमा कंपनी को लिखित तौर पर कह रखा है कि उसकी मौत चाहे जब भी हो ् बीमा की राशि माधुरी के जन्मदिन १५ मई को ही बच्चों को दी जाए। उसने इन बच्चों के लिए माधुरी दीक्षित के नाम से एक पार्क भी बनवा रखा है।
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कान्स समारोह में चार फिल्मों के
 साथ भारत की सशक्त उपस्थिति
‘ प्रेम कांत सिंह
 अपनी रचनात्मक ऊर्जा और नजरिए के लिए दुनिया भर में प्रतिष्ठित कान्स फिल्म समारोह में भारत इस बार कुल चार फिल्मों के साथ मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने जा रहा है। यह पहला मौका है जब भारत की तरफ से एक साथ चार फिल्में कान्स समारोह में फिल्म समीक्षकों के पैमाने पर कसी जाएंगी। इनमें से तीन फिल्में तो पुरस्कार की होड में शामिल होंगी जबकि महान नृत्य निर्देशक उदय शंकर की फिल्म. कल्पना. को .क्लासिक. वर्ग में प्रदíशत किया जाएगा। बुधवार से शुरु  हुए  ६५ वें कान्स समारोह में समीक्षकों को भारतीय सिनेमा के एक नए रूप को देखने का मौका मिलेगा। अब तक गाहे‘बगाहे ही भारतीय फिल्में इस प्रतिष्ठित फिल्म समारोह में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रही हैं लेकिन इस बार तस्वीर बदली हुयी है। कान्स में स्क्रीन होने वाली फिल्मों में गैंग्स आफ वासीपुर. पेडलर्स और मिस लवली शामिल हैं। यह एक दिलचस्प संयोग है कि इनमें से दो फिल्में नवोदित निर्देशकों की हैं। ¨हदी फिल्मों की नयी परिभाषा गढने की कोशिश में जुटा युवा फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप की एक साथ दो फिल्में इस होड में शामिल हो रही हैं। इनमें से एक फिल्म .गैंग्स आफ वासीपुर. का निर्देशन तो अनुराग ने खुद किया है जबकि युवा निर्देशक वासन बाउला की फिल्म .पेडलर्स. का निर्माण अनुराग के प्रोडक्शन हाउस ने किया है।
 अनुराग कान्स समारोह में अपनी दो फिल्मों को प्रविष्टि मिलने को अपने लिए एक बडा सम्मान बता रहे हैं। मसाला फिल्मों से इतर वास्तविकता का पुट लिए हुए सिनेमा में आस्था रखने वाले अनुराग ने कुछ समय पहले ही पांच घंटों से अधिक लंबी फिल्म .गैंग्स आफ वासीपुर. को पूरा किया है। इस फिल्म का कथानक भी बालीवुड फिल्मों के आम लोगों पर पडने वाले प्रभाव को रेखांकित करने वाला है। फिल्म की लंबाई को देखते हुए इसकी दो हिस्सों में स्क्री¨नग की जाएगी। इसे .डाइरेक्टर्स फोर्टनाइट. वर्ग में प्रदíशत किया जाना है
जिसमें बेहद प्रतिष्ठित .पाम डि ओर. पुरस्कार प्रदान किया जाता है। पेडलर्स और मिस लवली को .कैमरा डि ओर. पुरस्कार दिए जाने वाले अनसर्टेन रिगार्ड वर्ग में प्रदíशत किया जाएगा। पेडलर्स का निर्माण अनुराग की ही फिल्म निर्माण कंपनी ने किया है और इसका निर्देशन नवोदित वासन बाला ने किया है। शहर की अंधेरी गलियों की ¨जदगी के विधि आयामों को उद्घाटित करती यह फिल्म अपने स्याह सच से लोगों को चौंकाने की क्षमता रखती है। भारत की तीसरी प्रविष्टि .मिस लवली. भी परंपरागत भारतीय सिनेमा की छवि को तोडने की कोशिश करती है। इस फिल्म के नवोदित निर्देशक असीम अहलूवालिया भी ¨हदी फिल्म जगत पर सितारों के प्रभुत्व को नकारते हैं और जल्द ही नए तरह के सिनेमा के उदय की उम्मीद जगाते हैं जहां पर विषयवस्तु का ही वर्चस्व होगा।  इन फिल्मों के अलावा वर्ष १९४८ में बनी भारतीय फिल्म .कल्पना. को भी क्लासिक वर्ग में प्रदíशत किया जाएगा। मशहूर नर्तक उदय शंकर ने यह प्रयोगधर्मी फिल्म बनायी थी जिसमें उनके अलावा उनकी पत्नी अमला ने भी काम किया था। लेकिन समुचित संरक्षण के अभाव में इसका ¨पट्र खराब हो गया था और बडी जद्दोजहद के बाद इसे प्रदर्शन के लायक बनाया जा सका है। अब ९४ साल की हो चुकीं अमला को .कल्पना. के प्रदर्शन के मौके पर कान्स समारोह में खास तौर पर आमंत्नित किया गया है।

सोमवार, 14 मई 2012

निर्ममता से उपजती ममता

डॉ. महेश परिमल
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की निर्ममता लगातार बढ़ती जा रही है। वामपंथी सरकार को उखाड़ फेंकने के बाद जब से उन्होंने सत्ता की बागडोर संभाली है, तब से एक के बाद एक ऐसी घटनाएँ सामने आ रही हैं, जिससे यह लगता है कि वह स्वयं को काफी असुरक्षित महसूस कर रहीं हैं। दूसरी ओर स्वयं को आम आदमी का प्रतिनिधि बताकर वह केंद्र सरकार के सामने कुछ ऐसे रोड़े अटका रही है, जिसके कारण सरकार को बार-बार परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। ममता की पार्टी सरकार को टिकाए रखने में सहयोग कर रही है। इसका बेजा फायदा भी वह समय-समय पर उठा रही हैं। कई बार उन्होंने अपनी जिद से केंद्र सरकार को अपने निर्णय बदलने के लिए विवश होना पड़ा है। यदि इसी तरह उनकी दादागिरी चलती रही, तो संभव है, पहले तो उनकी पार्टी में ही उनका विरोध होना शुरू हो जाए, उसके बाद वह जनता की नजरों से ही गिर जाएगी। संभव है, जनता ही उसे सत्ता समेत उखाड़ फेंके।
हाल ही में केंद्र सरकार ने चार बड़े शहरों में टीवी चैनल के लिए डिजिटल सेटअप बॉक्स अनिवार्य करने की घोषणा की है। इसका विरोध करते हुए ममता बनर्जी ने कहा कि इसकी समय सीमा काफी कम है। इसके अलावा केंद्र सरकार ने इस मामले में राज्य सरकारों को विश्वास में नहीं लिया है। वैसे तो ममता बनर्जी आम आदमी से उठकर सत्ता तक पहुंची हैं। उन्होंने संघर्ष करके लोगों का दिल जीता है। लोकतंत्र में विचारों एवं आंदोलन की पूरी स्वतंत्रता प्रत्येक नागरिकों को होती है। इसी कारण उन्होंने पश्चिम बंगाल में वामपंथियों के 33 साल के शासन को उखाड़ फेंका। तृणमूल कांग्रेस की नीतियों के कारण ही उन्हें सत्ता मिली। मतदाताओं ने अपना समर्थन दिया। सत्ता मिलने के बाद ममता की निर्ममता सामने आने लगी। उनका स्वभाव तानाशाह की तरह होने लगा। एक तो छोटी-छोटी बात पर उन्हें वामपंथी का हाथ दिखाई देता था, तो दूसरी तरफ अपने कार्यकत्र्ताओं पर कोई रोक नहीं लगा पा रही हैं। जिससे कार्यकत्र्ता उद्दंड होने लगे हैं। अभ-अभी उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाने का काम किया है। काटरून मामले में उन्होंने जादवपुर विश्वविद्यालय के प्राध्यापक को जेल जाना पड़ा। एक वैज्ञानिक ने झोपड़पट्टी के आंदोलन को समर्थन दिया, इसलिए उन्हें गिरफ्तार किया गया। राज्य के सरकारी पुस्तकालय में सरकार की पसंद के अनुसार ही अखबार आदि बुलाए जाएँ। इन सबसे आघातजनक बात यह है कि उनके साथी और खाद्य विभाग के मंत्री ज्योतिप्रिय मलिक ने एक रैली में यह फतवा जारी किया कि तृणमूल कांग्रेस का कोई भी कार्यकर्ता वामपंथियों से किसी प्रकार का सामाजिक संबंध नहीं रखेगा। इसी से पता चल जाता है कि ममता अपने आपको कितना असुरक्षित समझ रही हैं। ये लोकतंत्र है, इसमें वैचारिक मतभेद तो हो सकते हैं, पर मनभेद नहीं हो सकते। कभी भी किसी भी व्यक्ति के विचारों पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। हमारे देश में एक नहीं अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जिसमें दो विभिन्न दलों के लोगों मं आपसी संबंध सौहार्दपूर्ण रहे हैं। आचार्य कृपलानी जीवन भर कांग्रेस के घोर विरोधी रहकर समाजवादी पार्टी का नेतृत्व करते रहे, पर उनकी पत्नी सुचिता कृपलानी कट्टर कांग्रेसी नेता रहीं। लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के पिता एन.सी.चटर्जी हिंदू महासभा के बड़े नेता थे, लेकिन सोमनाथ चटर्जी वामपंथी रहे। प्रजांतत्र में परस्पर दो विरोधी राजनेता मित्र हो सकते हैं। देश में ऐसे भी नेता हैं, जो संसद में परस्पर आरोप-प्रत्यारोप के बाण छोड़ते हैं, तर्क-वितर्क करते हैं, पर थोड़ी देर बाद ही केंटीन में चाय पीते नजर आते हैं। यह लोकतंत्र की आत्मा है। इस समय ममता बनर्जी को अपना व्यवहार बदलने की आवश्यकता है। संभव है यदि ऐसा ही चलता रहा, तो वह अन्य नेताओं की नजर में उतर जाए। पश्चिम बंगाल की प्रजा को भी उनका असली चेहरा दिखाई दे जाए। बंगाल की संस्कृति गौरवशाली है, इसमें वैचारिक मतभेद की विषबेल न बोई जाए, तो ही बेहतर। ममता को यह याद रखना होगा कि 2004 में इसी प्रजा ने उन्हें लोकसभा की केवल एक ही सीट दी थी। उसके बाद विधानसभा चुनाव में 44 सीटें दीं। जो बंगाल की जनता का मूड समझते हैं, वे यह अच्छी तरह से जानते हैं कि यह जनता अधिक सहन नहीं कर सकती। वह इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी सहन नहीं कर पाएगी।
ममता का यह निर्मम रूप देखकर उनके विरोधी ही नहीं, पर उनके साथी भी नाराज होने लगे हैं। उनका यह कैसा ‘पोरिबर्तन’ है कि अत्याचार का विरोध करने वाले उन्हें दुश्मन दिखाई देने लगे हैं। विधानसभा के चुनाव में तृणमूल का प्रचार करने वाली प्रख्यात लेखिका महाश्वेता देवी काटरून बनाने वाले प्रोफेसर के साथ जो कुछ हुआ, उसे गलत ठहराया है। अब तो उन्हें अपना समर्थन देने वाले कलाकार भी यही कहने लगे हैं कि यही हाल रहा, तो निकट भविष्य में उनके साथ भी ऐसा ही होगा। बलात्कार के एक मामले की जाँच करने वाली पुलिस अफसर दमयंती सेन की बदली का मामला हो या रेलवे के हित में आवश्यक कदम उठाने के लिए रेल किराया बढ़ाने वाले दिनेश त्रिवेदी से पद छीन लेने का मामला हो, हर मामले में उनकी हठधर्मी ही सामने आई है। अपनी छवि बदलने के लिए ममता के पास अभी थोड़ा सा समय है। यदि उनका व्यवहार इसी तरह स्वकेंद्रित रहेगा, तो लोग ममता को तीन दशक जितना समय देंगे ही नहीं, अगले चुनाव में वे अपनी हैसियत बता देंगे। संभव है इसका असर 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव में ही दिख जाए।
काटरून के मामले में तो यही कहा जाएगा कि इसके पहले भी देश के बड़े-बड़े नेताओं के खिलाफ काटरून छापे गए हैं, पर किसी के खिलाफ ऐसा व्यवहार किया गया हो, यह सुनने में नहीं आया। प्रोफेसर की धरपकड़ को लेकर मामले ने और भी तूल पकड़ लिया होता, यदि वह केंद्र सरकार के घटक दल की नेता न होती। कई बार वह केवल इसी कारण बच गई हैं। इसके पहले भी तृणमूल कांग्रेस के एक कार्यकर्ता ने गुंडागिरी की, जिसे पुलिस पकड़कर थाने ले गई। किंतु थोड़ी देर बाद ही ममता बनर्जी अपने पूरे अमले के साथ पुलिस स्टेशन आकर उसे छुड़ा ले गई। वे चाहती तो एक फोन पर ही पुलिस उस कार्यकर्ता को छोड़ देती, पर उसे अपने लाव-लश्कर के साथ पुलिस स्टेशन नहीं आना था। केंद्र में कांग्रेस सरकार को समर्थन देने के कारण ममता के खिलाफ अब कोई भी खुलकर नहीं बोल पा रहा है। ममता की निर्ममता का कोई भी मामला हो, कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी उससे बचने की कोशिश करते हैं। अभी उनके साथी भले ही उनके सुर में अपना सुर मिला रहे हों, पर यह सब अधिक समय तक नहीं चल पाएगा। जहाँ अन्याय और अत्याचार है, वहाँ विरोध के स्वर तो मुखर होंगे ही। फिर चाहे वह ममता के खिलाफ हो, या फिर उनके किसी साथी के खिलाफ। अधिक सहन न करने वाले बंगाल की जनता जब चाहेगी अपना गुबार निकाल ही देगी, यह तय है।
    डॉ. महेश परिमल