मंगलवार, 17 सितंबर 2013

सुबह-सुबह

सुबह-सुबह
एक ख्वाब की दस्तक पर
दरवाजा खोला
देखा, सरहद के उस पार से
कुछ मेहमान आए हैं
आँखों से मानुस से सारे
चेहरे सारे सुने-सुनाए
पाँव धोए, हाथ धुलाए
आँगन में आसन लगवाए
और तंदूर पर मक्के के कुछ
मोटे-मोटे रोट पकाए
पोटली में मेहमान पिछले साल की फसल का
गुड़ लाए थे
आँख खुली तो देखा,घर में कोई नहीं था
हाथ लगाकर देखा तो तंदूर अभी तक
बुझा नहीं था
और होठों पर मीठे गुड़ का जायका अब तक चिपक रहा था
ख्‍वाब था शायद, ख्वाब ही होगा
सरहद पर कल रात सुना है चली थी गोली
सरहद पर कल रात सुना है
कुछ ख्वाबों का खून हुआ है

गुलज्रार

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें