-मनोज कुमार
पत्रकारों को
अब ट्रक ड्रायवर की तरह लायसेंस रखकर चलना होगा, यदि सरकार ने तय कर दिया
कि पत्रकारों को भी डाक्टर और वकील की तरह लायसेंस लेना होगा. इस लायसेंस
के लिये बकायदा परीक्षा भी पास करनी होगी. केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री
मनीष तिवारी ने कह दिया है कि पत्रकारों को भी लायसेंस दिया जाना चाहिये और
इसके लिये डाक्टर-इंजीनियर की तरह परीक्षा भी आयोजित होना चाहिये. इसके
पहले प्रेस कांऊसिल के अध्यक्ष ने तो पत्रकारों की शैक्षिक योग्यता तय करने
के लिये एक कमेटी का गठन तक कर दिया है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की
दुहाई हर दल और हर नेता देता रहा है लेकिन जब जब उनके हितों पर चोट पहुंची
है तो सबसे पहले नकेल डालने की कोशिश की गई. पश्चिम बंगाल में ममता बेनर्जी
ने जो कुछ किया या कश्मीर और असम में जो कुछ हुआ, वह सब अभिव्यक्ति की
आजादी में खलल डालने का उपक्रम है.
पराधीन भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाम लगाने की बात समझ
में आती थी. अंग्रेजों को अपने हितों को बचाने के लिये ऐसा करना जरूरी हो
सकता था किन्तु स्वाधीन भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नियंत्रण
करने का अर्थ समझ से परे है. पिछले तीन दशकों से एक शब्द मीडिया इजाद किया
गया है और इस मीडिया ने पत्रकारिता को हाशिये पर डाल दिया है. समाज में जो
समस्या उत्पन्न हो रही है, वह पत्रकारिता के कारण नहीं बल्कि मीडिया के
कारण हो रही है. पत्रकारिता एक मिशन है और मीडिया पूरी तरह व्यवसाय. इस
शब्द की उत्पत्ति के कारणों की तलाश में कुछ भी हाथ नहीं लगा. बस, जवाब
मिला कि जिस तरह सम्पादक की कुर्सी पर प्रबंधक विराजमान है, उसी तरह
पत्रकारिता पर मीडिया चिपक गया है. पत्रकारिता का रिश्ता दिल से है जबकि
मीडिया का रिश्ता दिमाग से. दिल भावनाओं को समझता और जानता है तथा वह अपने
से ऊपर उठकर जनहित और समाजहित में काम करता है जबकि दिमाग सबसे पहले
नफा-नुकसान को देखता है और अपने हित के बारे में सोचता है. इस तरह मीडिया
और पत्रकारिता के दायित्व, समझ और इन दोनों के बीच के अंतर को समझा जा सकता
है.
जो लोग बार बार पत्रकारों की योग्यता की बात कर रहे हैं, उन्हें पता
ही नहीं है कि वे मीडिया के लोगों के बारे में कह रहे हैं या पत्रकारों के
बारे में. तीन दशकों में कुछ इसी तरह का भ्रम फैलाकर सम्पादक की सत्ता को
समाप्त कर दिया गया. प्रबंधकों को सम्पादक होना गैरजरूरी लगा और वे कुर्सी
पर काबिज हो गये. अब पत्रकारों की शैक्षिक योग्यता और लायसेंस दिये जाने की
बात की जा रही है और आने वाले दिनों में पत्रकार भी विलुप्त हो जाएंगे.
इसी के साथ पत्रकारिता भी समाप्त हो जाएगी और रह जाएगा मीडिया. मीडिया में
पत्रकार नहीं होते हैं बल्कि मीडियाकर होते हैं जो संस्था और प्रबंधकों के
साथ स्वयं का लाभ देखते हैं. सन् 75 में जिस तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
को कुचला गया था और इसी का परिणाम है कि मीडिया का प्रार्दुभाव हुआ. इसके
बाद सिलसिला शुरू हुआ अखबारों को राजस्व कमाने का अधिकाधिक अवसर देने का और
रातोंरात बहुख्यक नामी-बेनामी प्रकाशन आरंभ हो गये. बाद के सालों में तो
अखबार और पत्रिकाओं का ऐसा अंबार खड़ा हुआ कि हर परिवार से कथित रूप से एक
पत्रकार गिना जाने लगा. इस गिरावट को रोकने के लिये तब कोई प्रयास न तो
संस्थागत हुये और न ही शासकीय नियंत्रण की कोई कोशिश ही हुई परिणामस्वरूप
समाज के दूसरे क्षेत्रों की तरह पत्रकारिता में भी लगातार गिरावट आती गयी.
प्रतिबद्ध लोगों के स्थान पर लाभ कमाने वालों की संख्या बढ़ती गयी.
सवाल यह है कि आखिरकार सरकार पत्रकारिता के लिये शिक्षा और लायसेंस का
दायरा क्यों बांध रही है? क्या सरकार को इस बात का इल्म नहीं है कि
पत्रकारिता विशुद्ध रूप से अनुभव का मामला है और अनुभव डिग्री या डिप्लोमा
लेने से नहीं आता और न ही लायसेंस लेकर पत्रकारिता की जा सकती है. जिन
डाक्टरों और इंजीनियर से पत्रकारों की तुलना की जा रही है, वहां यह भी याद
रखना चाहिये कि पत्रकार कोई पेशेवर नहीं हैं. उसके पास कभी न तो स्थायी
पूंजी रही है और न वह कोई व्यापार कर सकता है. वह तो मिशनरी भाव से जीता है
और दूसरों को खुश देखकर स्वयं खुश हो जाता है. उसका पहला और आखिरी लक्ष्य
समाज में शुचिता कायम करना होता है लेकिन पेशेवर लायसेंसशुदा लोगों से यह
अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है. आजादी के पहले और बाद में भी खबर पर
मर-मिटने वाला पत्रकार ही होता है.
यह सोच कर अच्छा लगता है कि आजादी के 66 बरसों में हमने कितनी तरक्की
कर ली है. आजादी के पहले वे हमें कुचलने के लिये बर्नाकुलर प्रेसएक्ट लाते
हैं तो स्वाधीन भारत में लायसेंसी बना दिया जाता है. लायसेंसी का अर्थ तो
आप बेहतर समझते होंगे. संभव है कि सरकार अपने मकसद में कामयाब हो जाए और
पत्रकारों को जरूरी शैक्षिक योग्यता हासिल करना पड़े. इसके बाद उसे लायसेंस
हासिल करने के लिये फिर से परीक्षा देना हो और उसमें पास हो जाये और
लायसेंसी पत्रकार के रूप में विख्यात हो जाएगा. इसके बाद की स्थिति की
कल्पना कीजिये कि एक पत्रकार जो लायसेंसी है, वह भला इतनी हिम्मत कहां से
लायेगा कि वह सरकार के काले कारनामों से परतें उखाड़ सके. वह कर सकता है
लेकिन करेगा नहीं क्योंकि तब उसे अपने लायसेंस रद्द हो जाने की चिंता होगी
और नहीं तो कम से कम लायसेंस के रिनीवल की चिंता सतायेगी. लायसेंसी पत्रकार
के राज में आम आदमी की आवाज पत्रकारिता के कान बंद हो चुके होंगे. उसे
सरकार के द्वारा दिखायी जा रही, सुनाई जा रही चीजें ही समझ में आएंगी
क्योंकि वह पत्रकार नहीं, लायसेंसी होगा.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें