किशोरी अमोणकर |
शुभदा जोगलेकर |
कला के क्षेत्र में सन्
2001 का चक्रधर सम्मान जयपुर-अतरौली घराने की प्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका
गान सरस्वती किशाेरी अमाेणकर को दिया गया। इसे स्वीकारने दो दिन के प्रवास
पर वे रायपुर आई थीं। दो दिनों तक वे राज्य सरकार की मेहमान थीं, इस दौरान
बतौर उनकी गाइड मुझे उनका सानिध्य मिला। वे दो दिन मेरे लिए अविस्मरणीय
हैं।
मुझे राज्य सरकार का पत्र मिला कि शास्त्रीय संगीत की प्रसिद्ध गायिका किशोरी अमोणकर के रायपुर प्रवास के दौरान उनकी स्थानीय गाइड आप होंगी। पत्र पढ़कर पहले तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। दरअसल बचपन से ही मैं किशोरी जी की फैन रही हूं। उनका ‘म्हारो प्रणाम, बांके बिहारी जी...’ मेरा फेवरेट भजन है। इस ‘बांके बिहारी जी...’ के ‘..जी..’ मेंं जो अर्ज, जो विनती है वह दिल को छू देने वाली है। हिंदी भाषी क्षेत्र में रहते हुए भी ‘..जी..’ शब्द का इतना सुंदर प्रयोग अन्यत्र सुनने को नहीं मिला। ऐसी गायिका का सानिध्य...। वह भी दो दिन...। इसलिए पत्र पढ़कर मैं खुशी से झूम उठी। खुशी का आवेग कम होने पर डर भी लगा। क्योंकि मैं उनकी फैन जरूर हूं, उन्हें कई बार सुना भी है लेकिन वह सब रेडियो, टेप या टीवी तक ही सीमित है। न तो उनसे मेरी कभी मुलाकात ही हुई न ही उन्हें करीब से देखने का कोई मौका ही मिला। हां..., पढ़-सुनकर जरूर मालूम था कि वे एक मूडी कलाकार हैं। इसलिए जेहन में कई विचार कौंध से गए। आखिर में तय किया कि ठीक है, जब अवसर मिल रहा है, तो फिर जो होगा देखा जाएगा।
एक नवंबर की दोपहर ठीक 11 बजे मैं, किशाेरी अमोणकर को रिसीव करने रायपुर के माना हवाई अड्डे पर पहुंची। वहां काफी भीड़ थी। लेकिन वह भीड़ किशाेरी अमोणकर को देखने, सुनने के लिए नहीं, बल्कि कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी को देखने-सुनने के लिए जुटी थी। उसमें भीड़ का भी कोई दोष नहीं था। नेताओं से मिलने के बाद कम से कम उनसे आश्वासन, वायदे तो मिलते हैं (भले ही वे पूरे न हों), किसी कलाकार को देखकर भीड़ को क्या मिलता...?
खैर, भारतीय परंपरा में अपनी निष्ठा को बरकरार रखता हुआ किशोरी जी का विमान जरा देर से ही आया। आैर वह क्षण आ पहुंचा...! वे सामने थीं...अपना लगेज चेक करती हुईं-‘सामान तो सब ठीक से आ गया न भई!’ मैं हड़बड़ी में आगे बढ़ी और झुककर अभिवादन करने के बाद अपना परिचय दिया, वे निर्विकार थीं। उसी दौरान सोनियाजी की विमान भी आ पहुंचा था, इसलिए वहां चहल-पहल एकाएक बढ़ गई थी। मैं उन्हें लाऊंज में ले गई और उनसे विनती की कि ‘दीदी, भीड़ थोड़ी छंट जाए फिर हम चलेंगे...।’ वे तुरंत मान गईं। भीड़ की वजह से शायद वे भी परेशान थीं। लाऊंज में ही वे फ्रेश हुईं। भीड़ छंट जाने के बाद वहीं के एक अधिकारी से मिलकर मैंने दीदी के लिए एक स्वतंत्र गाड़ी की व्यवस्था करने को कहा। अपने लिए स्वतंत्र गाड़ी देखकर किशोरी जी के चेहरे पर संतोष के भाव नजर आए (और मैंने परमेश्वर को धन्यवाद दिया)।
हवाई अड्डे से होटल तक मिले एकांत की वजह से हो शायद, पर होटल पहुंचने पर वहां का वातावरण बिलकुल सहज, मैत्रीपूर्ण था। वहां उन्होंने सहजता से मुझसे बात की। मैं भी हर्षित हो उठी थी। क्यों न हो, मेरी पसंदीदा गायिका जो मुझसे मुखातिब थी। मैंने उन्हें बताया कि मैं बिलासपुर के बर्जेस इंगलिश मीडियम स्कूल में शिक्षिका हूं। मेरी ससुराल रायपुर में ही है। बातों ही बातों में उन्होंने आग्रह कर मुझे लंच पर रोक लिया। शाम को छत्तीसगढ़ राज्य सम्मान समाराेह था। जिसमें पुरस्कार वितरण के बाद किशाेरी अमोणकर के गायन का कार्यक्रम था।
शाम को मैं होटल पहुंची, उनसे मिली। मुझे देखते ही उनहोंने बगैर किसी लाग-लपेट के सीधे सवाल दागा-‘शुभी..., मैं क्या गाऊं...! संपूर्ण राग या लाइट क्लासिकल...़?’ इस अनपेक्षित सवाल पर मैं घबरा गई, नर्वस भी हुई। फिर खुद पर गर्व भी हुआ। सिर्फ चार घंटे पहले मिली मुझ जैसी अदना सी शिक्षिका से, एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार पूछ रही थी कि क्या गाऊं...? बेशक यह उनका बड़प्पन ही तो था। पर जवाब तो देना ही था। मैंने डरते-डरते धीरे से कहा-‘दीदी, अव्वल तो यह सरकारी प्रोग्राम है। जिसमें भाषणबाजी ज्यादा होगी। ठीक है कि मैं आपकी फैन हूं और मुझे शास्त्रीय संगीत सुनने में आनंद मिलता है। इसके बावजूद मुझे लगता है कि आप प्रोग्राम में लाइट म्युजिक ही प्रस्तुत करें।’ ठीक छह बजे वे तैयार होकर आईं, फिर हम समारोहस्थल पर पहुंचे।
मुझे आश्चर्य हुआ कि इतनी प्रसिद्ध, ख्यातिप्राप्त कलाकार होकर भी कार्यक्रम से पहले वे काफी नर्वस थीं। वे बार-बार अपने लड़के व संगतकारों से पूछ रही थीं-‘हमारी तैयारी तो पूरी है न..., उसमें कोई कमी तो नहीं रह गई...?’ कार्यक्रम के बाद अनौपचारिक चर्चा में उन्होंने स्वीकार किया कि वे हर बार कार्यक्रम से पहले नर्वस होती ही हैं।
जैसा मैंने सोचा था, कार्यक्रम वैसा ही हुआ। दरअसल समारोह में उपस्थित अधिकतर लोग शास्त्रीय संगीत की बजाय लोक नृत्य देखना व लोकगीत सुनना चाह रहे थे, क्योंकि वे सभी स्थानीय कलाकार थे। किशोरी जी ने तीन भजन प्रस्तुत किए। उनमें ‘म्हारो प्रणाम...’ व ‘पिया बिन सूनो छे जी म्हारो देस...’ शामिल थे। अपनी प्रस्तुति के बाद वे ग्रीन रुम पहुंचीं। वहां उनसे मिलने उन लोगों का तांता लगा था जो सचमुच उन्हें देखना-सुनना चाहते थे। लेकिन शासन की अदूरदर्शिता की वजह से वे किशोरी अमोणकर के गायन का पूरा आनंद नहीं उठा सके। दरअसल शास्त्रीय संगीत की महफिल तभी सफल होती है, जब वह स्वतंत्र हो। पुरस्कार वितरण, नेताओं का संबोधन और दूसरे कार्यक्रमों के बीच शास्त्रीय संगीत...कैसे संभव है। लेकिन सरकारी कार्यक्रम ऐसे ही होते हैं और ऐसे कार्यक्रमों से श्रोताओं को निराशा ही हाथ लगती है।
इसलिए जब मैंने किशोरीजी से सवाल किया कि कार्यक्रम कैसा रहा? तो वे आयोजकों पर खूब बरसीं और होटल लौट गईं। यह उनकी स्पष्टवादिता थी। हां, उन्होंने सोनिया गांधी का उल्लेख करते हुए कहा कि ‘सोनियाजी को मेरा गायन पसंद है, लेकिन उनकी सुरक्षा व्यवस्था उन्हें पब्लिक मीटिंग से अलग रखती है।’ उन्होंने मुझे दूसरे दिन दोपहर को 11 बजे आने को कहा। वे इस नए राज्य की राजधानी का बाजार देखना, घूमना चाहती थीं। (इच्छा हुई तो खरीददारी का भी)।
मैं समय पर होटल पहुंची, तो ग्रुप के साथ वे तैयार थीं। उनके व्यक्तित्व पर नीली-चंदेरी रंग की साड़ी खूब जंच रही थी। धूप से बचने के लिए उन्होंने जो गॉगल लगा रखा था, वह काफी बड़ा था। जो उनके चेहरे पर सूट नहीं कर रहा था। ग्रुप के एक सदस्य ने उन्हें बताया। तो प्रतिक्रिया में उन्होंने कहा-‘यह गॉगल लगाने के बाद मुझे ऐसा लगता है कि मैं खूबसूरत नजर आती हूं...।’ एक स्वाभाविक सोच। लेकिन यह सोच एक ख्यातिप्राप्त कलाकार की थी। आखिर कलाकार भी तो एक इनसान ही होता है और उसकी भी अपनी पसंद-नापसंद होती है। बाजार में भी उनके सरल, सहज स्वभाव का कदम-कदम पर अनुभव मिला। खरीददारी करते समय वे ग्रुप के हर सदस्य से राय मशविरा कर रही थीं और सभी उन्हें बगैर किसी हिचक, झिझक के सलाह दे रहे थे। अब ऐसा तो हरगिज नहीं था कि वे अपने लिए खरीददारी न कर सकें। पर मुझे लगता है कि दूसरों को महत्व देने का यह उनका अपना तरीका था। बाजार से हम लौटे तो साढ़े आठ बज चुके थे। दूसरे दिन मेरा स्कूल था। इसलिए मैंने उनसे इजाजत मांगी। तो वे बड़े प्यार से बोलीं-‘अरे...तू चली जाएगी तो इस शहर में मेरा क्या होगा...?’ उनके इस सवाल पर मुझे तुरंत सूझा ही नहीं कि क्या कहूं? वे फिर बोलीं-‘मेरे लिए रुक जाओ न...!’ ठीक भी तो था। मेरी पसंदीदा गायिका मुझसे रुकने का आग्रह कर रही थी, यह कितना बड़ा सम्मान था मेरे लिए। उनका आग्रह, उनका सानिध्य नकारने की जुर्रत मैं कैसे कर सकती थी...? मैंने उनसे कहा-‘आप मुझे कितना सम्मान दे रही हैं। लेकिन कभी आपके साथ भी ऐसा हुआ क्या कि आपकी पसंदीदा शख्सियत ने आपको रोकने का प्रयास किया हो...?’ इस पर वे हंसकर बोलीं-‘हां..., जब मैं बेंगलुरू जाती हूं, तब स्वामी राघवेंद्र सरस्वती जब मुझसे रुकने का आग्रह करते हैं, तब मुझे आनंद होता है।’ उन्होंने फिर मुझे डिनर पर रोक लिया। डाइनिंग टेबल पर भी वे ही बोलती रहीं, हम सभी श्रोता की भूमिका में थे। नए राज्य के बारे में उनका कहना था कि यहां भी समय-समय पर शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम होते रहने चाहिए। उनका मानना था कि लोक संगीत जरूरी है, लेकिन शास्त्रीय संगीत की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। शास्त्रीय संगीत शाश्वत है। और जो शाश्वत होता है वह कभी खत्म नहीं हो सकता। अपनी मां, गान तपस्विनी मोगूबाई कुर्डीकर के बारे में वे बहुत देर तक आदर के साथ बोलती रहीं। उनकी राग सिखाने की शैली, उनके गुस्से का उन्होंने साभिनय उदाहरण प्रस्तुत किया। गलत स्वर लगते ही नाक पर ऐनक थोड़ी सी आगे खिसकाकर आंखें बड़ी करके वे कुछ ऐसे अंदाज में देखती थीं कि गलती करने वाला बरबस सहम सा जाता था। बातचीत के दौरान उन्होंने नम्रता से स्वीकार किया कि आज जो वे इस मुकाम पर हैं तो यह उनकी मां की मेहनत व आशीर्वाद का ही फल है। इन दो दिनों में यह पहला मौका था जब उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में बात की थी।
उनके लौटने के बाद मैं भी लौट गई, उन दो दिनों की स्मृतियां मन में संजोये हुए। रह-रहकर मेरे मन में यह सवाल उठ रहा था कि किशाेरी अमोणकर जी के साथ जैसा अनुभव मुझे मिला, क्या वैसा ही अनुभव उनके सानिध्य में आने वाले सभी लोगों को मिलता होगा...?
मूल अंग्रेजी लेख: शुभदा जोगलेकर
हिंदी अनुवाद: रवींद्र दत्तात्रय तेलंग
मुझे राज्य सरकार का पत्र मिला कि शास्त्रीय संगीत की प्रसिद्ध गायिका किशोरी अमोणकर के रायपुर प्रवास के दौरान उनकी स्थानीय गाइड आप होंगी। पत्र पढ़कर पहले तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। दरअसल बचपन से ही मैं किशोरी जी की फैन रही हूं। उनका ‘म्हारो प्रणाम, बांके बिहारी जी...’ मेरा फेवरेट भजन है। इस ‘बांके बिहारी जी...’ के ‘..जी..’ मेंं जो अर्ज, जो विनती है वह दिल को छू देने वाली है। हिंदी भाषी क्षेत्र में रहते हुए भी ‘..जी..’ शब्द का इतना सुंदर प्रयोग अन्यत्र सुनने को नहीं मिला। ऐसी गायिका का सानिध्य...। वह भी दो दिन...। इसलिए पत्र पढ़कर मैं खुशी से झूम उठी। खुशी का आवेग कम होने पर डर भी लगा। क्योंकि मैं उनकी फैन जरूर हूं, उन्हें कई बार सुना भी है लेकिन वह सब रेडियो, टेप या टीवी तक ही सीमित है। न तो उनसे मेरी कभी मुलाकात ही हुई न ही उन्हें करीब से देखने का कोई मौका ही मिला। हां..., पढ़-सुनकर जरूर मालूम था कि वे एक मूडी कलाकार हैं। इसलिए जेहन में कई विचार कौंध से गए। आखिर में तय किया कि ठीक है, जब अवसर मिल रहा है, तो फिर जो होगा देखा जाएगा।
एक नवंबर की दोपहर ठीक 11 बजे मैं, किशाेरी अमोणकर को रिसीव करने रायपुर के माना हवाई अड्डे पर पहुंची। वहां काफी भीड़ थी। लेकिन वह भीड़ किशाेरी अमोणकर को देखने, सुनने के लिए नहीं, बल्कि कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी को देखने-सुनने के लिए जुटी थी। उसमें भीड़ का भी कोई दोष नहीं था। नेताओं से मिलने के बाद कम से कम उनसे आश्वासन, वायदे तो मिलते हैं (भले ही वे पूरे न हों), किसी कलाकार को देखकर भीड़ को क्या मिलता...?
खैर, भारतीय परंपरा में अपनी निष्ठा को बरकरार रखता हुआ किशोरी जी का विमान जरा देर से ही आया। आैर वह क्षण आ पहुंचा...! वे सामने थीं...अपना लगेज चेक करती हुईं-‘सामान तो सब ठीक से आ गया न भई!’ मैं हड़बड़ी में आगे बढ़ी और झुककर अभिवादन करने के बाद अपना परिचय दिया, वे निर्विकार थीं। उसी दौरान सोनियाजी की विमान भी आ पहुंचा था, इसलिए वहां चहल-पहल एकाएक बढ़ गई थी। मैं उन्हें लाऊंज में ले गई और उनसे विनती की कि ‘दीदी, भीड़ थोड़ी छंट जाए फिर हम चलेंगे...।’ वे तुरंत मान गईं। भीड़ की वजह से शायद वे भी परेशान थीं। लाऊंज में ही वे फ्रेश हुईं। भीड़ छंट जाने के बाद वहीं के एक अधिकारी से मिलकर मैंने दीदी के लिए एक स्वतंत्र गाड़ी की व्यवस्था करने को कहा। अपने लिए स्वतंत्र गाड़ी देखकर किशोरी जी के चेहरे पर संतोष के भाव नजर आए (और मैंने परमेश्वर को धन्यवाद दिया)।
हवाई अड्डे से होटल तक मिले एकांत की वजह से हो शायद, पर होटल पहुंचने पर वहां का वातावरण बिलकुल सहज, मैत्रीपूर्ण था। वहां उन्होंने सहजता से मुझसे बात की। मैं भी हर्षित हो उठी थी। क्यों न हो, मेरी पसंदीदा गायिका जो मुझसे मुखातिब थी। मैंने उन्हें बताया कि मैं बिलासपुर के बर्जेस इंगलिश मीडियम स्कूल में शिक्षिका हूं। मेरी ससुराल रायपुर में ही है। बातों ही बातों में उन्होंने आग्रह कर मुझे लंच पर रोक लिया। शाम को छत्तीसगढ़ राज्य सम्मान समाराेह था। जिसमें पुरस्कार वितरण के बाद किशाेरी अमोणकर के गायन का कार्यक्रम था।
शाम को मैं होटल पहुंची, उनसे मिली। मुझे देखते ही उनहोंने बगैर किसी लाग-लपेट के सीधे सवाल दागा-‘शुभी..., मैं क्या गाऊं...! संपूर्ण राग या लाइट क्लासिकल...़?’ इस अनपेक्षित सवाल पर मैं घबरा गई, नर्वस भी हुई। फिर खुद पर गर्व भी हुआ। सिर्फ चार घंटे पहले मिली मुझ जैसी अदना सी शिक्षिका से, एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार पूछ रही थी कि क्या गाऊं...? बेशक यह उनका बड़प्पन ही तो था। पर जवाब तो देना ही था। मैंने डरते-डरते धीरे से कहा-‘दीदी, अव्वल तो यह सरकारी प्रोग्राम है। जिसमें भाषणबाजी ज्यादा होगी। ठीक है कि मैं आपकी फैन हूं और मुझे शास्त्रीय संगीत सुनने में आनंद मिलता है। इसके बावजूद मुझे लगता है कि आप प्रोग्राम में लाइट म्युजिक ही प्रस्तुत करें।’ ठीक छह बजे वे तैयार होकर आईं, फिर हम समारोहस्थल पर पहुंचे।
मुझे आश्चर्य हुआ कि इतनी प्रसिद्ध, ख्यातिप्राप्त कलाकार होकर भी कार्यक्रम से पहले वे काफी नर्वस थीं। वे बार-बार अपने लड़के व संगतकारों से पूछ रही थीं-‘हमारी तैयारी तो पूरी है न..., उसमें कोई कमी तो नहीं रह गई...?’ कार्यक्रम के बाद अनौपचारिक चर्चा में उन्होंने स्वीकार किया कि वे हर बार कार्यक्रम से पहले नर्वस होती ही हैं।
जैसा मैंने सोचा था, कार्यक्रम वैसा ही हुआ। दरअसल समारोह में उपस्थित अधिकतर लोग शास्त्रीय संगीत की बजाय लोक नृत्य देखना व लोकगीत सुनना चाह रहे थे, क्योंकि वे सभी स्थानीय कलाकार थे। किशोरी जी ने तीन भजन प्रस्तुत किए। उनमें ‘म्हारो प्रणाम...’ व ‘पिया बिन सूनो छे जी म्हारो देस...’ शामिल थे। अपनी प्रस्तुति के बाद वे ग्रीन रुम पहुंचीं। वहां उनसे मिलने उन लोगों का तांता लगा था जो सचमुच उन्हें देखना-सुनना चाहते थे। लेकिन शासन की अदूरदर्शिता की वजह से वे किशोरी अमोणकर के गायन का पूरा आनंद नहीं उठा सके। दरअसल शास्त्रीय संगीत की महफिल तभी सफल होती है, जब वह स्वतंत्र हो। पुरस्कार वितरण, नेताओं का संबोधन और दूसरे कार्यक्रमों के बीच शास्त्रीय संगीत...कैसे संभव है। लेकिन सरकारी कार्यक्रम ऐसे ही होते हैं और ऐसे कार्यक्रमों से श्रोताओं को निराशा ही हाथ लगती है।
इसलिए जब मैंने किशोरीजी से सवाल किया कि कार्यक्रम कैसा रहा? तो वे आयोजकों पर खूब बरसीं और होटल लौट गईं। यह उनकी स्पष्टवादिता थी। हां, उन्होंने सोनिया गांधी का उल्लेख करते हुए कहा कि ‘सोनियाजी को मेरा गायन पसंद है, लेकिन उनकी सुरक्षा व्यवस्था उन्हें पब्लिक मीटिंग से अलग रखती है।’ उन्होंने मुझे दूसरे दिन दोपहर को 11 बजे आने को कहा। वे इस नए राज्य की राजधानी का बाजार देखना, घूमना चाहती थीं। (इच्छा हुई तो खरीददारी का भी)।
मैं समय पर होटल पहुंची, तो ग्रुप के साथ वे तैयार थीं। उनके व्यक्तित्व पर नीली-चंदेरी रंग की साड़ी खूब जंच रही थी। धूप से बचने के लिए उन्होंने जो गॉगल लगा रखा था, वह काफी बड़ा था। जो उनके चेहरे पर सूट नहीं कर रहा था। ग्रुप के एक सदस्य ने उन्हें बताया। तो प्रतिक्रिया में उन्होंने कहा-‘यह गॉगल लगाने के बाद मुझे ऐसा लगता है कि मैं खूबसूरत नजर आती हूं...।’ एक स्वाभाविक सोच। लेकिन यह सोच एक ख्यातिप्राप्त कलाकार की थी। आखिर कलाकार भी तो एक इनसान ही होता है और उसकी भी अपनी पसंद-नापसंद होती है। बाजार में भी उनके सरल, सहज स्वभाव का कदम-कदम पर अनुभव मिला। खरीददारी करते समय वे ग्रुप के हर सदस्य से राय मशविरा कर रही थीं और सभी उन्हें बगैर किसी हिचक, झिझक के सलाह दे रहे थे। अब ऐसा तो हरगिज नहीं था कि वे अपने लिए खरीददारी न कर सकें। पर मुझे लगता है कि दूसरों को महत्व देने का यह उनका अपना तरीका था। बाजार से हम लौटे तो साढ़े आठ बज चुके थे। दूसरे दिन मेरा स्कूल था। इसलिए मैंने उनसे इजाजत मांगी। तो वे बड़े प्यार से बोलीं-‘अरे...तू चली जाएगी तो इस शहर में मेरा क्या होगा...?’ उनके इस सवाल पर मुझे तुरंत सूझा ही नहीं कि क्या कहूं? वे फिर बोलीं-‘मेरे लिए रुक जाओ न...!’ ठीक भी तो था। मेरी पसंदीदा गायिका मुझसे रुकने का आग्रह कर रही थी, यह कितना बड़ा सम्मान था मेरे लिए। उनका आग्रह, उनका सानिध्य नकारने की जुर्रत मैं कैसे कर सकती थी...? मैंने उनसे कहा-‘आप मुझे कितना सम्मान दे रही हैं। लेकिन कभी आपके साथ भी ऐसा हुआ क्या कि आपकी पसंदीदा शख्सियत ने आपको रोकने का प्रयास किया हो...?’ इस पर वे हंसकर बोलीं-‘हां..., जब मैं बेंगलुरू जाती हूं, तब स्वामी राघवेंद्र सरस्वती जब मुझसे रुकने का आग्रह करते हैं, तब मुझे आनंद होता है।’ उन्होंने फिर मुझे डिनर पर रोक लिया। डाइनिंग टेबल पर भी वे ही बोलती रहीं, हम सभी श्रोता की भूमिका में थे। नए राज्य के बारे में उनका कहना था कि यहां भी समय-समय पर शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम होते रहने चाहिए। उनका मानना था कि लोक संगीत जरूरी है, लेकिन शास्त्रीय संगीत की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। शास्त्रीय संगीत शाश्वत है। और जो शाश्वत होता है वह कभी खत्म नहीं हो सकता। अपनी मां, गान तपस्विनी मोगूबाई कुर्डीकर के बारे में वे बहुत देर तक आदर के साथ बोलती रहीं। उनकी राग सिखाने की शैली, उनके गुस्से का उन्होंने साभिनय उदाहरण प्रस्तुत किया। गलत स्वर लगते ही नाक पर ऐनक थोड़ी सी आगे खिसकाकर आंखें बड़ी करके वे कुछ ऐसे अंदाज में देखती थीं कि गलती करने वाला बरबस सहम सा जाता था। बातचीत के दौरान उन्होंने नम्रता से स्वीकार किया कि आज जो वे इस मुकाम पर हैं तो यह उनकी मां की मेहनत व आशीर्वाद का ही फल है। इन दो दिनों में यह पहला मौका था जब उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में बात की थी।
उनके लौटने के बाद मैं भी लौट गई, उन दो दिनों की स्मृतियां मन में संजोये हुए। रह-रहकर मेरे मन में यह सवाल उठ रहा था कि किशाेरी अमोणकर जी के साथ जैसा अनुभव मुझे मिला, क्या वैसा ही अनुभव उनके सानिध्य में आने वाले सभी लोगों को मिलता होगा...?
मूल अंग्रेजी लेख: शुभदा जोगलेकर
हिंदी अनुवाद: रवींद्र दत्तात्रय तेलंग
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