एक महिला जॉय मिलने ने जब पार्किंसन सम्बंधी एक सम्मेलन में बताया कि वह पार्किंसन रोग को सूंघ सकती हैं तो किसी ने उस पर वि·ाास नहीं किया। मगर जब बाद में उन्होंने अपनी इस क्षमता का प्रदर्शन किया तो रोग की पहचान की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति हुई। मिलने ने सबसे पहले अपने पति के शरीर की गंध में परिवर्तन महसूस किया, जबकि पार्किंसन रोग के लक्षण प्रकट नहीं हुए थे। आगे चलकर उन्होंने एक संस्था में काम करते हुए यह बात अन्य रोगियों के बारे में भी महसूस की। एडिनबरा वि·ाविद्यालय के टाइलो कुनाथ ने मिलने को अपनी प्रयोगशाला में आमंत्रित किया और अपनी क्षमता का प्रदर्शन करने को कहा। उन्हें 12 टी- शर्ट सूंघने को दिए गए जिनमें से 6 पार्किंसन रोगियों के थे। मिलने ने 12 में से 11 की सही पहचान की। एक मामले में वे गलत साबित हुई - उन्होंने एक ऐसे व्यक्ति को पार्किंसन रोगी बताया जिसे रोग नहीं था। मगर आश्चर्य की बात यह रही कि एक साल के अंदर- अंदर ही उस व्यक्ति में रोग के लक्षण प्रकट हो गए। कुनाथ व उनके साथियों ने पूरे मामले की व्यवस्थित छानबीन शुरू की। मिलने से पूछा गया कि उन्हें यह गंध टी-शर्ट के किस हिस्से में सबसे ज़्यादा महसूस होती है। जब उन्होंने बताया कि गंध का रुाोत शर्ट की कॉलर है, तो शोधकर्ता अचरज में पड़ गए क्योंकि आम तौर पर सबसे ज़्यादा पसीना बगलों में आता है और उन्हें उम्मीद थी कि उसी हिस्से से सबसे ज़्यादा गंध आएगी। मगर जब मिलने ने गर्दन की ओर इशारा किया
तो नए सिरे से खोजबीन शुरू हुई। इसके अलावा एक बात और हुई। मिलने की कहानी प्रसारित होने के बाद
कई और व्यक्तियों ने दावा किया है कि उन्हें पार्किंसन की गंध पहचान में आती है। अब इन लोगों के साथ प्रयोग शुरू किए जाएंगे। गर्दन में से गंध की बात से शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि यह गंध पसीना ग्रंथियों से नहीं बल्कि एक अन्य किस्म की ग्रंथियों में से निकल रही है, जिन्हें सेबेशियस ग्रंथियां कहते हैं। अब पार्किंसन रोगियों की सेबेशियस ग्रंथियों के रुााव का विश्लेषण विभिन्न तरीकों से किया जा रहा है ताकि पार्किंसन से सम्बंधित रासायनिक अणुओं की पहचान की जा सके। जब सेबेशियस ग्रंथियों पर बात टिक गई तो शोधकर्ताओं ने पार्किंसन सम्बंधी पुराने शोध पत्रों का अध्ययन फिर से किया। पता चला कि 1920 के दशक
में ही यह देखा गया था कि पार्किंसन रोगियों में सीबम निर्माण की प्रक्रिया में परिवर्तन होने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि पार्किंसन रोगियों में त्वचा थोड़ी मोमी हो जाती है। यह बात त्वचा विशेषज्ञों ने रिपोर्ट की थी मगर तंत्रिका वैज्ञानिकों ने इसकी उपेक्षा की थी। अब त्वचा की गंध और पार्किंसन होने की संभावना के बीच सम्बंध उजागर होने के बाद कई विधियों से उन आणविक पहचान चिंहों की खोज की जाएगी जो समय रहते रोग के आसार दर्शा सकें।
एक रोचक बात यह है कि वैज्ञानिक इस काम में खोजी कुत्तों की भी मदद लेने पर विचार कर रहे हैं। फिलहाल
जीव वैज्ञानिक मामलों में कुछ हद तक खोजी कुत्तों का इस्तेमाल हुआ है। जैसे जुड़वां बच्चों के बीच भेद करने या कतिपय कैंसर और मधुमेह की शिनाख्त के लिए। (रुाोत फीचर्स)
तो नए सिरे से खोजबीन शुरू हुई। इसके अलावा एक बात और हुई। मिलने की कहानी प्रसारित होने के बाद
कई और व्यक्तियों ने दावा किया है कि उन्हें पार्किंसन की गंध पहचान में आती है। अब इन लोगों के साथ प्रयोग शुरू किए जाएंगे। गर्दन में से गंध की बात से शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि यह गंध पसीना ग्रंथियों से नहीं बल्कि एक अन्य किस्म की ग्रंथियों में से निकल रही है, जिन्हें सेबेशियस ग्रंथियां कहते हैं। अब पार्किंसन रोगियों की सेबेशियस ग्रंथियों के रुााव का विश्लेषण विभिन्न तरीकों से किया जा रहा है ताकि पार्किंसन से सम्बंधित रासायनिक अणुओं की पहचान की जा सके। जब सेबेशियस ग्रंथियों पर बात टिक गई तो शोधकर्ताओं ने पार्किंसन सम्बंधी पुराने शोध पत्रों का अध्ययन फिर से किया। पता चला कि 1920 के दशक
में ही यह देखा गया था कि पार्किंसन रोगियों में सीबम निर्माण की प्रक्रिया में परिवर्तन होने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि पार्किंसन रोगियों में त्वचा थोड़ी मोमी हो जाती है। यह बात त्वचा विशेषज्ञों ने रिपोर्ट की थी मगर तंत्रिका वैज्ञानिकों ने इसकी उपेक्षा की थी। अब त्वचा की गंध और पार्किंसन होने की संभावना के बीच सम्बंध उजागर होने के बाद कई विधियों से उन आणविक पहचान चिंहों की खोज की जाएगी जो समय रहते रोग के आसार दर्शा सकें।
एक रोचक बात यह है कि वैज्ञानिक इस काम में खोजी कुत्तों की भी मदद लेने पर विचार कर रहे हैं। फिलहाल
जीव वैज्ञानिक मामलों में कुछ हद तक खोजी कुत्तों का इस्तेमाल हुआ है। जैसे जुड़वां बच्चों के बीच भेद करने या कतिपय कैंसर और मधुमेह की शिनाख्त के लिए। (रुाोत फीचर्स)
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