बुधवार, 10 फ़रवरी 2021



चानक

कर मुझसे

ठलाता हुआ पंछी बोला

श्वर ने मानव को तो

त्तम ज्ञान-दान से तौला

पर हो तुम सब जीवों में

ष्य तुल्य अनमोल

क अकेली जात अनोखी

सी क्या मजबूरी तुमको

ओ ट रहे होंठों की शोख़ी

र सताकर कमज़ोरों को

अं ग तुम्हारा खिल जाता है

अ: तुम्हें क्या मिल जाता है.?

हा मैंने- कि कहो

ग आज सम्पूर्ण

र्व से कि- हर अभाव में भी

र तुम्हारा बड़े मजे से

ल रहा है

छो टी सी- टहनी के सिरे की

गह में, बिना किसी

गड़े के, ना ही किसी

कराव के पूरा कुनबा पल रहा है

ठौ र यहीं है उसमें

डा ली-डाली, पत्ते-पत्ते

लता सूरज

रावट देता है

कावट सारी, पूरे

दि वस की-तारों की लड़ियों से

न-धान्य की लिखावट लेता है

ना दान-नियति से अनजान अरे

प्र गतिशील मानव

फ़ रेब के पुतलो

न बैठे हो समर्थ

ला याद कहाँ तुम्हें

नुष्यता का अर्थ.?

ह जो थी, प्रभु की

चना अनुपम...

ला लच-लोभ के 

शीभूत होकर

र्म-धर्म सब तजकर

ड्यंत्रों के खेतों में

दा पाप-बीजों को बोकर

हो कर स्वयं से दूर

क्ष णभंगुर सुख में अटक चुके हो

त्रा स को आमंत्रित करते

ज्ञा न-पथ से भटक चुके हो।


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