मंगलवार, 21 मार्च 2023

टेढ़े-मेढ़े रास्ते



कांटा जब पैर में चुभता है तब दर्द तो होता ही है, बिछुआ जब डंक मारे अथवा सर्प डस जाय तब तन, बदन व्याकुल हो जाता है। अचेतावस्था की स्थिति भी आ जाती है और कभी-कभी तो ऐसे व्यक्ति की मौत भी हो जाती है। दवाइयां और डॉक्टर के प्रयास धरे के धरे रह जाते हैं। 

मनुष्य का जीवन भी सरल और सपाट होता है। युवावस्था तक निश्छल मन से समय गुजर जाता है। राग-द्वेष, न छलकपट, न काम और क्रोध की स्थिति। लेकिन इसके बाद ैजसे-जैसे जीवन उत्तरोत्तर पायदान तय करता है तब स्थिति और परिस्थिति वह सब सबक सिखाने लगता है जिससे वह लगभग अनभिज्ञ रहता है। समाज, देश, काल में घट रहे वारदात व वातावरण भी मन-मस्तिष्क पर प्रभाव डालने लगता है। जो बातें व ज्ञान विद्यालयों और महाविद्यालयों में नहीं मिलता वह सब धीरे-धीरे समाज, घर-परिवार के सदस्यों के व्यवहार सिखा देता है और यहीं से वह सीख-समझकर अपना आचरण व व्यवहार का निर्माण करता है। 

अब यदि परिवार का कोई सदस्य भ्रष्टाचारी है, कदाचरण करता है, मां अथवा बहनों का आचरण व व्यवहार ठीक नहीं है, तब इसका व्यवहार बेटे अथवा बेटियों पर क्या पड़ेगा ? समाज व देश में अनैतिक कार्य हो रहे हैं सत्ता के लिए राजनीतिकों द्वारा दूसरे दलों के प्रतिनिधियों की खरीददारी, तोडफ़ोड़, इसका भी प्रभाव शुद्ध व सात्विक जीवन जीने का सपना संजोये युवकों पर पड़े बिना नहीं रह सकता। यही हथकंडा तो आगे चलकर वह अपनाएगा। राजनैतिक शुचिता की जगह तोडफ़ोड़ कर सत्ता हथियाने की होड़ ने देश, समाज व काल को कलुषित करने पर आमादा कर दिया है। सत्ताधारी दल के सदस्यों को धन का लालच देकर या यों कहें उन्हें खरीदकर निर्वाचित सरकारों को गिराकर स्वयं सत्तासीन होने पर षडयंत्र, किसी के भी मन पर प्रभाव डाले बिना कैसे रह सकता है। सब कहते हैं यह गलत हो रहा है, घिनौना कार्य है, प्रजातंत्र के माथे पर धब्बा है, कलंक है लेकिन कौन सुनता है? यह भी एक तरह का राजनैतिक आतंकवाद है, सत्तासीन दल का। निर्वाचित सरकारों को गिराने का षडयंत्र एक तरह से पाप नहीं है तो और क्या है? 

इसी तरह की कुटिल और घिनौनी चालें औद्योगिक प्रतिष्ठानों में भी देखी जा सकती है कि किस तरह दूसरे उद्योग को कमजोर करने की प्रतिस्पर्धा और एकाधिकार प्राप्त करने की होड़ ने अर्थजगत में भी कोहराम मचाया हुआ है। इस गलाकाट स्पर्धा से देश व समाज को भी नुकसान होता है। आर्थिक आतंकवाद भी देश व समाज में अपनी गहरी जड़ें जमा चुका है। जिन उद्योगपतियों की सरकारों से मिलीभगत होती है, दोस्ती होती है उसका उद्योग, व्यवसाय चांदी काटने लगता है। दिन दूनी, रात चौगुनी मुनाफा कमाने लगता है और देखते ही देखते ऐसे उद्योगपति रातों-रात अरबपतियों की श्रेणी में आ जाते हैं। देश-विदेश में इनका औद्योगिक  प्रतिष्ठानों का जाल फैल हो जाता है। कैसे इनके पास इतना धन आ जाता है, हर कोई जानता है। इन लोगों के पास ऐसी कोई जादू की छड़ी नहीं होती कि देखते ही देखते धन कुबेर बन जाए। बैकों का घोटाला सरकारी संसाधनों का दोहन करने वाले, बेनामी संपत्ति के मालिक बनने वाले ऐसे लोगों पर सरकार का वरदहस्त होता है। बिचौलिये और दलाली में इनके कारिंदों का ही हाथ होता है। 

आज स्थिति यह है कि सीधे रास्ते से कोई सफर नहीं कर सकता और करने की कोशिश करता है तो उसे डंडी मारकर गिरा दिया जाता है। कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है जो साफ-सुथरा हो। हर क्षेत्र चाहे वह प्रशासनिक हो अथवा शैक्षणिक, न्यायिक व धार्मिक, वहां कदम रखते ही अव्यवस्था, अराजकता व पाखंड की बू आती है। काजल की कोठरी की तरह बन गया है पूरा देश-विदेश। इस दम घोटू परिवेश में आज का नौनिहाल जब कदम रखने को सोचता है तो उसे समझ में ही नहीं आता कि कौन सा रास्ता अख्तियार करे। जब घर-परिवार का ही परिवेश साफ-सुथरा नहीं है और उसकी नजर सब कुछ कलुषित दिखता है तब समाज व देश-विदेश के बारे में उनके मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह विचारणीय है। इस तरह के टेढ़े-मेढ़े रास्ते को देखकर आज की युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित नहीं होगी, उसके लिए जिम्मेदार कौन? सर्प जब रेंगता है तो सीधा ही टेढ़े-मेढ़े रेंगना उसे पसंद नहीं। क्या हम और हमारा समाज व सरकार सर्पों से भी गए गुजरे हो गए हैं? 

जिंदगी का सफर इतना आसान नहीं है कि राह चलते मंजिल मिल जाए। बड़ी-बड़ी बाधाएं, रुकावटें, पहाड़ सी समस्याएं, दुर्गम व टेढ़ी-मेढ़ी रास्ते से गुजरना पड़ता है। बड़े लोगों की तो बड़ी बातें होती है वे चौसर और शतरंज की बाजियां जानते हैं, उनकी बाधाओं को दूर करने के लिए अनेक मददगार सामने आ जाते हैं लेकिन जिन लोगों ने अभी-अभी अपना कैरियर बनाना शुरू किया है, उनके कोई गाड फादर नहीं होते, कोई मित्र और मददगार नहीं होते, ऐसे लोग उदास, निराश हो जाते हैं। अनेक क्षेत्रों से इस तरह की खबरें आती हैं। वे डिप्रेशन में चले जाते हैं। और तो औार अपने लोग ही धोखेबाज और ठग की भूमिका में आ जाते हैं। कैरियर बर्बाद होने की स्थिति आ जाती है तब दुखी मन में ऐसे लोगों को आत्महत्या जैसे घृणित कार्य के लिए विवश हो जाना पड़ता है। इतना सुंदर सुखमय जीवन जिसको जीना चाहिए, निर्माण करना चाहिए, वह नरक बन जाता है। यह सिलसिला जारी है, कब थमेगा, रुकेगा, बंद होगा किसी को नहीं पता ?

परमानंद वर्मा 

गुरुवार, 16 मार्च 2023

धनी बिना जग लागे मोर सूना सूना

काकी जीवन गुजार रहे विधुर और विधवाओं की अपनी अजब-गजब समस्याएं होती हैं, दुखड़ा रोते हैं। है कोई समाज  अथवा संगठन जो उनकी आंसुओं को पोंछ सके। बंद पड़ी जीवन की घड़ी अथवा धड़कनों को पुन: रिचार्ज कर सके, रुढिय़ों, परंपराओं मे जकड़े समाजों का कभी दिल नहीं पसीजता कि जिनके जीवन में नि:सारिता गई है, अंधेरे में भटक रहे हैं, उसे उपवन बना दिया जाए? एक ऐसा ही सार्थक प्रयास राजधानी के एक संगठन रायपुर ब्राइट फाउन्डेशन ने किया है। इसी पर आधारित है छत्तीसगढ़ी आलेख- बुढ़वा मन के बिहाव करे के साध....

बुढ़त काल मं जेकर गोसइन के इंतकाल हो जथे या फेर जेकर गोसइया चल बसथे, विधवा हो जथे या आधा उमर के पहिली रांडी अनाथिन हो जथे या गोसइया विधुर हो जथे तेकर मन के जिनगी अधर मं लटक जथे। बिन जोड़ी-जांवर के अइसन मन के जीव मुंहाचाली बिगन छटपटावत रहिथे। काकर संग अपन दुख-सुख के गोठ बात करिन, बात के छोड़े अउ दूसर इच्छा होगे ओकर भरपाई कइसे करे जाय। शरीर घला कुछु मांगथे, उहू ला कोनो जिनिस के भूख लगथे जइसे पेट हा खाय बर अनाज-पानी मांगथे। ये अलकरहा समस्या हे। घर-परिवार सबो हे फेर ये भूख अइसे हे ये सबो के रहिथे फेर भूख ला कोनो नइ मेटा सकय।

अइसन बहुत दाई-महतारी, बेटी-बहिनी, काकी, मामी, मौसी, भउजी, फूफू हे जउन आधा उमर में जुच्छा हाथ होगे हे विधवा होगे हे, अइसने पुरुष मन घला विधुर होगे हे। घर मं कांही जिनिस के कमी नइहे, कमी हे तो सिरिफ जोड़ी जांवर के? कहां जाय, कोन बतावय अपन दुख अउ तकलीफ? कहूं इच्छा पूरा करे खातिर ककरो संग अवैध संबंध बनावत हे, गांव-शहर  मं अइसन कारोबार धड़ल्ले से चलत हे, फेर अवैध हा तो अवैध होथे। कहूं ऊंच-नीच होगे, पकड़ागे, पेट भरागे तब बदनामी के सिवाय कांही हासिल नइ होवय।

कइसे करबे हरहा गरुवा हरियर चारा खाये बिगन मन माडय़ नहीं। सरी उमर भर तो टकराही परे रिहिसे तेकर सेती आदत  जाय रहिथे। उदुक ले खेत के चारा लुआ जथे तहां ले धपोर देथे गाड़ी हा। मन छुनहुन - छुनहुन लागत रहिथे। कतको मनाबे, लगाम तीरके रखबे फेर हरियर-हरियर चारा देख के  येहर उही कोती रेंगे ले धर लेथे। चारा लाइन मं लाय खातरि गजब उदीम करे ले परथे। फेर अइसन कतेक दिन ले चलही। पर के खेती पर के चारा, परे होथे, अपन हो नइ सकय। कतको झन किराया मं घला काम चला लेथे। गांव अउ शहर मं सबो जघा अइसन जुगाड़ हो जथे। फेर किराया के माल किराया के होथे, ओकर ऊपर अपन हक जता नइ सकस।

समाज के जबर समस्या हे। सब घर अइसन बहू - बेटी, दाई-बहिनी, काकी, मामी, फूफू कोनो-कोनो कारन से बेवा होके बइठे हे। ये माई लोगिन मन के जउन समस्या हे तउन तो हइहे, ओकर ले भारी समस्या अउ संकट ओकर परिवार के मुखिया मन के हे जेकर घर मं अइसन जवान या अधेड़ बहिनी, बेटी मन के हे। कइसे ओकर मन के जिनगी के नइया पार होही, उमर पहाही? ओकर मन के दुख अउ हालत देख-देख के  ओमन राहेर अउ संडइया काड़ी असन सुखावत जात हे।  कोनो-कोनो समाज मं ये समस्या के हल निकाल ले हे, चूरी पहिना के बहिनी बेटी के जिनगी ला संवार देथे। पटरी मं जथे ओकर मन के गाड़ी, बने चले ले धर लेथे। फेर कतको अइसे समाज हे जेकर मन के नियम, कानून कठोर हे। बेटी-बहू घर मं बइठके सरी उमर पहा लिही फेर ओकर मन के जिनगी संवारे के कोनो रस्दा नइ चतवार सकिन ओमन। ओकर मन बर जिनगी पहाड़ असन हो जथे।

सुरता आवत हे मोला, गांव के तीन झन अधेड़ जउन पचास, साठ अउ अस्सी के उमर पार कर डरे रिहिन, तेन मन विधवा विवाह करके गोसइन लाइन। ओकर मन के अपन-अपन घरेलू समस्या रिहिन, तब कतको के शरीर के भूख मेटाय बर जुगत करिन। शर्त, समझौता हे तिहां सब जुगाड़ हो जथे। लेन-देन, लिखा-पढ़ी करके ये बेवस्था करे जाथे। अस्सी साल के बुढ़वा, जेकर बेटी, नाती, नतनीन सबो रिहिसे तेला भला का के जरूरत रिहिस होही, फेर का करबे हरहा मन मानय नहीं। पांच एकड़ जमीन बेवा छोकरी के नांव मं रजिस्ट्री करा के गोसाइन बना के ले आनिस।

ये विकट समस्या हे, समाज ला एकर मन के समस्या ला समझना चाही। मरद मन तो बोल डरथे फेर बेटी, बहिनी अउ बहू मन कइसे बोल पाही बपरी गरीबीन मन। लोक लाज ओमन धर जाथे. हल निकाले बर चाही अउ जरूर ये दिशा मं कदम उठाना चाही। रस्दा नइ निकाले मं कदम भटक जथे, भरे जवानी के बोझ सहे नइ जा सकय। अइसन दरद उही जान सकत हे जेन गुजरत हे। अभी हाले के बात हे- एक झन संगवारी पूछथे- कइसे जी फलाना, गोसइन गुजरे के बाद तोला अब कइसे लागत हे, कमी खलत होही ना? मुड़ मं पथरा कचारे असन लगिस ओकर बात हा। आगी मं नून झन छिड़क भाई।  तेवर ला देख के चुप होगे।

भला होय, हमर राजधानी के जागरुक सियान मन ला, जउन अइसन मन के बज्र समस्या ला हल करे खातिर ठोसलगहा कदम उठाय हे। रायपुर बॉइट फाउन्डेशन नांव के एक संस्था हे जेकर पदाधिकारी मन जीवन के आखिरी पड़ाव मं एकाकी जीवन गुजारत बुजुर्ग मनखे बर जीवन साथी के जुगाड़ करे खातिर परिचय सम्मेलन करिन। तेमा तीरपन कोरी ले ऊपर महिला अउ पुरुष मन भाग लिन। एमा छै कोरी मन फिर से बिहाव करे के बातचीत आघू बढ़इन ये सम्मेलन मं दू कोरी ले कम उमर के महिला पुरुष के संख्या दस कोरी रिहिसे उहें तीन कोरी ले अधिक उमर के संख्या पांच कोरी रिहिस। महासमुंद, रायपुर, कांकेर, धमतरी ले घला अइसन महिला-पुरुष मनखे सम्मेलन मं भाग लिन। ये विधवा मन घला खुलके भाग लिन अउ अपन समस्या गिनाइन अउ एकाकी जीवन के दुखड़ा सुनइन।

परमानंद वर्मा

बुधवार, 15 मार्च 2023

रोना, कभी नहीं रोना

रोना, यह अच्छा गुण नहीं है लेकिन लोग रोते हैं? क्यों रोते हैं, किसके लिए रोते हैं, क्या मिलता है रोने से? क्या रोना  है, कहां तक उचित है? इतने ढेर सारे सवाल, एक साथ मानस पटल पर उभरना आश्चर्यजनक है और उतना ही मुश्किल है उसका उत्तर ढूंढ पाना, एकत्र कर पाना। 

जहां तक मुझे याद है, रोने से मैं कतराता था, बचने की कोशिश करता था। स्थिति, परिस्थितियां कभी-कभार ऐसी निर्मित हो जाया करती थी तब ऐसा लगता था, मन द्रवित हो गया है और अब तब रो पड़ूंगा लेकिन इससे बचने के लिए घर से बाहर निकल जाता था और ऐसी जगह पहुंच जाता था जहां लोगों की भीड़ हुआ करती थी। बच्चे अथवा साथी मैदान में केलकूद कर रहे होते थे और फिर क्या था, उन लोगों की टीम में शामिल होकर खेलने लग जाता था। इसका फायदा यह होता था, मनसा में आने वाला भावाभिव्यक्ति अथवा द्रवित होने वाले विचारों का शमन हो जाता था, और बच जाता था रोने से। मुझे याद पड़ता है, तीस-पैंतीस सालों में कभी रोया नहीं। रोने पर विजय प्राप्त कर लिया था। बचपन से गुरु दीक्षा ले लिया था, जिसका फायदा मिला, कुछ-कुछ साधना भी किया करता था जिसका लाभ मिल रहा था। 

लेकिन एक दिन ऐसा भूचाल आया कि सारा ज्ञान, साधना का कचूमर निकल गया। पूजा करके उठा ही था कि इसी दौरान गांव से सूचना आई कि पिताश्री नहीं रहे। इस सूचना से विचलित तो नहीं हुआ और तटस्थ भाव से सूचना देने आने वाले व्यक्ति के साथ गांव के लिए रवाना हुआ। साइकिल पर जा रहा था, पीछे बैठा था, साइकिल चालक से कोई बातचीत नहीं। लेकिन मन झकझोर रहा ता। कभी कहता रोना नहीं है, आने वालों को तो एक दिन जाना ही होता है, सभी लोग चले जाते हैं चाहे वह राजा हो, रंक हो, फकीर हो, अथवा आम आदमी। तुम्हें भी  एक दिन इस संसार से विदा लेना होगा। यह तो रंगशाला है, सब अ्भिनय करने वाले लोग होते हैं। पिताश्री का रोल खत्म हो गया और चला गया। तर्क-वितर्क, विचारों का उधेड़बुन, ऐसा लग रहा था जैसे संग्राम चल रहा हो। लेकिन इस संग्राम में आखिरकार मुझे पराजित होना पड़ा, मेरे आंखों से आंसू बच्चों की तरह नदियों के पानी की तरह झर-झर बहने लगे। घर पहुंचते तक यही स्थिति रही। मन ने कहा- देखो, पिताश्री की याद ने तुम्हें रूला दिया ना. 

हां, मैं पराजित हो गया और यह 'रोना ने विजय प्राप्त कर लिया। 

बातें चल रही है लोग राते क्यों हैं, उन्हें रोना नहीं चाहिए लेकिन कभी-कभी शिकारी भी ऐसे शिकार में फंस जाता है कि उसका संकट से उबरना मुश्किल हो जाता है। ऐसी ही एक बार की बात है, एक आश्रम में प्रवचन का कार्यक्रम शुरू होने वाला था। कथा वाचक मंच पर विराजमान हो चुके थे। उसका परिचय और कार्यक्रम का विवरण देने के लिए आश्रम के प्रभारी ने माइक संभाला। वे बड़े ज्ञानी और योगी महापुरुष थे। उनके बड़े भाई का हाल ही में निधन हुआ था। कार्यक्रम का विवरण देते वक्त दिवंगत भाई का उन्हें स्मरण हो आया। उनका गला रुंध गया। पंछे से आंखों से झर रहे आंसुओं को पोंछने लगे। सभा में सन्नाटा पसर गया। कुछ देर के लिए शांति का माहौल निर्मित हो गया। श्रोताओं के बीच मैं भी बैठा हुआ था। सोचने लगा, मन में तर्क-वितर्क उठने लगा- इतने ज्ञानी, योगी, तपस्वी, साधक और संसार को ज्ञान, योग का प्रसाद बांटने वाले महात्मा के आंखों में आंसू क्यों, भाईश्री की मौत पर इनके मन में शोक की साया क्यों? जब घर-बार छोड़कर ब्रम्हचर्य जीवन यापन करने वाले महात्मा की यह स्थिति है तब सामान्य आदमी और इनमें अंतर क्या है? इनकी साधना, ज्ञान, योग और तपस्या सब निष्फल है। इससे बेहतर तो आम इंसान ही है जो सुख-दुखों के बीच जीवन यापन करते हैं। सच मुच बड़ी अजीब है यह दुनिया । कभी किसी को हंसाती है तो रुलाने से बाज भी नहीं आती। इसी बीच एक फिल्मी गीत का स्मरण हो आया। गीत के बोल इस प्रकार हैं- 'रोना कभी नहीं रोना, चाहे टूट जाए तेरा खिलौना ।  हीरो अपने बच्चे को सीने में लेकर कहता है- 'जिंदगी में कभी रोना नहीं, भले ही खिलौना टूट जाए।  बच्चों को खिलौनों से कितना प्यार होता है, इसे कौन नहीं जानता? कदाचित जाने-अनजाने में वह टूट-फूट जाए तब वह कैसे नहीं रोयेगा। अर्थात जिस चीज से जिसका प्यार होता है, लगाव और संबंध होता है और यदि उससे विच्छेद हो जाए, अंत हो जाए तब शोक भला किसे नहीं होगा? यह संसार है, बच्चा जन्म लेता है तब खुशी होती है और मर जाता है पूरे घर में मातम छा जाता है। मां बच्चे के वियोग में छाती पीट-पीटकर रोती है। इसी तरह बच्चे भी खिलौना टूट जाने पर रोते हैं। माता-पिता उसे दूसरा खिलौना लाने का आश्वासन देते हैं तब कहीं वह चुप होता है। 

प्यार, लगाव, संबंध- यही तो माया है। इसी से तो सारा संसार चल रहा है। जकड़े हुए हैं सब। जब ज्ञानी, ध्यानी भी माया के च्ककर में फंस जाते हैं तब आम जन की बात जाने दीजिए। कोई चाहे कितना भी दावा करे कि वह मोह मुक्त है, तो यह असंभव है। बिरले ही लोग मिलेंगे। इसी प्रसंग में एक वाक्या का स्मरण सुनाते हुए एक साध्वी  का 'आप बीती बता रहा हूं। इस शहर में एक कार्यक्रम के दौरान श्रोताओं को उसने बताया कि एक बार उसके जीवन में अजीबो गरीब संकट आया। वह असमंजस में पड़ गई कि अब करे तो क्या करे। नष्टोमोहा की परीक्षा की घड़ी थी। उन्हें यह दीक्षा मिली थी कि जीवन में चाहे कैसी भी परिस्थिति आ जाए लेकिन आंखों से एक बूंद आंसू नहीं टपकना चाहिए। उसने बताया कि मां के निधन का समाचार आया तब वह स्तब्ध रह गई। दूसरे दिन घर पहुंचने का बुलावा था। सोचने लगी- क्या करूं, क्या न करूं। जाना तो था, रास्तेभर ट्रेन में सोचती-गुनती रही कि मां तो मां है, उसकी बेटी हूं, संतान हूं। उसकी कोख से जन्म लिया है तब उससे  जरूर लगाव और संबंध होना स्वाभाविक है। और इधर ज्ञान में आने के बाद वह सब संबंध विलुप्त सा हो गया और एक परमात्मा से सब संबंध जोड़ लिया। लेकिन मां की याद उसकी ममता और प्यार को कैसे विस्मृत किया जा सकता है? सोचने लगी- जब उसके मृत देह और चेहरे को देखूंगी तब क्या धैर्य का बांध टूट नहीं जाएगा, कैसे नहीं छलकेंगे आंसू? लेकिन उसे इस वक्त यह स्मरण हो रहा था कि बाबा ने कहा है- बेटी, मां मरे तो हलुवा खावो, बाप मरे तब हलुवा खाना। जब मां के मृत शरीर को देखा तब मन एकदम शांत हो गया। आंखें निहारती रही, ऐसा लग रहा था जैसे कुछ हुआ ही नहीं है। यहां नष्टोमोहा की डिग्री मिल गई, परीक्षा में सफल हो गया। सचमुच रोते तो बच्चे हैं जो अनजान और अज्ञानी की तरह होते हैं, वे नहीं जानते कि खिलौने को तो एक न एक दिन टूटना-फूटना ही है। इसी तरह यह मानव शरीर है, नश्वर देह है। इसको भी एक दिन इस संसार से विदा लेना है तब इसके लिए क्या रोना-धोना, सिर पिटना?

परमानंद वर्मा