सोमवार, 30 मई 2011

महिला बैड़मिंटन खिलाड़ी अब नहीं पहनेंगी स्कर्ट

विश्व बैडमिंटन फेडरेशन को आखिरकार अपने उस फैसले को वापस लेने को बाध्य होना पड़ा है, जिसमें कहा गया था कि महिला बैडमिंटन खिलाड़ी एक जून से स्कर्ट पहनकर ही कोर्ट पर उतरेंगी। फेडरेशन की इसकी पीछे व्यवसायिक सोच थी। उसे लगता है कि ऐसा करने पर टेनिस और दूसरे खेलों की तरह दर्शक बैड़मिंटन कोर्ट पर भी जुटने शुरू होंगे और इससे प्रायोजक भी मिलने लगेंगे। अभी हालात यह है कि विभिन्न सुपर सीरीज और खेल प्रतिस्पर्द्धाओं के शुरुआती मैचों में उतने दर्शक नहीं आते हैं, जितनी अपेक्षा रहती है। हां, सेमीफाइनल और फाइनल मुकाबलों में जरूर काफी दर्शक पहुंचते हैं। यह बहुत हद तक मुकाबलों पर भी निर्भर करता है कि वह किन खिलाड़ियों के बीच होता है और खेल का स्तर क्या है। अक्सर देखने में आता है कि जहां मुकाबला हो रहा है, वहां यदि उस देश के खिलाड़ी कोर्ट में नहीं खेल रहे हैं तो स्थानीय दर्शकों की मौजूदगी कम ही रहती है। वैसे बात सोच की है। फेडरेशन की इस सोच पर बहस और विचार की जरूरत है कि यदि महिला खिलाड़ी छोटे साइज के कपड़े पहनकर कोर्ट में उतरेंगी और खेलेंगी तो दर्शक ज्यादा आकर्षित होंगे। ऐसा सोचना कि छोटे कपड़ों में ही लड़कियां अथवा खिलाड़ी ग्लैमर्स लगती हैं, गलत है। सुंदरता कपड़ों में भी उतना ही आकर्षण रखती है। बल्कि अनेक सर्वेक्षणों में यह सिद्ध हो चुका है कि कम कपड़े पहनने वाली महिलाएं अपना आकर्षण शीघ्र खो देती हैं जबकि पारंपरिक परिधानों को धारण करने वाली महिलाएं कहीं अधिक खूबसूरत लगती हैं। लेकिन मामला चूंकि कोर्ट पर खेलने वाली महिला खिलाड़ियों से जुड़ा हुआ है, इसलिये इसे ध्यान में रखना जरूरी है कि वे सूट-सलवार या इसी तरह के कपड़े पहनकर नहीं खेल सकती। और इस तरह के कपड़े पहनकर कोई खेलती भी नहीं है। भारत की साइना नेहवाल सहित दुनिया की कई चोटी की बैड़मिंटन खिलाड़ियों ने स्कर्ट की अनिवार्यता पर नाखुशी जाहिर की थी। हालांकि प्रसारण माध्यमों में साइना ने कहा था कि यदि इसे अनिवार्य कर ही दिया गया तो वे स्कर्ट पहनेंगी लेकिन भारतीय बैड़मिंटन फेडरेशन के जरिये उन्होंने भी अपना एतराज दर्ज करा दिया था। कई अन्य देशों की खिलाड़ियों को भी विश्व बैड़मिंटन फेडरेशन का यह विचार रास नहीं आया था। यही कारण है कि पहले इसे लागू करने की तारीख एक महीना बढ़ाई गई और अब इसे रद्द करते हुए कहा गया है कि इस पर फिर से विचार करने की जरूरत है।विश्व बैड़मिंटन फेडरेशन को तीखे विरोध के चलते अपना फरमान वापस लेना ही पड़ा

शनिवार, 14 मई 2011

नामकरण के आग्रह



अनिल चमड़िया
मैं समझता हूं कि मेट्रो स्टेशनों के नामों के निर्धारण के लिए एक प्रक्रिया
होगी। मैं उस प्रक्रिया को समझना चाहता हूं, लेकिन उसके साथ मैं मेट्रो
प्रमुख ई श्रीधरन का ध्यान स्टेशनों के कुछ नामों की ओर ले जाना चाहता हूं।
मैं यह कहने की स्थिति में हूं कि इनके निर्धारण और संबोधन के पीछे पूर्वग्रह
सक्रिय हैं। भारतीय समाज और संस्कृति में विविधता के बारे में श्रीधरन जी
मुझसे ज्यादा जानते हैं। मैं पहला सवाल यह पूछना चाहता हूं कि गुरु
तेगबहादुर नगर को ‘जीटीबी नगर’ क्यों संबोधित किया जाता है? क्या राजीव
चौक को ‘आरसी’ संबोधित किया जा सकता है? किसी नामकरण के पीछे
एक निश्चित उद्देश्य होता है। उसके संक्षिप्तिकरण से उसके उद्देश्यों में भटकाव
आता है। यह समझने की कोशिश आखिर क्यों की जाए कि जीटीबी का क्या
अर्थ होता है! क्या सिखों की भावनाओं को इससे ठेस नहीं लगती होगी?
ऐसे सवालों की गंभीरता को शायद एक घटना से समझ सकते हैं। एक
यात्री ने ‘यमुना बैंक’ स्टेशन पहुंच कर यह सोचा कि यहां इस नाम का कोई बैंक
होगा। अंग्रेजी में बैंक का अर्थ तट होता है और अगर यमुना तट की जगह यमुना बैंक
नाम रखा गया है तो इसके पीछे क्या उद्देश्य हो सकते हैं? किसी भी शब्द की रचना
समाज की बड़ी धरोहर होती है। लंबी प्रक्रिया के बाद शब्द सामान्य जन में पहुंचता
है। शब्द की अर्थवत्ता में छवि और कल्पनाएं भी होती हैं। तट की यात्रा आधुनिक
सभ्यता के विकास के साथ शुरू होती है। यमुना पर एक कविता की पंक्ति यों है‘
यह कदंब का पेड़ अगर मां होता यमुना तीरे...।’ मैं यह पंक्ति केवल उदाहरण के
लिए श्रीधरन जी के सामने रख रहा हूं, ताकि उन जैसे संवेदनशील लोग एक शब्द के
महत्त्व को समझ सकें। एक पूरा रचना संसार एक शब्द की अर्थवत्ता से जुड़ा होता है।
यमुना बैंक के नामकरण की प्रक्रिया में यह सोचने तक की जरूरत महसूस क्यों नहीं
की गई कि यमुना तट की जगह यमुना बैंक के नामकरण से उसका अर्थ ही बदल
जाता है। दो भाषाओं के इस तरह मिश्रण से संचार के सिद्धांतों का उल्लंघन होता है।
यह किसी समाज की आभिजात्य संस्कृति का भी परिचायक नहीं, बल्कि एक
भौंडापन है। यह सांस्कृतिक विरासत के साथ खेल है। चूंकि इस समय हिंदी या
दूसरी भारतीय भाषाओं के समाज पर तरह-तरह के सांस्कृतिक आक्रमण चल रहे
हैं, ऐसे में बहुत सारे सवालों पर कोई आवाज नहीं उठ रही है। लेकिन मैं श्रीधरन
जी को यह कहना चाहता हूं कि मेट्रो महज ट्रेन सेवा नहीं है। इसके जरिए एक
भाषा और संस्कृति भी संचरित होती है। मैं तो यहां तक समझता हूं कि मेट्रो
महानगरीय सभ्यता की नदी का किनारा है।
मैं अपनी उस विरासत को हर संभव तरीके से सुरक्षित करने का पक्षधर हूं जो
समाज को जोड़ने में जरा भी मदद करता हो। मेरी समझ में यह बात नहीं आई कि
आखिर वजीरपुर के नाम से स्टेशन का नामकरण क्यों नहीं किया गया? क्या ‘नेताजी
सुभाष पैलेस’ और वजीरपुर एक साथ सुरक्षित नहीं रह सकते थे। पुरानी दिल्ली
स्टेशन के बजाय हमने ‘चांदनी चौक’ का नामकरण आखिर किस उद्देश्य से किया?
आखिर क्यों एक तरह की संवेदना और समझ दूसरी जगहों पर निष्क्रिय हो जाती है?
यह हमारे भीतर पूर्वग्रहों को टटोलने की जरूरत बताता है। इसी तरह कालकाजी
इलाके का नाम है और स्टेशन का नामकरण ‘कालकाजी मंदिर’ के नाम पर किया
गया। क्या हमें नहीं लगता है कि स्टेशन का नाम ‘कालकाजी’ हमारे समाज के लिए
बेहतर होता? मैं यह साफ करना चाहता हूं कि अक्षरधाम के पास के स्टेशन का
नामकरण इसके नाम पर किया गया। वहां शायद कोई और प्रसिद्ध जगह नहीं हो। मैं
समझता हूं कि समाज में कई तरह के लोग हैं और उनकी मानसिकता विभाजनकारी
है। मैं यह कई स्तरों पर ऐसे लोगों और संगठनों की नामकरण के समय सक्रियता के
मद्देनजर कह रहा हूं। ऐसे लोगों को लगता है कि उनकी सांस्कृतिक लड़ाई का
आधार इस तरह के नामकरणों से ही तैयार होता है।
इसके अलावा, मेट्रो में अंग्रेजी से हिंदी के जो अनुवाद प्रसारित किए जाते हैं, वे
चाहे लिखने में हों या बोलने में, उनकी भाषा के प्रति भी श्रीधरन जी को
संवेदनशीलता का परिचय देना चाहिए। ‘दूरी का ध्यान रखें’- अंग्रेजी के जिस वाक्य
के लिए इस तरह के अनुवाद किए गए हैं, उस पर गौर करें। यहां स्टेशन पर उतरने
वाले यात्रियों को सावधानी बरतने की सलाह दी जा रही है। लेकिन हिंदी में यह
किस अर्थ के साथ संप्रेषित हो रहा है? हिंदी में अनुवादकों की एक धारा सृजनशील
नहीं है। उसके पूर्वग्रह इतने जड़ हैं कि वह इस उद्देश्य में यकीन नहीं करता है कि
अपनी भाषा के जरिए एक अर्थ संप्रेषित करना है। उसकी संवेदना में जनमानस नहीं
होता है। मेट्रो को जन-अनुवादकों की जरूरत है। सवाल है कि भारतीय भाषाओं
की सृजनशीलता को मेट्रो प्रशासन लोगों से संवाद स्थापित करने के लिए क्यों नहीं
उपयोग करता है। अंग्रेजी की मानसिकता से भारतीय जनमानस के साथ संवाद
करने की प्रेरणा ही सांस्कृतिक घपलेबाजी के मूल में है।

अनिल चमड़िया
 (जनसत्‍ता से साभार)

सोमवार, 9 मई 2011

http://www.navabharat.org/raipur.asp

नवभारत रायपुर बिलासपुर के संपादकीय पेज पर दस मई 2011 को प्रकाशित

बुधवार, 4 मई 2011

अहिंसक हिंसा


श्रीभगवान सिंह
कुछ समय पहले विलासपुर में प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान द्वारा जनकवि
नागार्जुन पर आयोजित संगोष्ठी में युवा कवि अरुण शीतांश के इस वाक्य
ने मेरा ध्यान खींचा- ‘हिंसा सिर्फ वही नहीं है जो पुलिस या नक्सलियों द्वारा हो
रही कार्रवाइयों में प्रत्यक्ष रूप से दिखाई दे रही है, बल्कि वह भी है जो मॉल
के रूप में छोटे-छोटे दुकानदारों की रोजी-रोटी का अंत कर रही है।’ शीतांश
की बात ने इस न दिखाई पड़ने वाली हिंसा के विविध रूपों को सामने खड़ा
कर दिया। विकास के नाम पर बन रहे विशालकाय कल-कारखाने, नए
औद्योगिक प्रतिष्ठान, भीमकाय बांध, चौड़ी सड़कें आदि से कितने किसान खेती
से बेदखल हो रहे हैं, कितने लोग पुश्तैनी आवास से विस्थापित हो रहे हैं,
कितनी वन-संपदा नष्ट हो रही है, कितनी नदियों का संहार हो रहा है,
अनुत्पादक कार्यों पर कितना पानी खर्च हो रहा है, लेकिन यह सब हिंसा के
पारंपरिक अर्थ में हिंसा नहीं समझा जाता। जबकि सच्चाई है कि यह एक ऐसी हिंसा है
जो अहिंसक ढंग से बहुत सारी अनमोल कुदरती नियामतों का संहार कर रही है।
सच कहें तो आए दिन आराम, सुविधा, प्रगति आदि के लिए आविष्कृत होने
वाले उत्पादों से हम जीवन के सुकून से महरूम होते जा रहे हैं। ट्रेन में यात्रा करते
समय जब हम गहरी नींद में होते हैं, तब अचानक किसी का मोबाइल और खुद
मोबाइलधारक चीखने लगता है। तब आराम से यात्रा करने के मकसद से कराया
गया आरक्षण बेमतलब हो जाता है। लेकिन इसे हम हिंसा नहीं, प्रगति की र
कहते हैं, जबकि किसी की नींद में खलल डालना भी एक तरह की हिंसा है।
तेज र
वाहनों की तादाद इस कदर बढ़ती जा रही है कि सड़क पर पैदल चलते वक्त हमें
हमेशा भ्रम, आतंक से वैसे ही सहमे, दुबके चलना पड़ता है जैसे बिल्ली के भय
से चूहों को। यही नहीं, जब सड़क को पार करना पड़ता है तब दोनों तरफ से
वाहनों की लगातार दौड़ से हमें कितनी-कितनी देर तक इंतजार करना पड़ता है।
लेकिन किसी वाहन चालक को पैदल चलने वाले का तनिक ख्याल नहीं रहता कि
इसे भी सड़क पार कर लेने दें, क्योंकि इसका भी समय कीमती है। वाहन चालक
सिर्फ अपने समय को कीमती और काम को जरूरी समझते हुए पैदल पथिक के
समय का जो नुकसान करते हैं, वह हिंसा नहीं तो क्या है? कई बार तो वे पैदल
पथिक को कुचलते हुए निकल जाते हैं, जिसे हिंसा नहीं दुर्घटना कहते हैं।
जब मैं दोपहर का भोजन करने बैठता हूं तो कमरे से लगी बालकनी की रेलिंग पर
ढेर सारे बंदर-बंदरियां और उनके बच्चे आ बैठते हैं और मुझे खाते हुए टुकुर-टुकुर
देखने लगते हैं। कभी एकाध रोटी या थोड़ा भात या कोई फल हम उन्हें दे देते हैं जो
ऊंट के मुंह में जीरा जैसा होता है। कभी-कभार यह खबर पढ़ने-सुनने को मिलती है
कि अमुक गांव में तेंदुए या बाघ को देखा गया। कुछ माह पूर्व ही पश्चिम बंगाल के
जलपाईगुड़ी में ट्रेन की चपेट में एक नहीं, सात हाथियों की एक साथ बलि चढ़ गई।
विविध विहग हमारे दृष्टिपथ से ओझल होते जा रहे हैं। यह सब देखते-सुनते सोचता
रह जाता हूं कि इन प्राणियों को ऐसी दयनीय स्थिति में लाने के जिम्मेवार हम नहीं तो
कौन हैं? विकास और शहरीकरण के जोशीले अभियान में हम बागान, वन आदि को
काट-काट कर इन पशु-पक्षियों को आवासविहीन और इनके खाद्य-पदार्थ से वंचित
किए जा रहे हैं। पुराने ढंग के बने मकानों में गौरेया जैसे पक्षी अपने लिए भी आवास
बना लेते थे, लेकिन नए ढंग की बन रही इमारतों और
रही। क्या यह बंदूक, बारूद से होने वाली हिंसा से कम विनाशकारी, अनिष्टकारी है?
हम मुग्ध हो रहे हैं बहुमंजिली इमारतों के फैलते जंगलों, धरती के नीचे दौड़ती ट्रेनों,
हाइवे-एक्सप्रेस वे पर दौड़ती गाड़ियों, नए-नए रेलवे-ट्रैकों और उन पर दौड़ती सुपरफास्ट
रेलगाड़ियों को देख कर। लेकिन यह सब हो रहा है किसकी कीमत पर? सृष्टि के
आदिकाल से जो पहाड़ अब तक सुरक्षित थे, उन्हें ही तोड़-तोड़ कर ये सारी उपलब्धियां
हासिल की जा रही हैं। स्थिरता, दृढ़ता के प्रतीक रहे इन पर्वतों की विकास सुविधा की वेदी
पर बलि चढ़ रही है। विभिन्न मशीनों की दखलंदाजी बैल, घोड़े जैसे मवेशियों की नस्ल को
समाप्ति की ओर धकेलती जा रही है। यह क्या किसी हिंसा से कमतर है?
ऐसे विकासोन्मुख कृत्यों को देखते हुए महसूस होता है कि सृष्टि को खतरा
अब आणविक अस्त्रों से अधिक विकास, सुविधा,
बनने वाली सामग्रियों से है। अगर मॉल से लेकर बांध, फैक्ट्रियां, चौड़ी सड़कें,
बहुमंजिली इमारतें, रात में भी बिजली का दुरुपयोग कर खेलों का मजा लेने आदि
का यह अविराम सिलसिला चलता रहा तो सारे आणविक हथियार धरे के धरे रह
जाएंगे और दुनिया इस अहिंसक-हिंसा की बदौलत उजड़िस्तान में तब्दील हो
जाएगी। बगैर तीसरा विश्वयुद्ध हुए ही दुनिया वीरान हो जाएगी। यह अहिंसक
हिंसा प्रौद्योगिकी-सभ्यता का वरदान है या अभिशाप, विचारणीय है!

श्रीभगवान सिंह
μतारμतार से चलने वाले तरह-तरह के दुपहिए, तिपहिए, चौपहिए, छह-पहिएलैटों में इसकी गुंजाइश नहींतेज रफतार के नाम पर नित नई

मंगलवार, 3 मई 2011

ओसामा को जहन्‍नुम की आग मिले

 
खौफ का दूसरा नाम बन चुके ओसामा बिन लादेन के आतंक से दुनिया को निजात मिलने का मुस्लिम युवकों ने बड़े पैमाने पर स्वागत किया है। अलकायदा प्रमुख की मौत की खबर फैलते ही सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक और ट्विटर पर विश्व समुदाय के साथ भारी तादाद में मुसलमान युवक भी एक-दूसरे को मुबारकबाद देने लगे। हालांकि ट्वीट के दौरान भारतीय और पाकिस्तानी मुस्लिम युवाओं के बीच जंग भी देखने को मिली। भारतीय युवाओं ने जहां पाकिस्तान पर आतंकवादियों को पनाह देने का आरोप मढ़ा, वहीं पाकिस्तानी इससे चिढ़े दिखे। अमेरिका रहा निशाने पर हालांकि ट्वीट करने वाले अधिकतर नौजवानों का मानना था कि ओसामा के रूप में अमेरिका ने दरअसल अपने ही एक गुर्गे को मार गिराया है। मुंबई से हसन राशिद ने दुनिया के नंबर एक आतंकवादी के मारे जाने की तस्वीर अपलोड करने के साथ-साथ लिखा है कि बड़े अब्बा (अमेरिका) को अपना खोया हुआ बेटा (ओसामा) वहीं मिला, जहां वह ढूंढ रहे थे। जानम मेहदी ने ट्वीट किया है कि अंकल सैम ने बाजी मार ली। रिजवान मुस्तफा के अनुसार, अमेरिका ने संरक्षण देकर जिसे दुनिया का सबसे खूंखार आतंकवादी बनाया और उसका अलकायदा संगठन खड़ा कराया, उसी ओसामा को ओबामा ने मार गिराया। मुहम्मद अब्बास का कहना है, ओसामा को जहन्नुम की आग मिले। युवा शबाहत ने फेसबुक पर पवित्र कुरान शरीफ की वह आयत लिखी है, जिसमें कहा गया है कि जालिमों की कौम पर अल्लाह की लानत हो। दरअसल ओसामा की मौत की खबर फैलते ही फेसबुक और ट्विटर पर सुबह से ही प्रतिक्रिया का दौर शुरू हो गया। कुछ मुस्लिम युवक ओसामा के मारे जाने पर हंसी-मजाक के मूड में भी रहे, लेकिन अमेरिका के खिलाफ जो गुस्सा मुस्लिम समुदाय के मन में है, वह फेसबुक और ट्विटर पर जगह-जगह दिखा। अनीस आजमी ने व्यंग्यात्मक अंदाज में ट्वीट किया है कि अब अमेरिका का नया मकसद गद्दाफी पूरा करेगा। ओसामा अब किसी काम का नहीं रह गया था। इस लिए उसे मार दिया। खुदा करे दहशतगर्दी हो जाए नेस्तनाबूद एक युवक के अनुसार, लखनऊ के कोनेश्वर मंदिर के निकट स्थित काला इमाम बाड़ा के पास ओसामा की मौत पर जश्न का भी आयोजन किया गया है। आसिम जैदी ने लिखा है कि खुदा करे दहशतगर्दी का नामोनिशान दुनिया से नेस्तनाबूद हो जाए, क्योंकि कुछ लोगों की बेजा हरकतों की वजह से सब बदनाम होते हैं। ट्वीट करने वाले कुछ भारतीय और पाकिस्तानी युवकों के तीखी तकरार भी हुई। एक भारतीय मुस्लिम युवक ने कहा कि पाकिस्तान आतंकवादी पैदा करने की फैक्टरी है तो उससे नाराज पाकिस्तानी ने ट्वीट किया कि आतंकी अमेरिका बनाता है। इस पर भारतीय युवक ने कहा कि उत्पाद तो पाकिस्तान का ही है, अमेरिका तो सिर्फ उसकी ब्रांडिंग का काम करता है। मुहम्मद शाकिब का कहना था कि जब अमेरिका को किसी मुस्लिम देश पर हमला करना होगा तो वह कोई नया ओसामा पैदा कर देगा। जबकि कई मुस्लिम युवकों ने आशंका जताई है कि ओसामा की मौत के बाद भी दुनिया को आतंकवाद से निजात नहीं मिलने जा रहा है क्योंकि अलकायदा प्रमुख अपने पीछे अपने काफी गुर्गे छोड़ कर गया है। अब पाकिस्तान का क्या होगा? फेसबुक पर एक युवक कलीम ने लिखा है, मैं सोच रहा हूं कि पाकिस्तान का अब क्या होगा? उसकी तो पोल खुल गई है। वह फिर लिखते हैं कि अभी मेरी टिप्पणी को एक मिनट भी नहीं हुआ कि पाकिस्तान की एक मस्जिद में धमाका हो गया।