शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

नैतिक मूल्यों के साथ-साथ बदलते पैमाने


  डॉ. महेश परिमल
फिल्मी दुनिया में आने के बाद भी धर्मेद्र ने काफी संघर्ष किया। पहली फिल्म करने के बाद उन्हें मात्र 51 रुपए मिले। धीरे-धीरे हालात बदले। सितारा बनते ही उन्होंने जुहू में एक बंगला लिया और पूछे जाने पर कि कितना बड़ा बंगला है, उन्होंने कहा यही कोई चालीस-पचास मंजियां (खटियाएं) आ जाएंगी। ये था उनका ठेठ गँवईपन, जिसमें पंजाब की माटी का सौंधापन कूट-कूटकर भरा है।  जीवन में इंसान अपने तरीके से मापदंड तय करता है। कई चीजें कुछ लोगों के लिए बड़ी सहज होती हैं। इसे वे उसी सहजता से बोल भी जाते हैं। हमारी प्रवृत्ति ही ऐसी है कि हम उसे पेचीदा बना देते हैं। उसे गुिफत करते रहते हैं। सहज और सरल को यथावत् रखा जाए, तो कई पेचीदे सवाल भी आसानी से सुलझ सकते हैं। अाी कुछ दिनों पहले ही छत्तीसगढ़ जाना हुआ। रास्ते में एक ग्रामीण से पूछा कि यहाँ से उदयपुर कितने किलोमीटर है। ग्रामीण ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया- बस वाला 30 रुपए लेता है। एकदम आसान जवाब। उसने दूरी को न तो कोस से नापा, न ही किलोमीटर से। उसके पास न तो फर्लाग का पैमाना था, न ही गज का। ग्रामीण ने जो बताया, वह दोनों को समझ में आने वाला था। अब यह बात अलग है कि आप अपडेट नहीं हैं। यदि आप अपडेट हैं, तो आपको आसानी से पता चल जाना चाहिए कि बस वाले 30 रुपए में कितने किलोमीटर ले जाते हैं।  दूरी को रुपए से नापने का यह तरीका अपने आप में अनोखा है।
जिस तरह से प्यार को सीमाओं से नहीं बाँधा जाता, ठीक उसी तरह जब कोई कहे कि मैं उसे उतना ही प्यार करता हूँ, जितना हनुमान जी श्री राम से करते थे। यहाँ आकर सीमाएँ समाप्त हो जाती हैं। इससे अधिक तो कोई किसी से प्यार कर ही नहीं सकता। हमारी आदत है कि हम इस प्यार को पेचीदगियों के साथ समझना शुरू कर देते हैं। सागर की अनंत गहराई, जमीं से सितारों की दूरी, जीवन की अंतिम साँसों तक आदि। ये सब सीमाएँ हैं। जीवन बहुत ही सरल और सहज है। इतना अधिक की उसे नापने के लिए हमारे पास कोई पैमाना नहीं है। भोथरे हो गए हैं हमारे पैमाने। हम केवल प्यार ही नहीं, बल्कि संवेदनाएँ और अनुभवों को भी मापने लगे हैं। एक कोशिश केवल एक कोशिश इंसानियत को मापने के लिए करो, तो समझ में आ जाएगा कि इसे मापने के लिए हमारा हर पैमाना काफी छोटा साबित होगा।
  डॉ. महेश परिमल

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