आशीष कुमार अंशु
पावागढ़, लूणावाला, संतरामपुर, जामूगोड़ा, देवगढ़ बारी ये नाम कभी पहले सुना है आपने? इन्हीं पांच महलों को मिलाकर गुजरात के एक जिले को नाम दिया गया है पंचमहाल। यह बता पाना भी मुश्किल है कि गुजरात के इस जिले का नाम कितने लोगों ने सुना होगा, लेकिन इस जिले के जिला मुख्यालय का नाम आने पर सुनने वाले के चेहरे पर कई तरह के रंग उभर आते हैं। जी हां, यह गोधरा की बात है। जिले में सलाट, मदारी, बंजारा, काकसिया, बागड़ी, लोहाडि़या समाज के लोगों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को समझने की कोशिश में पंचमहाल के लूणावाला जाना हुआ था। इन समाजों के लोगों का गुजरात जैसे विकास का मॉडल बने राज्य में भी बदहाली में जीने के लिए अभिशप्त होना सवाल खडे़ करता हैं। पिछले नौ सालों में देश ही नहीं दुनिया भर में नरसंहार के तौर पर गोधरा को इतनी पहचान मिली कि उसकी सारी पहचान मिट ही गई है। गुजरात के बाहर लोगों को जैसे पता चलता है हम गोधरा से हैं तो सामने वाले की शक्ल इतनी दयनीय हो जाती है कि पूछो मत। अच्छा नहीं लगता, जब लोग हमें दया का पात्र समझते हैं, लेकिन हमें किसी से दया की भीख नहीं चाहिए। यह एक 21 वर्षीय युवक नवाब अली का विचार था। वैसे गोधरा की उस चाय की दुकान पर एक अनजान आदमी से कोई बात करने को तैयार नहीं था। मन में आता है न जाने कौन है, कहां से आया है और क्या चाहता है? उन लोगों को आगंतुक पर विश्वास करने में थोड़ा वक्त लगा। एक व्यक्ति ने पूछ ही लिया आखिर-आप पत्रकार हैं या एनजीओ वाले या कोई सरकारी आदमी? इस सवाल से साफ था कि उनके बीच यही तीन तरह के लोग पिछले नौ सालों से लगातार आ-जा रहे हैं। उन लोगों की एक पत्रकार से बात करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे तैयार हुए दिल्ली से आए एक शोधार्थी से बात करने के लिए जो लूणावाला के एक कॉलेज के प्राचाय कांजी भाई पटेल से मिलने के लिए गोधरा आया है। गोधरा से उसे फिर लूणावाला जाना था। जब वे लोग इस शोधार्थी की बातों से पूरी तरह आश्वस्त हो गए तोबाद में वे धीर-धीरे अनौपचारिक होने लगे, लेकिन अचानक मिले इस अपनापन से मेरी जिम्मेवारी थोड़ी बढ़ गई थी। चूंकि शोधार्थी वाले परिचय के बाद उन्होंने जो भी बाते की कायदे से किया। यह सारी बातें ऑफ दि रिकॉर्ड हैं, लेकिन वह गोधरा के दूसरे पहलू को सामने लाती हैं। बिना किसी का नाम इस्तेमाल लिए उन लोगों ने जो भी कहा उसे जानना जरूरी है। उनसे जब पहले मेरी बात हो रही थी तो बातचीत के दौरान ही एक-एक करके दूसरे लोग भी हमारी बातचीत में शामिल हुए। यदि किसी को समय मिले तो उसे एक बार गोधरा अवश्य जाना चाहिए, विश्वास है उसके अनुभव मुझसे भिन्न नहीं होंगे। चाय की दूकान पर हुई बातचीत से ही पता चला कि दंगों के दौरान गोधरा से बीस किलोमीटर दूर सेहरा नाम का एक कस्बा है, जहां मुस्लिम और सिंधी आबादी रहती है। जब पूरा गुजरात दंगों की आग में झुलस रहा था, उस दौरान इस कस्बे में एक पत्ता तक नहीं खड़का। वास्तव में इस हिंदू-मुस्लिम आबादी वाले कस्बे ने एक मिसाल कायम की, जो लोग मोदी को पूरे गुजरात का गुनाहगार मानते हैं, उन्हें इस विषय में सोचना चाहिए कि आखिर नरेंद्र मोदी की इस कस्बे में क्यों नहीं चली? यह बात गोधरा के किसी मुस्लिम व्यक्ति के मुंह से सुनकर किसी भी दिल्ली, मुंबई वाले को परेशानी हो सकती है, लेकिन जब वे बुजुर्ग व्यक्ति बोल रहे थे तो उनके साथ के किसी व्यक्ति की आंखें चौड़ी नहीं हुई, बल्कि एक ने कहा भाई साहब, मोदीजी से हमें कोई शिकायत नहीं है। वे सियासी आदमी हैं और जो लोग मोदी के खिलाफ नारे लगा रहे हैं अथवा उनके खिलाफ काम कर रहे हैं वे भी हम मुसलमानों के नाम पर सिर्फ अपना ही भला कर रहे हैं। वे भी राजनीति कर रहे हैं। उनसे भी हमें कोई उम्मीद नहीं है। उस बुजुर्ग व्यक्ति की बात खत्म होने के साथ एक-एक करके कई लोग इस बातचीत में शामिल होते गए। कुछ लोग अब भी मुझे संदेह भरी नजरों से देख रहे थे। न जाने कौन है, कहां से आया है, आदि? उनके शब्द थे 2002 में बहुत कुछ खोया हमने। धीरे-धीरे जख्म भरते हैं और मीडिया व एनजीओ वाले आकर फिर से मिर्च डालकर हमें तड़पता छोड़कर चले जाते हैं। बहुत इंटरव्यू हुए, क्या मिला हमें? अब कोई बात नहीं करनी हमें किसी से। हमारे नाम पर गुजरात की कई एनजीओ की खाल मोटी हो गई है। मोटा पैसा कमाया उन्होंने, हम मुसलमानों के नाम पर। हमें क्या मिला, पूछिए उन मोटी खाल वालों से? हम कल भी सड़क पर थे और आज भी सड़क पर हैं। हमारे जख्म मत कुरेदिए आप। आखिर गुजरात में कितने मुसलमान मोदी के खिलाफ आवाज उठाने वाले हैं। आप देख लीजिए, जो भी बोलने वाले लोग हैं सबके अपने राजनीतिक और आर्थिक हित जुड़े हैं, मोदी के खिलाफ बोलने में। गुजरात के मुलसमानों से किसी को मोहब्बत है, इसलिए हमारे पक्ष में बोल रहा है, मैं तो इस गलतफहमी में नहीं जी रहा। मोदी गुजरात में किसके लिए परेशानी हैं। एनजीओ चलाने वालों के लिए और राजनीति करने वालों के लिए। जो पीडि़त हैं उन्हें फ्रेम से बाहर कर दिया गया। सभी लोग हमदर्दी दिखाकर गुजरात के नाम पर हमें ही लूट रहे हैं। गोधरा और उसके आसपास के लोगों से बात करके जाना कि साबरमती जेल में बड़ी संख्या में निर्दोष भी दंगों के आरोपी बनाए गए। जिसने कभी ऊंची आवाज में बात तक नहीं की, वह क्या गाल काटेगा? कॉलेज जाने वाले बच्चों को उठाकर पुलिस ले गई। वैसे मेरी इस बात पर आंख बंद करके आपको विश्वास करने की जरूरत नहीं है, आप अपने स्तर पर पता कीजिए। यह जानकारी हासिल करने में अधिक मुश्किल नहीं आएगी। चाय की दुकान पर मेरी बातचीत जारी थी, हमारी बातचीत में शामिल हुए नए मेहमान का कहना था जो लोग गुजरात के खिलाफ लिख रहे हैं, बयानबाजी कर रहे हैं और खुद को हमारा साथी बताकर प्रचार पा रहे हैं उन लोगों से हम प्रार्थना करते हैं कि हमें हमारे हाल पर छोड़ दिया जाए तो मेहरबानी होगी। हम इसी मिट्टी के हैं, बाहर से नहीं आए हैं। तरह-तरह के बयानबाजियों से हमारे बीच भाईचारा खत्म हो रहा है। बयानबाजी करने वाले लोगों को समझना चाहिए कि वे इससे सभी गुजराती मुसलमानों को बदनाम कर रहे हैं। गुजरात के बाहर या अंदर हमारे लोगों को गोधरा सुनकर काम नहीं मिलता। बाहर वाला हर आदमी यही जानना चाहता है कि उस दिन स्टेशन पर क्या हुआ था? हमें क्या पता क्या हुआ? अगर पता होता कि कुछ होने वाला है तो क्या हम होने देते? मीडिया जो कहानी पिछले नौ सालों से सुना रही है वह सारा झूठ है। गुजरात में मोदी खेमे के विरोधी भी मानते हैं कि अल्पसंख्यकों से सच्ची मोहब्बत रखने वाले गुजराती समाज के लोगों को मीडिया तलाश पाने में असफल रही है। वे लोग मीडिया में नहीं दिखे और जो सामने आए उनमें अधिकांश फायदा उठाने वाले थे। अब उन चेहरों में दर्जनों ऐसे हैं जो अहमदाबाद और दिल्ली में मलाई काट रहे हैं। कोई संस्था का प्रमुख है तो कोई अकादमी संभाल रहा है। इनके विरोध की भाषा से ही पता चल जाता है कि इनका वास्तविक उद्देश्य अपना हित है।
आशीष कुमार अंशु (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं) दैनिक जागरण से साभार
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