शुक्रवार, 23 मार्च 2012

नेहरु-गांधी परिवार से उद्धार संभव नहीं


डॉ. महेश परिमल
कांग्रेसी अब तक यह मानते आए हैं कि नेहरु या गांधी परिवार के सिवाय उनका कोई उद्धार कर ही नहीं सकता। वे ये भी मानते आए हैं कि नेहरु-गांधी परिवार यदि चुनावी मैदान पर हैं, तो उन्हें कोई हरा नहीं सकता। इन दोनों ही मान्यताओं को पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों ने गलत साबित कर दिया। यदि राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जीत नहीं दिला सके, तो फिर उन पर यह भरोसा कैसे किया जा सकता है कि वे 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को भारी मतों वे विजयश्री दिलवा सकते हैं। यदि कांग्रेस को फिर से केंद्र की सत्ता पर आना है, तो उसे अपनी व्यूह रचना में आमूल-चूल परिवर्तन करना ही होगा। अभी जो परिणाम आए हैं कि अगले चुनावों के सेमीफाइनल परिणाम हैं। ये परिणाम देश की राजनीति को एक नया आयाम देंगे। इसके अलावा इस परिणाम ने यह साबित कर दिया कि देश के सभी दल अब चेत जाएँ। यह आत्मनिरीक्षण का समय है। इस समय कांग्रेस को जबर्दस्त झटका लगा है, भविष्य में अन्य दलों को भी लग सकता है। इसलिए केवल वही वादे करें, जिसे पूरा कर सकते हों। अपराध और अपराधियों को पार्टी से दूर ही रखना होगा। तभी वे लोगों का मत प्राप्त कर सकते हैं।
कांग्रेस को भी यह तय करना होगा कि अब सारा दारोमदार राहुल गांधी पर छोड़ना उचित नहीं है। कोई ऐसा लोकप्रिय चेहरा सामने आना चाहिए, जो जमीन से जुड़ा हो। अभी यह तय नहीं है कि उत्तराखंड में भाजपा सत्ता पर रहेगी या नहीं। भाजपा के हाथ में भले ही उत्तर प्रदेश न आया हो, पर गोवा उसने अपने ही दम पर और पंजाब में अकाली दल के साथ गठजोड़ करके सत्ता प्राप्त कर ली है। उसके लिए यह एक शुभ संकेत है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की चुनावी बागडोर राहुल गांधी अपने कांधे पर लेकर चल रहे थे। 48 दिनों तक उन्होंने बिजली की गति से पूरे राज्य का दौरा कर 211 रैलियों को संबोधित किया। इस दौरान उन्होंने काफी आक्रामक रूप से लोगों के सामने अपनी बात रखी। यदि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की जीत हो जाती, तो इसका सारा श्रेय राहुल गांधी को ही मिलता। इसे उनकी व्यक्तिगत विजय माना जाता। पर अब वहाँ कांग्रेस कमजोर साबित हुई, तब उसका ठिकरा प्रदेश के अन्य नेताओं पर फोड़ने की कोशिश हो रही है। कांग्रेस में ऐसा हमेशा से होता आया है। 1999 के चुनाव के समय कांग्रेस की हार को किसी ने सोनिया गांधी की हार नहीं माना। पर 2004-2009 की जीत को सोनिया गांधी की जीत बताया गया। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की पराजय से भले ही राहुल गांधी के अलग रखने की कोशिश की जाए, पर राहुल गांधी इस चुनाव में बुरी तरह से सुपर फ्लाप साबित हुए हैं, इसमे कोई दो मत नहीं।
उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की उपस्थिति के कारण चुनाव प्रचार हाई-प्रोफाइल बन गया था। बाहर के लोगों को यह बताया जा रहा था कि उत्तर प्रदश्ेा में असली टक्कर राहुल गांधी और अखिलेश यादव के बीच है। पर मुख्य स्पर्धा तो मायावती और मुलायम सिंह के बीच थी। उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को मायावती के काम करने की शैली पसंद नहीं आई। वे उनकी स्टंटबाजी से परेशान थे। वे उन्हें सबक सिखाना चाहते थे। मायावती के विकल्प के रूप में उन्होंने राहुल गांधी को नहीं, बल्कि मुलायम सिंह को देखा। मतदाताओं की सूझबूझ की भी दाद देना होगी। उन्हें यह अच्छी तरह से पता था कि यदि उन्होंने कांग्रेस को वोट दिया, तो राहुल गांधी लखनऊ में रहकर तो प्रदेश संभालेंगे नहीं, किसी बिना चेहरे के नेता को उन पर थोप दिया जाएगा। उन्हें मुलायम सिंह को मायावती के सही विकल्प के रूप में देखा। इसलिए उन्होंने मुलायम सिंह को अपना वोट दिया। सपा को जितने वोट मिले, उसमें से अधिकांश मायावती के विरोध के वोट हैं।
पाँच राज्यों के चुनाव परिणामों से कांग्रेस-भाजपा समेत अन्य दलों को कोई संदेश मिला है, तो वह यही कि दिल्ली से आयातित नेता सभाओं को संबोधित कर भीड़ तो इकट्ठी कर सकते हैं, पर मतपेटियों को वोट से भर नहीं सकते। उत्तर प्रदेश के मतदाताओं के सामने मायावती के विकल्प के रूप में एक तरफ जमीन से जुड़े मुलायम सिंह जैसे नेता थे, तो दूसरी तरफ आकाशीय उड़ान के शौकीन राहुल गांधी थे। कांग्रेस की तरह भाजपा के लिए भी यह मुश्किल थी कि उनके पास ऐसा कोई कद्दावर नेता नहीं था, जो वोट बटोरने में माहिर हो। इसलिए उसे मध्यप्रदेश से उमा भारती को आयात करना पड़ा। उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने जिस तरह से राहुल गांधी को अलग कर दिया, ठीक उसी तरह उमा भारती को भी नकार दिया। यदि कांग्रेस-भाजपा को 2014 का लोकसभा चुनाव जीतना है, तो दिल्ली के नेताओं को थोपने के बजाए राज्य स्तर के नेताओं को आगे करना होगा। दिल्ली के नेता वाणी विलास के सहारे वोट दिलवा पाएंगे, उसका जमाना अब गया। राहुल गांधी ने मतदाताओं को रिझाने के लिए अपनी तमाम ताकत झोंक दी। इसके बाद भी कांग्रेस हार गई, उसका मुख्य कारण यही है कि व्यूह रचना तैयार करने में कांग्रेस चूक गई। प्रदेश में भी कांग्रेस संगठन कमजोर है। यह जानते हुए भी कांग्रेस ने अपने दम पर चुनाव लड़ने की भूल की। यदि कांग्रेस मुलायम के साथ गठबंधन करती, तो शायद उसे अधिक लाभ मिलता। तब मायावती का मायाजाल तो टूटता ही, साथ ही सपा को बहुमत मिलने के बाद भी कांग्रेस को सत्ता का लाभ मिला होता। कांग्रेस का इरादा किंगमेकर बनने का था। अब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने अपनी ताकत पर बहुमत प्राप्त कर लिया है, तो कांग्रेस के सामने विपक्ष में बैठने के सिवाय दूसरा कोई रास्ता बचा ही नहीं है।
केंद्र की यूपीए सरकार ने उत्तर प्रदेश के चुनाव के दौरान पिछड़े वर्ग के मुस्लिमों के लिए 4.5 प्रतिशत आरक्षण के मुद्दे को उछाला था, इससे वे मुस्लिमों की सहानुभूति बटोरना चाहती थी। इसके कारण दलित नाराज हो गए। क्योंकि उन्हें दिए गए 27 प्रतिशत ओबीसी कोटे में से ही यह आरक्षण दिया जाना था। मुसलमान 9 प्रतिशत आरक्षण की माँग कर रहे थे। कांग्रेसी नेता सलमान खुर्शीद ने 4.5 प्रतिशत आरक्षण के मुद्दे पर चुनाव आयोग को आँखें दिखाने लगे, इससे मुस्लिम बिलकुल भी प्रभावित नहीं हुए। सपा नेता मौलाना मुलायम सिंह यादव ने अपने छीने गए मुस्लिम वोट बैंक पर पुन: कब्जा करने में सफल रहे। 2007 के चुनावों में मायावती ने अनेक ब्राह़्मण नेताओं को अपनी पार्टी में लेकर उन्हें महत्वपूर्ण स्थान दिया था, इसलिए उन्हें सवर्णो का भी वोट मिला। लखनऊ में सत्ता पर काबिज होते ही मायावती ने इन ब्राrाण नेताओं की उपेक्षा शुरू कर दी। इसलिए ये उपेक्षित नेता एक के बाद एक उनसे अलग होते गए। यही कारण है कि इस चुनाव में मायावती को सवर्णो का वोट नहीं मिला। ये वोट मुख्य रूप से कांग्रेस और भाजपा में विभाजित हो गए। पाँच वष्रो के शासन में मायावती ने दलितों के हित में कोई ठोस कदम नहीं उठाया। इससे दलित वोट भी कट गए। इस चुनावमें मायावती को यह सबक मिला कि दलितों और सवर्णो के बीच संतुलन रखना बहुत ही मुश्किल है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में रचकर वे केंद्र की राजनीति में छलांग लगाना चाहती थीं, यही महत्वाकांक्षा उन पर भारी पड़ी।
2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 22 सीटें मिली थी, इससे यह आशा जागी थी कि 2012 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर होगा। लोकसभा की 22 सीटों का मतलब है कि विधानसभा की 100 सीटों से भी अधिक सीटें मिलनी चाहिए। इससे भी आधी सीटें प्राप्त कर कांग्रेस ने वास्तव में यूपी में जिद की। 2009 में उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह को कम सीटें मिली, इसका मतलब था कल्याण ¨सह को पार्टी में लेना। इससे मुस्लिम मतदाता उनसे नाराज हो गए थे। मुलायम ने अपनी इस भूल को सुधारा और मुस्लिम वोट कबाड़ने में सफल रहे। कांग्रेस ने मुस्लिमों की सहानुभूति जीतने के लिए बाटला हाऊस एनकाउंटर के मुद्दे को उछालने की कोशिश की। यह मुद्दा टांय-टांय फिस्स हो गया। बाटला हाऊस का मुद्दा मुस्लिमों को लुभा नहीं पाया। इससे हिंदू मतदाता सचेत हो गए। इसका पूरा लाभ भाजपा को मिला। मुलायम सिंह याद का अखिलेश यादव को चुनावी मैदान में उतारने का फैसला मास्टर स्ट्रोक साबित हुआ। मुलायम ने युवा और डायनेमिक राहुल गांधी के ठोस विकल्प के रूप में अखिलेश को सामने खड़ा कर दिया। मतदाताओं ने स्वाभाविक रूप से अखिलेश को पसंद किया। मुलायम भले ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनें, पर उनके भावी मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश को स्थापित कर दिया है।
डॉ. महेश परिमल

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