रविवार, 24 जून 2012

जहर खाने की मजबूरी

आमिर खान
 मैं उन लोगों में शामिल नहीं हूं जो सब्जियां और खाने-पीने की दूसरी चीजें खरीदने बाजार जाते हैं। दरअसल मेरा मौजूदा पेशा मुझे इस सुविधा की इजाजत नहीं देता, लेकिन मुझे याद है कि जब मैं बच्चा था तो अपनी मम्मी और आंटी के साथ अक्सर बाजार जाता था। मुझे यह भी याद है कि तब मुझे कितनी बोरियत होती थी, क्योंकि मम्मी और आंटी को सब्जियां और फल छांटने में घंटों लगते थे। वे बड़ी रुचि के साथ सब्जियों और खाने-पीने की गुणवत्ता पर बहस करती थीं और खामियों की ओर इशारा करती थीं और सबसे बढि़या क्वालिटी पर जोर देती थीं। वे लगातार अलग विक्रेताओं की सब्जियों और फलों की तुलना करती रहती थीं। जब यह सब होता था उस समय मेरे दोस्त क्रिकेट खेलने के लिए मेरा इंतजार कर रहे होते थे। आज जब मैं खार मार्केट के पास से गुजरता हूं तब मुझे सब्जियां, फल और खाने-पीने की चीजें खरीद रही महिलाएं ठीक वही करती नजर आती हैं जो तब मेरी मम्मी और आंटी किया करती थीं। उन्हें देखकर मैं अपने पुराने दिनों में लौट जाता हूं जब मुझे भारी-भारी बैग उठाने पड़ते थे। आखिर हमारे घर के बड़े लोगों को कितना समय खाने-पीने की ताजा सामग्री छांटने में खपाना पड़ता है? हम सब शायद ही यह समझ पाते हों कि सब्जियां और खाने-पीने की चीजें कितनी भी ताजी क्यों न हों, उनमें कितना जहर हो सकता है? हम किसी फल को हाथ में लेकर, सूंघकर, हल्के से दबाकर अथवा दाग-धब्बे जांचकर उसकी ताजगी का अंदाजा लगा सकते हैं, लेकिन हम कैसे जान पाएंगे कि उसके अंदर कितनी कीटनाशक दवाएं भरी हैं? हम खाना क्यों खाते हैं? स्वाभाविक है, इसलिए कि हमारे शरीर को जिंदा रहने के लिए पोषण की जरूरत होती है। पोषक खाना हमारे शारीरिक और मानसिक विकास के लिए जरूरी है। बीमारियों से हम तभी लड़ सकते हैं जब हम अच्छा-पोषक खाना खा रहे हों। लेकिन यदि हम अपने खाने के साथ बड़ी मात्रा में कीटनाशक भी खा रहे हों तो इसका स्पष्ट मतलब है कि पोषण के साथ-साथ हम जहर भी खा रहे हैं और इससे खाना खाने का बुनियादी मकसद ही ध्वस्त हो जाता है। साठ के दशक में भारत कृषि के क्षेत्र में एक क्रांति का गवाह बना, जिसे हरित क्रांति का नाम दिया गया था। उस समय नीति-नियंताओं ने यह महसूस किया था कि बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए हमें रासायनिक खेती को अपनाने की जरूरत है। रासायनिक खेती से प्रति एकड़ उपज बढ़ाने में मदद मिलेगी। इस प्रक्रिया से परंपरागत प्राकृतिक जैविक खाद वाली खेती में कुछ हस्तक्षेप किए गए। इसके तहत रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल शुरू किया गया। कीट और कीड़े-मकोड़े हमारे कृषि उत्पादों को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। लिहाजा उन्हें मारने के लिए हम जिन दवाओं का इस्तेमाल करते हैं उन्हें कीटनाशक दवाएं कहा जाता है। कीटनाशक दवाएं मूल रूप से जहर होती हैं। फसल पर जो कीटनाशक छिड़का जाता है उसका केवल एक प्रतिशत ही कीटों पर गिरता है। शेष 99 प्रतिशत फसल पर पड़ता है और भूमि में समा जाता है अथवा पानी-हवा के जरिए आसपास के कुछ क्षेत्रों तक पहुंच जाता है। इस तरह यह जहर हमारे खाने तक पहुंच जाता है। प्रकृति अपने तरीकों से चीजों को संतुलित करती है। इसलिए जो कीट हमारी फसल को खाते हैं उन्हें खाने वाले कीट भी हैं। साफ रूप में कहें तो कीट दो तरह के होते हैं। एक शाकाहारी कीट, जो फसल को खाकर जिंदा रहते हैं और दूसरे मांसाहारी कीट जो फसल खाने वाले कीटों को अपना आहार बनाते हैं। कीटनाशक दवाएं इन कीटों में कोई भेद नहीं करती हैं। यह एक जहर है जो दोनों तरह के कीटों को मारता है। लिहाजा अपने मित्र कीटों को मार डालने के बाद हमारे पास ऐसे कीट बच जाते हैं जो कीटनाशकों के हमले से खुद को किसी तरह बचा लेते हैं। इस प्रक्रिया में वे अपने अंदर ऐसी प्रतिरोधक शक्ति विकसित कर लेते हैं कि उन पर कीटनाशक दवाएं असर नहीं करतीं। इसलिए इन कीटों को मारने के लिए आपको और अधिक कीटनाशकों का छिड़काव करना होता है। यह एक खतरनाक चक्र है, जो चलता रहता है। एक ऐसा चक्र जिसमें हम अपने मित्र कीटों को लगातार मार रहे हैं और अपने खाने-पीने में अधिक से अधिक जहर भर रहे हैं। अगर कीटनाशक हमें प्रभावित कर रहे हैं तो यह सवाल भी उठना चाहिए कि उन किसानों पर इसका क्या असर हो रहा होगा जो इसका इस्तेमाल करते हैं? सच्चाई यह है कि वे सबसे पहले और सबसे अधिक इस खतरे में घिरते हैं। कृषि में लगे लोगों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का यह सबसे बड़ा कारण माना जाता है। इसके साथ ही किसानों के कर्ज के संकट में फंसने की भी यह एक बड़ी वजह है कि उन्हें महंगे कीटनाशक खरीदने पड़ते हैं। आंध्र प्रदेश में कीटनाशकों के बिना खेती का एक प्रयोग कुछ गांवों में 225 एकड़ भूमि में शुरू हुआ और यह प्रयोग इतना सफल रहा कि अब यह 35 लाख एकड़ में फैल गया है। सिक्किम देश का पहला राज्य है जहां पूरी तरह जैविक खाद वाली खेती को अपना लिया गया है। कुछ और राज्य भी सिक्किम की राह पर आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं। मेरे लिए पसंद बिल्कुल साधारण है। व्यक्तिगत रूप से मुझे लगता है कि हमारे पास जैविक खाद वाली खेती की ओर बढ़ने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है और जब तक पूरी तरह ऐसा नहीं होता तब तक हमें एक सरकारी व्यवस्था की जरूरत है जो सभी बाजारों में आने वाली खाद्य सामग्री की मासिक रूप से निगरानी कर सके।(दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण से सीभार)
आमिर खान

बुधवार, 20 जून 2012

झोपड़ियों के खर्राटे और महलों के जागरण

झोपड़ियों के खर्राटे और महलों के जागरण
डॉ. महेश परिमल
जीवन के बारे में लोग अपनी तरह इसे परिभाषित करते रहते हैं। कोई जीवन को एक चुनौती मानता है, तो कोई खेल। किसी के लिए जीवन इतना दूभर होता है कि वह इसे जीना ही नहीं चाहता। कोई तो जीवन के आनंद में इतना अधिक रम जाता है कि उसे जीने के सिवाय और कुछ सूझता ही नहीं। वास्तव में जीवन जितना अधिक सरल है, उतना ही गुम्फित और पेचीदा भी है। जब लगातार दु:खों का रेला आता है, तो यही जीवन कष्टमय लगता है। ठीक इसी तरह जब आनंद के क्षण आते हैं, तो यही जीवन आल्हादकारी लगता है। कष्ट के दिन जल्द से जल्द बीत जाएं, इसका पूरा प्रयास किया जाता है। लेकिन आनंद के क्षणों को अधिक से अधिक लम्बा करने की भी कोशिश होती है। दोनों ही स्थितियों में इंसान की यह कोशिश बेकार साबित होती है। वास्तव में जीवन अपनी गति से चलता ही रहता है। हां हमारे द्वारा संपादित किए गए कार्यो के आधार पर जीवन की दिशा और दशा तय होती है।
जीवन में सुख-दु:ख आते-जाते रहते हैं। कोई यदि चाहे तो लगातार सुखी नहीं रह सकता । जीवन है तो उसे दु:ख का सामना तो करना ही होगा। हारमोनियम पर जब ऊंगलियां थिरकती हैं, तब केवल सफेद या काली पट्टियों पर ही नहीं थिरकतीं। दोनों के तालमेल से ही सुर-लहरियां निकलती हैं। बारिश या धूप को यह नहीं मालूम होता है कि यह अमीर का घर है या गरीब का। हवेलियों में जिस शिद्दत के साथ धूप बिखरती है, उसी शिद्दत के साथ झोपड़ी में भी बिखर जाती है। बारिश का भी यही संदेश है। वह न तो महल देखती है, न ही झोपड़ी। उसे तो भिगोना आता है। पूरी तरह से सराबोर करना उसके स्वभाव का एक हिस्सा है। जीवन है उतार-चढ़ाव का सिलसिला तो चलता ही रहता है। इस अंधेर-उजाले से हमें निकलने के बजाए यदि इसमें डूबकर जीवन जीने का आनंद लिया जाए, तो जीवन हमेशा सुखमय ही रहेगा।
जीवन के बारे में मां का फलसफा इतना अधिक सरल और ग्राह्य था कि उसे एक बार में ही समझा जा सकता है। वह अक्सर कहती-जीवन में कभी इतना अधिक अमीर मत बनना कि गरीब बनने पर दु:ख हो। छोटा था इसलिए मां के एक दर्शन को समझ नहीं पाता। आखिर कुछ तो है मां के इस संदेश में। बरसों बाद जीवन को कुछ समझने लगा, तो मां से ही पूछ लिया। मां कहती, तू तो भोला है रे! इतना भी नहीं समझता। आज देश में जितने भी अमीर लोग हैं, यदि वे गरीबों को काम देकर उनकी फाकेमस्ती दूर कर सकें, तो ही जीवन सार्थक होगा। क्या पता, जीवन का दूसरा रूप जब उनके सामने आए, तो वे उससे अनभिज्ञ न रहें। यानी जीवन के किसी मोड़ पर यदि वही अमीर फिर गरीब बन गया, तो उसे गरीबी का जीवन जीने में परेशानी नहीं होगी। इस उतार-चढ़ाव में कौन, कब कहां किस हालत में हो, कहा नहीं जा सकता।
मेरी अनपढ़ मां इतना कुछ कैसे समझती है? आखिर ये ज्ञान उसे कहां से प्राप्त हुआ? उसने कैसे कह दिया है कि जो आज अमीर है, वह कल गरीब होगा? पर आज जो कुछ भी देख रहा हूं, उससे तो यही लगता है कि सब दिन होत न एक समान। राजा को रंक बनते देर नहीं लगती। हां रंक को राजा बनने में अवश्य देर लगती है। आज जो अमीर हैं, उन्होंने गरीबी को बहुत ही अच्छी तरह से झेला है, तभी अमीर बन पाए हैं। गरीबी के दौरान किए गए अच्छे कार्यो ने ही उन्हें अमीर बनाया है। अमीरी के दौरान किए गए बुरे कार्य उन्हें रसातल में ले जाएंगे। इसीलिए आज झोपड़ियां खर्राटों से गूंजती है और हवेलियों में जागरण होता है। 
 डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 15 जून 2012

इस बार भी खूब भिगोएगी ये बारिश

इसकी एक एक बूंद सहेजने के लिए है
डॉ. महेश परिमल
अब तक तो हम सब सुन रहे थे, मानसूनी दस्तक। पर अब लगता है मानसून आ ही गया है। पूरा छत्तीसगढ़ भीगने लगा है। झुलसाती गर्मी की तपन के बाद चेहरे पर फुहारों की तरह पड़ी बारिश की बूंदें। सचमुच ऐसा लगा मानों हम सब प्रकृति की गोद में ही समा गए। कितनी उदार है प्रकृति, ठंडी फुहारें छिड़कती है, तो भी भयंकर तपिश के बाद। ताकि हम समझ पाएं, चेहरे पर ठंडक पहुंचाती उन बूंदों का महत्व। बारिश हमें भिगोने के लिए आतुर है, लेकिन हम अभी तक गर्मी को ही कोस रहे हैं। अरे भई, प्रकृति तुम्हारे द्वार पर आकर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है, तुम निकलो तो सही, फिर देखना प्रकृति का रंग। बारिश में पूरी तरह से भीगकर एक सिख मित्र ने कहा ‘प्राजी, जो बारिश विच्च भीग्याइ नई, वो जीणा सीख्याइ नई’। जीने का सही अर्थ भीगने में ही छिपा है। यानी पूरी तरह से सराबोर होकर जीना सीखो। डूबकर जीना सीखो। आखिर मोती तो सागर की अतल गहराइयों में ही मिलता है।

बारिश ने इस मौसम पर धरती का आँचल भिगोने की पहली तैयारी की। प्रकृति के इस दृश्य को देखने के लिए मैं अपने परिवार के साथ अपने परिसर की छत पर था। बारिश की नन्हीं बूँदों ने पहले तो माटी को छुआ और पूरा वातावरण उसकी सोंधी महक से भर उठा। ऐसा लगा मानो इस महक को हमेशा-हमेशा के लिए अपनी साँसों में बसा लूँ। उसके बाद शुरू हुई रिमझिम-रिमझिम वर्षा। ऐसा लगा कि आज तो इस वर्षा और माटी के सोंधेपन ने हमें पागल ही कर दिया है। हम चारों खूब नहाए, भरपूर आनंद लिया, मौसम की पहली बारिश का। मैंने अपनी खुली छत देखी। विशाल छत पर केवल हम चारों ही थे। पूरे38  पक्के मकानों का परिसर। लेकिन एक भी ऐसा नहीं, जो प्रकृति के इस दृश्य को देखने के लिए अपने घर से बाहर निकला हो। बाद में भले ही कुछ बच्चे भीगने के लिए छत पर आ गए, लेकिन शेष सभी कूलर की हवा में अपने को कैद कर अपने अस्तित्व को छिपाए बैठे थे। क्या हो गया है इन्हें? आज तो प्रकृति ने हमें कितना अनुपम उपहार दिया है, हमें यह पता ही नहीं। कितने स्वार्थी हो गए हैं हम प्रकृति से दूर होकर। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम अपने आप से ही दूर हो गए हैं?
पूरी गर्मी हम छत पर सोए, वहाँ था मच्छरों का आतंक। हमने उसका विकल्प ढूँढ़ा, बड़े-बड़े पत्थर हमने मच्छरदानी के चारों तरफ लगाकर पूरी रात तेज़ हवाओं का आनंद लिया। हवाएँ इतनी तेज होती कि कई बार पत्थर भी जवाब दे जाते, हम फिर मच्छरदानी ठीक करते और सो जाते। कभी हवाएँ खामोश होती, तब लगता कि अंदर चलकर कूलर की हवा ली जाए, पर इतना सोचते ही दबे पाँव हवाएँ फिर आती, और हमारे भीतर की तपन को ठंडा अहसास दिलाती। कभी तो हवा सचमुच ही नाराज़ हो जाती, तब हम आसमान के तारों के साथ बात करते, बादलों की लुकाछिपी देखते हुए, चाँद को टहलता देखते। यह सब करते-करते कब नींद आ जाती, हमें पता ही नहीं चलता।
ए.सी., कूलर और पंखों के सहारे हम गर्मी से मुक़ाबला करने निकले हैं। आज तो हालत यह हे कि यदि घर का एसी या कूलर खराब हो गया है, उसे बनवाना सबसे बड़ी प्राथमिकता है, चाहे इसके लिए दफ्तर से छुट्टी ही क्यों न लेनी पड़े। शायद हम यह भूल गए हैं कि कूलरों और एसी की बढ़ती संख्या यही बताती है कि पेड़ों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। आज से पचास वर्ष क्यों, पच्चीस वर्ष पहले ही चले जाएँ, तो हम पाएँगे कि तब इतनी क्रूर तो नहीं थी। उस समय गर्मी भी नहीं पड़ती थी और ठंडक देनेवाले इतने संसाधन भी नहीं थे। पेड़ों से बने जंगल आज फर्नीचर के रूप में ड्राइंग रूम में सज गए या ईँधन के रूप में काम आ गए। अब उसी ड्राइंग रूम में जंगल वॉलपेपर के रूप में चिपक गए या फिर कंप्यूटर की स्Rीन में कैद गए। वे हमारी आँखों को भले लगते हैं। हम उन्हें निहार कर प्रकृति का आनंद लेते हैं।
कितना अजीब लगता है ना प्रकृति का इस तरह से हमारा मेहमान बनना? प्रकृति ने बरसों-बरस तक हमारी मेहमान नवाज़ी की, हमने मेहमान के रूप में क्या-क्या नहीं पाया। सुहानी सुबह-शाम, पक्षियों का कलरव, भौरों का गुंजन, हवाओं का बहना आदि न जाने कितने ही अनोखे उपहार हमारे सामने बिखरे पड़े हैं, लेकिन हम हैं कि उलझे हैं आधुनिक संसाधनों में। हम उनमें ढूँढ़ रहे हैं कंप्यूटर में या फिर ड्राइंग रूम में चिपके प्राकृतिक दृश्य में। असल में हुआ यह है कि हमने प्रकृति को पहचानने की दृष्टि ही खो दी है। वह तो आज भी हमारे सामने फुदकती रहती है, लेकिन हमें उस ओर देखने की फुरसत ही नहीं है। हमने अपने भीतर ही ऐसा आवरण तैयार कर लिया है, जिसने हमारी दृष्टि ही संकुचित कर दी है। विरासत में यही दृष्टि हम अपने बच्चों को दे रहे हैं, तभी तो वे जब कभी आँगन में या गैलरी में लगे किसी गमले में उगे पौधों पर ओस की बूँद को ठिठका हुआ पाते हैं, तो उन्हें आश्चर्य होता है। वे अपने पालकों से पूछते हैं कि या क्या है? पालक भी इसका जवाब नहीं दे पाते। भला इससे भी बड़ी कोई विवशता होती होगी?
बारिश के बाद मिट्टी की सोंधी खुशबु किसे नहीं पसंद आती, पर यह आती कैसे है, यह जानने की कोशिश की कभी आपने? मिट्टी अधिकांश एल्युमिनियम, लौह और केल्शियम के सिलिकोट तथा मुक्त सिलिका के घातु कणों से बनी है। अकार्बनिक घटकों के अतिरिक्त इस में कार्बनिक अवयव भी होते हैं, जो मुख्यत: वनस्पति के अवशेष से मिलते हैं। इन कार्बनिक पदाथोर्ं को सामूहिक रूप से ह्यूमस कहते हैं। जब पहली वर्षा शुष्क और तपती हुई धरती पर गिरती है, तो तुरंत वाष्प बन कर उड़ जाती है और अपने साथ आसवन द्वारा कुछ ह्यूमस भी ले जाती है। अनेक अविलय कार्बनिक योगिक जो उच्चतर बुदबुदांक पर गरम होने पर अपघटित होते हैं, वाष्प के होने से बादल बन जाते हैं .विशेषकर यही ह्यूमस के अंश मिट्टी की गंध के लिए उतरदायी हैं ...तो आओ, हम सब इस मानसूनी बारिश का स्वागत करें।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 14 जून 2012

शहंशाह-ए-गजल का यूँ जाना..

शहंशाह-ए-गजल मेहदी हसन का खामोशी से यूँ गुजर जाना दुनिया भर में मौजूद उनके प्रशंसकों को द्रवित कर गया| अबके बिछड़े तो ख्वाबों में मिलेंगे- क्या खूब कहा था हसन ने, मानो उन्हें एहसास हो चला था कि उनके दुनिया से रुखसत होने के बाद भी उनके चाहने वालों के ख़्वाबों में वे ताउम्र संजीदगी से रहेंगे| १९२७ में राजस्थान के लूणा गाँव में पैदा हुए हसन का परिवार भले ही १९४७ के बंटवारे में अपना मादरे-वतन छोड़ पाकिस्तान आ गया किन्तु हसन के जेहन में हिन्दुस्तान; खासकर अपने गाँव के प्रति लगाव कभी कम नहीं हुआ| समय के साथ उनके जन्मस्थल की दीवारें भले ही जमींदोज हो गई हों मगर गाँव की उस मिट्टी को वे कैसे भुला सकते थे जिसपर कई सीकिया पहलवानों को उन्होंने धोबी-पछाड़ दिया था| पाकिस्तान जाने के बाद से दो बार हसन अपने गाँव आए और हर बार कुछ न कुछ देकर ही आए| एक बार तो झुंझुनू में गजल गायकी का कार्यक्रम कर उन्होंने लूणा में पक्की सड़क का निर्माण करवा दिया| हसन का अपने पैतृक गाँव के प्रति ऐसा निश्छल प्रेम सरहदों के बहाने लोगों में भरते ज़हर से इतर मिसाल कहा जा सकता है| किसी को हसन की गायकी में खुदा नज़र आया तो किसी को हसन में ही खुदा का दीदार हुआ मगर जिसकी गायकी का लोहा दुनिया मानती रही वही खुदा के साथ गाने से महरूम रही| लता-हसन का एक अलबम आया भी तो उसकी रिकार्डिंग हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बीच बंट गई| दोनों चाहकर भी ताउम्र साथ नहीं गा सके| यह दोनों फनकारों के साथ ही तमाम चाहने वालों के लिए ऐसा ही था जैसे किसी को बीच समंदर में लाकर यूँही छोड़ दिया जाए|

कहते हैं, कला सरहदों की मोहताज़ नहीं होती| जिस तरह हवाओं को बहने से नहीं रोका जा सकता ठीक उसी प्रकार फनकारों के फ़न को सीमाओं में नही बाँधा जा सकता किन्तु १९४७ के ज़ख्म आज तलक इतने गहरे हैं कि हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के फनकारों को उनके ही मुल्क में वह तवज्जो नहीं मिली जिसके वे हकदार थे| उदाहरण के लिए, मेहदी हसन हिन्दुस्तान में पैदा हुए किन्तु ताउम्र पाकिस्तान में रहकर भी वहां की तहजीब को मन से स्वीकार नहीं कर पाए| इसके उलट गुलज़ार का जन्म पाकिस्तान में हुआ लेकिन उन्होंने हिन्दुस्तान को अपनी कर्मभूमि बनाया और यहाँ की गंगा-जमुनी तहजीब के नुमाइंदे बन गए| हसन के पिता और दादा ध्रुपद घराने से ताल्लुक रखते थे किन्तु उन्होंने ठुमरी को अपनी आवाज देकर अमर कर दिया| ऐसा नहीं है कि हसन से पूर्व गजल गायकी ही नहीं थी मगर यह हसन की आवाज़ का जादू ही था जिसने गजल गायकी तो हरदिल अजीज बना दिया| खासकर टूटे दिलों के लिए मरहम का काम करने लगी गजल| हसन की जमात को आगे बढ़ाने वालों में नामों की एक लम्बी फेरहिस्त है जिन्होंने कहीं न कहीं हसन की आवाज़, उनकी गायकी की अदा, उर्दू लफ़्ज़ों का इस्तेमाल इत्यादि की नक़ल की|

सन २०१० में हसन हिन्दुस्तान आना चाहते थे और अमिताभ बच्चन, दिलीप कुमार व लता मंगेशकर से मिलना चाहते थे किन्तु दोनों मुल्कों के बीच के तल्ख़ संबंध उनकी इच्छा का गला घोंट गए| हसन दोनों देशों के संबंधों को पटरी पर लाने का ऐसा जरिया बन सकते थे जो दोनों ही देशों में स्वीकार्य नाम था लेकिन पाकिस्तान ने उन्हें उनके नाम के अनुरूप सम्मान के लायक ही नहीं समझा| शायद तभी उनकी देह पाकिस्तान में रही किन्तु दिल हमेशा हिन्दुस्तान के लिए धड़कता रहा| अब जबकि हसन अपनी आवाज़ को अपने करोड़ों प्रशंसकों के दिल में हमेशा के लिए गूंजती छोड़ गए तो यह उम्मीद भी बेमानी साबित होती है कि पाकिस्तान उन्हें मरने के बाद भी सम्मानोचित ढंग से सुपुर्दे ख़ाक करेगा? उनकी देह को दफनाने से लेकर उनके इलाज़ में खर्च हुए रुपये से जुड़ा विवाद तो शुरू भी हो चुका है और इसका अंजाम पूरे विश्व में पाकिस्तान की फनकार विरोधी मानसिकता को उजागर करेगा| इलाज़ के लिए हिन्दुस्तान आने के इच्छुक हसन को डॉक्टरों की सलाह पर अपने यहाँ रोकने वाले मुल्क से और उम्मीद भी क्या करें? गुलज़ार साब ने कभी हसन के हिन्दुस्तान न आ पाने की मजबूरी देखते हुए कहा था- आंखों को वीजा नहीं लगता/सपनों की सरहद नहीं होती/बंद आंखों से रोज मैं सरहद पर चला जाता हूं मिलने मेहदी हसन से/ सुनता हूं, उनकी आवाज को चोट लगी है/अब कहते हैं सूख गए हैं फूल किताबों में/ यार फराज भी बिछड़ गए हैं, शायद वो मिले कभी ख्वाबों में/..फिलहाल तो हसन की रूह पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है की तर्ज़ पर बेबसी के आंसू बहा रही होगी।
सिद्धार्थ शंकर गौतम 
०९४२४०३८८०१ 
पता: श्री राकेश तिवारी, ४५ न्यू बैंक कॉलोनी,
पुलिस लाईन के पीछे, देवास रोड, नागझिरी, उज्जैन (म.प्र.)
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मंगलवार, 12 जून 2012

महिला पायलटों के साहस को सलाम!

डॉ. महेश परिमल
नारी जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी, आंचल में दूध और आंखों में पानी। भारतीय समाज में नारी को सदैव दोयम का दर्जा दिया गया है। पुरुष वर्चस्व समाज में बरसों से उपेक्षित रहने वाली नारी की करुण कहानी बहुत लम्बी है। वर्ष में दो बार देवी की पूजा करने वाले इस भारतीय समाज में पुरुषों ने नारी को सदैव अपना गुलाम बनाना चाहा। नारी से ही सृजित होने के बाद भी नारी के प्रति पुरुष सदैव एक उपेक्षा का भाव रखता है। इसलिए आज नारी को जन्म से पहले ही कोख में मार देने की कोशिश हो रही है। आश्चर्य इस बात का है कि भ्रूण हत्या का आंकड़ा शहरी क्षेत्रों में ही अधिक है। सोचो, उन 48 यात्रियों पर क्या बीत रही होगी, जब उन्हें पता चले कि जिस विमान में वे सफर कर रहे हैं, उसका अगला पहिया तो उड़ान भरते ही कहीं गिर गया है। पायलट के रूप में दो महिलाएं हैं। उस समय तो वे महिलाएँ ही उनके लिए सब-कुछ थीं। आम तौर पर महिलाओं पर कम विश्वास रखने वाले पुरुषों के लिए  उस समय वही महिलाएं किसी देवी से कम न थी। महिलाओं ने भी पुरुषों की इस भावना को समझा और पूरी सूझबूझ के साथ विमान को सुरक्षित उतार लिया। इस तरह से चार विमानकर्मियों और 48 यात्रियों की जान बच गई।
ये हादसा होते-होते रह गया।  सिल्चर हवाई अड्डे से गुवाहाटी के लिए उड़ान भरने वाले एयर इंडिया के विमान चालक कैप्टन उर्मिला यादव और सह चालक याशु को जब पता चला कि उनके विमान का अगला पहिया कहीं गिर गया है। तब उन्हें आदेश मिला कि वे विमान को जमीन से थोड़ी ही ऊपर तब तक उड़ाती रहें, जब तक विमान का ईधन खत्म नहीं हो जाता। दोनों महिलाओं ने अपने साहस का परिचय देते हुए विमान को दो घंटे तक  गुवाहाटी के गोपीनाथ बारदोलाई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के आसपास उड़ती रहीं। इसके बाद आपातकाल लैडिंग के लिए तैयार हुई। पहले तो उन्होंने विमान को पिछले पहिए के सहारे जमीन पर उतारा, उसके बाद अगले पहिए की ओर संतुलित किया। उनकी इस सूझबूझ की सभी ने प्रशंसा की। अंतत: सभी यात्री सकुशल विमान से बाहर आ गए। असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने पायलटों को फोन कर उनके साहस की प्रशंसा की।
विमान में बैठे पुरुष यात्री तो अब महिलाओं के साहस को कभी चुनौती देने की हिम्मत नहीं करेंगे। यह तय है। आखिर महिलाओं ने कई बार अपने साहस का परिचय दिया है। पर पुरुष ही है, जो उनके साहस को कभी सकारात्मक रूप में नहीं देख पाता।  पिछले महीने ही रांची में  एक विधवा के साहसिक प्रयास एवं स्थानीय लोगों की सक्रियता से झपट्टामार के रूप में आतंक फैला रहे एक अपराधी को पकड़ लिया गया। इसी तरह सिरमौर के सतौन में महिलाओं ने अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए जंगल में लगी आगे पर स्वयं ही काबू पा लिया।  घर के मर्द जब काम के सिलसिले में बाहर गए थे तो उस वक्त इन महिलाओं ने साहस का परिचय देते हुए गांव की सीमा में घुसने से पहले ही आग को पानी के सहारे बुझा दिया। आग पर काबू पाने में कंडेला गांव की कांता देवी, विमला देवी, शीला देवी, सुमन देवी, कौशल्या देवी आदि दो दर्जन लोगों ने आग पर पानी ढो कर काबू पाया। आग बहुत विकराल थी। अगर समय रहते काबू न पाया जाता तो अधिक नुकसान होता।
एक ओर एयर इंडिया के पायलटों की हड़ताल चल रही है, ऐसे समय में जो पायलट ड्यूटी पर हैं, उन पर दोहरी जवाबदारी आ गई है। एक तो अपने साथियों ीि पर्रउ़ा को समझना, दूसरी तरफ यात्रियों की जान बचाकर विमान उड़ाना। ताजा घटनाक्रम के अनुसार एयर इंडिया जहां एक ओर 300 हड़ताली पायलटों को बर्खास्त करने पर विचार कर रही है, वहीं नागरिक उड़डयन मंत्री अजित सिंह ने कहा है कि अब एयरलाइन प्रबंधन को इस बात का फैसला करना होगा कि वह कब तक इन पायलटों को कंपनी में कायम रखती है। एयर इंडिया पायलटों की 36 दिन पुरानी हड़ताल खत्म होती नहीं दिख रही है। इस बीच, संकटग्रस्त एयरलाइन ने अपने वैश्विक परिचालन की समीक्षा के लिए एक समिति का गठन किया है, जो यह पता लगाएगी कि अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के परिचालन के लिए वास्तव में कितने पायलटों की जरूरत है। समिति प्रबंधन को इस बारे में सलाह देगी कि एयर इंडिया के अंतरराष्ट्रीय परिचालन के लिए कितने पायलटों की जरूरत है। एयरलाइन के अधिकारियों ने कहा कि ऐसा लगता है कि एयरलाइन के पास उसकी जरूरत से अधिक पायलट हैं। अजित सिंह ने चेताया कि यदि एयरलाइन में किसी तरह का मामूली गैर जिम्मेदाराना व्यवहार या आंदोलनकारी रुख किसी अन्य वर्ग के कर्मचारियों द्वारा दिखाया है, तो इससे उसकी क्षमता को लेकर सवाल खड़े हो सकते हैं। पायलटों की हड़ताल पर केंद्र शासन सख्त है, आखिर बार-बार होने वाली हड़तालों पर रोक कैसे लगाई जाए। यह प्रश्न आज सभी को मथ रहा है। देश को रोज ही करोड़ो का नुकसान हो रहा है, वह अलग है।
पायलटों की कमी से जूझ रही एयर इंडिया के प्रबंधन के कदम क्या होंगे, यह भविष्य के गर्त में है, पर इतना तो तय है कि इस मुश्किल भरे दौर में जिस तरह से कैप्टन उर्मिला यादव और सहचालक याशु ने अपने कर्तव्य को निभाते हुए जिस साहय और सूझबूझ का परिचय दिया है, वह प्रशंसनीय है। उनके कार्य सराहनीय है। मुसीबत के समय धर्य न खोकर अपने मस्तिष्क को संयत रखते हुए काम में डूब जाना, यही है नारी की पहचान। नारी अपने इस रूप का परिचय बार-बार देती आई है, पर उसे समझने के प्रयास बहुत ही कम हुए हैं। इस घटना से यह तो सिद्ध हो गया है कि अब समय आ गया है कि महिलाओं को किसी भी रूप में कमतर न आंका जाए। उसे बराबरी का दर्जा दिया जाए। उसे काम करने का पूरा अवसर दिया जाए, तभी वह अपनी पूरी प्रतिभा के साथ हमारे सामने आएगी। एक बार फिर उन साहसी महिला पायलटों को सलाम, जिन्होंने 48 यात्रियों की कीमती जान बचाने में अपना योगदान दिया।
  डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 7 जून 2012

'चिंकी' कहा तो होगी 5 साल की जेल

 नई दिल्ली। नॉर्थ ईस्ट के लोगों पर कमेंट करने से पहले अब सावधान हो जाइए। कहीं ऐसा न हो कि आपको जेल की हवा खानी पड़े क्योंकि अब नॉर्थईस्टर्न्स को 'चिंकी' कहने से 5 साल की जेल हो सकती है। आमतौर पर नॉर्थ ईस्ट इलाकों- असम, मेघालय, नागालैंड और मिजोरम राज्यों के लोगों को उनके मंगोलियन फीचर्स के चलते चिंकी कहकर बुलाते हैं। लेकिन अब इसे नस्लीय टिप्पणी मानकर सजा दी जाएगी। चिंकी कहकर बुलाने से अगर व्यक्ति आपत्ति जताता है तो वह इसकी शिकायत कर सकता है। ऐसे में चिंकी कॉमेंट करने वाले व्यक्ति को पांच साल की सजा होगी। गृह मंत्रालय ने नॉर्थ ईस्ट के लोगों को रेशल डिसक्रिमिनेशन से बचाने के लिए सभी राज्यों और केंद्र प्रशासित राज्यों को निर्देश दिया है कि वह उन लोगों को सजा दें, जो इन्हें चिंकी कहकर बुलाते हैं। ऐसे लोगों को प्रीवेंशन ऑफ ऐट्रोसिटीज़ ऐक्ट के तहत सजा देने का निर्देश दिया गया है। गौरतलब है कि इस कानून के तहत अनुसुचित जाति और अनुसुचित जनजाति के लोगों पर जातिगत टिप्पणी करने वालों के खिलाफ 5 साल की जेल का प्रावधान है। हालांकि साइबर वर्ल्ड में इस ऐक्ट को लेकर पहले ही चर्चा शुरू हो गई है। कुछ का कहना है कि यह कदम काफी पहले ही उठा लेना चाहिए था वहीं कुछ का कहना है कि एक कॉमेंट पर 5 साल की जेल 'कुछ ज्यादा' है। दिल्ली में रहने वाले नॉर्थ ईस्ट के लोगों से जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने इस कानून पर सहमति जताई और कहा कि उन्हें 'चिंकी' कहने वालों को जेल होनी चाहिए।