दोस्ती, प्यार और ज़िन्दगी का चौराहा !
विजय कुमार सप्पाटी
करीब ८ महीने पहले………………….!
डॉक्टर
वर्मा ने मुझे अपने करीब बिठाया और कहा, “देखो देव, तुम एक संवेदनशील कवि और लेखक हो, मैं तुमसे झूठ नहीं बोलूँगा। तुम लंग कैंसर की एडवांस स्टेज पर हो।
तुम्हारी सिगरेट पीने की आदत ने तुम्हे ख़तम कर दिया है। अब ज्यादा से ज्यादा ६ या
८ महीने बस !”
मैंने
उसे गले से लगा लिया, “यार वर्मा, तुमने तो मेरी ज़िन्दगी की सबसे अच्छी खबर मुझे सुनाई है, पता नहीं कितने बरसो की मेरी ये तमन्ना थी कि मैं मर जाऊं। शुक्रिया
तुम्हारा और सिगरेट का!”
डॉक्टर
वर्मा की आँखे भीग गयी, “अब मैं तुम्हारी
कविताये नहीं पढ़ पाऊंगा, इस बात का मुझे ज्यादा, बहुत ज्यादा दुःख है।”
मैंने
उसे फिर से गले लगा लिया, “यार अब कुछ अगले जनम के लिए तो रखो!”
करीब ४ महीने पहले………………………!
मैंने
इन्टरनेट में सर्च किया और उसका पता ढूँढा और उसे फ़ोन किया। मैंने कहा, “मैं देव
बोल रहा हूँ निम्मो, एक बार मिलना
है, शायद आखरी बार। जल्दी से मिलने आ जाओ।”
बहुत
देर की ख़ामोशी के बाद उसकी हिचकियो से भरी हुई भीगी हुई आवाज़ आयी, “अब? इतने बरस
बाद? क्या तुमने मुझे माफ़ कर दिया देव? क्या तुम्हारे मन में मेरे लिए अब कोई नफरत
नहीं रही?”
मैंने
कहा, “माफ़ी? प्रेम में माफ़ी? हाँ, क्रोध रह सकता है पर कोई उससे कैसे नफरत करे
जिसे टूट-टूट कर चाहा हो। जीवन के इस मोड़ पर मैं माफ़ी जैसे शब्द से ऊपर, बहुत ऊपर
उठ चूका हूँ। बस जीवन के आखरी कुछ दिन बचे हुए है। तुम्हे देखना चाहता हूँ एक बार! हाँ ; बेटी को लेते आना। और अमित को भी। उसे
कुछ देना है”
दूसरी
ओर बहुत देर तक रोने की आवाज़ आती रही! यहाँ भी सात समंदर पार आकाश भीगा सा रहा, असमय मेघो
ने बारिश की। मेरे आँखों के साथ मेरा मन भी भीग गया।
आज सुबह………………………!
घर
के दरवाजे पर दस्तक भी हुई और घंटी भी बजी, मैं पूजा कर रहा था।
मैंने
प्रभु को प्रणाम करते हुए दरवाजे की तरफ देखते हुए कहा, “आ रहा हूँ भाई, ज़रा
रुक जाओ”
मैंने
अपना चश्मा पहना और फिर धीरे धीरे चलते हुए दरवाजे की ओर बढ़ा और फिर दरवाजा खोला।
पुराना दरवाजा था, कुछ आवाज़
करते हुए खुला।
सामने
जो शख्स खड़ा था, उसे देखकर मैं चौंका। मैं समझा, मेरी नजरो का धोखा होंगा, मैंने
अपने चश्मे को साफ़ किया और उस शख्स को गौर से देखा। वो मुस्कराता हुआ खड़ा था और
मैंने उसे पहचान लिया।
वो अमित
था!
मुझे
आभास हुआ कि मैंने जो फ़ोन किया था, शायद वो बात मान ली गयी है।
उसने
कहा, “देव मैं हूँ अमित,
पहचाना या पूरी तरह से भूल गया?”
मैंने
कहा, “नहीं। मैं तुझे कैसे भूल सकता हूँ, कभी भी नहीं, कम से कम इस जन्म में तो नहीं।”
वो
मुस्कराया, “हां न, मैंने तो काम ही कुछ ऐसा किया था। खैर तूने मुझे बुलाया है। मुझे अन्दर
नहीं बुलाएंगा रे।”
मैंने
कहा, “आना। अन्दर आ, तेरा ही घर
है।”
मैंने
उसके कंधे के पार देखा। दूर दूर तक कोई नज़र नहीं आया।
मैंने
अमित की ओर देखा, वो मुझे ही
देख रहा था। जैसे ही उससे नज़रे मिली, वो मुस्कराया। “अब भी
तेरी आँखे उसे तलाश करती है देव?” उसने मुझसे पुछा।
मैंने
कोई जवाब नहीं दिया, जिसे मैंने
दिल से चाहा हो, उसे तो हमेशा ही मेरी नज़रे ढूंढेंगी। ये बात
ये व्यापारी क्या समझेंगा।
वो
अन्दर आया, चारो तरफ देखा, और कहा, “वैसे ही है रे। कुछ भी तो नहीं बदला। हाँ शायद सफेदी करवाई है
बस और कुछ नहीं।”
मैंने
कुछ नहीं कहा। उससे क्या कहता।
वो
भीतर आया और घर के किनारे में रखे हुए सोफे पर बैठ गया।
उसने
हँसते हुए कहा, “देव, कुछ भी तो नहीं
बदला है। सब कुछ वैसे ही रखा हुआ है। वही पुराना घर। पुराना सोफ़ा, पुराना फर्नीचर, तेरी तरह!”
मैंने
उसकी ओर देखा और कहा, “हां तो, क्या हुआ, मेरा मन इसमें लगता है। बस वही मेरे लिए
काफी है। और फिर मुझे मेरा पुरानापन पसंद है।”
उसने
हँसते हुए कहा, “मेरा घर इससे कई गुना
बड़ा और खूबसूरत है, आज आधे संसार में मेरे घर बने हुए है, इससे अच्छा सोफ़ा तो मेरे नौकर के घर में होंगा।” कहकर उसने खिल्ली उड़ाने
वाली नज़र से मुझे देखा। वो मेरी हंसी उड़ा रहा था।
मैं
चुप रहा। मैंने उसे गहरी नज़र से देखा और कहा, “तू बदला नहीं अमित।”
उसने
कहा, “इसमें बदलने की क्या बात है, जो है सो वही मैने कहा।”
मैंने
हँसते हुए कहा, “हाँ, तेरे पास कई बड़े घर
है, वो भी आधे संसार में, लेकिन तूने
उन सबको अपने पुस्तैनी मकान की नींव पर बनाया है। होंगे तेरे पास वो सारे घर, लेकिन आज वो तेरा पुराना घर नहीं है जिसमे तू कभी खेलता था। पैदा हुआ, पढ़ा लिखा, बढ़ा हुआ और इस काबिल बना कि उस घर को बेचकर उसे और इस देश को छोड़कर
विदेश चला गया। जिसके पास अपने गाँव का घर नहीं, जिसमे उसने
दिवाली का पहला दिया जलाया हुआ हो, उसके पास क्या है। वो तो
बहुत गरीब हुआ जो कि तू है।”
अमित
का चेहरा गुस्से में लाल सा हो गया। फिर हम दोनों के बीच बहुत देर की ख़ामोशी रही।
मैंने
कहा, “चाय पियेंगा रे?”
उसने
करवट बदलते हुए कहा, “हाँ।”
मैंने
उससे पुछा, “मैंने निम्मो को और
बच्ची को भी बुलाया था। वो लोग नहीं आये?”
अमित
ने कहा, “आये है, हम सब कल देर
रात यहाँ पहुंचे है, बिटिया की तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही
थी, मैंने उन दोनों को थोड़ी देर आराम कर के आने को कहा है।”
मैं
किचन में गया और केतली में चाय उबालने रखा। मेरे पीछे अमित आ गया था।
मैंने
उसे गहरी नजर से देखा, वो भी बुढा
हो ही गया था, लेकिन मैं ज्यादा बुढा लगता था। वो थोडा कम
लगता था। मुझे चश्मा लग गया था, उसे नहीं, मैं लगभग गंजा हो गया था, वो नहीं, वो अब भी सुन्दर
और बेहतर दिखता था, मेरे नजरो के सामने से २५ बरस पहले के
बहुत से चित्र गुजर गए।
उसने
मुझे देखा और पुछा, “तू क्यों
चाय बना रहा है, कोई और नहीं है?”
मैंने
एक पल रूककर, भीगे स्वर में कहा, “मैंने शादी नहीं की अमित।”
वो
चुप हो गया। मैंने उसकी ओर देखा और उसने मुझे देखा।
२५
बरस पहले के पल हम दोनों के बीच में फिर ठहर से गए थे।
मैंने
उससे पुछा, “शक्कर कितनी?”
उसने
कहा, “तू बना तो। तेरे हाथ की चाय पीऊंगा। बरसो बीत गए।”
मैंने
कहा, “ठीक है, आज तुझे मैं गुड़ की चाय
पिलाता हूँ। याद है, हम दोनों कितना पिया करते थे।”
उसने फिर मेरी खिल्ली उड़ाने वाले अंदाज में हँसते हुए कहा, “लेकिन यार देव, तूने अपने आपको नहीं बदला, अपने माइंडसेट को नहीं बदला, वही का वही रहा। आज भी केतली में चाय! यार मेरे नौकर भी इलेक्ट्रिक स्टोव में कॉफ़ी बनाकर पीते है। मैंने तो बरसो से चाय नहीं पी, मैं तो दुनिया की बेहतरीन कॉफ़ी पीता हूँ। Rwanda Blue Bourbon, Hawaiian Kona Coffee, Hacienda La Esmeralda मैं तो सिर्फ इन ब्रांड्स के काफी को पीता हूँ।”
मैंने
उसे टोककर कहा, “फिर भी मेरे घर की चाय पीना चाहता है।”
मैं
सर हिलाते हुए हंस पड़ा।
उसने
खिसियाने स्वर में कहा, “तो क्या हुआ, दोस्त के घर में उसके पास जो होंगा वही तो पिऊंगा न।”
मैंने
सूखे हुए स्वर में कहा, “दोस्त? क्या
तू इस शब्द के अर्थ समझता है अमित। नहीं! न तब और न ही अब!”
एक
लम्बी खामोशी छा गयी। मैंने चाय उबाली और उसे कप में दिया। वो चुपचाप चाय पीने लगा।
मैंने घर की खिडकियों को खोल दिया, ताज़ी हवा भीतर आई। दूर कहीं आरती चल रही थी।
उसने
कहा, “संगम के हनुमान मंदिर की आरती है न।”
मैंने
कहा, “हाँ !”
बहुत
सी यादे हम दोनों के दरमियान फिर तैर गयी।
हम
दोनों ने चुपचाप चाय पी।
चाय
ख़त्म हुई। मैंने अमित से पुछा, “वो दोनों कब तक आयेंगे?”
अमित
ने कहा, “शायद दोपहर तक। तू मिलना चाहता था। हम सबसे। हमें देरी हो गयी आने में।
वीसा इत्यादि में समय लग गया। बोल, क्या बात है।”
मैंने
कहा, “कोई खास नहीं, बस एक
बार तुम सभी को देखना चाहता था।”
एक
अजनबी सी चुप्पी हम दोनों के बीच फिर आ गयी।
फिर
अमित ने कहा, “तू कितना बुढा हो गया है। तूने उस कॉलेज की नौकरी को छोड़ देना था, ज़िन्दगी भर एक ही जगह रहने में क्या तुक है।
तुझे मिला क्या, कुछ भी नहीं। वही छोटी सी नौकरी, वही तन्खवाह। कुछ किताबो में लिख पढ़ कर छप गया। बस और क्या? तू जहाँ था, वही पर खड़ा है देव। क्या खोया और क्या पाया, कभी
हिसाब किताब लगाया है तूने ? सिफर! ए बिग जीरो! और कुछ भी नहीं। अबे; मुझे कहता है, पुश्तैनी घर के बारे में, अरे तूने क्या कर लिया, तू तो अपने नाम का एक घर भी नहीं बना सका। पड़ा हुआ है साले अपने पुराने
घर में। और मुझे ज्ञान देता है।” इतना कहकर वो हांफने लगा!
मैंने
उसकी सारी बाते सुनी। सच्ची बात थी, पर कडवी थी।
मैंने
कहा, “व्यापारी तो तू है अमित। हिसाब किताब करना
तू जाने। ज़िन्दगी भर तो वही करते आया है न। खरीदना और सिर्फ खरीदना। नहीं?” वो चुप
रहा।
उसके
चेहरे पर एक रंग आ रहा था और एक रंग जा रहा था।
२५
बरस पुरानी दुश्मनी अब हम दोनों के जुबान में आ गयी थी।
मैंने
आगे कहा, “और फिर मुझे किसके लिए घर बनाकर रखना है, मैं तब भी अकेला ही था अब भी अकेला ही हूँ और अकेला ही जाऊँगा। मेरे तो
आगे पीछे कोई नहीं; और रही बात मेरे जीरो होने की। तो ठीक है न। जो हूँ, उसमे खुश हूँ। मेरे हिसाब किताब में वो सब कुछ नहीं है, जो तेरी बैलेंस शीट में है। हाँ, एक रिश्ता मैंने बुना था, दोस्ती का
तुझसे ! और..............!”
अमित
ने हँसते कहा, “और एक रिश्ता बुना मोहब्बत का निर्मल से! जो तेरी न बन सकी। उसने
मुझे चुना था देव। वो भी आज से २५ साल पहले। तू तब भी मुझसे हारा था और आज भी तू
मुझसे कही पीछे, बहुत ज्यादा पीछे है।”
मैंने
कहा, “हां। ये सही है अमित। मैं न दोस्ती जीत सका और न ही मोहब्बत। दोनों रिश्ते
मैं हार गया था शायद। पर ज़िन्दगी का हिसाब किताब मुझे तेरी तरह नहीं आता है अमित।
देख ले आज तू और निर्मल दोनों ही मेरी यादो में है। जबकि तूने दोबारा मुड़कर नहीं
देखा , न ही मुझे और न ही इस शहर को ! हाँ, दोस्ती और मोहब्बत के अलावा भी एक
रिश्ता बुना है मैंने। शब्दों से। शब्दों की तासीर से। शब्दों की परछाईयो से।
शब्दों की दीवानगी से और शब्दों में धडकती ज़िन्दगी की छाँव से। और अब वही मेरी
पहचान है। किताबे मेरी साथी बन गयी है । अमित, मैं अपना अकेलापन शब्दों से भरता
हूँ और जीवित रखता हूँ खुद को। लिखना पढना ही अब मेरी पहचान है और वही शायद मेरे
संग जायेंगी ! मेरे लिए रिश्ते तेरे व्यापार से कहीं बहुत ज्यादा और बहुत ऊपर है
मेरे दोस्त !” अब मैं हांफने लग गया था। मैं थक गया था !
अमित
ने मुझे पकड़कर बिठाया। मैं आँखे बंद करके बहुत देर तक अमित का हाथ पकड़कर बैठा रहा।
मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। एक अजीब सी ख़ुशी मन में आ रही थी। मेरे सबसे अच्छे
दोस्त का हाथ था।
हम
दोनों बहुत देर तक बैठे रहे। मेरे हाथ में उसका हाथ था और उसके हाथ में मेरा हाथ!
हम दोस्त थे। बचपन के। भला उस दोस्ती की महक कैसे चली जाती। मेरी आँखों में बीते
दिनों की याद आंसू ले आई। मैंने उठकर उसे अपने गले लगा लिया। बहुत देर तक हम यूँ
ही एक दुसरे के गले लगे रहे। फिर मुझे लगा कि मेरा कन्धा उसके आंसुओ से भीग रहा है।
मैंने उसे धीरे से अपने से अलग किया, देखा तो उसकी भी आँखे भीगी थी और मेरी भी। हम एक दुसरे को बहुत देर तक
देखते रहे। एक पूरा जीवन हमने साथ जिया था। बरसो के पहले के चित्र बंद आँखों के
सामने से गुजर गए। एक पूरी ज़िन्दगी आँखों में से गुजर गयी।
मैंने
उससे कहा कि वो जाकर निर्मल और बच्ची को ले आये।
उसने
हामी में सर हिलाया और जाने लगा ।
मैंने
पुछा, “बच्ची का नाम क्या है अमित ।”
वो जाते
जाते लौटा और मुस्कराया और मुझसे कहने लगा, “यहाँ मैं तुझसे फिर जीत गया हूँ देव।
तूने और निर्मल ने सोचा था कि तुम्हारी संतान होंगी और अगर वो बेटी हुई तो उसका
नाम तुम अपेक्षा रखोंगे। जब हमें बेटी हुई तो निर्मल ने मुझसे इस नाम की रिक्वेस्ट
की और मैं मान गया। मेरी बेटी का नाम तेरे सपनो की बेटी का है। अपेक्षा!”
मैं
अवाक था। मेरी आँखे और भीग गयी, मैं कुछ
न कह सका और उसकी ओर देखकर मैंने अपनी बांहे फैला दी। उसने मुझे देखा और बिना मेरी
बांहों में आये घर से बाहर चला गया ।
मैं
फिर अपने आराम कुर्सी पर बैठ गया। मैं काँप रहा था। ज़िन्दगी भी क्या क्या रूप
दिखाती है। मैं एक निशब्द एकांत के साए में चला गया। और बीते हुए समय की परतो में
पता नहीं क्या तलाश करने लगा।
२५ बरस पहले..............!
/// एक ///
बरसो
पहले हम दोनों की दोस्ती सारे इलाहाबाद शहर में मशहूर थी। एक ही साइकिल पर घूमना, साथ साथ रहना, पढना
और खाना पीना तक साथ-साथ । कभी मैं उसके घर रुक जाता, कभी वो
मेरे घर रुक जाता। दोनों के घरवालो में सिर्फ पिता ही बचे थे। ज़िन्दगी अपनी गति से
भाग रही थी। समय जैसे पलक झपकते ही बदल जाता था। स्कूल से कॉलेज तक का सफ़र और फिर
नौकरी लगने तक का सफ़र। सब कुछ साथ साथ ही रहा। रोज सुबह संगम के तट पर भागना और
फिर हनुमान जी के मंदिर की आरती में शामिल होना और फिर अपना दिन शुरू करना। ज़िन्दगी
बहुत ही खूबसूरत थी । फिर उसके पिता नहीं रहे। वो हमारे संग ही रहने लगा। फिर मेरे
पिता भी नहीं रहे। हम फिर भी साथ ही रहे। कभी मैं उसके घर तो कभी वो मेरे घर। हर
दिन सिर्फ हमारी दोस्ती को बढाता ही था। मेरी नौकरी लगी एक कॉलेज में शिक्षक की, जो कि मेरे मन की थी। अमित को नौकरी पसंद नहीं थी। वो छोटे मोटे काम करते
रहा। फिर उसने मसालों का व्यापार शुरू किया। धीरे धीरे उसने उस व्यापार में अपने
पैर जमाने शुरू किया। मैं अपनी नौकरी में खुश और वो अपने व्यापार में खुश। कुछ भी
हो जाए हम साथ में रात का खाना जरुर खाते थे।
सब कुछ
ठीक ही था जब तक कि, निर्मल से मेरी मुलाकात नहीं हुई।
निर्मल
मेरे ही कॉलेज में लेक्चरर बनकर आई और पहले ही दिन मैं उस से प्रेम कर बैठा। मैं
हिंदी पढाता था और वो भी हिंदी ही की लेक्चरर थी। बस धीरे धीरे मुलाकाते हुई और
प्रगाढ़ता बढ़ी। वो मुझे पसंद करती थी और मैं उसे चाहता था। हम दोनों में कितनी बाते
एक जैसी ही थी। ...........हिंदी...कविता...प्रेम....जीवन को मुक्तता से जीना और
दोनों का ही शिक्षण के क्षेत्र में होना। सब कुछ कितना अच्छा था। मेरा तो आगे पीछे
कोई नहीं था। पर उसके घर में उसके माता –पिता थे। वो एक मिडिल क्लास फॅमिली से थी।
और उसके सपने थे। ज़िन्दगी की शुरुवात में जो गरीबी उसने देखी थी, उससे वो बाहर आना
चाहती थी। बस इस एक विषय पर हम अलग थे। मैं सपने ज्यादा देखता नहीं था और अगर
सोचता भी था तो सिर्फ एक मामूली ज़िन्दगी के बारे में ही सोचता था। गरीबी मैंने भी देखी
थी पर मैं बहुत संतोषी था। निर्मल को संतोष नहीं था। उसके सपने बहुत बड़े थे। और
मुझे ये बात बुरी नहीं लगती थी। सब मेरी तरह साधू तो नहीं थे न! मैं उसके परिवार
से मिला। उन्हें मैं अच्छा लगा और मुझे वो सब। मैंने सोच लिया था कि निर्मल से ही
शादी करके घर बसाऊंगा। मैंने निर्मल से शादी की बाते की। उसने हां कह दिया!
मैंने
अमित को निर्मल के बारे में बताया। वो भी मिलना चाहता था। पर उन दिनों वो अपने
व्यापार के सिलसिले में केरल, गोवा तथा अन्य जगहों पर जाता था और धीरे धीरे
एक्सपोर्ट्स के बारे में सोच रहा था।
/// दो ///
दिवाली
के दिन थे, जब वो वापस आया। आते ही
मुझसे लिपट गया और कहने लगा, “अबे देव, मुझे एक्सपोर्ट का
लाइसेंस और परमिशन मिल गया है और बहुत जल्दी ही मैं अपना काम दुसरे देशो में
स्टार्ट करूँगा, तू ये नौकरी छोड़ और मेरे साथ आ जा।” मैंने
हँसते हुए कहा, “अरे, ये धंधा तुझे ही मुबारक हो, मैं यही
ठीक हूँ। हां; तू आगे बढ़, मुझे इससे ज्यादा ख़ुशी क्या होंगी”
उसने
हँसते हुए कहा, “तू नहीं बदलेंगा रे। अच्छा ये सब छोड़, मुझे बता तू मुझे निर्मल से कब मिला रहा है।”
मैंने
कहा, “आज दिवाली है, शाम को उसके घर चलते है”
हम
शाम को तैयार हुए । वो तब भी मुझसे खुबसूरत ही था और अब कुछ नए कपडे भी खरीद लिया
था। मेरे लिए भी कपडे लाया था। मैंने उसका लाया हुआ कुरता पहना और उसने कोट पैंट।
मैंने कहा, “तू तो यार और अच्छा लग रहा है।” वो हंस दिया। हम दोनों निर्मल के घर
चले। उसने कई उपहार खरीद रखे थे निर्मल के लिए, उसने वो सब ले लिए, मैंने कुछ मिठाई खरीदी और हम दोनों रिक्शे में
बैठकर उसके घर पहुंचे।
निर्मल
इलाहाबाद के मीरगंज इलाके में रहती थी। मैंने अमित को उसका घर दिखाया। घर दियो से
सजा हुआ था। मैंने कहा, ”अमित यहाँ
से चलकर तेरे घर में भी दिए जलाना है।” अमित ने कहा, ”ठीक है
न यार। बस यहाँ से चलते है थोड़ी देर में।”
मैंने
निर्मल का दरवाजा खटखटाया। निर्मल ने दरवाजा खोला। वो बहुत सुन्दर लग रही थी। उसने
मेरे मनपसंद रंग गहरे नीले रंग की साड़ी पहनी हुई थी। अमित उसे देखते ही रह गया।
मैंने उन दोनों का परिचय एक दुसरे से कराया। अमित ने धीरे से मुझे कुहनी मार कर
कहा, “अबे ये तो बहुत सुन्दर है। तुझ जैसे बन्दर को कहाँ से मिल गयी।” मैंने हंसकर
कहा, “अपने अपने नसीब है रे, कभी कभी हम जैसे लंगूर को हूर मिल जाती है” ये सुनकर निर्मल शरमा गयी और हम
सब हंस पड़े।
हम
सब उसके परिवार से घुल मिल गए। अमित का रंग निर्मल के परिवार पर कुछ ज्यादा ही जमा
हुआ था। निर्मल के पिता उससे काफी प्रभावित हुए। मुझे लग रहा था कि निर्मल को मिले
हुए सपने उसके पिता के सपनो का ही एक्सटेंशन है। खैर हमने पूजा की और फटाके फोड़े।
निर्मल और अमित ने खूब फटाके फोड़े। अमित के लाये हुए उपहार सभी को पसंद आये। हम
वापस चल पड़े ।
अमित
ने राह में मुझसे कहा, “अबे तेरी तो
सच में किस्मत खुल गयी है।” मैं मुस्करा दिया। अमित ने कहा, “यार मुझे भी निर्मल
पसंद है; यदि तेरा शादी का मन न बने तो मुझे कह देना, मैं
शादी कर लूँगा।” पूरी शाम में बस उसकी यही बात मुझे अच्छी न लगी। मैं चुप रह गया।
हम
अमित के घर गए, वहां दिए जलाए, पूजा की और मेरे घर की ओर चल पड़े।
रात में, अमित अपने कुछ नए व्यापारी मित्रो से मिलने
चला गया। और मैं अपने घर में दियो की रौशनी में अपने भविष्य के सपनो को बुनता रहा।
फिर
मेरा विचलित मन न माना तो मैंने निर्मल को फ़ोन किया। उससे बाते की। मैंने उससे पुछा
कि क्या वो मेरे घर आ सकती है। उसने थोडा सोचकर कहा “हां, मैं आती हूँ।”
करीब
एक घंटे बाद वो आई। उसी नीली साड़ी में। घर में उसके आते ही जैसे उजाला हो गया। मैंने
धीरे से उसका हाथ थामकर उससे कहा, “मेरी हो जाओ निम्मो’। मैं उसे प्यार से निम्मो
कहता था।
उसने
कहा, “मैं तुम्हारी ही हूँ देव!” मैंने उसे अपनी बांहों में ले लिया. उसने मेरा
चेहरा अपने हाथो में ले लिया और मेरे माथे पर एक छुअन के साथ धीमे से कहा, “फिर से दिवाली की ढेर सारी शुभकामनाये।”
हम
दोनों बहुत देर तक वैसे ही खड़े रहे। मैंने उसका चेहरा अपने हाथ में लेकर कहा, “निम्मो
हम जल्दी से शादी कर लेते है और अपना घर बसा लेते है।”
उसने
कहा, “हाँ पर थोडा रुक जाओ, अगले साल शादी कर लेते है, मेरे घर में शादी के
इंतजाम के लिए पैसे नहीं है। मैं अकेली लड़की हूँ, माँ बाबू जी के सपने है। थोडा
रुक जाओ। सब ठीक हो जायेंगा”
मैं
उसे अपने घर की छत पर ले आया, हम बहुत
देर तक शहर की रोशनियों को देखते रहे। बहुत अच्छा लग रहा था। मैंने उसका हाथ पकड़
रखा था। मैंने उससे कहा, “निम्मो मैं चाहता हूँ कि हमारी पहली संतान एक बेटी हो उसका
नाम अपेक्षा रखेंगे।”
निर्मल
ने पुछा, “अपेक्षा क्यों भला !”
मैंने
कहा, “क्योंकि वो हम दोनों की अपेक्षा होंगी।
इसलिए !”
हम दोनों
हंस पड़े। मैंने उसे फिर अपनी बांहों में ले लिया। बहुत देर तक रात ऐसे ही ठहरी रही।
फिर
नीचे से अचानक आवाज़ आई, “देव कहाँ है
रे ?”
वो
अमित की आवाज़ थी।
हम
दोनों नीचे चल पड़े। अमित ने हम दोनों को देखा तो चौंक गया और कहने लगा, “अरे
निर्मल, तुम यहाँ कब आई? अगर मुझे पता रहता तो मैं बाहर जाता ही नहीं। तुम कितनी
खूबसूरत लग रही हो। ये नीली साड़ी तुम पर कितनी अच्छी लग रही है।“
मैंने
कहा, “अरे रुक जा भाई तू तो एक दिन में इतनी तारीफ कर रहा है, जितनी मैंने अब तक नहीं की होंगी।“
अमित
ने कहा, “अबे, ये मेरा स्टाइल है मैं तेरे जैसा old fashioned नहीं हूँ ।“
निर्मल
ने कहा, “अमित बहुत अच्छा दोस्त है न। मुझे तो अमित और उसकी बाते बहुत पसंद है।“
अमित जोर से हंस पड़ा, लेकिन पता
नहीं क्यों ; मुझे निर्मल की ये बात अच्छी नहीं लगी ।
हम
तीनो बहुत देर तक फिर से छत पर जाकर बैठे रहे, रोशनियाँ देखते रहे। फटाको का शोर सुनते रहे।
मैं
तो खैर चुप ही था, वो दोनों बहुत सारी बाते करते रहे।
इतने
में निर्मल के पिताजी का फ़ोन आया। उन्होंने उसे वापस भेजने को कहा।
अमित
ने कहा कि वो निर्मल को छोड़ आयेंगा। मैं ने उन दोनों को विदा किया।
/// तीन ///
दिन
गुजरते रहे। ज़िन्दगी अब कुछ और तेज हो गयी थी।
हम
तीनो की जिंदगियां एक साथ होकर भी अब अलग-अलग हो रही थी। मुझे कुछ आभास हो रहा था
कि अमित; निर्मल और उसके परिवार में कुछ ज्यादा ही शामिल हो गया था। मुझसे कहीं
ज्यादा। स्वभाव तो अमित का अच्छा ही था ऊपर से उसका व्यापार और उसकी महत्वकांक्षाए।
मुझे
लगने लगा था कि एक साथ मैं बहुत कुछ, बहुत ज्यादा बाजियां हारने वाला हूँ।
मैं अब
निर्मल को बार बार शादी के लिए कहने लगा। वो शादी की बात को टाल जाती थी। मैं ये
भी जानता था कि वो और अमित अब कुछ ज्यादा ही मिलने लगे थे।
अमित
अब मुझसे ज्यादा बाते न करता था और अक्सर मुझसे आँखे चुराने लगा था। निर्मल भी अब
ज्यादातर समय चुप ही रहती थी।
फिर एक
दिन अमित ने मुझसे कहा, “देव, मुझे
एक्सपोर्ट के सिलसिले में विदेश जाना है, मैं लंदन जा रहा
हूँ वहाँ पर अपना पहला ऑफिस खोलना है। तू चल मेरे साथ। मुझे बहुत ख़ुशी होंगी।
मुझे
भी ये सुनकर बहुत अच्छा लगा। मैंने कहा, “यार मेरे पास तो पासपोर्ट भी नहीं है। तू जा, मेरी
शुभकामनाये तेरे साथ है। ज़िन्दगी में आगे बढ़। तू बहुत सफल होंगा।”
उसने
मुझे गले लगा लिया और फिर धीरे से कहा, “क्या मैं निर्मल को अपने साथ ले जा सकता
हूँ “
मैं
ये सुनकर अवाक रह गया, फिर मैंने
धीरे से कहा, “अगर वो जाना चाहती है तो ले जा। लेकिन क्या
उसके पास पासपोर्ट और वीसा है ?”
अमित
ने बिना मेरी ओर देखे कहा, “हां मैंने बनवा दिया था उसका भी और उसके माँ बाबु का
भी।”
मैंने
ये सुना तो क्रोध से पागल सा हो गया। मैंने उसका कॉलर पकड़कर कहा, “साले, मेरे बारे
में नहीं सोचा, उनका पासपोर्ट और वीसा
बनवा लिया. यही तेरी दोस्ती है ? तुझे हो क्या गया है बोल तो।”
उसने
बिना मेरी ओर देखे कहा, “देव, मैं भी निर्मल से प्रेम करने लगा हूँ बस !”
मैं
ने उससे कहा, “तूने ये क्या कह दिया यार। मैं तेरा दोस्त हूँ। तुझे मेरी दोस्ती का
ख्याल नहीं आया।“
उसने
मेरी ओर देखते हुए कहा, “देव मैं
तुझसे माफ़ी मांगने के काबिल भी नहीं हूँ। पर ये दिल की बात है , मैं ये भी कहना
चाहूँगा कि निर्मल तेरे साथ कभी खुश नहीं रह पाती। उसकी अपनी महत्वकांक्षाए है जो
कि तू कभी पूरी नहीं कर पाता।”
मेरी
आँखों में आंसू आ गए। मैंने कहा, “लेकिन प्रेम; वो तो सबसे ऊपर है।“
अमित
ने कहा, “ज़िन्दगी सबसे ऊपर है देव। प्रेम सिर्फ सपनो में जीने की चीज है। तू अपने
आपको बदल। चाहता तो मैं था कि तू मेरे साथ ही रह, लेकिन तू नहीं रह पायेंगा।“
मैं क्रोध
में पागल हो रहा था, मेरे संवेदनशील मन को यह सब कुछ सहन नहीं हो पा रहा था .
मैंने उसे धक्का देते हुए कहा, “निकल
जा मेरे घर से अमित, आज के बाद तू मुझे अपनी सूरत मत दिखा।
तूने जो धोखा दिया है, उसके लिए ईश्वर भी तुझे माफ़ नहीं करेंगा। तू कभी सुख से
नहीं जी पायेंगा।“
अमित
ने कहा, “यार बददुआ तो मत दे, मैं एक
नयी ज़िन्दगी शुरू कर रहा हूँ। तू मेरा सबसे अच्छा दोस्त है। ठीक है, मैं तेरे प्यार
को तुझ से छीन रहा हूँ; लेकिन उससे हमारी दोस्ती तो ख़त्म नहीं हो जाती न !”
मैंने
हिकारत से कहा, “तू और दोस्ती।“
गुस्से
में मैंने उसके मुंह पर थूक दिया और कहा, “दूर हो जा साले; नहीं तो मैं तेरी जान
ले लूँगा।“
उसने
मुझे देखा और अपने आंसू जो कि अपमान और दोस्ती के टूटने की वजह से थे, पोंछते हुए मेरे घर से चला गया। हमेशा के
लिए.............!
मैं
बहुत देर तक रोते हुए बैठा रहा। फिर गुस्से में निर्मल के घर गया। वहां पर अमित
पहले से ही था, मैंने निर्मल को पकड़ा और
उसे एक थप्पड़ मारा वो चुपचाप खड़ी रही। मुझसे गुस्सा सहन नहीं हो रहा था। निर्मल के
बाबू जी मुझे रोकने आये। अमित ने उनका हाथ पकड़कर रोक लिया और कहा, “उसे अपना
गुस्सा निकाल लेने दीजिये बाबू जी।“
मैं
निर्मल को घर के बाहर लेकर आया और उसे पुछा, “ये तूने क्या किया निम्मो, मेरे प्यार में क्या कमी
थी ?”
मैं रोने
लगा था ।
निर्मल
चुपचाप थी। उसने मेरे आंसू पोंछे और कहा, “देव; ये प्रेम की कमी के बारे में नहीं
है, मेरे अपने सपने है,
जो प्रेम से बड़े है, और उन सपनो की पूर्ती तुम नहीं कर सकते
थे। तुम्हारा mindset उतना, मेरे महत्वकांक्षाओ जितना बड़ा नहीं
है हम साथ रहकर भी साथ नहीं जी पाते। प्रेम का बुखार कुछ दिन में ख़तम हो जाता है।
ज़िन्दगी की अपनी दौड़ होती है। जीवन की गति, प्रेम को बहुत पीछे छोड़ देती है। मैंने
बहुत सोचकर ही फैसला किया है, तुम एक प्रेमिका के रूप में
मुझे हमेशा खुश रखते , पर एक पत्नी के रूप में तुम मेरे सपनो को पूरा नहीं कर पाते
देव। मैंने बहुत गरीबी देखी हुई है, मुझे अब जीवन के सुख
चाहिए ।“
मैंने
कहा, “किसी भी कीमत पर निम्मो ?”
उसने
धीरे से कहा, “ हाँ देव !”
मैंने
कहा, “और मेरा प्यार, उसका क्या ?”
उसने
कहा, “प्यार तो हमेशा ही जीवित रहता है देव। हाँ जीवन के रास्ते अलग-अलग हो जाते
है। मुझे माफ़ कर दो देव !”
मैंने
कहा, “नहीं निम्मो तुम माफ़ी के काबिल नहीं। तुमने और अमित ने मुझे छला है। तुम दोनों
को मैं कभी माफ़ नहीं करूँगा”
मैं
वापस चला आया।
/// चार ///
कुछ
दिनों के बाद पता चला कि अमित ने अपना और निर्मल का घर बेच दिया है और हमेशा के
लिए विदेश जा रहा है।
मुझसे
नहीं रहा गया; मैं आखरी बार उन दोनों से मिलने पहुँचा। निर्मल का परिवार और वो
दोनों विदेश जाने की तैयारियां कर रहे थे। मैं पहुंचा। मुझे देखकर अमित और निर्मल
दोनों ठहर से गए। समय भी ठहर सा गया, मैंने बहुत प्यार और बहुत प्यास से दोनों को देखा। दोनों मेरी ज़िन्दगी का
हिस्सा थे और अब दोनों ही अलग हो रहे थे। शायद हमेशा के लिए ।
मुझे
रोना आ गया। अपनी हार पर। अपनी बेबसी पर और जो कुछ मैं खो रहा था उस पर!
वो दोनों
मुझे देख रहे थे। चुपचाप। भरी हुई आँखों से। निर्मल और अमित दोनों की आंखे भी बह
रही थी। एक दोष का भाव था उनके चेहरे पर और आँखों पर और शायद अंतरात्मा पर भी।
मैंने
रोते हुए कहा, “जाओ खुश रहो। मैं अब तुम दोनों से जीवन में कभी नहीं मिलना चाहूँगा
!”
निर्मल
ने कुछ कहना चाहा पर उसका गला रुंध गया मैं वापस लौट पड़ा।
वो
सब चले गए !
/// पांच ///
मेरी
ज़िन्दगी में एक अजनबी सा एकांत आ गया था। मुझे कभी कभी आत्महत्या कर लेने का मन हो
जाता था। एक बार मैंने संगम में कूदकर जान देने की कोशिश भी की, पर लोगो ने बचा लिया। मुझे शायद जीना था इसी
दुःख के साथ। यही मेरी नियति थी।
मैंने
जीने के लिए सिगरेट और किताबो का सहारा लिया। किताबे मुझे हमेशा से ही प्रिय थी।
धीरे धीरे समय बीतता रहा। मैं कहानी और कविता लिखने लगा। ज़िन्दगी में कोई चाह नहीं
रही। सिगरेट के धुएं ने मेरी सारी चाहतो को एक विराम सा दे दिया था ।
कई
साल बाद जब मुझे पता चल कि अमित का घर फिर से बिकने वाला है तो मैंने उसे अपने
प्रोविडेंट फण्ड के पैसो और अपनी जिंदगी भर की कमाई लगाकर खरीद लिया। पता नहीं
मेरे मन में उस वक़्त क्या विचार थे। पर हर दिवाली को मैं अपने और अमित के घर में
जाकर दिए जला दिया करता था।
समय
बीतता रहा। और फिर कुछ महीनो पहले मुझे पता चला कि मुझे कैंसर हो गया है और अब
ज्यादा दिनो की ज़िन्दगी शेष नहीं रही थी। मैंने वकील के साथ मिलकर कुछ कागजात
तैयार किये।
वसीयत
के कागजात! अपनी सम्पति की वसीयत! अपनी ज़िन्दगी की वसीयत! अपने शब्दों की वसीयत!
और
एक दिन मैंने निर्मल और अमित को उनकी बच्ची के साथ अपने घर बुला लिया, ताकि एक
आखरी बार उन्हें देख लूं और अपना सब कुछ उन्हें दे सकू!
अचानक
मुझे जोरो से खांसी आई और मैं यादो के सफ़र से वापस आज के इस पल में लौट पड़ा!
आज दोपहर..............!
मैंने
फ़ोन करके अपने वकील मित्र को बुला लिया और उसे कुछ और कागज़ जल्दी से तैयार करके
लाने को कहा।
मैंने
सोचा इन सभी को क्या खिलाऊं। फिर मैं मुस्करा उठा। अमित को मेरे हाथो की बनी हुई
खिचड़ी बहुत पसंद थी। उन दिनों, पैसो की
कमी के कारण मैं दाल, चावल, कुछ सब्जियां सब मिलाकर खिचड़ी बना लेता था। और उसे मैं
और अमित, आचार के साथ बड़े चाव से खाते थे। हर जगह हमारी ये “बम्बाट खिचड़ी” मशहूर
थी। मैंने ये खिचड़ी निम्मो को भी खिलाया था, उसे भी बहुत पसंद आई थी. उसने कहा था,
“शादी के बाद तुम मेरे लिए रोज़ ये खिचड़ी बनाया करना।“
शादी
के बाद...........!!!
मैंने
बड़े अवसाद में सर हिलाया। मेरी ज़िन्दगी भी क्या सर्कस के जोकर की तरह हो गयी थी।
मेरी आँखे भीग गयी।
मैंने
खिचड़ी बनायी। घर ठीक किया। कुछ पुराने गानों के कैसेट थे, उन्हें बहुत दिनों से
नहीं सुना था। हम तीनो को गुलाम अली के ग़ज़ल बहुत पसंद थे। उनकी गजलो की कैसेट ढूंढ
कर प्लेयर पर चला दिया। घर भर में गुलाम अली की आवाज गूंजने लगी। मन को कुछ अच्छा
लगने लगा था।
अचानक
घर की घंटी बजी, मैंने बड़ी उम्मीद से
दरवाजा खोला, ये सोचकर कि निम्मो आई होंगी, पर दरवाजे पर मेरा वकील मित्र था। उसने मुझे कागजात दिए और गले से लगा
लिया। जाते जाते वो मुड़ा और मुझे एक सलाम किया। मैं भी मुस्करा उठा!
मैं
अपनी आरामकुर्सी पर बैठ गया और यादो में खो गया। शाम होने की थी; अब तक वो लोग
नहीं आये थे।
गुलाम
अली की नयी ग़ज़ल शुरू हो गयी थी “किया है प्यार जिसे हमने ज़िन्दगी की तरह..............!”
मेरी
आँखे भीग गयी। कितना चाहा था मैंने निर्मल को और अमित को भी। पर क्या मिला मुझे!
एक नितांत एकांत! पर अब ठीक है। अब ज़िन्दगी बची ही कितनी है।
इतने
में दरवाजे पर आहट हुई। मैंने मुड़कर देखा। अमित दरवाजे पर था। मैं उठा। दरवाजे तक
गया अपना चश्मा पहना और बाहर की ओर देखा।
अमित
के पीछे निर्मल खड़ी थी। मेरी निम्मो! मैंने एक आह सी भरी! जो मेरी हो सकती थी, वो
आज किसी और की थी। मेरे दोस्त की! वो आज भी अच्छी लगती थी। मैं ने सबको भीतर आने
का इशारा किया और भीतर आने के लिए मुड़ा। अचानक मेरे कदम ठहर से गए। मेरी आँखों में
कुछ कौध सा गया था। मैंने फिर मुड़कर दरवाजे के बाहर देखा।
निर्मल
के पीछे उसकी बेटी खड़ी थी। नीली साड़ी पहने हुए। निम्मो की दिवाली वाली नीली साड़ी।
बेटी को देखा तो आँखों से आंसू बह उठे। मुझे किसी शायर की बात याद आ गयी :
एक पल में जी लिए पूरे बरस पच्चीस हम,
आज बिटिया जब दिखी साड़ी तेरी पहनी हुई !
आज बिटिया जब दिखी साड़ी तेरी पहनी हुई !
मैंने उसे अपनी ओर बुलाया।
वो हिचकती हुई मेरे पास आकर खड़ी हो गयी। वो पूरी तरह से निम्मो सी ही दिखती थी। हाँ उसका बड़ा माथा अमित पर गया था। अमित के नाक
नक्श भी उसे हासिल हो गए थे।
मैं बहुत देर तक उसे देखता रहा। मेरी आँखे बहती रही। फिर मैंने उसका हाथ पकड़
कर भीतर ले आया और अपनी आराम कुर्सी के पास की कुर्सी पर बिठा दिया। और उसे देखने
लगा। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। मैं उठा और घर के भीतर जाकर थोडा सा गुड- चना ले
आया। उसे दिया और कहा, “बेटी, खा ले, तू पहली
बार अपने घर आई है और इस घर की परंपरा है कि जब कोई पहली बार आता है तो उसे हम
गुड-चना खिलाते है।” उसने अपनी माँ की ओर देखा। निम्मो ने सर हिलाकर हामी दी। अमित
ने कहा, “खा ले बेटा।” उसने धीरे धीरे खाया।
मैंने उन सभी को बैठने को
कहा और खिचड़ी ले आया। सबको परोसा और अपेक्षा को मेरे पास ही बिठाकर उसे खिचड़ी
खिलाया। सब चुपचाप खा रहे थे। अपेक्षा को खिचड़ी खाना नहीं हो पा रहा था, उसके लिए ये एक नया भोजन था। मैंने कहा,
“बेटा जितना होता है ,उतना खा ले! तेरे माता –पिता को तो ये
बहुत पसंद थी। देखो कैसे ठूंस ठूंस कर खा रहे है।” वो हंस पड़ी। मुझे उसकी हंसी
बहुत प्यारी लगी। अपनी माँ की तरह हंसती थी! निम्मो की तरह..............!!!!
सबने खाना खा लिया था और अब
मेरे करीब ही बैठ गए थे।
आज शाम......!!!
मैं
उठा। मैंने अपेक्षा को भी उठने को कहा। मैंने उससे कहा, “चलो बेटी,संध्या हो गयी है, पूजा कर लेते है।“ उसने और मैंने मिलकर सारे घर में अलग- अलग कोनो में
दिए लगाए। फिर मैंने कुछ सोचा और फिर घर में जितने भी दिए थे, उन्हें हर ओर लगा
दिया। अब लग रहा था कि दिवाली आज ही है। मैं ये सोच ही रहा था कि अमित ने कहा, “आज ही इतने बरसो की दिवाली एक साथ मना ले रहा है रे!”
मुझे
बरसो पहले की वो दिवाली की रात याद आ गयी। मैंने कुछ नहीं कहा ।
मैं
अपेक्षा का हाथ पकड कर भीतर आया और अपनी आराम कुर्सी पर बैठ गया।
मैंने
अमित को देखा वो मुझे ही देख रहा था। उसे महसूस हो रहा था कि जो गलती उसने उस वक़्त
की थी। उसका असर अब मुझ पर इस बुढापे में और भी ज्यादा हो रहा था।
मैंने
निर्मल को देखा। मेरी निम्मो! कितना चाहा था मैंने इसे। वो रह-रहकर मुझे देख लेती
थी। उसकी नजरो में एक ऐसा गिल्ट फील था जो कि कभी भी उसकी आत्मा से नहीं मिटने
वाला था।
मैंने
अपेक्षा को देखा। वो मुझे ही देख रही थी। बहुत शांत नज़रो से। उसके आसपास एक
पवित्रता सी थी। एक बुद्ध की शान्ति थी। उसने मुझे अपनी ओर देखते हुए देखा तो
मुस्करा दी। उसने पहली बार मुझसे कहा, “आप बहुत ग्रेसफुल दिखते है।” मुझे उसकी ये
बात बहुत प्यारी लगी !
मैंने
सभी को अपने करीब बैठने को कहा और कहने लगा, “मैंने तुम सभी को इसलिए यहाँ बुलाया
है, क्योंकि मैं एक बार तुम सभी को जी भर कर
देखना चाह रहा था! बहुत बरस बीत गए है तुम्हे देखे हुए। करीब २५ बरस! जीवन इन
पच्चीस बरसो में कभी बहुत धीमे तो कभी बहुत तेज गति से गुजरा है।”
मैं
थोड़ी देर के लिए रुका और फिर उन तीनो को देखते हुए कहा, “मुझे कैंसर हो गया है, अब ज्यादा दिन नहीं है मेरे पास! इसलिए एक
आखरी बार मैं तुम सभी को देखना चाहता था !”
ये
सुन कर निर्मल रोने लगी। अमित फटी फटी आँखों से मुझे देखते रहा गया। अपेक्षा की
आँखे भीग गयी, उसने मुझसे कहा, “आप हमारे साथ चलिए, हम लन्दन में आपका इलाज करायेंगे !”
ये सुनकर
अब मेरी आंखे भीग उठी। मैंने अमित से कहा, “तुझे याद है रे, तूने बरसो पहले साथ चलने को कहा था, आज तेरी बेटी भी वही कह रही है।” अमित ने सर हिलाया। उसकी आँखों से आंसू
टपक पड़े।
मैंने
आगे कहा, “बीते बरसो में ज़िन्दगी ने मुझे बहुत कुछ
सीखाया और मैं तुम दोनों से अपने उस बुरे व्यवहार के लिए माफ़ी मांगता हूँ , जो
मैंने तुम्हारे साथ गुस्से में २५ बरस पहले किया था। खासकर मेरे अमित से !”
निर्मल
ने कहा, “नहीं देव; तुम क्यों माफ़ी मांग रहे हो। माफ़ी तो हमने मांगी चाहिए थी और
सच कहो तो हम माफ़ी के भी काबिल नहीं है। हो सके तो हमें माफ़ कर दो !"
मैंने
कहा, “नहीं नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। ज़िन्दगी में तो ये सब होते ही रहता है। मुझे
अब किसी से कोई शिकायत नहीं है ! मैं तो अब नौकरी छोड़ चूका हूँ, लेकिन ख़ुशी है कि अमित अब भी काम कर रहा है।
भगवान उसे और तरक्की दे। मैं तो यही चाहूँगा कि अमित तू और आगे बढे । तुझे सारी
दुनिया की खुशियाँ मिले।”
अमित
ने धीरे भीगे स्वर में कहा, “जिस दुनिया में तू नहीं, उस दुनिया की खुशियों का क्या करना है। सच
तो यही है कि इतने बरसो में मैंने कभी तुझे फ़ोन नहीं किया। न ही कोई ख़त लिखा।
लेकिन मैं अक्सर तेरे बारे में पढ़ता था और मुझे ख़ुशी भी होती थी कि तू इतना अच्छा
लिखता है और तेरे जाने की कल्पना मैंने कभी नहीं की।”
मैंने
कहा, “हम सभी को एक दिन जाना है अमित। बस अपने कर्म अच्छे रहे यही कोशिश करते रहना
चाहिए !”
मैं
अब थक गया था। मैं उठा और पानी पिया और घर के भीतर गया। अंदर से तीन लिफ़ाफ़े ले आया।
मैंने
अमित को पास में बुलाया उसे एक लिफाफा दिया, मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा, “घर तेरे पास बहुत होंगे, लेकिन तेरे बचपन का घर नहीं है तेरे पास। तूने उसे बेच जो दिया था, इन नए घरो के लिए! मैं तुझे तेरे बचपन का घर वापस कर रहा हूँ। अबकी
दिवाली में वहां दिया जलाना! ये ले उस घर के कागजात,मैंने
उसे खरीद लिया था और अब उसे तेरे नाम कर दिया है!” ये कहकर मैंने उसके हाथ में एक
लिफाफा रखा!
अमित
मुझे देखते ही रह गया। उसका गला रुंध गया, बस उसके आँखों से आंसू बह रहे थे।
मैंने
निर्मल को करीब बुलाया। उसे बहुत देर तक देखता रहा। मैंने धीरे से कहा। “निम्मो, मैंने तुझे बहुत बरस पहले अपना सबसे अच्छा
दोस्त दे दिया था, उसके बाद मेरे पास तुझे देने के लिए कुछ
भी न रहा, लेकिन तुम हमेशा ही मेरी यादो में रही। मैं
तुम्हारे नाम से कविताएं लिखता था और अपनी कहानियों में तुम्हारा ज़िक्र करता था।
ऐसी ही एक कविता तुम्हे सुनाता हूँ, ये मेरी आखरी कविता है
जो मैंने लिखी है :
तुम अपने हाथो की मेहँदी में
मेरा नाम लिखती थी
और मैं अपनी नज्मो में
तुझे पुकारता था ;
ये हमारी मोहब्बत थी
लेकिन मोहब्बत की बाते अक्सर किताबी होती है
जिनके अक्षर वक्त की आग में जल जाते है
किस्मत की दरिया में बह जाते है ;
तेरे हाथो की मेंहदी से मेरा नाम मिट गया,
वो तेरी मोहब्बत थी!
लेकिन मुझे तेरी मोहब्बत की कसम,
मैं अपने नज्मो से तुझे जाने न दूंगा।।।
ये मेरी मोहब्बत है !!
ये
सुनाकर मैंने उससे पुछा “कैसी है कविता।“ कोई कुछ न बोला। सब स्तब्ध खड़े थे।
निर्मल
मुझे खामोश देख रही थी। उसकी आंखे भरी हुई थी। मैंने उसके हाथ में एक बड़ा सा लिफाफा
रखा। मैंने कहा, “निम्मो, मैं अपना
सारा लेखन तुझे देता हूँ। मेरी कविताएं, मेरी कहानिया सब कुछ
अब तेरा, अब और कुछ मेरे पास तुझे देने के लिए नहीं रहा! तू
खुश रहे हमेशा, बस यही एक सच्ची दुआ है मेरे मन में!”
अमित
ने मुझे दखते हुए कहा, “आज तू फिर जीत गया देव ! वाकई तू देव ही है। तुझ जैसा कोई
और क्या होंगा इस दुनिया में। हम तो किस्मत वाले थे, जो तू हमें मिला, पर हम तेरे देवत्व को, तेरे प्यार को संभाल नहीं सके !”
मैनें
कहा, “कहीं कोई हार जीत नहीं है अमित। प्रेम में
कोई हारता नहीं है। और न ही कोई जीतता है। न तू जीता और न मैं हारा। मैंने शादी
नहीं की पर निर्मल मेरे साथ हमेशा है। ये मेरे प्यार की जीत है। निर्मल ने पूरे २५
बरस तेरे साथ गुजारे, तेरे बच्ची की माँ बनी, कभी तो उसने एक औरत के किसी न किसी रूप में तुझसे प्रेम किया होंगा। ये
तेरे उस प्रेम की जीत है, जो तूने निर्मल से किया है। निर्मल
ने तुझसे शादी करने के बाद एक बार भी मुझे न कोई ख़त लिखा ना मुझसे मिलने आई, वो पूरी तरह तेरी हो गयी। हाँ, उसने अपनी बेटी का नाम, हमारे सपनो की नींव पर रखा, ये उसके प्रेम की जीत
है, जो उसने मुझसे किया है। अब तू बता, जहां हर तरह, हम सब
की किसी न किसी तरह जीत है तो हारने का सवाल ही नहीं उठता है। प्रेम सबसे ऊंचा है
अमित !”
अमीत
और निर्मल की आँखों से आंसू बह रहे थे, अपेक्षा चुपचाप खड़ी थी। मेरी आँखे भीग गयी।
मैंने
उसे अपने पास बुलाया, उसके सर पर
हाथ रखा और फिर तीसरा लिफाफा उसे दे दिया। मैंने कहा, “बेटी, मेरे पास जो कुछ भी था वो मैंने तेरे माँ बाप को दे दिया है, बस मेरा ये
पुरखो का घर है, इसे मैंने तेरे नाम कर दिया है, मेरी इच्छा
है कि मेरे मरने के बाद तू कभी कभी यहाँ आकर रहे। मेरे मरने के बाद तू इसमें कभी
कभी त्यौहार के दिए जलाना। मेरे कृष्ण की पूजा कर लिया करना। घर के आँगन में एक
तुलसी है जिसे मेरी माँ ने बोया था, वो अब भी सदाबहार है, उसमे पानी डाल दिया करना।
बस यही मेरी अंतिम ख़ुशी होंगी।”
मैं
कांपने लगा था। अमित और निर्मल ने मुझे बिठाया।
पता
नहीं दोस्ती, प्यार और ज़िन्दगी का ये कैसा चौराहा था, जिस पर हम चारो के आंसू बह
रहे थे।
अपेक्षा
मेरे पैरो के पास बैठ गयी। मैंने बहुत प्यार से उसके सर को सहलाया। उसे पूरे दिल
से आशीर्वाद दिया।
अपेक्षा
ने धीरे से कहा, “आपने हम सभी को बहुत कुछ
दिया है। आज मैं आपको कुछ देना चाहती हूँ, क्या मैं आपको अब
से हमेशा बड़े पापा जी कह सकती हूँ।”
मेरा
गला रुंध गया और आंसू बह निकले। मुझे बिना मांगे बहुत कुछ मिल गया था और अब कुछ नहीं
चाहिए था।
मैंने
उसे, अमित और निर्मल को एक साथ अपने गले लगा लिया!
http://storiesbyvijay. blogspot.in/2014/01/blog-post. html
http://storiesbyvijay.
विजय कुमार सप्पाटी