कभी रोता नहीं हूं, रोना अच्छा भी नहीं लगता। जब किसी को रोते हुए देखता हूं तब दुख होता है, तरस आता है उस पर। कभी-कभी मन में क्रोध जैसा भाव भी उत्पन्न होने लगता है। सोचता हूं कितने मूर्ख लोग हैं जो सुखमय काया को रो कर मन को मलीन और गमगीन कर बैठते हैं, चेहरा रोने से मुरझा जाता है। कुंभला जाता है जैसे तेज गरमी पड़ते ही फूल मुरझा जाते हैं। रोते क्यों है, क्या कारण है? प्रियजनों के बिछुडने, पर परिजनों व सगे-संबंधियों का देह त्याग होने पर ,अपने ही लोगों द्वारा ऐसी कड़वी अथवा अप्रिय वचन सुनकर जिससे कभी कोई अपेक्षा नहीं होती, बोल देने पर सहन नहीं कर पाना और इसकी सजा आंख को भुगतनी पड़ती है। और निकल पड़ता है धारा-प्रवाह आंसू। बरसों की कमाई में आग लग जाने पर। लम्बी फेहरिस्त है रोने के कारणों का। रोना जीवन की एक क्रिया है, इसका निवर्हन भी सामाजिक प्राणी करते हैं। लेकिन क्या इस क्रिया को रोक नहीं सकते। संसार में कौन ऐसा प्राणी है जो नहीं रोता है। सदा हंसमुख और प्रसन्नचित रहना यही उत्तम जीवन है। दुख व सुख से पार रहता है। ऐसा तो केवल संत, ज्ञानी, योगी और महापुरुष हो सकते हैं। इन लोगों के पास ऐसी कौन सी संजीवनी बूटी होती है जो इन्हें "वीप प्रूफ" बना देती है वह बूटी आम नागरिकों के लिए क्यों सुलभ नहीं है। क्या वह बूटी भी 'वीआईपी कोटे के लिए ही सुरक्षित रखी जाती है?
लेकिन कहीं-कहीं यह बूटी कारगर साबित नहीं हुई है। उदाहरण के तौर पर एक आश्रम के संत, स्वामी को रोते हुए देखा। ज्ञानी, योगी, पुरुष थे लेकिन जब अपने भाई के निधन का समाचार सुना तो छलक पड़े आंखों से आंसू। राजा जनक को ही ले लीजिए- आत्मज्ञानी पुरुष को, विदेहराज के नाम से जाने जाते थे लेकिन मिथिलापुरी में विवाह के बाद जानकी जी की विदाई हो रही थी तब आपा खो बैठे, उसका आत्मज्ञान धरा का धरा रह गया, वह भी रो पड़े। स्वयं श्रीरामचंद्र भी जब पंचवटी से जानकी जी का अपहरण हुआ तब उसकी क्या स्थिति थी। पेड़, पौधों, पशु-पक्षियों से बिलखते हुए पूछते रहे कि हे खग, मृग हे मधुकर श्रेणी- तुम देखी सीता मृगनयनी, यह उनकी दशा हो गई थी। कैकेयी ने ऐसी क्या बात छेड़ी कि राजा दशरथ के सामने तो उनकी सिट्टी-पिट्टी बंद हो गई। पछाड़ खाकर गिर पड़े जमीन पर। बातें जितनी मीठी नहीं होती उससे ज्यादा कड़वी होती है। जिनके सिर पर पत्थर बरसता है, वे ही इस पीड़ा व दर्द को जानते हैं। तब ऐसे वीत रागी पुरुष, महापुरुष कौन हैं जो रोने-गाने, दुख-सुख से परे हैं। अर्जुन ने जब कुरुक्षेत्र में ज्ञान बघारा तब भगवान श्रीकृष्ण उससे मुस्कुराते हुए कहते हैं- वाह अर्जुन, तू तो बड़ा ज्ञानी निकला- प्रज्ञा वादांससि भाषते जैसी बातें कर रहे हो | जब ज्ञानी, ज्ञान की परीक्षा में अनुतीर्ण हो जाता है तब भक्ति के द्वार पर गिर पड़ता है। फिर रोते, बिलखते और गुनगुनाते हुए जिंदगी भर वह अपने इष्ट के सामने भजन गाने लगता है- प्रभु आया शरण तुम्हारे। अनुतीर्ण विद्यार्थी की कोई कीमत नहीं होती। उसे रोजगार और नौकरी भी नहीं मिलती ,भटकते रहता है दर-दर मजदूरों अथवा भिखारियों की तरह। उनकी नियति होती है।
रोना मुझे भी बिल्कुल पसंद नहीं। उसने झुकाने की कोशिश की, आत्मसमर्पण करने के लिए विवश किया, प्रताडि़त किया, तरह-तरह के हथकंडे अपनाए लेकिन जब असफल रहा तब एक दिन बाप को मुझसे छीन लिया। वह मेरी परीक्षा की घड़ी थी, हृदय में हलचल हुई। मन थर्राने लगा। सोचा क्या करूं, क्या न करूं। इसी बीच आँख ने मुझे धोखा दे दिया। मेरी जीवन भर की कमाई में बट्टा लगा दिया। इसका पश्चाताप है मुझे |
परमानंद वर्मा
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