बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

संन्यासी का आशीर्वाद


 एक राजा के महल में एक संन्यासी आया। वह कुछ दिन रुक कर जाने लगा। राजा बोला- महाराज! जाते-जाते आप कोई आशीर्वाद दीजिए। संन्यासी ने आशीर्वाद दिया- ‘एक बात का अभ्यास करना, क्रोध आए, उस समय कोई काम मत करना। यह मेरा आशीर्वाद है।’ संन्यासी चला गया। राजा ने उस बात को पकड़ लिया। समय बीत गया। राजा बड़ा जागरूक था उस आशीवार्द के प्रति। राजा का कोई पुत्र नहीं था। समस्या थी राजगद्दी किसे सौंपे? आखिर चिंतन करते-करते निर्णय लिया- कन्या को राजगद्दी सौंप दूंगा? जब उसका विवाह होगा, तब उसका पति ही राजा बन जाएगा। निर्णय ले लिया- कन्या को राजगद्दी पर बैठाना है। कन्या ने पुरुष वेष में रहना शुरू कर दिया। प्राचीन काल में
रानियां भी पुरुष वेष में रहती थीं, राज कार्य भी चलाती थीं। एक दिन राजा कहीं बाहर गया हुआ था, लेकिन वह अकस्मात महल में वापस आया। उसने देखा- महारानी किसी पुरुष के साथ लेटी हुई है। देखते ही राजा तिलमिला उठा। तत्काल तलवार हाथ में निकाल ली। उसी समय मुनि का आशीर्वाद याद आया- क्रोध में कोई काम मत करना। तलवार म्यान में चली गई। राजा आगे बढ़ा, पुरुष के निकट आया। राजा यह देख अवाक रह गया- पुरुष वेशधारी बेटी और मां निद्रा में लीन हैं। राजा का व्यवहार बदल गया। उसका क्रोध शांत हो गया। यदि वह क्रोध में कुछ गलत कर देता तो अनर्थ हो जाता। जो आदमी जागरूक हो जाता है, उसका व्यवहार बदलता है, चाहे कितनी ही बड़ी घटना सामने आए। ऐसा लगे- कोई पहाड़ टूट रहा
है, अन्याय हो रहा है तो भी तत्काल वह कोई कार्य नहीं करेगा। वह बड़े धर्य के साथ कार्य करेगा। यदि इस प्रकार का व्यवहार हो जाए तो परिवार में होने वाले सारे झगड़े समाह्रश्वत हो जाएं। व्यक्ति ने कुछ देखा, पूरा समझा नहीं और कोई कदम उठा लिया। ऐसा करने के बाद उसे यह भी कहना पड़ता है- मैंने जल्दबाजी में अमुक काम कर लिया। न जाने कितने लोग ऐसे हैं, जो कहते हैं- ‘भई! भूल हो गई, जल्दबाजी में ऐसा हो गया।’ जागरूक व्यक्ति ऐसा कभी नहीं करता। उसका व्यवहार बिल्कुल बदल जाता है। ।
बात पते की

जल्दबाजी में किया काम कई बार पछतावे का कारण बन जाता है। इसलिए हमेशा धर्य रखें और संयम से काम ले ।

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

असीमित अधिकार ही हैं भ्रष्टाचार का मूल कारण

डॉ. महेश परिमल
आपने कभी सोचा है कि सरकारी दफ्तर का बाबू आपसे इतना अकड़ और रुआब से बात क्यों करता है? शोधकर्ताओं ने इसका राज खोला है। अध्ययन के अनुसार, जिन लोगों का ओहदा उन्हें प्रदत्त अधिकार के हिसाब से छोटा होता है, वे अक्सर लोगों के लिए समस्याएं पैदा करने वाली गतिविधियों में लगे रहते हैं। यानी मौका मिलते ही लोगों को नीचा दिखाने जैसी हरकत करने से बाज नहीं आते हैं। धीरे-धीरे यह बात उनकी आदत में शामिल हो जाती है और वे भ्रष्ट होने लगते हैं। देश में भ्रष्टाचार सचमुच बढ़ गया है, तभी तो प्रधानमंत्री को कहना पड़ा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कदम उठाए जाएँगे। भ्रष्टाचारियों को बख्शा नहीं जाएगा। इस दिशा में सरकार ने सख्त कदम उठाने के संकेत दिए हैं। मसलन हर तीन वर्ष बाद सरकारी कर्मचारियों एवं अधिकारियों के कार्यो की समीक्षा की जाएगी। इसके अलावा यदि वे बार-बार अपने कार्य को सही रूप से संपादित करने में पीछे रहते हैं, तो उन्हें 15 वर्ष पहले ही सेवानिवृत किया जा सकता है। यह एक सराहनी कदम है, पर इस पर सख्ती से अमल हो, तभी यह कारगर सिद्ध होगा।
 वैसे देखा जाए, तो भ्रष्टाचार हमारी देन है ही नहीं, इसलिए देश के नेता इससे निपटने में अक्षम साबित हो रहे हैं। यह तो अंगरेजों से हमें विरासत में मिली है। आज यदि देश की जनता अपना सही काम करवाने के लिए भी रिश्वत का सहारा लेती है, तो उसके पीछे बेशुमार अधिकार के स्वामी देश के सरकारी अधिकारी, कर्मचारी और नेता हैं। एक रिश्वत न देने वाले आम आदमी को परेशान करने के लिए इनके पास इतने अधिकार हैं कि वह अपने सही काम को कराने के लिए लाख एड़ियाँ रगड़ ले, उसका काम कभी नहीं होगा। इस दौरान वह कई नियम-कायदों से बँधा होगा, लेकिन रिश्वत देते ही वह सारे कायदों से मुक्त हो जाता है। यह देश की विडम्बना है।
हमारे देश में भ्रष्टाचार कितना फैल चुका है, यह जानने के लिए किसी सर्वेक्षण की आवश्यकता नहीं है। इसके लिए तो अमेरिका की गेलप नामक कंसल्टंसी फर्म की रिपोर्ट ही पर्याप्त है। इसने भारत में फैले भ्रष्टाचार के मामले पर एक सर्वेक्षण किया, जिसमें देश के विभिन्न शहरों के करीब 6 हजार लोगों से बात की। 47 प्रतिशत लोगों ने माना कि देश में भ्रष्टाचार एक महामारी की तरह फैल गया है। यह स्थिति पिछले 5-10 वर्ष पहले से अधिक गंभीर है। अन्य 27 प्रतिशत लोगों ने भ्रष्टाचार को एक गंभीर समस्या निरुपित किया। इन लोगों का मानना था कि 5 साल पहले भी यही स्थिति थी। हाल ही में अन्ना हजारे के आंदोलन को जिस तरह से लोगों ने अपना नैतिक समर्थन दिया, उससे यह स्पष्ट है कि देश का आम आदमी इस भ्रष्टाचार से आजिज आ चुका है। देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने के लिए अब वह उथल-पुथल के मूड में दिखाई दे रहा है।
इस सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि देश के 78 प्रतिशत लोग यह मानते हैं कि भ्रष्टाचार सरकारी तंत्र में अधिक फैला हुआ है। 71 प्रतिशत लोग यह मानते हैं कि देश के उद्योगपति भी भ्रष्टाचार के लिए जवाबदार हैं। ें टाइम मैगजीन कि सर्वे के अनुसार 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में लिप्त ए. राजा को विश्व को दूसरा सबसे बड़ा भ्रष्टाचारी माना है। इसके पहले जो कॉमनवेल्थ गेम का घोटाला सामने आया, उससे देश के नागरिकों की सहिष्णुता को एक तरह से खत्म ही कर दिया। टेलिकॉम घोटाले ने उस पर अपनी मुहर ही लगा दी। भारतीय जनता यह मानती है कि भ्रष्टाचार के लिए सबसे बड़ा कारण सरकारतंत्र है। गेलप के सर्वेक्षण के मुताबिक भ्रष्टाचारियों को दंड देने में सरकार पूरी तरह से विफल साबित हुई है। इन भ्रष्टाचारियों से सबसे अधिक परेशान बेरोजगार युवा हैं। 21 प्रतिशत नागरिकों ने स्वीकार किया कि वे अपने काम को करवाने के लिए रिश्वत का सहारा लेते हैं।
भारत में भ्रष्टाचार, ये विषय आजकल लोगों में विशेष रूप से लोकप्रिय हो गया है। ट्रेक डॉट इन नामक एक वेबसाइट द्वारा भारत में भ्रष्टाचार विषय पर एक रोचक तथ्य जारी किया है। उसके अनुसार भारत में सरकारी तंत्र की रग-रग में भ्रष्टाचार व्याप्त है। नागरिकों को जिन्हें रिश्वत देनी पड़ती है, उनमें 91 प्रतिशत सरकारी अधिकारी हैं। इसमें भी 33 प्रतिशत केंद्रीय कर्मचारी हैं। 30 प्रतिशत पुलिस अधिकारी और 15 प्रतिशत राज्य के कर्मचारी हैं। दस प्रतिशत नगरपालिक, नगरनिगम या ग्राम पंचायत के कर्मचारी हैं। भारतीय प्रजा के माथे पर तीन प्रकार की गुलामी लिखी हुई है। पहली गुलामी केंद्र सरकार की, जिसमें आयकर, आबकारी, कस्टम आदि विभाग आते हैं। दूसरी गुलामी राज्य सरकार की है, जिसके हाथ में बिक्रीकर, शिक्षा, स्वास्थ्य और पुलिस विभाग आते हैं। तीसरी गुलामी स्थानीय संस्थाओं की है। जिसके पास पानी, गटर, जमीन, मकान, सम्पत्ति कर आदि दस्तावेज बनाने के अधिकार हैं। इस तीन प्रकार की संस्थाओं को इतने अधिक अधिकार प्रदान किए गए हैं कि वे प्रजा को कायदा-कानून बताकर इतना अधिक डरा देते हैं कि न चाहते हुए भी प्रजा को रिश्वत देनी ही पड़ती है। इस तरह की खुली लूट हमें अंगरेजों द्वारा विरासत में मिली हुई है। आज इनके पास जो अधिकार हैं, वे वास्तव में अंगरेजों ने प्रजा को लूटने के लिए दिए गए थे। कानून का डर बताकर आम जनता को परेशान करने की यह प्रवृत्ति अंगरेजों से शुरू होकर आज उनके चाटुकारों तक पहुँच गई है, जो किसी न किसी तरह जनता को लूट रहे हैं। देश को आजादी मिलने के बाद इस तरह के कानूनों को रद्द करने के बजाए इसे और अधिक पल्लवित किया गया। उसके बाद तो यह कानून और अधिक धारदार हो गए। भारतीय दंड संहिता के अनुसार पुलिस को इतने अधिक अधिकार दे दिए गए कि एक साधारण सा सिपाही भी किसी आम आदमी को कानून का डर दिखाकर उससे रिश्वत की माँग कर सकता है। आज प्रजा जिन्हें रिश्वत देती है, उसमें 30 प्रतिशत पुलिस विभाग के कर्मचारी ही हैं।
ट्रेक डॉट इन के सर्वेक्षण के अनुसार देश के लोग सरकारी तंत्र को जो रिश्वत दते हैं, उसमें 77 प्रतिशत रिश्वत तो अपने सही काम को करवाने के लिए देते हैं। यानी सरकारी कर्मचारियों को जिस काम के लिए सरकार वेतन देती है, उसी काम को करने के लिए ये कर्मचारी लोगों से रिश्वत लेते हैं। यदि इन्हें रिश्वत न दी जाए, तो आम जनता के काम ताक पर रख दिए जाते हैं। इससे जनता को आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ता है। समझ में नहीं आता कि इन कर्मचारियों को इतने अधिकार आखिर क्यों दे दिए गए हैं? यदि कोई काम नहीं हो पाता और जनता को नुकसान उठाना पड़ता है, तब इन्हें सजा क्यों नहीं होती? प्रजा के पास इनके खिलाफ अदालत जाने के सिवाय दूसरा विकल्प नहीं है। आज अदालतों की जो हालत है, उसे देखकर नहीं लगता कि आम आदमी को सही समय पर न्याय मिल पाएगा? यही कारण है कि आज सरकारी कर्मचारी निरंकुश हो गए हैं। सर्वेक्षण के अनुसार प्रजा जो रिश्वत देती है, वह रकम काफी बड़ी नहीं होती, छोटे-छोटे काम की छोटी-छोटी राशि। देश के 14 प्रतिशत नागरिक करीब ढाई लाख रुपए सरकारी कर्मचारियों को हर महीने बतौर रिश्वत देते हैं। जिस अधिकारी के पास जितने अधिक अधिकार होते हैं, उसे उतनी अधिक रिश्वत मिलती है। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला इसीलिए हो पाया कि ए. राजा के पास इतने अधिक अधिकार थे कि वह जिसे चाहे जितनी अधिक रिश्वत लेकर उन्हें उपकृत कर सकता था। इसलिए यह धंधा खूब फला और फूला। यह सब सत्ता के केंद्रीयकरण के कारण ही संभव हो पाया।
भ्रष्टाचार का मूल स्रोत हमारे द्वारा सरकार को दिया जाने वाले अरबों रुपए के तमाम टैक्स हैं। जनता ईमानदारी के साथ टैक्स चुकाती है,  वही राशि कर्मचारियों के मन में लालच पैदा करती है। देश के रग-रग में बसे इस भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए एक नई आजादी की आवश्यकता है। गांधीजी ने जिस तरह असहयोग आंदोलन चलाया था, उसी तरह यदि जनता कोई ऐसा उपाय करे, जिससे सरकार परेशान हो जाए, तो निश्चित रूप से इस देश को एक नई दिशा मिल सकती है। पर इसके लिए जिस नेतृत्व की आवश्यकता है, वह ईमानदारी नेता हमारे बीच नहीं है। कई अन्ना हजारे मिलकर ही यह काम कर सकते हैं। अधिकारियों को मिलने वाले असीमित अधिकारों पर अंकुश लगाया जाए, शायद तभी देश भ्रष्टाचारमुक्त हो पाए और ईमानदारी के एक नए सूरज का स्वागत करने के लिए यह पीढ़ी तैयार रहे।
                           डॉ. महेश परिमल

रविवार, 12 फ़रवरी 2012

अब होगी मोबाइल सेवा और महँगी! सरकार कठघरे में?


डॉ. महेश परिमल
सुप्रीमकोर्ट के फैसले के बाद यह तय है कि अब मोबाइल सेवा और महँगी हो जाएगी। उपभोक्ता इसके लिए तैयार रहें। इस आशय के सभी 122 लायसेंस रद्द कर दिए गए हैं। अब लायसेंसों की नीलामी फिर से होगी। अब तक जो आरोप केवल ए.राजा आदि पर लग रहे थे, अब वही सारे आरोप सरकार के उन नेताओं पर भी लग गए हैं, जिन्होंने 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की बहती गंगा में अपने हाथ धोए हैं। इनकी इस करतूतों का खामियाजा उपभोक्ताओं को उठाना होगा। निश्चित रूप से तमाम टेलिकॉम कंपनियाँ घाटा उठाकर तो व्यापार नहीं करेंगी, अलबत्ता मोबाइल उपभोक्ताओं को परेशानियों का सामना कर पड़ेगा।
तिहाड़ जेल में कैद भूतपूर्व टेलिकॉम मंत्री ए. राजा सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले को पढ़कर यह सोचते होंगे कि अब तक तो मेरे अलावा कुछ ही लोगों को 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के लिए दोषी माना जा रहा था, लेकिन 122 लायसेंस रद्द करने के आदेश के बाद पूरी यूपीए सरकार के गाल पर तमाचा मारा गया है। यदि यूपीए सरकार यह मानती है कि ए. राजा द्वारा 2 जी स्पेक्ट्रम के लायसेंस का आवंटन अनुचित है, तो उसे यह आवंटन रद्द कर देना था। सरकार ने इस आवंटन को जारी रखकर राजा द्वारा किए गए पाप में अपनी भागीदारी जारी रखी थी। कोर्ट के फैसले से यह साफ हो गया है कि स्पेट्रम घोटाले में केवल ए. राजा ही नहीं, बल्कि और भी कई चेहरे शामिल हैं, जो अब तक सामने नहीं आ पाए हैं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले की चपेट में रिलायंस, टाटा, आइडिया, भारती, वीडियाकॉन, एयरसेल, लूप और वोडाफोन आदि बड़ी टेलिकॉम कंपनियाँ आ गईं हैं। इन सभी कंपनियों ने 2 ली की नीलामी में मलाई खाई है। स्वान और यूनिटेक जैसी कंपनियों ने तो 2 जी लायसेंस मिलने के बाद अपनी कंपनी के शेयर विदेशी कंपनियों के खाते में डालकर हलकी हो गई थीं। अब इन विदेशी कंपनियों की हालत साँप-छछूंदर जैसी हो गई है। 2 जी स्पेक्ट्रम का लायसेंस पुरानी कीमत पर देने का निर्णय भले ही ए. राजा और चिदम्बरम ने मिलकर लिया हो, पर इसे लगातार अनदेखा कर पूरी मनमोहन सरकार पर यह आरोप लगाया जा सकता है कि पूरे मंत्रिमंडल ने मिलकर यह फैसला लिया। कोर्ट के फैसले के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का रथ जो अब तक जमीन के अंदर चल रहा था, वह ऊपर आ गया है। सुप्रीमकोर्ट फैसले के बाद स्वान टेलिकॉम और यूनिटेक कंपनियों की प्रतिष्ठा बुरी तरह से प्रभावित हो गई है, यह तय है कि अब ये कंपनियाँ इस धंधे से हमेशा-हमेशा के लिए बाहर हो सकती हैं। दूसरी तरफ जिन कंपनियों के लायसेंस रद्द किए गए हैं, यदि वे कंपनियाँ अदालत का दरवाजा खटखटाती हैं, तो कानूनी लड़ाई लम्बी चल सकती है।
यह तय है कि अब सरकार को फिर से लायसेंसों की नीलामी करनी होगी। तब सहज रूप से टेलिकॉम कंपनियों को ऊँची कीमत चुकानी होगी। इस कारण कई प्रमुख कंपनियाँ नीलाम में भाग ही नहीं ले पाएँगी। इस स्थिति में उनके लायसेंस अन्य कंपनियों को आवंटित कर दिए जाएँगे। तब फिर पुरानी कंपनियाँ ही मैदान में रह जाएँगी। तब एक सत्ता होने के कारण कंपनियाँ अपनी मनमानी करंेगी और मोबाइल सेवा महँगी हो जाएँगी। पहले जिन कंपनियों को लाभ हुआ था, उसका पूरा फायदा उपभोक्ताओं को भी मिला, लेकिन अब जो उन्हें घाटा होगा, वह भी उपभोक्ताओं को ही उठाना होगा। भारत सरकार के कंट्रोलर एंड एडीटर जनरल (केग) के अनुसार 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सरकारी तिजोरी से 1.75 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। इस दावे की हँसी उड़ाते हुए दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने जीरो नुकसान की थ्योरी सामने रखी। अब इस थ्योरी का झूठ सामने आ गया है। एक झूठ पहले ही सामने आ चुका है जिसमें प्रधानमंत्री ने इसे दूरदर्शन में स्वीकारते हुए कहा था कि गठबंधन के कारण वे इस नीलामी पर चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पाए। अपने फैसले में सुप्रीमकोर्ट ने प्रधानमंत्री मनमोहन ¨सह की कमजोरी को रेखांकित किया है। अभी जो 122 लायसेंस रद्द करने के आदेश दिए गए हैं, वे 2008 में जारी किए गए थे। इसके पहले और बाद में जो लायसेंस जारी किए गए हैं, उस पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का असर नहीं होगा। 2008 के शोर के बाद ही 2011 में जो लायसेंस जारी किए गए, वे पूरी तरह से अनुशासित रूप से किए गए थे। इससे सरकार को अच्छी आवक भी हुई थी। इन लायसेंसों को सरकार ने रद्द नहीं किया है। अभी मोबाइल फोन के जितने उपभोक्ता हैं, उसमें से दस प्रतिशत उपभोक्ता ही 2008 में जारी किए गए लायसेंसों के तहत हैं, यदि इनकी कंपनियों को नए सिरे से लायसेंस प्राप्त करने में विफल साबित होती हैं, तो उनकी सेवाएँ बंद हो जाएँगी। पर मोबाइल नम्बर पोर्टेबिलिटी के कारण उपभोक्ता अपने पुराने नम्बर जारी रख सकते हैं। केवल उनका बेलेंस ही बेकार जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद टेलिकॉम कंपनियों में उथल-पुथल होने की पूरी संभावना है। पहले जिन कंपनियों के पास इस क्षेत्र का अनुभव न होने के बाद भी वे मैदान में आ गई थीं, लेकिन अब बदले हुए हालात में वे सभी कंपनियाँ छटपटाएँगी। वे हाशिए पर भी जा सकती हैं। इस क्षेत्र में फिर पुरानी कंपनियों को आने का अवसर मिल जाएगा। फैसला आते ही भारती और एयरसेल के शेयरों के भाव में बहार आ गई, इसका कारण यही है। पर अब टेलिकॉम सेवाएँ भी महँगी होंगी, यह तय है। महँगी होने के साथ ही इस सेवा में सुधार आएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। फैसले से सबसे अधिक नुकसान यूनिटेक कंपनी को हुआ है। उन्हें 5 करोड़ का जुर्माना भी हुआ है। साख पर असर पड़ा है, वह अलग बात है। वोडाफोन, आइडिया और भारती एयरसेल को इससे लाभ होने की पूरी संभावना है। सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका के साथ ही सर्वोच्च अदालत ने ये जो फैसला दिया है, उसके कारण प्रजा का एक बार फिर न्याय के प्रति विश्वास जागा है। 2008 में जिस तरह से जनता की आँखों में धूल झोंकी गई थी और देश को चूना लगाने वालों को खुली छूट दे दी गई थी, उसे अदालत ने नजर से चूकने नहीं दिया। नागरिकों का स्पेक्ट्रम उन्हें सौंपते हुए अदालत ने यह संकेत भी दे दिया है कि अब भ्रष्टाचार से प्राप्त लायसेंस तो रद़द हो ही जाएँगे, स्पेक्ट्रम भी वापस हो जाएँगे, पर सबसे बड़ी चिंता इस बात की है कि सरकारी तिजोरी से जो धन मंत्रियों के हाथों होते हुए विदेशी खातों में पहुँच गया है, क्या वह रकम वापस आ सकती है? यह राशि तो अब ग्राहकों के जेब से ही वसूल की जाएगी।
     डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

देश की नदियों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा!


डॉ. महेश परिमल
अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में हुए आतंकवादी हमले में जितने लोग मारे गए, उतने इंसान तो रोज गंदा पानी पीने से मर जाते हैं। हमारे देश में 20 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो अशुद्ध पानी पीते हैं। पानी के लिए झगड़े, फसाद होते रहे हैं, पर अब जल्द ही युद्ध भी होने लगेंगे। इस क्षेत्र में दबे पाँव बहुराष्ट्रीय कंपनियों आ रही हैं, जिससे हालात और भी खराब होने वाले हैं। सरकार इस दिशा में इन्हीं विदेशी कंपनियों के अधीन होती जा रही है। इस कार्य में विश्व बैंक की अहम भूमिका है।
कुछ समय पहले ही जर्मनी की राजधानी बोन में पानी की समस्या को लेकर गंभीर विचार-विमर्श हुआ। इस अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में 130 देशों के करीब 3 हजार उपस्थित थे। इस समेलन में चौंकाने वाली जानकारी यह दी गई कि 21 वीं सदी में जिस तरह से टैंकर और पाइप लाइनों से क्रूड आयल का वितरण किया जा रहा है, ठीक उसी तरह पानी का भी वितरण किया जाएगा। बहुत ही जल्द पानी के लिए युद्ध होंगे। विश्व में 1.30 अरब लोग ऐसे हैं, जिन्हें पीने का साफ पानी नहीं मिल रहा है। अशुद्ध पानी से विश्व में रोज 6 हजार मौतें हो रहीं हैं। हालात ऐसे ही रहे, तो पूरे विश्व में पानी सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा बन जाएगा। हमारी पृथ्वी में जितना पानी है, उसका 97 प्रतिशत समुद्र के खारे पानी के रूप में है। केवल 3 प्रतिशत पानी ही मीठा और पीने लायक है। इसमें से 25 प्रतिशत हिमनदियों में बर्फ के रूप में जमा हुआ है। इस तरह से कुल5 प्रतिशत पानी ही हमारे लिए उपलब्ध है। इसमें से भी अधिकांश भाग अमेरिका और केनेडा की सीमाओं पर स्थित बड़े-बड़े तालाबों में है। शेष विश्व में बढ़ती जनसंया, शहरीकरण, औद्योगीकरण और प्रदूषण के कारण पानी के ज्ञात स्रोतों में लगातार कमी आ रही है। देश के कई राज्यों में पानी के लिए दंगे होना शुरू हो गए हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार एशिया में प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष 3 हजार घनफीट जितना पानी ही लोगों को मिल पाएगा। इसमें भी भारत की आवश्यकता औसतन 2,500 घनमीटर ही है।
उत्तर प्रदेश में यह परंपरा है कि कन्या द्वारा जब कुएँ की पूजा की जाती है, तभी लग्न विधि पूर्ण मानी जाती है। अब तो कुओं की संया लगातार घट रही है, इसलिए गाँवों में कुएँ के बदले टैंकर की ही पूजा करवाकर लग्नविधि पूर्ण कर ली जाती है। लोगों ने समय की जरुरत को समझा और ऐसा करना शुरू किया। पर पानी की बचत करनी चाहिए, इस तरह का संदेश देने के लिए कोई परंपरा अभी तक शुरू नहीं हो पाई है, यदि शुरू हो भी गई हो, तो उसे अमल में नहीं लाया गया है। जब तक हमें पानी सहजता से मिल रहा है, तब तक हम इसकी अहमियत नहीं समझ पाएँगे। हमारे देश में पानी की समस्या दिनों-दिन गंभीर रूप लेती जा रही है। देश में कुल 20 करोड़ ऐसे लोग हैं, जिन्हें पीने के लिए शुद्ध पानी नहीं मिल रहा है। पेयजल के जितने भी स्रोत हैं, उसमें से 80 प्रतिशत स्रोत उद्योगों द्वारा छोड़ा गया रसायनयुक्त गंदा पानी मिल जाने के कारण प्रदूषित हो गए हैं। इसके बावजूद किसानों को यह सलाह दी जाती है कि वे ऐसी फसलों का उत्पादन करें, जिसका दाम अधिक मिलता हो। किसानों को राजनैतिक दलों द्वारा वोट की खातिर मुत में बिजली दी जाती है, जिससे वे अपने बोरवेल में पंप लगाकर दिन-रात पानी निकालते रहते हैं। इससे भूगर्भ का जलस्तर लगातार नीचे जा रहा है। इससे हजारों कुएँ नाकारा हो जाते हैं। पानी की कमी के कारण भारत का कृषि उत्पादन भी लगातार घट रहा है। यही  कारण है कि हम अब बनाज का आयात करने लगे हैं।
देश को जब आजादी मिली, तब एक-एक गाँवों में पीने के पानी का कम से कम एक स्रोत तो ऐसा था ही, जिससे पूरे गाँव की पेयजल समस्या दूर हो जाती थी।  जहाँ पेयजल समस्या होती थी, सरकारी भाषा में इन गाँवों को ‘नो सोर्स विलेज’ कहा जाता है। सन् 1964 में ‘नो सोर्स विलेज’  की संया 750 थी, जो 1995 में बढ़कर 64 हजार से ऊपर पहुँच गई। इसका आशय यही हुआ कि आजादी के पहले जिन 64 हजार गाँवों के पास अपने पेयजल के स्रोत थे, वे सूख गए। या फिर औद्योगिकरण की भेंट चढ़ गए। बड़ी नदियों पर जब बाँध बनाए जाते हैं, तब नदी के किनारे रहने वालों के लिए मुश्किल हो जाती है, उन्हें पीने के लिए पानी नहीं मिल पाता। शहरों की नगर पालिकाएँ नदी के किनारे बहने वाले नालों में गटर का पानी डालने लगती है, इससे सैकड़ों गाँवों में पीने के पानी की समस्या उत्पन्न हो जाती है। उद्योग भी नदी के किनारे ही लगाए जाते हैं। इससे निकलने वाला प्रदूषणयुक्त पानी नदी के पानी को और भी प्रदूषित बनाता है। इस पानी को पीने वाले अनेक बीमारियों का शिकार होते हैं। पानी को इस तरह से प्रदूषित करने वाले उद्योगपतियों को आज तक किसी प्रकार की सजा नहीं हुई। नगर पालिकाएँ भी गटर के पानी को बिना शुद्ध किए नदियों में बहा देने के लिए आखिर क्यों छूट मिली हुई है। इस दिशा में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड खामोश है।
देश को जब आजादी मिली, तब देश की जल वितरण व्यवस्था पूरी तरह से प्रजा के हाथ में थी। हरेक गाँव की ग्राम पंचायत तालाबों एवं कुओं की देखभाल करती थी, ग्रामीण नदियों को प्रकृति का वरदान समझते थे, इसलिए उसे गंदा करने की सोचते भी नहीं थे। आजादी क्या मिली, सभी नदियों पर बाँध बनाने का काम शुरू हो गया। लोगों ने इसे विकास की दिशा में कदम माना, पर यह कदम अनियमितताओं के चलते तानाशाहीपूर्ण रवैए में बदल गया। नदियाँ प्रदूषित होती गई। अब इन नदियों को प्रदूषणमुक्त करने की योजना बनाई जा रही है। इसकी जवाबदारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दी जा रही है। देश की प्रजा का अरबों रुपए अब इन कंपनियों के पास चला जाएगा। कुछ सपन्न देशों में नदियों की देखभाल निजी कंपनियाँ कर रही हैं। विश्व की दस बड़ी कंपनियों में से चार कंपनियाँ तो पानी का ही व्यापार कर रही हैं। इन कंपनियों में जर्मनी की आरडब्ल्यूई, फ्रांस की विवाल्डो और स्वेज लियोन और अमेरिक की एनरॉन कापरेरेशन का समावेश होता है। एनरॉन तो अब दीवालिया हो चुकी है, पर इसके पहले उसने विभिन्न देशों में पानी का ही धंधा कर करीब 80 अरब डॉलर की कमाई कर चुकी है। माइक्रोसाप्ट कंपनी द्वारा जो वार्षिक बिक्री की जाती है, उससे चार गुना व्यापार एनरॉन कंपनी ही करती थी।
हमारे देश में पानी की तंगी होती है, लोग पानी के लिए तरसते हैं, उसमें भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का स्वार्थ है। देश के दिल्ली और मुबई जैसे महानगरों में जल वितरण व्यवस्था की जिमेदारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देने की पूरी तैयारी हो चुकी है। इन कंपनियों के एजेंट की भूमिका विश्व बैंक निभा रहा है। किसी भी शहर की युनिसिपलिटी अपनी जल योजना के लिए विश्व बैंक के पास कर्ज माँगने जाती है, तो विश्व बैंक की यही शर्त होती है कि इस योजना में जल वितरण व्यवस्था की जवाबदारी निजी कंपनियों को सौंपनी होगी। विश्व बैंक के अनुसार निजी कंपनी का आशय बहुराष्ट्रीय कंपनी ही होता है। इन्हीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के इशारे पर ही हमारे देश की जल नीति तैयार की जाती है। इस नीति के तहत धीरे-धीरे सिंचाई के लिए तमाम बाँधों और नदियों को भी इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंप दिया जाएगा। यह भी एक तरह की गुलामी ही होगी, क्योंकि एक बार यदि सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनी को पेयजल वितरण व्यवस्था की जिमेदारी दे दी गई, तो फिर पानी की गुणवत्ता और आपूर्ति की नियमितता पर सरकार को कोई अंकुश नहीं रहता। पानी का व्यापार करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों को अरबों रुपए की रिश्वत देकर यह ठेका प्राप्त करती हैं। पानी का व्यापार करने वाली इन कंपनियों पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लग चुके हैं। महानगरों की जल वितरण व्यवस्था को भी इन कंपनियों ने भ्रष्टाचार के सहारे ही अपने हाथ में लिया है।
महाराष्ट्र सरकार ने 2003 में एक आदेश के तहत अपनी नई जल नीति की घोषणा की थी। इस नीति के अनुसार सभी जल परियोजनाएँ निजी कंपनियों को देने का निर्णय लिया गया है। विधानसभा में इस विधेयक को पारित भी कर दिया गया। इस विधेयक के अनुसार महाराष्ट्र स्टेट वॉटर रेग्युलेटरी अथारिटी की रचना की गई, इसका कार्य नदियों के बेचे जाने वाले पानी का भाव तय करना है। इस तरह से पिछले 5 वर्षो से सरकार राज्य की नदियाँ बेचने के मामले में कानूनी रूप से कार्यवाही कर रही है। देर से ही सही, प्रजा को सरकार की इस चालाकी की जानकारी हो गई है। फिर भी वह लाचार है। यह तो तय है कि महाराष्ट्र की नदियों का निजीकरण करने की योजनाओं के पीछे विश्व बैंक और पानी का अरबों डॉलर का व्यापार करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ही हाथ है। विश्व बैंक ने 5 साल पहले महाराष्ट्र सरकार को पानी के क्षेत्र में सुधार के लिए 32.5 करोड़ डॉलर का कर्ज दिया था। कर्ज के साथ यह शर्त भी जुड़ी थी कि महाराष्ट्र सरकार अपनी अपनी नदियों और जल परियोजनाओं का निजीकरण और व्यापारीकरण करेगी। इस शर्त के बंधन में बँधकर सरकार ने नई जल नीति तैयार की। इस नीति के तहत पुणो और मुम्बई में जल वितरण योजनाएँ विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंपने की तैयारी है। दूसरी ओर नदियों को बेचने की योजनाएँ शुरू हो गई हैं। जल योजना के तहत अभी इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने गंगा और जमुना जैसी पवित्र नदियों पर अपना कब्जा जमा लिया है। हमारी सरकार निजीकरण के लालच में बदहवाश हो गई है। अब जल वितरण व्यवस्था के तहत ये कंपनियाँ अधिक कमाई चक्कर में पानी की कीमत इतना अधिक बढ़ा देंगी कि गरीबों की जीना ही मुश्किल हो जाएगा। वह फिर गंदा पानी पीने लगेगा और बीमारी से मरेगा। क्योंकि ये कंपनियाँ नागरिकों को शुद्ध पानी देने की कोई गारंटी नहीं देती।
    डॉ. महेश परिमल