रविवार, 29 अप्रैल 2012

फिर निकला बोतल ने बोफोर्स का जिन्न

डॉ. महेश परिमल
बोफोर्स कांड हमारे देश के लिए एक बदनुमा दाग है। लेकिन इस दाग को धोने की कभी कोई ईमानदाराना कोशिश नहीं हुई। देखा जाए,तो बोफोर्स से बड़ा कांड तो उसे दबाने का है। राजीव गांधी सरकार की पूरी कोशिश रही कि इसमें धन किसने लिया है, उसका नाम कभी सामने न आने पाए। पूरी कवायद इस मामले को दबाने की ही रही है। इसीलिए यह मामला इतना संगीन था, पर इस देश की कई पीढ़ियाँ भी बोफोर्स के सही अपराधी का नाम नहीं जान पाएँगी। यह भारतीय राजनीति का ऐसा दु:स्वप्न है, जिसे दोबारा देखना किसी हादसे से कम नहीं होगा। राजनेताओं की ढिलाई किस हद तक हो सकती है, यह इस मामले से जाना जा सकता है। सत्ता के दलाल अपना खेल खेल जाते हैं और प्रजातंत्र सिसकता रहता है।
बोफोर्स कांड पहली बार 15 अप्रैल सन् 1987 में सामने आया था। मानो इस घटना की सिल्वर जुबली हुई हो, इस तरह से यह मामला एक बार फिर भारतीय राजनीति के परिद़श्य में छा गया है। इस बार इसका खुलासा स्वीडन के भूतपूर्व पुलिस प्रमुख स्टेन लिंडस्टार्म के एक साक्षात्कार से हुआ है। अपने साक्षात्कार में लिंडस्टार्म ने बताया है कि इटैलियन व्यापारी ओक्टोवियो क्वात्रोची की भूमिका पर पूरी तरह से परदा डालने के लिए उन पर भारत के बड़े नेताओं का दबाव था। उन्होंने दूसरी चौंकाने वाली बात यह कही कि इस मामले में राजीव गांधी के मित्र अमिताभ बच्चन के खिलाफ किसी भी तरह का सबूत न होने के बाद भी उन्हें फँसाने के लिए भी दबाव था। इस रहस्योद्घाटन से अमिताभ बच्चन को काफी राहत हुई है। उनके अनुसार दु:ख इस बात का है कि ऐसा उनके माता-पिता के रहते नहीं हो पाया। उन्हें निर्दोष साबित होने में 25 वर्ष लग गए। यहाँ सवाल यह उठता है कि अमिताभ को फँसाने और ओक्टोवियो क्वात्रोची को बचाने के लिए आखिर किस नेता ने दबाव बनाया था। इसका खुलासा क्यों नहीं हो पा रहा है? बोफोर्स कांड तो केवल 64 करोड़ रुपए का था, 2 जी स्पेक्ट्रम 1.75 लाख करोड़ के आगे यह राशि तो कुछ भी नहीं है। बोफोर्स कांड पिछले 25 वर्षो से देश की राजनीति में बार-बार सामने आता रहा है और हर बार गांधी परिवार को शर्मसार होना पड़ा है। इस कांड का मुख्य आरोपी कौन है, क्या भारतीय जनता कभी उसका नाम जान पाएगी? यह प्रश्न पिछले 25 सालों से देश को मथ रहा है।
मामले को दबाने की पूरी कोशिश हुई
15 अप्रैल 1987 को बोफोर्स कांड का धमाका स्वीडन रेडियो पर हुआ था। इस सौदे में 64 करोड़ रुपए की रिश्वत दी गई थी। तब राजीव गांधी सरकार हिल गई थी। इस रिश्वत को देने के लिए भारतीय राजनेताओं और दलालों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने के लिए इटली के व्यापारी ओक्टोवियो क्वात्रोची का उपयोग किया गया था। क्वात्रोची गांधी परिवार का काफी करीबी था। इस कांड में शंका की सूई सदैव राजीव गांधी पर ही जाकर टिकती थी। इसीलिए इसकी लीपापोती करने के लिए एक बड़ा ऑपरेशन किया गया। ऐसा ऑपरेशन भारतीय राजनीति में इसके पहले कभी नहीं देखा गया था। यह ऑपरेशन बोफोर्स से भी बड़ा कांड था। इसमें सीबीआई और आईबी का खूब इस्तेमाल भी किया गया। जब यह कांड बाहर आया, तब सीबीआई जैसी भारत की मुख्य जाँच एजेंसी को इस मामले की तह पर जाने के लिए कहा गया। सीबीआई के अधिकारी जाँच के बहाने यूरोप के अनेक देश घूम आए। उनका इरादा साफ था कि इसके सबूत को खोजने के बजाए उसे नष्ट कर दिया जाए। किसी भी रूप में यह मामला सामने न आए, इसकी पूरी कोशिश हुई। इसके लिए जो मशक्कत की गई, उसकी पटकथा राजीव गांधी ने लिखी थी। इसीलिए शक की सूई बार-बार राजीव गांधी पर आकर अटक जाती थी। इस कांड के चलते राजीव गांधी को सत्ता से दूर होना पड़ा था। उनके बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने थे। राजीव गांधी ने जिस तरह से बोफोर्स कांड पर परदा डालने के लिए जाँच एजेंसियों का गलत इस्तेमाल किया था, छीक उसी तरह वी.पी. सिंह सरकार ने इस मामले में राजीव गांधी की भूमिका को पर्दाफाश करने के लिए इन संस्थाओं क दुरुपयोग किया। वी.पी. सिंह के सचिव भूरे लाल के अनुसार स्व. राजीव गांधी के आर्थिक व्यवहार की जाँच के लिए यूरोप की एक निजी जाँच एजेंसी की सेवाएँ ली गई थी। इस एजेंसी ने जो कुछ भी जानकारी हासिल की, उसे कुछ पत्रकारों को देकर राजीव गांधी की छवि को धूमिल करने पूरी कोशिश की गई। उस समय राजीवन गांधी विपक्ष के नेता थे। वी.पी. सिंह के तमाम प्रयासों केबाद भी बोफोर्स कांड का सत्य बाहर नहीं आ पाया।
स्टेन ने ही दिए थे चित्रा को कागजात
बोफोर्स के बारे में जो कुछ हम जानते हैं, उसमें हिंदू अखबार की पत्रकार चित्रा सुब्रमण्यम की महत्वपूर्ण भूमिका है। 1987 में जब यह कांड बाहर आया, तब वे जिनेवा में पदस्थ थीं। उस समय स्वीडन के पुलिस प्रमुख स्टेन लिंडस्टार्म थे। उन्हीं ने चित्रा को बोफोर्स के गुप्त कागजात सौंपे थे। भारत में जब इस कांड ने तहलका मचाया, तब प्रजा के विरोध के चलते जाँच के लिए संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया गया। इसकी रिपोर्ट दो वर्ष बाद आई। आश्चर्य की बात यह है कि 1987 के अगस्त में यह मामला बाहर आया, लेकिन सीबीआई ने 1989 तक इसकी एफआरआई नहीं लिखी थी। मतलब यही कि जब तक राजीव गांधी प्रधानमंत्री रहे, तब तक इसी एफआरआई ही नहीं लिखी गई। 1989 में जब लोकसभा के चुनाव हुए, तब कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला, तब वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने। उसके बाद जनवरी 1990 में इस मामले की एफआईआर सीबीआई ने लिखी। 1991 की मई में राजीव गांधी की हत्या हो गई। लोकसभा चुनाव हुए और नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने, तब बोफोर्स मामले की जाँच सीबीआई ने ढीली कर दी। आश्चर्य की बात यह है कि उस समय ओक्टोवियो क्वात्रोची भारत में ही था। वह तो जुलाई 1993 में भारत से चला गया। सीबीआई की वर्षो की मेहनत से यह सामने आया कि स्वीस सरकार ने 1997 में अपने बैंक के गुप्त खातों की जानकारी दी। जिसमें बोफोर्स कांड की रिश्वत जमा होने की जानकारी दी गई। स
क्वात्रोची निर्दोष साबित
ीबीआई ने 1997 के अंत में बोफोर्स मामले में जो चार्ज शीट फाइल की, उसमें स्व. राजीव गांधी के अलावा ओक्टोवियो क्वात्रोची, बोफोर्स कंपनी के भूतपूर्व प्रमुख मार्टिन आर्डबो, बोफोर्स के भारत के एजेंट विन चड्ढा, तत्कालीन रक्षा सचिव एस. के. भटनागर आदि का नाम थ। जब यह आरोप पत्र फाइल किए गए, तब क्वात्रोची मलेशिया में था। उसकी धरपकड़ के लिए सन् 2000 में भारत सरकार द्वारा मलेशिया सरकार को पत्र भी लिखा गया था। इस समय सत्ता पर एनडीए सरकार थी। तब प्रधानमंत्री थे अटल बिहारी वाजपेयी। किन्हीं कारणवश सरकार ने बोफोर्स कांड की जाँच को धीमा करने का आदेश दिया गया। इसका लाभ क्वात्रोची ने भरपूर उठाया। मलेशिया सरकार ने उसे जमानत पर रिहा कर दिया। 2001 में विन चड्ढा और भटनागर का निधन हो गया। 2004 में दिल्ली हाईकोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि बोफोर्स कांड में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की भूमिका के कोई सबूत नहीं मिले हैं। इस मामले का आरोपी ओक्टोवियो क्वात्रोची ही था। इस पर सीबीआई के अनुरोध के चलते ओक्टोवियो क्वात्रोची की गिरफ्तारी के लिए इंटरपोल ने रेड कार्नर नोटिस जारी किया था। इस नोटिस के अनुसार अर्जेटिना की पुलिस ने 2007 में क्वात्रोची की धरपकड़ की थी, उस समय उसे भारत लाकर उस पर मुकदमा चलाया जा सकता था, पर ऐसा नहीं हो पाया। पर भारत सरकार ने अर्जेटीना सरकार को आवश्यक कागजात नहीं दिए, इसलिए क्वात्रोची एक बार फिर छूट गया। मार्च 2011 में सीबीआई ने क्वात्रोची को सारे आरोपों से मुक्त कर निर्दोष साबित कर दिया। आज की तारीख में भारत में क्वात्रोची के खिलाफ कोई मामला नहीं है। अब वह इज्जत के साथ भारत आ सकता है। इस मामले में अब तक के परिश्रम से यही बाहर आया है कि स्वीडिश कंपनी द्वारा 64 करोड़ रुपए की रिश्वत दी गई थी। पर यह रिश्वत किसे मिली, यह किसी को नहीं पता। स्वीडन के पुलिस प्रमुख के रहस्योद्घाटन से यही पता चलता है कि यह रिश्वत जिसे दी गई, उसकी पहचान छिपाने के लिए राजीव गांधी ने खूब मेहनत की थी। उसकी पहचान छिपाने के पीछे उनका इरादा क्या था, इसकी जानकारी शायद हमें कभी नहीं मिल पाएगी।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 23 अप्रैल 2012

दिल तोड़ने वाले तुझे दिल ढूंढ रहा है 

प्रेम कुमार

 तजरुमा कि मोहब्बतों का हूँ राजदान.मुझे फख्र है मेरी शायरी मेरी ¨जदगी से जुदा नहीं। ये पंक्तियां हैं फिल्म जगत के मशहूर शायर और गीतकार शकील बदायूंनी की, जिन्होने इनमें अपनी शायरी से ¨जदगी की हकीकत को बयान किया है। जिन दिनों शायर दबे कुचले वगरे और समाज की कुरीतियों पर अपनी कलम चला रहे थे, उन दिनों शकील बदायूनी ने स्वंय को इस परंपरा से अलग रखकर ऐसे गीतों की रचना की जो ज्यादा रोमांटिक नहीं होते हुए भी दिल की गहराइयों को छू जाते थे । तहजीब के शहर लखनउ ने फिल्म जगत को कई हस्तियां दी है जिनमे से एक गीतकार शकील बदायूंनी भी है । उत्तर प्रदेश के बदांयू कस्बे में तीन अगस्त १९१६ को जन्में शकील अहमद उर्फ शकील बदायूंनी का लालन पालन और शिक्षा नवाबों के शहर लखनऊ में हुई। नके पूर्वजों मे खलीफा मोहम्मद वासिल के अलावा किसी को भी शेरो शायरी के प्रति कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। शकील बदायूंनी के पिता चाहते थे कि वह पढ़ लिखकर अच्छा कैरियर बनाए । इस लिए उन्होंने शकील के लिए घर पर ही उर्दू .फारसी.हिन्दी और अरबी पढ़ाने के लिए आवश्यक व्यवस्था कर दी थी लेकिन शायरी और मुशायरे के शहर लखनउ ने उन्हें एक शायर ही बना दिया और वो शकीलअहमद से शकील बदायूंनी हो गए1 दूर के एक रिश्तेदार और उस जमाने के मशहूर शायर जिया उल कादिरी से शकील बदायूनी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उनकी शागिर्दी कबूल कर ली और फिर उन्हीं की शागिर्दी मे शायरी के गुर सीखे।वर्ष १९३६ मे शकील ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवíसटी में दाखिला लिया। उसके बाद उन्होनें इंटर कॉलेज और यूनिवíसटी में आयोजित मुशायरे के कार्यक्रमो मे भाग लेना शुरू किया और कई बार पुरस्कार भी प्राप्त किए। वर्ष १९४क् मे उनका निकाह दूर की एक रिश्तेदार सलमा से हो गया। बी.ए पास करने के बाद वर्ष १९४२ मे वह दिल्ली पहुंचे जहां उन्होंने आपूíत विभाग मे आपूíत अधिकारी के रूप मे अपनी पहली नौकरी की । इस बीच वह मुशायरों मे भी हिस्सा लेते रहे जिससे उन्हें पूरे देश भर मे शोहरत हासिल हुई। अपनी शायरी की बेपनाह कामयाबी से उत्साहित शकील बदायूनी ने नौकरी छोड़ दी और वर्ष १९४६ मे दिल्ली से मुंबई आ गए । इस बीच उनकी मुलाकात उस समय के मशहूर निर्माता ए.आर.कारदार उर्फ कारदार साहब और संगीतकार नौशाद से हुयी। यहां उनके कहने पर उन्होनें घ्हम दिल का अफसाना दुनिया को सुना देंगे .हर दिल मे मोहब्बत की आग लगा देंगे गीत लिखा। यह गीत नौशाद साहब को काफी पसंद आया जिसके बाद उन्हें तुंरत ही कारदार साहब की दर्द के लिए साइन कर लिया गया। शकील बदायूंनी को अपने गीतों के लिए तीन बार फिल्म फे यर अवार्ड से नवाजा गया। उन्हें अपना पहला फिल्म फेयर अवार्ड वर्ष १९६क् मे प्रदíशत फिल्म चौदहवी का चांद फिल्म के चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो गाने के लिए दिया गया। इसके अलावे वर्ष १९६१ में प्रदíशत फिल्म घराना के गाने हुस्न वाले तेरा जवाब नही और वर्ष १९६२ में फिल्म बीस साल बाद मे कहीं दीप जले कहीं दिल गाने के लिए भी उन्हें फिल्म फेयर अवार्ड से सम्मानित किया गया। शकील बदायूनी ने कई गायकों के लिए भी गजलें लिखी है जिनमे पंकज उदास प्रमुख है । लगभग ५४ वर्ष की उम्र में २क् अप्रैल १९७क् को उन्होंने आखिरी सांस ली । श्री बदायूंनी के निधन के बाद उनके मित्नो नौशाद .अहमद जकारिया और रंगून वाला ने उनकी याद में एक ट्रस्ट यादे शकील की स्थापना की ताकि उससे मिलने वाली रकम से उनके परिवार का खर्च चल सके। शकील बदायूंनी ने करीब तीन दशक के फिल्मी जीवन में लगभग ९क् फिल्मों के लिए गीत लिखे । उनके गीतों में से कुछ हैं अफसाना लिख रही हूॅ .दर्द.गाए जा गीत मिलन के .मेला. तू मेरा चांद मै तेरी चांदनी. दिल्लगी .सुहानी रात ढल चुकी. दुलारी.ना तू जमीं के लिए है .दास्तान. हुए हम जिनके लिए बरबाद .दीदार. वो दुनिया के रखवाले .मन तड़पत हरि दर्शन को .बैजू बावरा. ओ दूर के मुसाफिर हमको भी साथ ले ले .उड़नखटोला. दुनिया में हम आएं है तो जीना ही पड़ेगा.मदर इंडिया.दो सितारो का जमीं पे है मिलन आज की .कोहीनूर. जब घ्यार किया तो डरना क्या .मुगले आजम.नैन लड़ जइहें तो मन वा मे कसक होइबे करी .गंगा जमुना.दिल तोड़ने वाले तुझे दिल ढूंढ रहा है.सन ऑफ इंडिया .मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की कसम .मेरे महबूब.तेरे हुस्न की क्या तारीफ करू.लीडर.चौंदहवी का चांद हो या आफताब हो.चौदहवी का चांद .ना जाओ सइया छुड़ा के ब¨हया .साहब बीबी और गुलाम आदि।
प्रेम कुमार

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

हर किरदार को जीवंत किया बलराज साहनी ने


प्रेम कुमार 

 ¨हिंदी फिल्म जगत में बलराज साहनी उन चंद गिने-चुने अभिनेताओं में शुमार किए जाते हैं जिन्होंने अपने संजीदा और भावात्मक अभिनय से दर्शकों के दिलों पर अमिट छाप छोडी है। रावल¨पडी अब पाकिस्तान में एक मध्यम वर्गीय व्यवसायी परिवार में एक मई 1913 को जन्मे बलराज साहनी (मूल नाम युधिष्ठिर साहनी) का झुकाव बचपन से ही पिता के पेशे की ओर न होकर अभिनय की ओर था। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर की शिक्षा लाहौर के मशहूर गवर्नमेंट कॉलेज से पूरी की। पढ़ाई पूरी करने के बाद बलराज साहनी रावल¨पडी लौट गए और पिता के व्यापार में उनका हाथ बंटाने लगे। वर्ष 193क् के अंत में बलराज साहनी और उनकी पत्नी दमयंती रावल¨पडी को छोडकर गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर के शांति निकेतन पहुंचे। जहां बलराज साहनी अंग्रेजी के शिक्षकनियुक्त हुए। वर्ष 1938 में बलराज साहनी ने महात्मा गांधी के साथ भी काम किया। इसके एक वर्ष के पश्चात महात्मा गांधी के सहयोग से बलराज साहनी को बी.बी.सी के हिन्दी के उद्घोषक के रूप में इग्लैंड में नियुक्त किया गया। लगभग पांच वर्ष के इग्लैंड प्रवास के बाद वह 1943 में भारत लौट आए।  इसके बाद बलराज साहनी बचपन का शौक पूरा करने के लिये इंडियन प्रोग्रेसिव थियेटर एसोसिए शन यानी इप्टा में शामिल हो गए। इप्टा में वर्ष 1946 में उन्हें सबसे पहले फणी मजमूदार के नाटक इंसाफ  में अभिनय करने क ा मौका मिला। इसके साथ ही ख्वाजा अहमद अब्बास के निर्देशन में इप्टा की ही निíमत फिल्म धरती के लाल में भी बलराज साहनी को बतौर अभिनेता काम करने का मौका मिला। इप्टा से जुड़े रहने के कारण बलराज साहनी को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उन्हें अपने क्रांतिकारी और कम्युनिस्ट विचारों के कारण जेल भी जाना पडा। उन दिनों वह फिल्म हलचल की शू¨टग में व्यस्त थे और निर्माता के आग्रह पर विशेष व्यवस्था के तहत फिल्म की शू¨टग किया करते थे। शू¨टग खत्म होने के बाद वापस जेल चले जाते थे। वर्ष 1953 में बिमल राय के निर्देशन मे बनी फिल्म दो बीघा जमीन बलराज साहनी के कैरियर मे अहम पड़ाव साबित हुई। फिल्म दो बीघा जमीन की कामयाबी के बाद बलराज साहनी शोहरत की बुलंदियों पर जा पहुंचे। इस फिल्म के माध्यम से उन्होंने एक रिक्शावाले के किरदार को जीवंत कर दिया। रिक्शावाले को फिल्मी पर्दे पर साकार करने के लिए बलराज साहनी ने कलकत्ता अब कोलकाता की सड़को    पर 15 दिनों तक खुद रिक्शा चलाया और रिक्शेवालों की ¨जदगी के बारे में उनसे जानकारी हासिल की। फिल्म की शुरुआत के समय निर्देशक बिमल राय सोचते थे कि बलराज साहनी शायद ही फिल्म में रिक्शावाले के किरदार को अच्छी तरह से निभा सकें। वास्तविक ¨जदगी में बलराज साहनी बहुत पढ़े- लिखे इंसान थे। लेकिन उन्होंने बिमल राय की सोच को गलत साबित करते हुए फिल्म में अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया। दो बीघा जमीन को आज भी भारतीय फिल्म इतिहास की सर्वŸोष्ठ कला फिल्मों में शुमार किया जाता है। इस फिल्म को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी काफी सराहा गया तथा कांस फिल्म महोत्सव के दौरान इसे अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। वर्ष1961 में प्रदíशत फिल्म काबुलीवाला में भी बलराज साहनी ने अपने संजीदा अभिनय से दर्शकों को भावविभोर कर दिया1 उनका मानना था कि पर्दे पर किसी किरदार को साकार करने के पहले उस किरदार के बारे मे पूरी तरह से जानकारी हासिल की जानी चाहिए। इसीलिए वे मुंबई. में एक काबुलीवाले के घर मे लगभग एक महीने तक रहे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी बलराज साहनी अभिनय के साथ-साथ लिखने में भी काफी रूचि रखते थे। वर्ष 196क् मे अपने पाकिस्तानी दौरे के बाद उन्होंने मेरा पाकिस्तानी सफरनामा और वर्ष 1969 में तत्कालीन सोवियत संघ के दौरे के बाद मेरा रूसी सफरनामा किताब लिखी। बलराज साहनी ने मेरी फिल्मी आत्मकथा किताब के माध्यम से लोगों को अपने बारे में बताया। सदाबहार अभिनेता देवानंद निíमत फिल्म बाजी की पटकथा भी बलराज साहनी ने लिखी थी। वर्ष 1957 मे प्रदíशत फिल्म लाल बत्ती का निर्देशन भी बलराज साहनी ने किया।
 निर्देशक एम.एस.सथ्यू की वर्ष 1973 मे प्रदíशत गर्म हवा’ बलराज साहनी की मौत से पहले उनकी महान फिल्मो में से सबसे अधिक सफल थी। उत्तर भारत के मुसलमानों के पाकिस्तान पलायन की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में बलराज साहनी केन्द्रीय भूमिका में रहे। इस फिल्म में उन्होंने जूता बनाने बनाने वाले एक बूढे मुस्लिम कारीगर की भूमिका अदा की। उस कारीगर को यह फैसला लेना था कि वह हिन्दुस्तान में रहे अथवा नवनिíमत पाकिस्तान में पलायन कर जाए। अगर दो बीघा जमीन को छोड़ देंतो बलराज साहनी के फिल्मी कैरियर की सबसे बेहतरीन अदाकारी वाली फिल्म गर्म हवा ही थी। अपने संजीदा अभिनय से दर्शकों को भावविभोर करने वाला यह महान कलाकार 13 अप्रैल 1973 को इस दुनिया को अलविदा कह गया। बलराज साहनी के कैरियर की उल्लेखनीय फिल्मों में कुछ अन्य है हम लोगगरम कोटसीमावक्त,  कठपुतलीलाजवंतीसोने की चिड़ियाघर-संसारसट्टा बाजारभाभी की चूडियाँहकीकतदो रास्तेएक फूल दो मालीमेरे हम सफर आदि आदि।

शनिवार, 7 अप्रैल 2012

जीसस के प्रवचनों में निहित अर्थो को समझें


डॉ. महेश परिमल
पुस्तकें भेंट करना एक अच्छी परंपरा है़ इसमें यदि कोई धर्मिक पुस्तक मिल जाए, तो मन श्रद्धा से भर उठता है। एक मित्र ने मुझे पवित्र बाइबल भेंट की। नया नियम और पुराना नियम, ये दोनों ही इसके दो रूप हैं। पूरी बाइबल प़ढी, फिर शुरू हुआ चिंतन। बार-बार एक ही जगह जाकर विचार की तरंगें अटक जातीं, जीसस के ये वाक्य, जो बार-बार बाइबल में आए हैं, जिनके पास आँखें हों, वे मुझे देखें और जिनके पास कान हो, वे मुझे सुनें़ इन्हीं वाक्यों ने विवश कर दिया कुछ सोचने को़ आँखें और कान तो हम सभी के पास हैं, उनका बार-बार यह दोहराना, क्या ऐसा नहीं लगता कि वे अंधे और बहरों के बीच बोल रहे थे ?
समझ की सोच ने यहीं से विचार यात्रा प्रारंभ की। नहीं, वे अंधे-बहरों के समूह में नहीं बोल रहे थे, पर उस समय अंधे और बहरों का समूह अधिक था, जिनकी आँखें थीं और कान भी थे। जीसस को देखना सचमुच मुश्किल है, ठीक उसी तरह, जैसे विशाल पेड़ के बीज को देखना। पेड़ तो हमें दिखाई देता है, पर बीज नहीं। जीसस का शरीर उस समय सभी को दिखाई देता था, लेकिन उनकी जो आत्मा थी, वह केवल उन्हीं को दिखाई देती थी, जो परमशांत, परमशून्य और परमध्यान में लीन होकर देखते थे। ये सभी जीसस की आत्मा से साक्षात्कार करते थे, इनके लिए जीसस के साक्षात रूप से कोई वास्ता न था, क्योंकि उन्हें जो दिखाई दे रहा था, वह था जीसस का तेजस रूप, उनका प्रज्ञा रूप, उनका ज्योतिर्मय अलौकिक रूप, इसीलिए जीसस पर दोहरे मत हैं, एक मत है अंधों का, जिन्होंने जीसस को सूली पर चढ़ाया, इन अंधों का मानना था कि यह तो साधारण मानव है और दावा करता है कि वह ईश्वर का पुत्र है। वैसे इन अंधों का विचार गलत नहीं था, जो उन्हें दिखलाई पड़ रहा था, वहाँ तक उनकी बात बिल्कुल सही थी, उन्हें पता था कि यह तो बढ़ई जोसेफ का बेटा है, मरियम का बेटा है, यह ईश्वर का पुत्र कैसे हो सकता है ? लेकिन जीसस जिसकी बात कर रहे थे, वह ईश्वर का पुत्र ही है। वह कोई जीसस में ही खत्म नहीं हो जाता है, आपके-हमारे भीतर जो आत्मा के रूप में है, वह ईश्वर का पुत्र है, अतएव हम सभी जो निष्पाप आत्मा के स्वामी हैं, ईश्वर के पुत्र हैं।
जिन्होंने जीसस की आत्मा से साक्षात्कार किया, वे सभी अनपढ़ और गँवार लोग थे, उनकी आत्मा को पंडितों-ज्ञानियों ने नहीं देखा, देखने वाले थे, निम्न तबके के लोग, जैसे जुलाहे, मछुआरे, ग्रामीण किसान, भोलेभाले लोग। इनका वास्ता कभी शाों और शब्दों से नहीं प़डा, इन्होंने जीसस पर विश्वास किया, इन्हें उनके आत्मिक रूप के दर्शन हुए, जो विद्वान थे, ज्ञानी थे, धर्म के ज्ञाता थे, शाों के पंडित थे, उन्हें जीसस एक साधारण इंसान लगे, क्योंकि उनकी बुद्धि में ज्ञान की कई परतें थीं, जिससे उनके देखने की क्षमता कम हो गई, इसलिए जीसस की आत्मा को वे लोग नहीं देख पाए।
ज्ञानी जो कुछ भी स्वीकार करता है, तर्क से स्वीकार करता है, अनपढ़ और गँवार अपने विश्वास के आधार पर स्वीकार करते हैं, जितना गहरा विश्वास, उतनी गहरी आस्था़ इसी गहरी आस्था में छिपा है प्रेम, जो सभी जीवन मूल्यों से ऊपर है, यही हमारा मार्गदर्शक है, हमारा साथी है। लेकिन आज हम भटक रहे हैं, क्योंकि हम ज्ञानी हैं, अनपढ़ गँवार होते, तो कोई न कोई राह मिल ही जाती। आज यदि हम थोड़े समय के लिए भी अपने ज्ञानी मन को अपने से अलग रख दें, तो संभव है राह दिख जाए़
अब हम सब शुतुरमुर्ग हो गए हैं, विपदाओं से लड़ने के बजाए हम सब उस दिशा की ओर से आँखें ही बंद कर लेते हैं, शुतुरमुर्ग की तरह अपना सर रेत में गाड़ देते हैं, ताकि हम बाधाओं को न देख पाएँ़ तुमने बाधाओं को नहीं देखा तो क्या हुआ, बाधाओं ने तो तुम्हें देख ही लिया ना ? वे तुम्हें नहीं छोड़ेंगी, तुम्हारे पलायनवाद को धिक्कारेंगी, संभव हुआ तो खत्म भी कर देंगी। जीसस के माध्यम से यही कहना है कि हमने खुद को नहीं समझा, न ही दूसरों को समझने की कोशिश की़ एक वायवीय संसार बना लिया अपने आसपास और जीने लगे कूप-मंडूक की तरह।
हर कोई कह रहा है मेरा धर्म महान् है, इससे बड़ा कोई धर्म नहीं़ कैसे तय कर लिया आपने यह सब! क्या आपने दूसरे धर्मो के ग्रंथ पढ़े ? क्या उनके पंडितों से चर्चा की ? उत्तर नकारात्मक है, फिर यह मुगालता क्यों ? क्या अभी तक नहीं समझा आपने कि इंसानियत का धर्म सबसे ऊपर है ? इससे ऊपर कोई धर्म नहीं़ पीड़ा से छटपटाते व्यक्ति के करीब बैठकर पूजा करना, प्रार्थना करना धर्म नहीं है, धर्म है उस व्यक्ति को पीड़ा से राहत दिलाना, इंसानियत का धर्म, मानवता का धर्म। संकट में पड़े किसी अपने को बिलखता छोड़कर कितनी भी धार्मिक यात्राएँ कर लें, हमें पुण्य नहीं मिलेगा। धर्म की आत्मा सेवा में छिपी है, नि:स्वार्थ सेवा ही वह सीढ़ी है, जो हमें हमारे आराध्य तक पहुँचाती है।
आज जब पूरे विश्व में मानवता रो रही है, जीवन मूल्यों का लगातार पतन हो रहा है, ऐसे में लगता है कि क्या ईमानदारी से जीने वालों के लिए इस दुनिया में कोई जगह नहीं है, तब लगता है कि आज भी पूरा विश्व ईमानदारों के कारण ही बचा हुआ है़ तब हम क्यों छो़डें अपनी ईमानदारी़ ऐसे में यदि हम ईमानदारी से ही जीने का संकल्प ले लें, तो शायद पूरे विश्व का चेहरा बदलने में समय नहीं लगेगा़ तो आओ संकल्प लें, अपने इंसानियत के धर्म को महान् बनाएँ़ त्याग, नि:स्वार्थ सेवा और सत्कर्मो से स्वयं को बेहतर और बेहतर बनाएँ, ईश्वर हमें आत्मसात् कर ही लेगा।
    डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

सवाल एक राष्ट्रपिता के होने का

मनोज कुमार

जब हम छोटे थे तो हमारे सवाल भी छोटे छोटे होते थे। हमारी जिज्ञासा यह जानने की होती थी कि हमें आजादी कैसे मिली। हम यह जानना चाहते थे कि चेरापूंजी में इतनी बारिश क्यों होती है। हमारा सवाल यह भी होता था कि दंगे क्यों होते हैं। समय बदल गया है। ये सारे सवाल साठ और सत्तर के दशक के बच्चे पूछते थे। २०१२ के बच्चे फेसबुक और इंटरनेट के ज्ञानी बच्चे हैं। उन्हें सबकुछ पता है। वे हमारी तरह अज्ञानी नहीं हैं। जो कुछ अज्ञान बचा होता है उसे वे वर्जनाओं को तोड़ते विज्ञापनों से सीख लेते हैं। इसी ज्ञान का सबूत दिया है ग्यारह बरस की स्कूली छात्रा ऐश्वर्या ने। ऐश्वर्या ने आरटीआई के तहत पूछा है कि महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का दर्जा किसने किस कानून के तहत दिया। उसने इस बाबत फोटोप्रति की मांग भी की है। उम्र और शिक्षा के लिहाज से ऐश्वर्या को मासूम कहा जा सकता है किन्तु पूछे गये सवाल उसकी मासूमियत को छीन लेता है। हम यह मान सकते हैं कि स्कूल में पढ़ने वाली ऐश्वर्या का सवाल नहीं हो सकता है किन्तु यह मानने का भी कोई कारण नजर नहीं आता है। इंटरनेट, मोबाइल, फेसबुक और टेलीविजन के न्यूज चैनलों के जरिये शिक्षित होती पीढ़ी की प्रतिनिधि नजर आती है ऐश्वर्या। उसे इस बात की जिज्ञासा भले ही ज्यादा न हो कि महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का दर्जा किसने दिया लेकिन इस सवाल के जरिये वह पापुलर हो जाने की तमन्ना उसके मन में हो। यदि यह सवाल उसने अपनी बुद्धि से किया है तो । ऐश्वर्या से मेरा भी एक सवाल है कि वह एक अनजान व्यक्ति को अंकल या आंटी क्यों कहती है? किस कानून के तहत एक अनजान से यह रिश्ता बनाने का अधिकार उसे मिला है? 

फिलहाल ऐश्वर्या के इस सवाल का जवाब हमारे सरकारी महकमे के पास नहीं है। आदतन एक विभाग दूसरे विभाग को यह सवाल टरका रहा है कि यह उसके विभाग का मामला नहीं है। सवाल को टरकाने के बजाय क्या इसे कानूनी मामला मानने के बजाय नैतिक महत्व का मान कर जवाब नहीं दिया जा सकता है। सरकार भले ही ऐश्वर्या को जवाब न दे पाये, मैं कोशिश करता हूं कि ऐश्वर्या को जवाब दे सकूं। मेरी राय में महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का दर्जा दिये जाने का मामला कोई संवैधानिक प्रक्रिया का मामला नहीं है। राष्ट्रपिता की पदवी समूची दुनिया में अब तक किसी को मिली है तो वह महात्मा गांधी को। पूरा संसार उन्हें राष्ट्रपिता कहकर गौरवांवित महसूस करता है। उन्होंने जो सत्य और अहिंसा का रास्ता दिखाया, आज भी वे सामयिक हैं। अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिये उन्होंने जो रास्ता बनाया, अंग्रेज भी उनके कदाचित कायल हैं। उनका त्याग और उनकी प्रगतिशील सोच ने किसी एक का नहीं बल्कि समूचे भारत वर्ष का पिता बना दिया। पिता का अर्थ उस अनुवांशिक प्रक्रिया से नहीं है बल्कि उस भावना से है जिसे हम परम्परा कहते हैं। भारतीय परम्परा और संस्कृति में रिश्ते गढ़ने की पुरातन परम्परा है। यह बात ऐश्वर्या को पता होना चाहिए। 

ऐश्वर्या नाम की इस स्कूली छात्रा के दिमाग में यह सवाल आया है तो यह भविष्य के लिये घातक है। हमें इस बात के लिये सर्तक होना पड़ेगा कि बच्चों को स्कूलों, घर में जिस तरह की शिक्षा की दी जा रही है, वह उनके भविष्य को चौपट न कर दे। स्वाधीनता संग्राम के बारे में बच्चों को ठीक से पढ़ाया जाए तो बच्चों का मानस यह मानने के लिये तैयार होगा कि जिस स्वाधीन भारत में हम रह रहे हैं, वह महात्मा गांधी जैसों के कारण है। घर में, परिवार में भी बच्चों को अपने जननायकों के बारे में बताया जाना चाहिए ताकि आज महात्मा गांधी पर सवाल उठाया जा रहा है तो कल सुभाषचंद्र बोस, वल्लभभाई पटेल और इन जैसे अनगिनत जननायकों पर सवाल उठाये जाते रहेंगे। यह हमारा दुर्भाग्य है कि जिस महात्मा गांधी के नाम का स्मरण करते ही हमारा रोम रोम रोमांचित हो जाता है, आज उन्हें राष्ट्रपिता का दर्जा किस कानून के तहत दिया गया, यह पूछा जा रहा है। इस बात की भी तहकीकात होना चाहिए कि सूचना के अधिकार कानून के तहत क्या एक स्कूली बच्ची सवाल कर सकती है? यदि नहीं तो ऐश्वर्या की आड़ में ऐसा किसने किया? सूचना के अधिकार के तहत सूचना जनहित में है तो पूछने की उम्र का बंधन होना चाहिए। सूचना का अधिकार जनहित का कानून है और ऐसे गैरमकसद के सवाल पूछ कर न केवल शासकीय समय व धन का दुरूपयोग किया जा रहा है बल्कि देश की प्रतिष्ठा पर भी आंच आ रही है।      
मनोज कुमार

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

आईपीएल के लिए लोगों का पिघलता उत्साह


डॉ. महेश परिमल
चार अप्रैल से आईपीएल का कुंभ शुरू हो गया है। अब तक चार आईपीएल हो चुके हैं। इन चारों में दर्शकों की भागीदारी बेहतर रही। पर इस बार पांचवें आईपीएल में दर्शक काफी निराश हैं। उनका उत्साह अब पिघलता दिखाई दे रहा है। इस बार आईपीएल की ब्रांड वेल्यू में भी कमी आई है। मीडिया पर छाने वाले विज्ञापनों की आवक भी कम हुई है। इन बातों को देखते-समझते हुए यही कहा जा सकता है कि इस बार दर्शकों में आईपीएल को लेकर कोई विशेष उत्साह नजर नहीं आ रहा है। कहा जाता है कि किसी भी चीज की अति हमेशा बुरी होती है। चार वर्ष पहले आईपीएल को लेकर दर्शकों की तरफ से काफी रिस्पांस मिला था। आईपीएल शुरू होने के पहले ही अखबार और टीवी इसके विज्ञापनों से लद जाते थे। मैच के दौरान तो सिनेमा घरों में सन्नाटा छा जाता था। आईपीएल के चलते नई फिल्में भी रिलीज नहीं होती थीं। पहले आईपीएल समारोह में अक्षय कुमार, ऋतिक रोशन और केटरीना कैफ की उपस्थिति से लोगों को खूब मनोरंजन हुआ था। इस बार ऐसा कुछ भी दिखार्ठ नहीं दे रहा है। बालीवुड को भी आईपीएल का भय नहीं है, इसीलिए एजेंट विनोद और हाऊसफुल 2 भी प्रदर्शित हो गई। इसके बाद 6 अपै्रल को टाइटेनिक का थ्री डी संस्करण रिलीज हो रहा है, संभव है उस दिन मैदान खाली रहें और सिनेमाघरों में भी़ उमड़ पड़े।  टीवी पर विज्ञापन देने वाली कंपनियों में भी उत्साह दिखाई नहीं दे रहा है। सुपरस्टॉर अमिताभ बच्चन को बुलाकर यदि अपना उद्धार कर लेती है, तो उसका भला हो सकता है, पर इसकी उम्मीद कम ही है। बच्चन जी इसके पहले श्मिस वर्ल्ड्य के कर्ताधर्ता रह चुके हैं। वह स्पर्धा भी कामयाब नहीं हो पाई थी।
आईपीएल दर्शकों के उत्साह में कमी आने का सबूत है टीआरपी। आईपीएल के तीसरे सीजन में उसकी टीआरपी 5.2 थी, चौथी सीजन में वह घटकर 3.9 पर पहुंच गई। इस बार इसमें और कमी आएगी, यह भी तय है। ईपीएल के प्रसारण का अधिकार प्राप्त करने वाली सेट मेक्स चौनल को विज्ञापनों का स्लॉट बेचने और प्रायोजक खोजने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। कुछ इसी तरह की परेशानी आईपीएल चार के समय भी एसोसिएट स्पॉन्सर और मीडिया स्पॉन्सर को ढूंढने में भी आई थी। आईपीएल ने वह ख्याति प्राप्त नहीं की, जो इंग्लिश प्रीमियर लीग और बिम्बलडन को प्राप्त है। संभवतरू इसके पीछे आईपीएल का नाम घोटालों से जुड़ जाना हो सकता है। आखिर आईपीएल की एक बड़ी हस्ती ललित मोदी को कौन नहीं जानता, जिसके कारण इसकी काफी फजीहत हुई थी। आईपीएल के लिए विज्ञापन देने वाली कंपनियां भी निरुत्साहित हैं। गोदरेज जैसी कंपनी ने भी इसके लिए इस बार अपने विज्ञापन देने से इंकार कर दिया। उसे लग रहा है कि इस स्पर्धा की कीमत आवश्यकता से अधिक आँकी गई है। अब तक इसके लिए सबसे अधिक विज्ञापन देने वाली कंपनी एलजी ने भी इस बार आईपीएल से खुद को दूर रखा है। उसे भी यही लगता है कि आईपीएल में दिए जाने वाले विज्ञापनों के लिए जितना खर्च किया जाता है, उसका रिस्पांस उतना नहीं मिल पाता है। अब तक हर बार इसमें विज्ञापन की दर बढ़ती रहती थी, पर इस बार दर बढ़ाने की हिम्मत कोई नहीं कर पा रहा है। पिछले साल दस सेकंड के स्लाट के लिए 3.3 लाख रुपए वसूले जाते थे, इस बार इसके दर में दस प्रतिशत की कमी होने की संभावना है। हालांकि  सेट मेक्स ने विज्ञापनों की दरों में कमी करने से इंकार किया है, पर परदे के पीछे से बार्गेनिंग जारी है।
इस बार आईपीएल के फ्रेंचाइजीस की भी हालत अच्छी नहीं है। उन्हें भी प्रायोजक के भाव में कमी करने का दबाव है। पिछले वर्ष जिस टीम की टाइटल स्पांसरशिप 16 थी,वह 18 करोड़ में बिकी थी। वह इस बार 8 करोड़ में बिकने के लिए तैयार है। टीम की जर्सी पर सीने वाले भाग में जो लोगो था, उसकी स्पांसरशिप पिछले वर्ष 8 करोड़ रुपए थी, वह इस बार 4 करोड़ रुपए है। जिन्होंने आईपीएल की टीम खरीदी है, उन्हें अभी तक मुनाफा नहीं मिला है। कई टीमों के मालिक इस ताक में हैं कि किसी तरह अपनी टीम को बेच दिया जाए। पहले चार वर्ष में आईपीएल की कई टीमों ने काफी नुकसान किया था। उसके बाद भी वे किस तरह से स्पर्धा में टिकी रही, ये एक सवाल हो सकता है। किंग इलेवन पंजाब ने चार साल में 40 करोड़ का नुकसान किया, इसे तो उसके एक उच्च अधिकारी स्वीकार भी करते हैं। बड़ी और ख्यातिप्राप्त टीमें एक साल में 20 करोड़ का नुकसान करती हैं, तो कोई बड़ी बात नहीं है, क्योंकि आईपीएल द्वारा उसके ब्रांड का प्रचार होता है। किंतु छोटी टीमों द्वारा किए गए नुकसान के बाद उनका स्पर्धा में टिका रहना भी कठिन है। दिल्ली डेरडेविल के एक अधिकारी का कहना है कि हम बड़ी टीमों के सामने प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं सकते, यह हमारी विवशता है। हाल ही में चेन्नई की टीम ने रवींद्र जाडेजा के लिए 30 करोड़ का भुगतान किया। उसी तरह बेंगलोर की टीम ने क्रिस गेल के लिए मोटी राशि का भुगतान किया। ऐसा भी कहा जा रहा है कि आईपीएल में कई सौदे दो नम्बर पर किए जा रहे हैं।
प्रेक्षकों के घटते उत्साह के साथ-साथ आईपीएल की ब्रांड वेल्यू भी कम होती जा रही है। ब्रिटन की ब्रांड फाइनांस कंपनी ने 2009 में आईपीएल की ब्रांड वेल्यू 2.01 अब डॉलर आंकी थी, यही वेल्यू 2010 में बढ़कर 4.13 अरब डॉलर तक पहुंच गई थी, पर 2011 में यही वेल्यू घटकर 3.67 अरब डॉलर पर पहुंच गई है। आईपीएल की टीमों की ब्रांड वेल्यू भी कम ज्यादा होती रहती है। 2009 में राजस्थान रायल्स की ब्रांड वेल्यू मुंबई इंडियंस से अधिक थी। एक वर्ष बाद मुंबई की टीम टॉप पर पहुंच गई और राजस्थान की टीम नीचे चली गई। राजस्थान रॉयल्स के मालिकों ने कोलकाता के एक बिजनेसमेन को उसका अधिकांश हिस्सा 20 करोड़ डॉलर में बेचना चाहते हैं, ऐसी अफवाह है। पर अभी तक सौदा हुआ नहीं है। इसका कारण यह है कि नुकसान देने वाली कंपनी को कोई खरीदना ही नहीं चाहता। राजस्थान के बाद कोलकाता, दिल्ली, हैदराबाद और पंजाब की टीम भी बिकने वाली हैं, ऐसा कहा जा रहा है। एक जानकार का कहना है कि आईपीएल से कभी मुनाफा नहीं होता, बड़ी कंपनियाँ उसका उपयोग अपने उत्पादन के प्रचार-प्रसार के लिए करते हैं। आईपीएल में मुनाफा भी लगातार घट रहा है। इसे भले ही अभी स्वीकार न किया जा रहा हो, पर इस बार यदि दर्शकों की संख्या कम होती है, तो उसे स्वीकारना ही होगा। इस कारण इस बार अमिताभ बच्चन और सलमान खान को भी मैदान में उतारा जा रहा है। इन दोनों हस्तियों के कारण प्रारंभिक मैचों में भीड़ देखी जा सकती है। 2008 में जब आईपीएल की शुरुआत हुई थी, तब सभी टीमों के साथ 5 साल का कांटेक्ट किया गया था, इस वर्ष ये कांटेक्ट खत्म हो रहा है। आईपीएल के मुख्य प्रायोजक डीएलएफ का भी कांटेक्ट इस सीजन में खत्म हो रहा है। डीएलएफ को यह कांटेक्ट 5 करोड़ डॉलर में मिला था। अब यह दूसरे कांटेक्ट के लिए सामने आती है या नहीं, यह देखना है। मैचों को टीवी पर दिखाने का कांटेक्ट भी इसी वर्ष खत्म हो रहा है। ये सारी कंपनियाँ अगली बार के लिए सामने आती हैं या नहीं, इसी पर आईपीएल का भविष्य निर्भर करता है। इसी से यह तय हो जाएगा कि भारत में आईपीएल का भविष्य उज्जवल है या नहीं।
पहले भारतीय दर्शक पाँच दिनों का टेस्ट मैच देखने का मजा लेते थे। फिर इससे बोर होने लगे। तब एक दिवसीय मैच की शुरुआत हुई। कुछ समय बाद दर्शक इससे भी बोर होने लगे। तब 20-20 का सीजन शुरू हो गया। यदि दर्शक इससे भी बोर होते हैं, तो क्रिकेट खेलने की नई शैली इजाद करनी होगी। आज इंसान सस्ता मनोरंजन चाहता है। यही कारण है कि वी टीवी और फिल्मों के बाद इंटरनेट की ओर बढऩे लगा है। आज की युवा पीढ़ी फेसबुक और ट्विटर पर घंटों समय गुजारती है। इस पीढ़ी को किसी और मनोरंजन की आवश्यकता ही नहीं है। ऐसे में आईपीएल कहाँ तक युवाओं की मनोरंजन की भूख को शांत कर पाता है, यही देखना है।
डॉ. महेश परिमल