बुधवार, 29 सितंबर 2010

निराशा में भी छिपी होती है आशा

 
 
जीत या हार, रहो तैयार रितु ने स्कूल से आकर बस्ते को एक तरफ फेंका और तेजी से अपने बेडरूम में चली गई। उसके चेहरे से गहरी उदासी साफ झलक रही थी। पापा ने कारण पूछा, तो रितु ने कहा-आई एम द लूजर पापा, मैं मैथ में कभी अच्छे अंक नहीं ला सकती। क्यों? पापा ने सवाल किया। ..क्योंकि इस बार भी मेरे गणित में कम नंबर आए, जाहिर है मैं मैथ में हमेशा जीरो रहूंगी। तुम्हें क्या लगता है, रितु को खुद को लूजर कहना चाहिए? अब तनु को ही लो, वह अक्सर इस बात से अपसेट हो जाती है कि उसे उसके दोस्त मोटी कहते हैं। और जानते हो, केवल इस बात से उसने अपनी पूरी लाइफ ही बेकार मान ली। दोस्तो, हर चीज हमारी सोच के मुताबिक नहीं होती। ऐसे में जाहिर है दुख तो होगा ही, लेकिन केवल टेंशन लेने या खुद को कमजोर मान लेने से तो हमारा ही नुकसान होगा। हम ऐसी प्रॉब्लम्स को कैसे मैनेज करें? ऐसा मैनेजमेंट जिसकी बदौलत हमारा आत्मविश्वास बरकरार रहे और हमें इस बात का पक्का भरोसा हो कि किसी भी समस्या के आगे हम घुटने नहीं टेकेंगे। यदि इस बारे में तुम्हारे मन में हैं ढेरों सवाल, तो हाजिर हैं वे खास टिप्स, जिन्हें अमल में लाने पर तुम्हारी टेंशन हो जाएगी छू-मंतर..
कम्युनिकेशन जरूरी
किसी ने तुम्हारा दिल दुखाया हो या तुम्हें लगा हो कि अमुक व्यक्ति की वजह से तुम्हारा जरूरी काम बिगड गया, तो उन्हें बता दो न। क्या सोचते हो? इससे उनका दिल दुखा दोगे तुम और बात बिगड जाएगी? बिल्कुल गलत। दरअसल, तुम अपनी बात कैसे कहते हो, यह तरीका जानना सबसे जरूरी है। वह चाहे बोलकर हो या लिखकर। पत्र या ईमेल के माध्यम से, फोन पर या सामने, तुम्हें अपनी बात का टोन धीमा रखना चाहिए। किसी ने जो बात कही, उस पर फोकस करने की बजाय, तुम्हें उससे क्या तकलीफ पहुंची और क्यों, यह साफ करना जरूरी है। सावधान, बॉडी-लैंग्वेज से कभी यह मत शो करो कि गलती किसकी है। इसके बाद जब तुम्हें लगे कि बात असर कर रही है, तो एक प्यार भरी झप्पी या मीठे स्वर में थैंक्यू कहना काफी है। फिर देखो, कमाल होता है या नहीं।
सेल्फ टॉक जरूरी
हम किसी भी घटना या समस्या को किस तरह से लेते हैं, क्या अर्थ निकालते हैं? उसी सवाल पर टिकी होती है उस घटना पर आधारित हमारी फीलिंग्स। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, यह हमारा स्वभाव होता है कि प्रॉब्लम सामने आते ही हम अक्सर निगेटिव सोचने लगते हैं। ऐसे में हर किसी को सेल्फ-टॉक यानी खुद से बात करनी चाहिए। यदि गंभीरतापूर्वक ऐसा करें, तो हम खुद देखते हैं कि प्रॉब्लम का एक बढिया सॉल्यूशन निकल आता है।
शेयर करो
निराशा हावी होने पर तुम्हारे सारे काम प्रभावित हो सकते हैं। ऐसे में बेहतर यही होगा, जिनसे मिलकर अच्छा लगे, उनसे अपनी प्रॉब्लम शेयर करो। वे तुम्हारे पैरेंट्स हो सकते हैं, दोस्त अथवा भाई-बहन भी या कोई और। हो सकता है कि इनके पास हो तुम्हारी परेशानी का बेस्ट सॉल्यूशन। ऐसा सॉल्यूशन, जिसके बारे तुमने कभी विचार ही न किया हो! हां, यदि तुम प्रोफेशनल हेल्प लेना चाहते हो, तो इसमें कोई बुराई नहीं। 
घटना का क्या अर्थ निकालते हैं, यह बात घटना से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
अच्छी बुक्स, प्रेरक व्यक्ति से बातचीत है जरूरी।
प्रोफेशनल हेल्प लेने में कोई बुराई नहीं।
योगा और मेडिटेशन दिनचर्या में हो शामिल।
बचना एकरसता से
इन दिनों ज्यादातर टीनएजर्स की जीवन-शैली स्कूल से घर, फिर कम्प्यूटर, वीडियो-गेम और टेलीविजन तक सीमित हो गई है। यदि तुम्हारी दिनचर्या भी ऐसी ही है, तो प्लीज आज ही इसे बदल डालो। जिस गेम में रुचि हो, मसलन, क्रिकेट, फुटबॉल, बॉस्केटबॉल जमकर खेलो। यदि एक्सरसाइज और योगा में दिलचस्पी है, तो तुम्हें इन्हें एक बार आजमा कर जरूर देखना चाहिए। हां, पास-पडोस में होने वाले आयोजनों व समारोहों में भाग लेने और लोगों से मिलने-जुलने से भी तुम्हें काफी अच्छा लगेगा।
आज हमारी लाइफ जरूर बहुत फास्ट हो गई है, लेकिन क्या तुम्हें नहीं लगता कि इसे तुम अपने अंदाज में जी सकते हो? तो फिर देर किस बात की, आज ही यह संकल्प लो कि टेंशन को कहोगे बाय और हर परिस्थिति के लिए रहोगे हरदम तैयार..।
सीमा झा

शनिवार, 25 सितंबर 2010

मैं दुनिया भूला दूंगा तेरी चाहत में ..


स्टेज से अपने कैरियर की शुरुआत करके शोहरत की बुंलदियों तक पहुंचने वाले वॉलीवुड के प्रसिद्ध पाश्र्वगायक कुमार शानू आज भी अपने कर्णप्रिय गानों से श्रोताओं के दिलों पर राज करते हैं । कुमार शानू मूल नाम  केदारनाथ भटृाचार्य  का जन्म २२ सितंबर १९५७ को कोलकाता में हुआ। उनके पिता पशुपति भटृाचार्य वादक और संगीतकार थे। बचपन से ही कुमार शानू का रूझान संगीत की ओर था और वह पाश्र्वगायक बनने का सपना देखा करते थे। उनके पिता ने संगीत के प्रति बढ़ते रूझान को देखते हुए पुत्न को तबला और गायन सीखने की अनुमति दे दी। कुमार शानू ने अपनी स्नातक की पढ़ाई कोलकाता यूनिवíसटी से पूरी की ।इसके बाद उन्हें कोलकाता के कई कार्यक्रमों में पाश्र्वगायन करने का अवसर मिला। किशोर कुमार से प्रभावित रहने के कारण कुमार शानू उनकी आवाज में ही कार्यक्रमों में गीत गाया करते थे। अस्सी के दशक में बतौर पाश्र्वगायक बनने का सपना लेकर वह मुंबई आ गए। मुंबई आने के बाद कुमार शानू को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। आश्वासन तो कई देते लेकिन फिल्म में काम करने का अवसर नही मिल पाता ।इस दौरान उनकी मुलाकात जाने माने गजल गायक और संगीतकार जगजीत ¨सह से हुई जिनकी सिफारिश पर उन्हें फिल्म .आ¨धया .में पाश्र्वगायन करने का अवसर मिला ।
 वर्ष १९८९ में प्रदíशत फिल्म .आंधिया .की असफलता से कुमार शानू को गहरा सदमा पहुंचा । इस बीच उनकी मुलाकात संगीतकार कल्याणजी आनंद जी से हुई । कल्याण जी.आनंद जी ने उनका नाम केदारनाथ भटृाचार्य से बदलकर कुमार शानू दिया और उन्हें अमिताभ बच्चन की फिल्म जादूगर में पार्श्‍वगायन करने का अवसर दिया । हालांकि दुर्भाग्य से यह फिल्म भी टिकट खिड़की पर असफल साबित कुमार शानू की किस्मत का सितारा वर्ष 1991 में प्रदíशत फिल्म .आशिकी .से चमका। बेहतरीन गीत.संगीत से सजी इस फिल्म की जबरदस्त कामयाबी ने न सिर्फ अभिनेता राहुल राय .गीतकार समीर और संगीतकार नदीम.श्रवण को शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया बल्कि पाश्र्वगायक कुमार शानू को फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित कर दिया । फिल्म के सदाबहार गीत आज भी दर्शकों और श्रोताओं को मंत्नमुग्ध कर देते हैं । नदीम श्रवण के संगीत निर्देशन में कुमार शानू की आवाज में रचा बसा सांसो की जरूरत हो जैसे .नजर के सामने जिगर के पार .अब तेरे बिन जी लेंगे हम .धीरे धीरे से मेरी ¨जदगी में आना .मैं दुनिया भूला दूंगा तेरी चाहत में .श्रोताओ के बीच काफी लोकप्रिय हुए जिन्होंने फिल्म को सुपरहिट बनाने में अहम भूमिका निभाई ।
 फिल्म आशिकी की सफलता के बाद कुमार शानू को कई अच्छी फिल्मों के प्रस्ताव मिलने शुरू हो गए .सड़क .साजन .दीवाना .बाजीगर .जैसी बड़े बजट की फिल्में शामिल थी। इन फिल्मों की सफलता के बाद कुमार शानू ने सफलता की नई बुलंदियों को छुआ और एक से बढक़र एक गीत गाकर श्रोताओं को मंत्नमुंग्ध कर दिया । फिल्म .आशिकी .की सफलता के बाद संगीतकार नदीम.श्रवण कुमार शानू के प्रिय संगीतकार बन गए। इसके बाद कई फिल्मों में उनकी जोड़ी ने अपने गीत संगीत के जरिए श्रोताओं को मंत्नमुग्ध किया । उनकी जोड़ी वाली गीतों की लंबी फेहरिस्त में कुछ है .मेरा दिल भी कितना पागल है .जीये तो जीये कैसे .साजन .जीता था जिसके लिए .दिलवाले .दिल नजर जिगर क्या है .दिल का क्या कसूर .घँूघट की आड़ में दिलबर का दीदार अधूरा रहता है .हम है राही प्यार के .दो दिल मिल रहे है .परदेस .जबसे तुमको देखा है सनम .दामिनी.सोचेगे तुम्हे %यार करे कि नही .दीवाना .परदेसी परदेसी जाना नही .राजा ¨हदुस्तानी .दिल है कि मानता नही .दिल है कि मानता नही .जब जब %यार पे पहरा हुआ है .सड़क .जीता था जिसके लिए .दिलवाले .चेहरा क्या देखते हो दिल में उतरकर देखो ना .सलामी .जैसे कई सुपरहिट गीत शामिल ¨हदी फिल्म इंडस्ट्री में लगातार पांच बार सर्वŸोष्ठ पाश्र्वगायक के तौर पर फिल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त करने का कीíतमान कुमार शानू के नाम दर्ज है । उन्हें सबसे पहले वर्ष १९९क् में प्रदíशत फिल्म.आशिकी., के गीत .अब तेरे बिन जी लेगें हम .के लिए यह अवार्ड दिया गया था। इसके बाद वर्ष १९९१ .साजन .मेरा दिल भी कितना पागल है .वर्ष १९९२ .दीवाना .सोचेगे तुम्हे %यार करे कि नही .वर्ष १९९३ .बाजीगर .ये काली काली आंखे .वर्ष १९९४ .१९४२ ए लव स्टोरी .एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा .के लिए भी कुमार शानू सर्वŸोष्ठ पाश्र्वगायक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए । वर्ष १९९३ में एक दिन मे २८ गाने रिकार्ड करने का कीíतमान भी कुमार शानू बना चुके है। इसके लिए उनका नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में भी दर्ज किया गया ।भारतीय सिनेमा में उनके योगदान को देखते हुए २क्क्९ में उन्हें देश के चौथे सबसे बडे नागरिक सम्मान पदमश्री से अलंकृत किया गया। आमिर खान .शाहरूख खान जैसे नामचीन नायकों की आवाज कहे जाने वाले कुमार शानू ने तीन दशक से भी ज्यादा लंबे कैरियर में लगभग ८क्क्क् फिल्मी और गैर फिल्मी गाने गाये हैं। उन्होंनें हिन्दी के अलावा बंगला फिल्मों के गीतों को भी अपना स्वर दिया है । कुमार शानू ने अपने करियर में लगभग ४क्क् फिल्मों में पाश्र्वगायन किया है । उनके करियर की उल्लेखनीय फिल्मों में .बहार आने तक .साथी .फूल और कांटे .खिलाड़ी .बोल राधा बोल.सर .दलाल .ये दिल्लगी , मोहरा.बरसात.अग्निसाक्षी.जीत.विरासत.जुड़वा.गुप्त, इश्क .गुलाम .सोल्जर .दिलवाले दुल्हिनियां ले जाएगे .कुछ कुछ होता है .आ अब लौट चले .सरफरोश .बीवी नंबर वन .हम दिल दे चुके सनम .हसीना मान जाएगी .वास्तव .हम साथ साथ है .कहो ना %यार है .दुल्हन हम ले जाएगे .धड़कन .कुरूक्षेत्न .कसूर .अजनबी .देवदास .अंदाज .फिदा और .वेवफा .आदि शामिल है।

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

मैं दुनिया भूला दूंगा तेरी चाहत में ..


स्टेज से अपने कैरियर की शुरुआत करके शोहरत की बुंलदियों तक पहुंचने वाले वॉलीवुड के प्रसिद्ध पाश्र्वगायक कुमार शानू आज भी अपने कर्णप्रिय गानों से श्रोताओं के दिलों पर राज करते हैं । कुमार शानू मूल नाम  केदारनाथ भटृाचार्य  का जन्म २२ सितंबर १९५७ को कोलकाता में हुआ। उनके पिता पशुपति भटृाचार्य वादक और संगीतकार थे। बचपन से ही कुमार शानू का रूझान संगीत की ओर था और वह पाश्र्वगायक बनने का सपना देखा करते थे। उनके पिता ने संगीत के प्रति बढ़ते रूझान को देखते हुए पुत्न को तबला और गायन सीखने की अनुमति दे दी। कुमार शानू ने अपनी स्नातक की पढ़ाई कोलकाता यूनिवíसटी से पूरी की ।इसके बाद उन्हें कोलकाता के कई कार्यक्रमों में पाश्र्वगायन करने का अवसर मिला। किशोर कुमार से प्रभावित रहने के कारण कुमार शानू उनकी आवाज में ही कार्यक्रमों में गीत गाया करते थे। अस्सी के दशक में बतौर पाश्र्वगायक बनने का सपना लेकर वह मुंबई आ गए। मुंबई आने के बाद कुमार शानू को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। आश्वासन तो कई देते लेकिन फिल्म में काम करने का अवसर नही मिल पाता ।इस दौरान उनकी मुलाकात जाने माने गजल गायक और संगीतकार जगजीत ¨सह से हुई जिनकी सिफारिश पर उन्हें फिल्म .आ¨धया .में पाश्र्वगायन करने का अवसर मिला ।
 वर्ष १९८९ में प्रदíशत फिल्म .आंधिया .की असफलता से कुमार शानू को गहरा सदमा पहुंचा । इस बीच उनकी मुलाकात संगीतकार कल्याणजी आनंद जी से हुई । कल्याण जी.आनंद जी ने उनका नाम केदारनाथ भटृाचार्य से बदलकर कुमार शानू दिया और उन्हें अमिताभ बच्चन की फिल्म जादूगर में पार्श्‍वगायन करने का अवसर दिया । हालांकि दुर्भाग्य से यह फिल्म भी टिकट खिड़की पर असफल साबित कुमार शानू की किस्मत का सितारा वर्ष 1991 में प्रदíशत फिल्म .आशिकी .से चमका। बेहतरीन गीत.संगीत से सजी इस फिल्म की जबरदस्त कामयाबी ने न सिर्फ अभिनेता राहुल राय .गीतकार समीर और संगीतकार नदीम.श्रवण को शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया बल्कि पाश्र्वगायक कुमार शानू को फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित कर दिया । फिल्म के सदाबहार गीत आज भी दर्शकों और श्रोताओं को मंत्नमुग्ध कर देते हैं । नदीम श्रवण के संगीत निर्देशन में कुमार शानू की आवाज में रचा बसा सांसो की जरूरत हो जैसे .नजर के सामने जिगर के पार .अब तेरे बिन जी लेंगे हम .धीरे धीरे से मेरी ¨जदगी में आना .मैं दुनिया भूला दूंगा तेरी चाहत में .श्रोताओ के बीच काफी लोकप्रिय हुए जिन्होंने फिल्म को सुपरहिट बनाने में अहम भूमिका निभाई ।
 फिल्म आशिकी की सफलता के बाद कुमार शानू को कई अच्छी फिल्मों के प्रस्ताव मिलने शुरू हो गए .सड़क .साजन .दीवाना .बाजीगर .जैसी बड़े बजट की फिल्में शामिल थी। इन फिल्मों की सफलता के बाद कुमार शानू ने सफलता की नई बुलंदियों को छुआ और एक से बढक़र एक गीत गाकर श्रोताओं को मंत्नमुंग्ध कर दिया । फिल्म .आशिकी .की सफलता के बाद संगीतकार नदीम.श्रवण कुमार शानू के प्रिय संगीतकार बन गए। इसके बाद कई फिल्मों में उनकी जोड़ी ने अपने गीत संगीत के जरिए श्रोताओं को मंत्नमुग्ध किया । उनकी जोड़ी वाली गीतों की लंबी फेहरिस्त में कुछ है .मेरा दिल भी कितना पागल है .जीये तो जीये कैसे .साजन .जीता था जिसके लिए .दिलवाले .दिल नजर जिगर क्या है .दिल का क्या कसूर .घँूघट की आड़ में दिलबर का दीदार अधूरा रहता है .हम है राही प्यार के .दो दिल मिल रहे है .परदेस .जबसे तुमको देखा है सनम .दामिनी.सोचेगे तुम्हे %यार करे कि नही .दीवाना .परदेसी परदेसी जाना नही .राजा ¨हदुस्तानी .दिल है कि मानता नही .दिल है कि मानता नही .जब जब %यार पे पहरा हुआ है .सड़क .जीता था जिसके लिए .दिलवाले .चेहरा क्या देखते हो दिल में उतरकर देखो ना .सलामी .जैसे कई सुपरहिट गीत शामिल ¨हदी फिल्म इंडस्ट्री में लगातार पांच बार सर्वŸोष्ठ पाश्र्वगायक के तौर पर फिल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त करने का कीíतमान कुमार शानू के नाम दर्ज है । उन्हें सबसे पहले वर्ष १९९क् में प्रदíशत फिल्म.आशिकी., के गीत .अब तेरे बिन जी लेगें हम .के लिए यह अवार्ड दिया गया था। इसके बाद वर्ष १९९१ .साजन .मेरा दिल भी कितना पागल है .वर्ष १९९२ .दीवाना .सोचेगे तुम्हे %यार करे कि नही .वर्ष १९९३ .बाजीगर .ये काली काली आंखे .वर्ष १९९४ .१९४२ ए लव स्टोरी .एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा .के लिए भी कुमार शानू सर्वŸोष्ठ पाश्र्वगायक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए । वर्ष १९९३ में एक दिन मे २८ गाने रिकार्ड करने का कीíतमान भी कुमार शानू बना चुके है। इसके लिए उनका नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में भी दर्ज किया गया ।भारतीय सिनेमा में उनके योगदान को देखते हुए २क्क्९ में उन्हें देश के चौथे सबसे बडे नागरिक सम्मान पदमश्री से अलंकृत किया गया। आमिर खान .शाहरूख खान जैसे नामचीन नायकों की आवाज कहे जाने वाले कुमार शानू ने तीन दशक से भी ज्यादा लंबे कैरियर में लगभग ८क्क्क् फिल्मी और गैर फिल्मी गाने गाये हैं। उन्होंनें हिन्दी के अलावा बंगला फिल्मों के गीतों को भी अपना स्वर दिया है । कुमार शानू ने अपने करियर में लगभग ४क्क् फिल्मों में पाश्र्वगायन किया है । उनके करियर की उल्लेखनीय फिल्मों में .बहार आने तक .साथी .फूल और कांटे .खिलाड़ी .बोल राधा बोल.सर .दलाल .ये दिल्लगी , मोहरा.बरसात.अग्निसाक्षी.जीत.विरासत.जुड़वा.गुप्त, इश्क .गुलाम .सोल्जर .दिलवाले दुल्हिनियां ले जाएगे .कुछ कुछ होता है .आ अब लौट चले .सरफरोश .बीवी नंबर वन .हम दिल दे चुके सनम .हसीना मान जाएगी .वास्तव .हम साथ साथ है .कहो ना %यार है .दुल्हन हम ले जाएगे .धड़कन .कुरूक्षेत्न .कसूर .अजनबी .देवदास .अंदाज .फिदा और .वेवफा .आदि शामिल है।

बुधवार, 22 सितंबर 2010

क्या आप जानते हैं?

 
·        क्या आपने कभी यह समाचार पढ़ा कि किसी मुस्लिम राष्ट्र का कोई प्रधानमंत्री या बड़ा नेता तोकियो की यात्रा पर गया हो?
·        क्या आपने कभी किसी अखबार में यह भी पढ़ा कि ईरान अथवा सऊदी अरब के राजा ने जापान की यात्रा की हो?
 
कारण
·        दुनिया में केवल जापान ही एक ऐसा देश है जो मुसलमानों को जापानी नागरिकता नहीं देता है।
·        जापान में अब किसी भी मुसलमान को स्थायी रूप से रहने की इजाजत नहीं दी जाती है।
·        जापान में इस्लाम के प्रचार-प्रसार पर कड़ा प्रतिबंध है।
·        जापान के विश्वविद्यालयों में अरबी या अन्य इस्लामी राष्ट्रों की भाषाएं नहीं पढ़ायी जातीं।
·        जापान में अरबी भाषा में प्रकाशित कुरान आयात नहीं की जा सकती है।
 
इस्लाम से दूरी
·        सरकारी आंकड़ों के अनुसार, जापान में केवल दो लाख मुसलमान हैं।
·        और ये भी वही हैं जिन्हें जापान सरकार ने नागरिकता प्रदान की है।
·        सभी मुस्लिम नागरिक जापानी बोलते हैं और जापानी भाषा में ही अपने सभी मजहबी व्यवहार करते हैं।
·        जापान विश्व का ऐसा देश है जहां मुस्लिम देशों के दूतावास न के बराबर हैं।
·        जापानी इस्लाम के प्रति कोई रुचि नहीं रखते हैं।
·        आज वहां जितने भी मुसलमान हैं वे ज्यादातर विदेशी कम्पनियों के कर्मचारी ही हैं।
·        परन्तु आज कोई बाहरी कम्पनी अपने यहां से मुसलमान डाक्टर, इंजीनियर या प्रबंधक आदि को वहां भेजती है तो जापान सरकार उन्हें जापान में प्रवेश की अनुमति नहीं देती है।
·        अधिकतर जापानी कम्पनियों ने अपने नियमों में यह स्पष्ट लिख दिया है कि कोई भी मुसलमान उनके यहां नौकरी के लिए आवेदन न करे।
·        जापान सरकार यह मानती है कि मुसलमान कट्टरवाद के पर्याय हैं इसलिए आज के इस वैश्विक दौर में भी वे अपने पुराने नियम नहीं बदलना चाहते हैं।
·        जापान में किराए पर किसी मुस्लिम को घर मिलेगा, इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
·        यदि किसी जापानी को उसके पड़ोस के मकान में अमुक मुस्लिम के किराये पर रहने की खबर मिले तो सारा मोहल्ला सतर्क हो जाता है।
·        जापान में कोई इस्लामी या अरबी मदरसा नहीं खोल सकता है।
 
मतांतरण पर रोक
·        जापान में मतान्तरण पर सख्त पाबंदी है।
·        किसी जापानी ने अपना पंथ किसी कारणवश बदल लिया है तो उसे और साथ ही मतान्तरण कराने वाले को सख्त सजा दी जाती है।
·        यदि किसी विदेशी ने यह हरकत की होती है उसे सरकार कुछ ही घंटों में जापान छोड़कर चले जाने का सख्त आदेश देती है।
·        यहां तक कि जिन ईसाई मिशनरियों का हर जगह असर है, वे जापान में दिखाई नहीं देतीं।
·        वेटिकन के पोप को दो बातों का बड़ा अफसोस होता है। एक तो यह कि वे 20वीं शताब्दी समाप्त होने के बावजूद भारत को यूनान की तरह ईसाई देश नहीं बना सके। दूसरा यह कि जापान में ईसाइयों की संख्या में वृध्दि नहीं हो सकी।
·        जापानी चंद सिक्कों के लालच में अपने पंथ का सौदा नहीं करते। बड़ी से बड़ी सुविधा का लालच दिया जाए तब भी वे अपने पंथ के साथ धोखा नहीं करते हैं।
·        जापान में 'पर्सनल ला' जैसा कोई शगूफा नहीं है।
·        यदि कोई जापानी महिला किसी मुस्लिम से विवाह कर लेती है तो उसका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है।
·        जापानियों को इसकी तनिक भी चिंता नहीं है कि कोई उनके बारे में क्या सोचता है।
·        तोकियो विश्वविद्यालय के विदेशी अध्ययन विभाग के अध्यक्ष कोमिको यागी के अनुसार, इस्लाम के प्रति जापान में हमेशा यही मान्यता रही है कि वह एक संकीर्ण सोच का मजहब है। उसमें समन्वय की गुंजाइश नहीं है।
·        स्वतंत्र पत्रकार मोहम्मद जुबेर ने 9/11 की घटना के पश्चात अनेक देशों की यात्रा की थी। वह जापान भी गए, लेकिन वहां जाकर उन्होंने देखा कि जापानियों को इस बात पर पूरा भरोसा है कि कोई आतंकवादी उनके यहां पर भी नहीं मार सकता।
 
सन्दर्भ
·        जापान सम्बंधी इस चौंका देने वाली जानकारी के स्रोत हैं शरणार्थी मामले देखने वाली संस्था 'सॉलीडेरिटी नेटवर्क' के महासचिव जनरल मनामी यातु।
·        मुजफ्फर हुसैन द्वारा लिखित लेख के कुछ मुख्य बिन्दु जो कि पांचजन्य, के 30 मई, 2010 के अंक से लिए गए हैं।

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

हिंसा की आग में धधकता मणिपुरी बच्चों का कल

 

 
शिरीष खरे
 
मणिपुर में उग्रवाद और उग्रवाद के विरोध में जारी हिंसक गतिविधियों के चलते बीते कई दशकों से बच्चे हिंसा की कीमत चुके रहे हैं. यह सीधे तौर से हिंसक गतिविधियों तो कहीं-कहीं गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण की तरफ धकेले जा रहे हैं. राज्य में स्थितियां तनावपूर्ण होते हुए भी कई बार नियंत्रण में तो बनी रह जाती हैं, मगर स्कूल और स्वस्थ्य सेवाओं जैसे बुनियादी ढ़ांचे कुछ इस तरह से चरमराए हुए हैं कि लोगों का विरोध प्रदर्शन के लिए सड़कों पर उतरना पड़ता है.

बच्चों के हकों के लिए काम करने वाली संस्था क्राई हिंसा से सबसे ज्य़ादा प्रभावित तीन जिलों चन्देल, थौंबल और चुराचांदपुर में सक्रिय है. इसके द्वारा जगह-जगह बच्चों के सुरक्षा समूह बनाये जा रहे हैं. यहां की आदिवासी दुनिया के भीतर मौजूद अलग-अलग समुदायों में आपसी तनाव बहुत ज्यादा हैं, ऐसे बहु जातीय समूहों में रहने वाले बच्चों के बीच से डर और भेदभाव दूर करने और उनमें आत्मविश्वास जगाने के लिए कार्यशालाओं का आयोजन किया जा रहा है. क्राई से असीम घोष ने बताया कि ‘‘यहां के बच्चे डर, अनहोनी, अनिश्चिता और हिंसा के साए में लगातार जी रहे हैं, यहां जो माहौल है उसमें बच्चे अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित हैं. इसलिए कार्यशालाओं के पहले स्तर में हमारी कोशिश बच्चों के लिए सुरक्षित महौल बनाने की रहती है, जहां वह बेझिझक होकर अपनी बात कह सकें और दूसरे आदिवासी समुदायों के बच्चों के साथ घुल-मिल पाएं. इन कार्यशालाओं को पूरे प्रदेश भर में फैले हिंसा और उसके चलते होने वाले तनावों से उभरने के लिए एक शांतिपूर्ण प्रक्रिया के रुप में भी देखा जा सकता है.’’

मणिपुर में बच्चों के हिंसा के प्रभाव से बचाने के लिए नागरिक समूहों के आगे आने की संभावनाएं प्रबल हो रही है. इन दबाव समूहों ने बीते लंबे अरसे से राष्ट्रीय स्तर पर जैसे कि बच्चों के अधिकारों के सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग और संबंधित मंत्रालयों पर इस बात के लिए दबाव बढ़ाया है कि वह मणिपुर में हिंसा से प्रभावित बच्चों की समस्याओं और जरूरतों को वरीयता दें. अहम मांगों में यह भी शामिल है कि अतिरिक्त न्यायिक शक्ति प्राप्त सेना यह सुनिश्चित करे कि हिंसा और आघातों के बीच किसी भी कीमत पर बच्चों को निशाना नहीं बनाया जाएगा. इसी के साथ राज्य में किशोर अधिनियम से प्रावधानों (Juvenile Justice Care and Protection Act, 2000 and its amendments enacted in 2006) के अनुसार किशोर न्याय प्रणाली को प्रभावपूर्ण ढंग से लागू किया जाएगा. इसके अलावा यहां राज्य के अधिकारियों पर सार्वजनिक सुविधाओं पर निवेश बढ़ाने, योजनाओं के क्रियान्वयन को सुदृढ़ बनाने और अधिकारों से संबंधित सेवाओं जैसे प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं, बच्चों के लिए ART यानी एंटी रेट्रोविरल थेरेपी और स्कूल की व्यवस्थाओं को दुरुस्त बनाने के लिए भी दबाव बढ़ाया जा रहा है. असल में यहां प्राथमिकता के स्तर पर अधिकारों से संबंधित सेवाओं को दुरुस्त बनाने के दृष्टिकोण को सैन्य आधारित दृष्टिकोण से ऊपर रखे जाने की जरूरत है.

मणिपुर में आंतकवाद से संबंधित घातक परिणामों के चलते 1992-2006 तक 4383 लोग भेट चढ़ गए हैं. जम्मू-काश्मीर और असम के बाद मणिपुर देश के सबसे हिंसक संघर्ष का इलाका बन चुका है. अन्तर जातीय संघर्ष और विद्रोह की वजह से 1950 को भारत सरकार ने इस राज्य में (Armed Forces Special Power Act) यानी सशक्त्र बलों के विशेष शक्ति अधिनियम लागू किया. इस अधिनियम ने विशेष बलों को पहली बार नागरिकों पर सीधे-सीधे हमले की शक्ति दी गई, जो कि सुरक्षा बलों के लिए प्रभावी ढंग से व्यापक शक्तियों में रूपान्तरित हो गईं. यहां जो सामाजिक सेवाएं हैं, वह भी फिलहाल अपनी बहाली के इन्तजार में हैं, जहां स्कूल और आंगनबाड़ियां सही ढ़ंग से काम नहीं कर पा रही हैं, वहीं जो थोड़े बहुत स्वास्थ्य केन्द्र हैं वह भी संसाधनों से विहीन हैं. प्रसव के दौरान चिकित्सा व्यवस्था का अकाल पड़ा रहता है. न जन्म पंजीकरण हो रहा है और न जन्म प्रमाण पत्र बन रहा है. अनाथ बच्चों की संख्या में बेहताशा बढ़ोतरी हो रही है, बाल श्रम और तस्करी को नए पंख लग गए हैं और बर्बादी की कगार तक पहुंच गए परिवारों के बच्चे वर्तमान हिंसक संघर्षों का हिस्सा बन रहे हैं. जबकि बच्चों के लिए खेलने और सार्वजनिक तौर पर आपस में मिलने के सुरक्षित स्थानों का पता तो बहुत पहले ही खो चुका था.

गैर सरकारी संगठनों के अनुमान के मुताबिक मणिपुर में व्याप्त हिंसा के चलते 5000 से ज्यादा महिलाएं विधवा हुई हैं, और 10000 से ज्यादा बच्चे अनाथ हुए हैं. अकेले जनवरी- दिसम्बर 2009 के आकड़े देखें जाए तो सुरक्षा बलों द्वारा 305 लोगों को कथित तौर पर मुठभेड़ में मार गिराए जाने का रिकार्ड दर्ज है. बंदूकी मगर गैर राजकीय हिंसक गतिविधि में 139 लोगों के मारे जाने का रिकार्ड मिलता है. विभिन्न हथियारबन्द वारदातों के दौरान 444 लोगों के मारे जाने का रिकार्ड मिलता है. जबकि नवम्बर 2009 तक कुल 3348 मामले दर्ज किए गए हैं. लड़कियों के खिलाफ अपराध के मामले देखें तो 2007 से 2009 तक कुल 635 मामले दर्ज किए गए हैं, जिसमें 24 हत्याओं और 86 बलात्कार के मामले हैं. बाल तस्करी का हाल यह है कि जनवरी 2007 से जनवरी 2009 तक अखबारों में प्रकाशित रिपोर्ट आधार पर 198 बच्चे तस्करी का शिकार हुए हैं. बाल श्रम के आकड़ों पर नज़र डाले तो 2007 को श्रम विभाग, मणिपुर द्वारा कराये गए सर्वे में 10329 बाल श्रमिक पाए गए हैं. जहां तक स्कूली शिक्षा की बात है तो सितम्बर 2009 से जनवरी 2010 तक 4 लाख से ज्यादा बच्चे स्कूलों में हाजिर नहीं हो सके हैं. दरअसल लंबे अरसे से यहां हिंसा को रोकने और राजकीय सेवाओं के दोबारा बहाल किये जाने के लिए सरकार पर गैर सैन्य उपायों पर सोचने के लिए दबाब बनाया जा रहा है.

मणिपुर सेना से मुक्त कब होगा इस बारे में अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता है मगर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में राज्य में तैनात सेना को स्कूल खाली करने का आदेश जरूर दिया है. गौर करने लायक बात यह है कि मणिपुर के असंख्य स्कूलों का उपयोग सेना द्वारा सराय के रुप में किया जा रहा है. अगर सेना सुप्रीम कोर्ट के दिये गए आदेश को ही माने तो भी यहां के बहुत सारे बच्चों के लिए कम से कम पढ़ने-लिखने की जगह तो खाली होगी.
 
शिरीष खरे

शनिवार, 11 सितंबर 2010

अनलकी हैं सलमान नई हीरोइनों के लिए


हिन्दी फिल्मों के मशहूर अभिनेता सलमान खान अपने दो दशक से अधिक लंबे कैरियर में कई सफल फिल्में दे चुके हैं, जिनमें कुछ सुपरहिट रही हैं, लेकिन उनकी नायिकाओं के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती है। उनकी अब तक की फिल्मों में काम करने वाली नायिकाओं पर यदि नजर डाली जाए तो पता लगता है कि जिन अभिनेत्नियों ने उनके साथ अपने कैरियर की शुरुआत की है, उनमें से कुछ को छोड़कर ज्यादातर नायिकाएं फिल्म हिट होने के बावजूद कामयाब नहीं हो पायी हैं। भाग्यश्री, नगमा, रेवती, शीबा, चांदनी, भूमिका चावला, स्नेहा उल्लाल और जरीन खान जैसी अभिनेत्नियों ने सलमान खान के साथ अपने कैरियर की शुरुआत की, लेकिन कुछ ही फिल्मों में काम करने के बाद वे परदे से गायब हो गईं। इनमें अपवाद स्वरूप रवीना टंडन का नाम लिया जा सकता है, जिन्होंने पत्थर के फूल से सलमान खान के साथ अपने कैरियर की शुरुआत की और एक लंबी पारी खेली। सलमान के साथ अब अभिनेता शत्नुघA सिन्हा की पुत्नी सोनाक्षी सिन्हा ने दबंग फिल्म से अपने कैरियर की शुरुआत की है। देखना यह है कि वह भी इस फिल्म के बाद अपने कैरियर को सफल बना पाती हैं या सलमान की पूर्व नायिकाओं की तरह कुछ फिल्मों में काम करने के बाद नाकामी के अंधेरे में खो जाती हैं। सलमान खान ने वर्ष 1989 में प्रदíशत फिल्म मैने प्यार किया से अपने कैरियर की शुरुआत की। सूरज बड़जात्या निर्देशित इस फिल्म से अभिनेत्नी भाग्यश्री ने भी अपने सिने कैरियर की शुरूआत की। युवा प्रेम कथा पर आधारित यह फिल्म टिकट खिड़की पर सुपरहिट साबित हुई । फिल्म की सफलता के बाद सलमान खान जवां दिलो की धड़कन बन गए और आज तक फिल्म इंडस्ट्री में अपनी बादशाहत कायम रखे हुए है, लेकिन अभिनेत्नी भाग्यश्री को फिल्म की सफलता से कुछ खास फायदा नही हुआ। बाद में उन्होंने कैद में है बुलबुल, त्यागी, पायल घर आया मेरा परदेसी और जय मां संतोषी जैसी फिल्मों में काम किया, लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म टिकट खिड़की पर सफल नहीं हुई । अभिनेत्नी नगमा ने वर्ष 1990 में प्रदíशत फिल्म बागी के जरिए सलमान खान के साथ अपने सिने करियर की शुरुआत की़। बाद में नगमा ने पुलिस और मुजरिम बेवफा से वफा, यलगार, सुहाग, ¨कग अंकल हस्ती जैसी कई बड़े बजट की फिल्मों में काम करने का अवसर मिला, लेकिन वह फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान नही बना सकी। मौजूदा दौर में नगमा ¨हदी फिल्म इंडस्ट्री को अलविदा कहकर भोजपुरी सिनेमा में अपने पैर जमाने की कोशिश कर रही है । वर्ष 1991 में प्रदíशत फिल्म सनम बेवफा से अभिनेत्नी चांदनी ने सलमान के साथ अपने सिने की शुरुआत की। सावन कुमार के निर्देशन में बनी यह फिल्म टिकट खिड़की पर सुपरहिट साबित हुई थी ,लेकिन इसका फायदा चांदनी को नही मिला । बाद में उन्होंने जयकिशन, इक्के पे इक्का, मिस्टर बांड जैसी दोयम दर्जे की फिल्मों में काम किया, लेकिन इनसे उनका करियर अधिक नही बढ़ सका। वर्ष 1991 में ही अभिनेत्नी रेवती ने भी सलमान खान के साथ फिल्म लव से ¨हदी फिल्मों में अपने सिने कैरियर की शुरुआत की थी। हिंदी फिल्मों में कदम रखने से पहले वह दक्षिण भारतीय फिल्मों में काम करती थी। फिल्म लव के बाद उन्होंने ¨हदी फिल्मों में भी अपनी पहचान बनाने के लिए रात और मुस्कुराहट जैसी कुछ फिल्मों में काम किया, लेकिन सफल नही रही। बाद में रेवती ने हिंदी फिल्मों को छोड़कर दक्षिण की फिल्मों में दोबारा काम करना शुरू कर दिया।
मौजूदा दौर में रेवती निर्देशक के रुप में ¨हदी फिल्मों में अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रही है। वर्ष 1992 में प्रदर्शित फिल्म सूर्यवंशी से अभिनेत्नी शीबा ने ¨हदी फिल्मों में अपना कैरियर शुरू किया था । हांलाकि इससे पहले उन्होंने एक-दो फिल्मों में अभिनय किया था लेकिन मुख्य अभिनेत्नी के रुप में सूर्यवंशी उनकी पहली फिल्म थी । फिल्म के टिकट खिड़की पर बुरी तरह असफल होने के बाद शीबा को फिल्मों में काम करने का अधिक अवसर नहीं मिला । वर्ष 2003 में प्रदíशत फिल्म तेरे नाम के जरिए अभिनेत्नी भूमिका चावला ने भी सलमान खान के साथ अपने सिने करयिर की शुरूआत की थी । सतीश कौशिक के निर्देशन में बनी यह फिल्म टिकट खिड़की पर सुपरहिट साबित हुई लेकिन सफलता का श्रेय सलमान को अधिक दिया गया। इसके बाद भूमिका चावला ने अभिषेक बच्च्न के साथ रण और अक्षय कुमार के साथ फैमिली जैसी फिल्मों में भी काम किया लेकिन दुर्भाग्य से दोनो फिल्में टिकट खिड़की पर असफल साबित हुई। वर्ष 2005 में अभिनेत्नी स्नेहा उल्लाल ने फिल्म लकी नो टाइम फार लव से सलमान खान के साथ अपने सिने कैरियर की शुरुआत की थी । अभिनेत्नी ऐश्वर्या राय से मिलती-जुलती शक्ल के रूप में प्रचारित होने के कारण उन्हें दर्शको का व्यापक समर्थन मिला और फिल्म टिकट खिड़की पर सफल साबित हुई, लेकिन इसके बाद स्नेहा उल्लाल को फिल्मों में काम करने का अवसर नहीं मिला । वर्ष 2009 में प्रदर्शित फिल्म वीर से अभिनेत्नी जरीन खान ने सलमान खान के साथ अपने सिने कैरियर की शुरुआत की । लेकिन वीर के बाद अबतक जरीन खान को नई फिल्म में काम करने का अवसर नही मिल पाया है ।

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

साहित्य सागर के मोती

तुम समझ जाओगे क्या चीज है भारत माता।

तुमने बेटी किसी निधर््न की अगर देखी है।।

नीरज


मन की दौलत हाथ आती है तो पिफर जाती नहीं।

तन की दौलत छांव है, आता है ध्न जाता है ध्न।।

इकबाल


नजरें उफंची है तो पफरमान बदलना आसां।

सर झुकाया है तो पिफर हुक्म बदलना मुश्किल।।

गौहर रजा


जीवन का मूल समझता हूं।

धन को मैं धूल समझता हूं।।

दिनकर

दिलों में पफर्क आ जाय तो उसको पफासला कहिये।

किसी के जिस्म से दूरी को मैं दूरी नहीं कहता।।

मुजफ्रपफर हनपफी


साजिशें इतनी बढ़ीं, दरबार बौने हो गये।

आदमी उफंचे हुए किरदार बौने हो गए।।

दिनेश रघुवंशी


पथरन की छोटे टुकरन ते, है परवत का इतना उचान।

बदरन की नान्हीं बूंदन ते, सागर इतना होइगा महान।

रमई काका


मत व्यथित हो पुष्प किसको, सुख दिया संसार ने।

स्वार्थमय सबको बनाया है, यहां करतार ने।।

महादेवी वर्मा


सामान कुछ नहीं है, फटेहाल हैं मगर।

झोले में उनके पास कोई संविधान है।।

दुष्यंत कुमार

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

आम आदमी को ही तड़पाता है आम आदमी

" दीपक असीम

ताजमहल बन जाने के बाद शाहजहाँ ने बनाने वालों के हाथ काट लिए थे। क्यों? लोग कहते हैं कि शाहजहाँ नहीं चाहता था कि वे दूसरा ताजमहल बनाएँ। बात एकदम गलत है। दूसरे किसी के पास कहाँ इतना पैसा था कि वो ताजमहल बनाने की सोचता? बात दूसरी है। असल बात यह है कि शाहजहाँ ताजमहल के ठेकेदार और उसके मजदूरों से परेशान था। जिन लोगों ने मकान बनवाए हैं, वो इस बात की गवाही देंगे कि मकान बनने के बाद और बनने के दौरान कई बार उनकी भी इच्छा हुई है कि वे ठेकेदार और उसके तमाम मजदूरों के हाथ बल्कि गर्दन काट दें। मगर नहीं काट पाए क्योंकि वे कहीं के भी बादशाह नहीं हैं।

आप देखते हैं कि एक दीवार तिरछी जा रही है। आप चीखते हैं, चिल्लाते हैं। ठेकेदार आपकी बात पर कान नहीं धरता। कहता है कि दीवार बिलकुल ठीक है, अभी बीच में मत बोलिए, जब पूरी बन जाए तब कहिएगा। जब दीवार पूरी बन जाती है और तिरछापन एकदम साफ दिखने लगता है, तो ठेकेदार मान जाता है कि दीवार तिरछी है और उसे वापस तुड़वाने की मेहरबानी करता है। कई बार वो मानता ही नहीं कि कोई काम गलत हुआ है। आप गवाहियाँ पेश करें तो कहता है कि ये दोष कुछ समय बाद अपने आप दूर हो जाएगा। मगर कुछ समय बाद दोष और उभरकर सामने आता है।

ये दिक्कतें तो खैर काम होने के दौरान की हैं। कई बार ये होता है कि आप एडवांस देते हैं और ठेकेदार मजूरों समेत गायब हो जाता है। चार दिन बाद पता चलता है कि किसी और कॉलोनी में उसे दूसरा ठेका मिल गया है। आप ढूँढते हुए उसे वहाँ जाते हैं, तो वो सीधे मुँह बात ही नहीं करता। फिर कहता है कि आप चिंता मत करो, जो समय दिया है उस समय पर आपका काम पूरा हो जाएगा। बहुत जोर देने पर वो कहता है कि अच्छा दो दिन बाद से आपके यहाँ काम शुरू कर देंगे। दो दिन बाद वो काम शुरू करता है। एक दिन काम होता है कि अमावस आ जाती है। अब आप तो जानते हैं कि अमावस को कोई मिस्त्री काम नहीं करता। अमावस के बाद इतवार आ जाता है। सोमवार को टैंकर वाला पानी नहीं डाल के जाता और काम रुका पड़ा रहता है। मंगल को ठेकेदार भूल जाता है कि आपने क्या बनाने को कहा था। आप उधर अपने काम पर जाते हैं इधर ठेकेदार फिर कुछ गलती कर देता है। बुधवार को आप भन्नााते हैं। वो गलत निर्माण को फिर तोड़ता है और फिर बनाता है। आपका समय, आपका मटेरियल सब दोगुना लगता है। आप खून के आँसू रोने के सिवा कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि आप शाहजहाँ नहीं हैं।

आपका मकान तय समय से कितने दिन बाद बनकर पूरा होगा, ये इस बात पर निर्भर करता है कि मकान कितना बड़ा है। चार महीने लेट होना तो चलता है। ताजमहल जैसा निर्माण शाहजहाँ के जिंदा रहते पूरा ही नहीं हो सकता था। शाहजहाँ बादशाह था, सो पूरा हुआ। आम आदमी होता तो नींव के कॉलमों से सिर फोड़ता-फोड़ता मर जाता। शाहजहाँ ने हाथ यूँ ही नहीं कटवाए। कोई भी होता तो यही करता। ताजमहल पर कई फिल्में बनी हैं, एक में भी निर्माणकर्ताओं के हाथ काटने का असल कारण नहीं बताया गया, इसीलिए आज नाचीज ये गुजारिश कर रहा है।

" दीपक असीम

सोमवार, 6 सितंबर 2010

बाल कलाकार से चरित्र अभिनेता तक: ऋषिकपूर


¨हदी सिनेमा जगत में ऋषि कपूर का नाम-एक ऐसे सदाबहार अभिनेता के तौर पर शुमार किया जाता है, जिन्होंने-अपने रूमानी और भावपूर्ण अभिनय से लगभग तीन दशक से दर्शकों के-बीच अपनी खास पहचान बनाई है । चार सितंबर १९५२ को मुंबई में जन्मे ऋषि कपूर को अभिनय की कला-विरासत में मिली१ उनके पिता राज कपूर फिल्म इंडस्ट्री के जाने माने-अभिनेता और निर्माता-निर्देशक थे । घर में फिल्मी माहौल रहने के कारण ऋषि कपूर का रूझान फिल्मों की ओर हो गया और वह भी अभिनेता बनने के ख्वाब देखने लगे । ऋषि कपूर ने अपने सिने करियर की शुरुआत अपने पिता की-निíमत फिल्म मेरा नाम जोकर से की । वर्ष १९७क् में प्रदíशत इस-फिल्म में ऋषि कपूर ने १४ वर्षीय लड़के की भूमिका निभाई जो अपनी-शिक्षिका से प्रेम करने लगता है । अपनी इस भूमिका को ऋषि कपूर ने-इस तरह निभाया कि दर्शक भावविभोर हो गए । फिल्म में अपने दमदार-अभिनय के लिए वह राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किए गए । वर्ष-१९७३ में अपने पिता राज कपूर के बैनर तले बनी फिल्म बॉबी से बतौर अभिनेता ऋषि कपूर ने अपने सिने करियर की शुरुआत की । युवा प्रेम कथा पर बनी इस फिल्म में उनकी नायिका की-भूमिका ¨डपल कपाड़िया ने निभाई । बतौर अभिनेत्नी ¨डपल कपाड़िया की भी यह पहली ही फिल्म थी । बेहतरीन गीत संगीत और-अभिनय से सजी इस फिल्म की जबर्दस्त कामयाबी ने न सिर्फ ¨डपल-कपाड़िया बल्कि ऋषि कपूर को भी शोहरत की बुंलदियों पर पहुंचा दिया। आज भी इस फिल्म के सदाबहार गीत दर्शकों और श्रोताओं को मंत्नमुग्ध कर-देते हैं। लक्ष्मीकांत प्यारे लाल के संगीत निर्देशन में आंनद बख्शी के गीत- मैं शायर तो नहीं. झूठ बोले कौआ काटे और हम तुम एक कमरे में-बंद हो श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय हुए जिन्होंने फिल्म को-सुपरहिट बनाने में अहम भूमिका निभाई।

फिल्म बॉबी की सफलता के बाद ऋषि कपूर की जहरीला इंसान, ¨जदादिल और राजा जैसी फिल्में प्रदíशत हुई, लेकिन कमजोर पटकथा-और निर्देशन के कारण ए फिल्में टिकट खिड़की पर असफल साबित हुई। वर्ष १९७५ में प्रदíशत फिल्म खेल खेल में की कामयाबी के बाद-ऋषि कपूर बतौर अभिनेता अपनी खोई हुई पहचान बनाने में-कामयाब हो गए । कॉलेज की ¨जदगी पर बनी इस फिल्म में ऋषि कपूर-की नायिका की भूमिका अभिनेत्नी नीतू ¨सह ने निभाई फिल्म खेल खेल में की कामयाबी के बाद ऋषि कपूर और-नीतू ¨सह की जोड़ी दर्शको के बीच काफी मशहूर हो गई । बाद में इस-जोड़ी ने रफूचक्कर, .जहरीला इंसान, ¨जदादिल, कभी-कभी, अमर-अकबर एंथनी, अनजाने, दुनिया मेरी जेब में, झूठा कहीं का. धन दौलत-दूसरा आदमी आदि फिल्मों में युवा प्रेम की भावनाओं को निराले-अंदाज में पेश किया। वर्ष १९७७ में प्रदíशत फिल्म अमर अकबर एंथोनी ऋषि कपूर-के सिने करियर की महत्वपूर्ण फिल्मों में एक है । अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना जैसे मँझे हुए कलाकारो की मौजूदगी में भी ऋषि कपूर ने-अपने दमदार अभिनय से दर्शकों को दीवाना बना दिया। मनमोहन-देसाई के निर्देशन में बनी इस फिल्म में ऋषि कपूर अकबर-इलाहाबादी की भूमिका में दिखाई दिए । इस फिल्म में उन पर-फिल्माया यह गीत पर्दा है पर्दा आज भी सर्वŸोष्ठ कव्वाली के तौर-पर शुमार किया जाता है । फिल्म अमर अकबर एंथोनी में यूं तो सभी गाने सुपरहिट हुए, लेकिन यह गीत हमको तुमसे हो गया है प्यार गीत संगीत जगत की-अमूल्य धरोहर के रूप में आज भी याद किया जाता है। इस गीत में पहली बार और अंतिम बार लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी, मुकेश और किशोर कुमार जैसे नामचीन पाश्र्वगायकों ने अपनी आवाज दी थी। इन-सबके साथ ही माई नेम इज एंथोनी गोंजालविस के जरिए प्यारे-लाल ने अपने संगीत शिक्षक एंथोनी गोंजालविस को श्रंद्धाजलि दी है।

वर्ष १९७७ में ही ऋषि कपूर के सिने करियर की एक और-सुपरहिट फिल्म हम किसी से कम नही प्रदíशत हुई । नासिर हुसैन-के निर्देशन में बनी इस फिल्म में ऋषि कपूर डांसर ¨सगर की भूमिका-में दिखाई दिए । इस फिल्म में उन पर फिल्माया यह गीत बचना ए-हसीनों लो मै आ गया आज भी श्रोताओं को झूमने को मजबूर कर देता है । वर्ष १९७९ में के.विश्वनाथ की श्री श्री मुवा की ¨हदी में रिमेक-फिल्म सरगम ऋषि कपूर के सिने करियर की एक और महत्वपूर्ण-फिल्म साबित हुई । फिल्म में अपने दमदार अभिनय के लिए अपने-करियर में पहली बार सर्वŸोष्ठ अभिनेता के फिल्म फेयर पुरस्कार से उन्हें नामांकित किया गया। फिल्म में उनकी नायिका की भूमिका अभिनेत्नी जयाप्रदा ने-निभाई थी, जो उनके सिने करियर की पहली ¨हदी फिल्म थी । फिल्म में-ऋषि कपूर और जया प्रदा की जोड़ी को दर्शकों को जबरदस्त सरहाना-मिली । फिल्म में ऋषि कपूर पर फिल्माया यह गीत डफली वाले-डफली बजा संगीत प्रेमी आज भी नही भूल पाए हैं । वर्ष १९८क् में प्रदíशत फिल्म कर्ज ऋषि कपूर की सुपरहिट फिल्म में शुमार की जाती है । सुभाष घई के निर्देशन में पुनर्जन्म पर-आधारित इस फिल्म में उन पर फिल्माया यह गीत ओम शांति ओम- दर्शकों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ था । इस गीत से जुड़ा दिलचस्प-तथ्य यह है कि इसे कोलकाता के नेताजी सुभाषचंद्र स्टेडियम में-फिल्माया गया था और गाने के दौरान ऋषि कपूर एक झूमते हुए डिस्क-पर नृत्य करते है । वर्ष १९८२ में प्रदíशत फिल्म प्रेम रोग में ऋषि कपूर के-अभिनय के नए रूप देखने को मिले । राजकपूर के निर्देशन में बनी इस-फिल्म में ऋषि कपूर एक ऐसे प्रेमी की भूमिका में दिखाई दिए जो-अपनी प्रेयसी की शादी के बाद भी उससे प्यार करते है । यूं तो यह फिल्म-नारी प्रधान थी, इसके बावजूद उन्होंने अपने भावपूर्ण अभिनय से दर्शको-का दिल जीतकर फिल्म को सुपरहिट बना दिया । फिल्म में अपने दमदार-अभिनय के लिए वह सर्वŸोष्ठ अभिनेता के फिल्म फेयर पुरस्कार के-लिए नामांकित भी किए गए ।

वर्ष १९८५ में प्रदíशत फिल्म तवायफ ऋषि कपूर के करियर-की महत्वपूर्ण फिल्मों में एक है । बी.आर .चोपड़ा के निर्देशन में बनी-इस फिल्म में ऋषि कपूर एक ऐसे युवक की भूमिका में दिखाई दिए जो समाज की परवाह किए बगैर एक तवायफ को अपने घर में शरण-देता है और बाद में उससे शादी करके समाज की सड़ी गली परंपरा को-नकार देता है । फिल्म में जबरदस्त अभिनय के लिए ऋषि कपूर को-सर्वŸोष्ठ अभिनेता के फिल्म फेयर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया । वर्ष १९८९ में प्रदíशत फिल्म चांदनी ऋषि कपूर अभिनीत-महत्वपूर्ण फिल्मों में शुमार की जाती है । यश चोपड़ा के निर्देशन में बनी-इस फिल्म में ऋषि कपूर ने फिल्म के शुरुआत में जहां चुलबुला और रूमानी अभिनय किया वहीं फिल्म के मध्यांतर में एक अपाहिज की-भूमिका में संजीदा अभिनय से दर्शको को मंत्नमुग्ध कर दिया । फिल्म में-अपने दमदार अभिनय के लिए वह सवŸोष्ठ अभिनेता के फिल्म फेयर-पुरस्कार से नामांकित भी किए गए। वर्ष १९९६ में ऋषि कपूर ने फिल्म निर्माण के क्षेत्न में भी कदम-रखकर प्रेम ग्रंथ का निर्माण किया । हालाकि यह फिल्म टिकट-खिड़की पर असफल साबित हुई, लेकिन इसमें ऋषि कपूर के अभिनय को जबरदस्त सराहना मिली । वर्ष १९९९ में ऋषि कपूर ने-फिल्म आ अब लौट चलें का निर्माण और निर्देशन किया । दुर्भाग्य-से यह फिल्म भी टिकट खिड़की पर असफल साबित हुई । वर्ष २000 में प्रदíशत फिल्म कारोबार की असफलता के बाद-और अभिनय में एकरूपता से बचने तथा स्वयं को चरित्न अभिनेता के रूप मे भी स्थापित करने के लिए ऋषि कपूर ने स्वयं को विभिन्न-भूमिकाओं में पेश किया। इनमें राजू चाचा, कुछ खट्टी कुछ मीठी, ए है-जलवा, फना, दिल्ली ६ शामिल है । वर्ष २क्क्९ में प्रदíशत फिल्म लव आज कल में अपने दमदार अभिनय के लिए ऋषि कपूर को सर्वŸोष्ठ सहायक अभिनेता के फिल्म फेयर पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया । ऋषि कपूर ने अपने चार दशक के लंबे सिने करियर में लगभग १२५-फिल्मों में अभिनय किया । उनके करियर की उल्लेखनीय फिल्मों में-कुछ है लैला मजनू .दूसरा आदमी .फूल खिले है गुलशन गुलशन, बदलते रिश्ते, पति पत्नी और वो, सरगम, आप के दीवाने, नसीब जमाने को दिखाना है, कुली, दुनिया, सागर, नसीब अपना अपना, नगीना, दोस्ती दुश्मनी, एक चादर मैली सी, प्यार के काबिल, ¨सदूर,.घर-घर की कहानी, विजय, घराना, बड़े घर की बेटी, अजूबा, हिना, दीवाना, बोल राधा बोल, दामिनी, याराना, दरार, फना, नमस्ते लंदन और दिल्ली ६ आदि हैं।




गुरुवार, 2 सितंबर 2010

हिंदी सिनेमा की कुमुदिनी : साधना शिवदासानी


 अशोक मनवानी

१९६० के दौर में जो अभिनेत्रियां शीर्ष पर थीं उनमें साधना का नाम सम्मान से लिया जाता है। अपने बेजो़ड़ अभिनय और किस्म-किस्म के फैशन प्रवर्तित करने वाली इस नायिका ने स्वयं को गरिमामय तरीके से फिल्म जगत से अलग किया है। वे जवान दिनों की दिलकश नायिका की पहचान को बनाए रखना चाहती हैं। एक समारोह में कुछ बरस पहले साधना जी से मुलाकात का सौभाग्य मिला था। वे अपने फिल्मी सफर से बेहद संतुष्ट नजर आईं। अहंकार से कोसों दूर। बस अकेले रहना चाहती हैं। व्हाइट लिली कुमुदिनी की तरह (१९५८) में सिंधी फिल्म अबाणा से उनका फिल्मों में पदार्पण हुआ। बाद में लव इन शिमला (१९५९) में बतौर मुख्य नायिका आईं। आरके नैयर से विवाह के बाद लगातार हिट फिल्मों में आती रहीं। ३२ हिन्दी फिल्मों में अभिनय किया। आज ६८ की आयु में सिर्फ ओटर्स क्लब, लिंकिंग रोड जाना, समकालीन अभिनेत्रियों से बातचीत ही उनकी दिनचर्या है। देवानंद के साथ हम दोनों में आकर उन्होंने इस फिल्म की रंगीन कापी देखी है। यह फिल्म सितंबर माह में दिल्ली में देवानंद पर केंद्रित समारोह में दिखाई जा रही है।
साधना को वक्त और वो कौन थी के लिए फिल्म फेयर नामीनेशन का सम्मान मिला। मेरा साया, मेरे महबूब, परख अमानत, एक मुसाफिर एक हसीना, राजकुमार, वक्त, आरजू, दूल्हा दूल्हन, इश्क पर जोर नहीं, गीता मेरा नाम, अनीता, प्रेम पत्र, असली नकली, एक फूल दो माली उनकी कामयाब फिल्में हैं।
साधना शिवदासानी बाद में साधना नैयर अपनी आत्मकथा लिखे जाने के प्रश्न पर साफ इंकार करती हैं। यहां तक कि वे छायांकन भी पसंद नहीं करतीं। चार फिल्मों में दोहरी भूमिका और आधा दर्जन फिल्मों में रहस्यमयी स्त्री का चरित्र निभाने वाली इस अभिनेत्री को भले पद्मश्री, पद्मभूषण न मिले हों लेकिन उन्हें इसका कोई मलाल नहीं। साधना माता-पिता की इकलौती संतान थीं। स्वयं वे निःसंतान हैं पर जिंदगी के इस सच को साहस के साथ स्वीकार करती हैं। पूरा जीवन एक उत्सव की तरह बिताने वाली अदाकारा को उनकी फिल्मों के हिदायतकारों जैसे विमल राय, राज खोसला, आरके बैनर आदि ने न सिर्फ सराहा बल्कि अद्वितीय भी माना।
अशोक मनवानी