रविवार, 25 मार्च 2012

जीवन के विविध रंग

अब और तब

क्‍या इस सूत्रवाक्‍य को जीवन में उतारा जा सकता है  ?

एक विनम्र अपील

हथेली पर मासमी नींद

वक्‍त वक्‍त की बात है

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

नेहरु-गांधी परिवार से उद्धार संभव नहीं


डॉ. महेश परिमल
कांग्रेसी अब तक यह मानते आए हैं कि नेहरु या गांधी परिवार के सिवाय उनका कोई उद्धार कर ही नहीं सकता। वे ये भी मानते आए हैं कि नेहरु-गांधी परिवार यदि चुनावी मैदान पर हैं, तो उन्हें कोई हरा नहीं सकता। इन दोनों ही मान्यताओं को पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों ने गलत साबित कर दिया। यदि राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जीत नहीं दिला सके, तो फिर उन पर यह भरोसा कैसे किया जा सकता है कि वे 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को भारी मतों वे विजयश्री दिलवा सकते हैं। यदि कांग्रेस को फिर से केंद्र की सत्ता पर आना है, तो उसे अपनी व्यूह रचना में आमूल-चूल परिवर्तन करना ही होगा। अभी जो परिणाम आए हैं कि अगले चुनावों के सेमीफाइनल परिणाम हैं। ये परिणाम देश की राजनीति को एक नया आयाम देंगे। इसके अलावा इस परिणाम ने यह साबित कर दिया कि देश के सभी दल अब चेत जाएँ। यह आत्मनिरीक्षण का समय है। इस समय कांग्रेस को जबर्दस्त झटका लगा है, भविष्य में अन्य दलों को भी लग सकता है। इसलिए केवल वही वादे करें, जिसे पूरा कर सकते हों। अपराध और अपराधियों को पार्टी से दूर ही रखना होगा। तभी वे लोगों का मत प्राप्त कर सकते हैं।
कांग्रेस को भी यह तय करना होगा कि अब सारा दारोमदार राहुल गांधी पर छोड़ना उचित नहीं है। कोई ऐसा लोकप्रिय चेहरा सामने आना चाहिए, जो जमीन से जुड़ा हो। अभी यह तय नहीं है कि उत्तराखंड में भाजपा सत्ता पर रहेगी या नहीं। भाजपा के हाथ में भले ही उत्तर प्रदेश न आया हो, पर गोवा उसने अपने ही दम पर और पंजाब में अकाली दल के साथ गठजोड़ करके सत्ता प्राप्त कर ली है। उसके लिए यह एक शुभ संकेत है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की चुनावी बागडोर राहुल गांधी अपने कांधे पर लेकर चल रहे थे। 48 दिनों तक उन्होंने बिजली की गति से पूरे राज्य का दौरा कर 211 रैलियों को संबोधित किया। इस दौरान उन्होंने काफी आक्रामक रूप से लोगों के सामने अपनी बात रखी। यदि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की जीत हो जाती, तो इसका सारा श्रेय राहुल गांधी को ही मिलता। इसे उनकी व्यक्तिगत विजय माना जाता। पर अब वहाँ कांग्रेस कमजोर साबित हुई, तब उसका ठिकरा प्रदेश के अन्य नेताओं पर फोड़ने की कोशिश हो रही है। कांग्रेस में ऐसा हमेशा से होता आया है। 1999 के चुनाव के समय कांग्रेस की हार को किसी ने सोनिया गांधी की हार नहीं माना। पर 2004-2009 की जीत को सोनिया गांधी की जीत बताया गया। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की पराजय से भले ही राहुल गांधी के अलग रखने की कोशिश की जाए, पर राहुल गांधी इस चुनाव में बुरी तरह से सुपर फ्लाप साबित हुए हैं, इसमे कोई दो मत नहीं।
उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की उपस्थिति के कारण चुनाव प्रचार हाई-प्रोफाइल बन गया था। बाहर के लोगों को यह बताया जा रहा था कि उत्तर प्रदश्ेा में असली टक्कर राहुल गांधी और अखिलेश यादव के बीच है। पर मुख्य स्पर्धा तो मायावती और मुलायम सिंह के बीच थी। उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को मायावती के काम करने की शैली पसंद नहीं आई। वे उनकी स्टंटबाजी से परेशान थे। वे उन्हें सबक सिखाना चाहते थे। मायावती के विकल्प के रूप में उन्होंने राहुल गांधी को नहीं, बल्कि मुलायम सिंह को देखा। मतदाताओं की सूझबूझ की भी दाद देना होगी। उन्हें यह अच्छी तरह से पता था कि यदि उन्होंने कांग्रेस को वोट दिया, तो राहुल गांधी लखनऊ में रहकर तो प्रदेश संभालेंगे नहीं, किसी बिना चेहरे के नेता को उन पर थोप दिया जाएगा। उन्हें मुलायम सिंह को मायावती के सही विकल्प के रूप में देखा। इसलिए उन्होंने मुलायम सिंह को अपना वोट दिया। सपा को जितने वोट मिले, उसमें से अधिकांश मायावती के विरोध के वोट हैं।
पाँच राज्यों के चुनाव परिणामों से कांग्रेस-भाजपा समेत अन्य दलों को कोई संदेश मिला है, तो वह यही कि दिल्ली से आयातित नेता सभाओं को संबोधित कर भीड़ तो इकट्ठी कर सकते हैं, पर मतपेटियों को वोट से भर नहीं सकते। उत्तर प्रदेश के मतदाताओं के सामने मायावती के विकल्प के रूप में एक तरफ जमीन से जुड़े मुलायम सिंह जैसे नेता थे, तो दूसरी तरफ आकाशीय उड़ान के शौकीन राहुल गांधी थे। कांग्रेस की तरह भाजपा के लिए भी यह मुश्किल थी कि उनके पास ऐसा कोई कद्दावर नेता नहीं था, जो वोट बटोरने में माहिर हो। इसलिए उसे मध्यप्रदेश से उमा भारती को आयात करना पड़ा। उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने जिस तरह से राहुल गांधी को अलग कर दिया, ठीक उसी तरह उमा भारती को भी नकार दिया। यदि कांग्रेस-भाजपा को 2014 का लोकसभा चुनाव जीतना है, तो दिल्ली के नेताओं को थोपने के बजाए राज्य स्तर के नेताओं को आगे करना होगा। दिल्ली के नेता वाणी विलास के सहारे वोट दिलवा पाएंगे, उसका जमाना अब गया। राहुल गांधी ने मतदाताओं को रिझाने के लिए अपनी तमाम ताकत झोंक दी। इसके बाद भी कांग्रेस हार गई, उसका मुख्य कारण यही है कि व्यूह रचना तैयार करने में कांग्रेस चूक गई। प्रदेश में भी कांग्रेस संगठन कमजोर है। यह जानते हुए भी कांग्रेस ने अपने दम पर चुनाव लड़ने की भूल की। यदि कांग्रेस मुलायम के साथ गठबंधन करती, तो शायद उसे अधिक लाभ मिलता। तब मायावती का मायाजाल तो टूटता ही, साथ ही सपा को बहुमत मिलने के बाद भी कांग्रेस को सत्ता का लाभ मिला होता। कांग्रेस का इरादा किंगमेकर बनने का था। अब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने अपनी ताकत पर बहुमत प्राप्त कर लिया है, तो कांग्रेस के सामने विपक्ष में बैठने के सिवाय दूसरा कोई रास्ता बचा ही नहीं है।
केंद्र की यूपीए सरकार ने उत्तर प्रदेश के चुनाव के दौरान पिछड़े वर्ग के मुस्लिमों के लिए 4.5 प्रतिशत आरक्षण के मुद्दे को उछाला था, इससे वे मुस्लिमों की सहानुभूति बटोरना चाहती थी। इसके कारण दलित नाराज हो गए। क्योंकि उन्हें दिए गए 27 प्रतिशत ओबीसी कोटे में से ही यह आरक्षण दिया जाना था। मुसलमान 9 प्रतिशत आरक्षण की माँग कर रहे थे। कांग्रेसी नेता सलमान खुर्शीद ने 4.5 प्रतिशत आरक्षण के मुद्दे पर चुनाव आयोग को आँखें दिखाने लगे, इससे मुस्लिम बिलकुल भी प्रभावित नहीं हुए। सपा नेता मौलाना मुलायम सिंह यादव ने अपने छीने गए मुस्लिम वोट बैंक पर पुन: कब्जा करने में सफल रहे। 2007 के चुनावों में मायावती ने अनेक ब्राह़्मण नेताओं को अपनी पार्टी में लेकर उन्हें महत्वपूर्ण स्थान दिया था, इसलिए उन्हें सवर्णो का भी वोट मिला। लखनऊ में सत्ता पर काबिज होते ही मायावती ने इन ब्राrाण नेताओं की उपेक्षा शुरू कर दी। इसलिए ये उपेक्षित नेता एक के बाद एक उनसे अलग होते गए। यही कारण है कि इस चुनाव में मायावती को सवर्णो का वोट नहीं मिला। ये वोट मुख्य रूप से कांग्रेस और भाजपा में विभाजित हो गए। पाँच वष्रो के शासन में मायावती ने दलितों के हित में कोई ठोस कदम नहीं उठाया। इससे दलित वोट भी कट गए। इस चुनावमें मायावती को यह सबक मिला कि दलितों और सवर्णो के बीच संतुलन रखना बहुत ही मुश्किल है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में रचकर वे केंद्र की राजनीति में छलांग लगाना चाहती थीं, यही महत्वाकांक्षा उन पर भारी पड़ी।
2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 22 सीटें मिली थी, इससे यह आशा जागी थी कि 2012 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर होगा। लोकसभा की 22 सीटों का मतलब है कि विधानसभा की 100 सीटों से भी अधिक सीटें मिलनी चाहिए। इससे भी आधी सीटें प्राप्त कर कांग्रेस ने वास्तव में यूपी में जिद की। 2009 में उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह को कम सीटें मिली, इसका मतलब था कल्याण ¨सह को पार्टी में लेना। इससे मुस्लिम मतदाता उनसे नाराज हो गए थे। मुलायम ने अपनी इस भूल को सुधारा और मुस्लिम वोट कबाड़ने में सफल रहे। कांग्रेस ने मुस्लिमों की सहानुभूति जीतने के लिए बाटला हाऊस एनकाउंटर के मुद्दे को उछालने की कोशिश की। यह मुद्दा टांय-टांय फिस्स हो गया। बाटला हाऊस का मुद्दा मुस्लिमों को लुभा नहीं पाया। इससे हिंदू मतदाता सचेत हो गए। इसका पूरा लाभ भाजपा को मिला। मुलायम सिंह याद का अखिलेश यादव को चुनावी मैदान में उतारने का फैसला मास्टर स्ट्रोक साबित हुआ। मुलायम ने युवा और डायनेमिक राहुल गांधी के ठोस विकल्प के रूप में अखिलेश को सामने खड़ा कर दिया। मतदाताओं ने स्वाभाविक रूप से अखिलेश को पसंद किया। मुलायम भले ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनें, पर उनके भावी मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश को स्थापित कर दिया है।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 16 मार्च 2012

अंतत: सपनों को पूरा किया

उस व्यक्ति ने दुनिया की सबसे सस्ती गाड़ी बनाने का सपना देखा था और उसे पूरा भी किया।वह बचपन में अपने स्कूल राल्स रॉयस में जाया करता था और बड़े-बड़े सपनों को आकार देने की कोशिश करता रहता...
हम कंपनी अपने तरीके से चलाएंगे
रतन नवल टाटा की पढ़ाई कैथेड्रल स्कूल में हुई और बाद में वे भवन निर्माण कला सीखने के लिए कार्नेल विश्वविद्यालय गए।अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वे बड़े आराम से लॉस एंजेलिस में आर्किटेक्चर के काम में संलग्न थे और अमेरिका में अपने भविष्य के सपने देख रहे थे। इधर भारत में एक व्यक्ति से उन्हें बेहद प्रेम था- वह थीं उनकी दादी मां। जब उनकी दादी ने उन्हें भारत वापस आने के लिए कहा, तो उन्होंने दादी के आदेश का पालन किया। उन्होंने टाटा में नौकरी शुरू कर दी और जमशेदपुर में एक उड़ान स्कूल स्थापित करने का प्रस्ताव उन्हें जे.आर.डी. टाटा के करीब ले आया।

मुंबई वापस आने पर उन्हें नैल्को नाम की कंपनी चलाने के लिएकहा गया, जो कि उस समय घाटे में चल रही थी।एक दिन दोपहर के भोजन के वक्त कंपनी के दूसरे निदेशक कंपनी की निंदा कर रहे थे।कुछ देर तक तो जे.आर.डी. चुप रहे, फिर बीच में ही बोल उठे। रतन के अनुसार- उन्होंने वाद-विवाद को पलट दिया था।जब लड़ते-लड़ते बात हार की ओर बढऩे लगती है, तो बीच में जे.आर.डी. टाटा आकर अपने पक्ष में पासा पलट देते हैं।एक बार १९७१ में रतन ने जे.आर.डी. टाटा से पूछा कि अन्य कंपनियों के मुकाबले टाटा ग्रुप का विस्तार कम क्यों है? उन्होंने उत्तर दिया- मैंने कई बार इसके बारे में सोचा है। अगर हमने वे रास्ते अपनाए होते, जो दूसरी कंपनियों ने अपनाए हैं, तो हम भी आज की तुलना में दोगुने बड़े हो गए होते, लेकिन हम कंपनी को अपने तरीके से ही चलाएंगे।सन् १९९१ मेंजे.आर.डी. ने अपने उत्तराधिकारी के लिए रतन के नाम का प्रस्ताव रखा।जे.आर.डी. ने कहा कि यह मेरी तरह ही साबित होगा।टाटा संस के अध्यक्ष के तौर पर रतन के लिए शुरुआती पांच साल काफी मुश्किल भरे रहे।फिर एक के बाद एक टाटा साम्राज्य के क्षत्रप सही फिट होने लगे और रतन टाटा ने ग्रुप को अपने सोचे हुए रास्ते पर ले जाने का हक हासिल कर लिया।यह जमशेदजी टाटा और जे.आर.डी. टाटा का ऐतिहासिक रास्ता था। कई बार लोग यह भूल जाते हैं कि अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए कीमत भी चुकानी पड़ती है।रतन टाटा के लिए कीमत थी आरामदायक जिंदगी का त्याग।एक बार एक समाचार-पत्र में उन तीन महिलाओं के बारे में खबर छपी, जिनके बारे में रतन टाटा कभी अलग-अलग समय पर शादी करने की सोच रहे थे।इनमें से दो महिलाएं अमेरिका की थीं और एक पारसी।शादी न करने के सवाल पर उन्होंने कहा कि एक मुझसे पूछेगी तुम बेंगलुरु क्यों जा रहे हो? दूसरी कहेगी कि तुम्हारा न्यूयॉर्क जाना जरूरी है क्या? मैं इस तरह काम नहीं कर सकता।

मंगलवार, 13 मार्च 2012

सिर-आंखों पर रहते हैं गुडइयर



आधुनिक जीवन में रबर का आविष्कार उन चीजों में शामिल है, जिसने सही मायने में दुनिया की शक्ल बदल दी। धनी परिवार में पैदा होने के बावजूद आविष्कारक चार्ल्‍स गुडइयर को रबर का आविष्कार करने के लिए संघर्षों से गुजरना पड़ा, फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी...
रबर के प्रति चार्ल्‍स गुडइयर की दीवानगी इस कदर थी कि वे जूते से लेकर कपड़े और टोपी भी रबर की पहनते थे। गुडइयर की रबर के प्रति दीवानगी को लेकर एक बात बड़ी मशहूर थी कि अगर कोई आदमी मिले, जिसकी टोपी, जूते-मोजे और जैकेट वगैरह सभी चीजें रबर की हों और यहां तक कि पर्स भी रबर का हो और जेब में एक भी रुपया न हो, तो समझ जाएं कि वह गुडइयर ही होगा। गुडइयर के पिता प्रसिद्ध व्यवसायी थे, लेकिन गुडइयर का ध्यान पैसा कमाने में नहीं, बल्कि नए-नए आविष्कार करने और उसके रोमांच का मजा उठाने में रहता था। उन दिनों रबर के जूते तो पहने जाते थे, लेकिन गर्मी में अत्यधिक बदबू आने के कारण उन्हें काफी नापसंद किया जाता था। गुडइयर ने जलरोधक रबर बनाने का निश्चय किया और घर की रसोई को अपनी प्रयोगशाला बना लिया। जब उनकी पत्नी रात का खाना बनाकर चली जाती थीं, तो उन्हीं बर्तनों में गुडइयर का प्रयोग चलता था, लेकिन रबर की बदबू से परेशान हो रहे पड़ोसियों ने उन्हें अपनी प्रयोगशाला दूर बनाने के लिए बाध्य करना शुरू कर दिया। नतीजतन, उनकी प्रयोगशाला घर से दूर हो गई और गुडइयर रोज मीलों पैदल जाकर रबर के साथ अपना दिमाग खपाते रहते। इस तरह उन्होंने अच्छी गुणवत्ता का रबर तो बना लिया था, लेकिन उसकी बदबू से मुक्ति नहीं मिली थी। गुडइयर पूरी तरह से आकर्षक रंगों वाला तापरोधी रबर बनाना चाहते थे, जिस पर बाहरी चीजों का असर न पड़े। एक बार रबर को रंगते हुए उस पर धब्बा पड़ गया, तो उन्होंने ढेर सारा सल्फेट अम्ल डालकर उस धब्बे को उड़ाना चाहा। लेकिन धब्बे की जगह पूरे रबर का ही रंग उड़ गया। गुडइयर गुस्से से तमतमा उठे और रबर को उठाकर दूर फेंक दिया। थोड़ी देर बाद जब उनकी नजर फेंके गए रबर पर पड़ी, तो देखा कि जिस हिस्से पर सल्फेट अम्ल डाला गया था, वह काफी सख्त हो गया था। गुडइयर की खुशी का ठिकाना नहीं रहा क्योंकि वह रबर पहले से कहीं ज्यादा शुद्ध, तापरोधी और सुरक्षित रूप में इस्तेमाल हो सकता था। गुडइयर यह खबर अपने परिवार वालों को देना चाहते थे, लेकिन किसी ने भी उसमें दिलचस्पी नहीं ली। पत्नी और बच्चे उनकी धुन से तंग आ चुके थे और गुडइयर पर कर्जे का बोझ भी काफी बढ़ चुका था। कर्ज के कारण उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा, लेकिन बिना हार माने वे अपने प्रयोग में लगे रहे। १९४४ के दौरान उन्होंने रबर का आधुनिक रूप खोज निकाला, जिसे वल्कनाइजेशन नाम दिया गया। रबर के इस रूप ने गुडइयर को अपार ख्याति दी। पैसा कमाने की चाहत न होने के कारण आर्थिक तंगी हमेशा बनी रही। लेकिन जब तक वे जीवित रहे, रबर पर प्रयोग निरंतर करते रहे। 

सोमवार, 12 मार्च 2012

गुजरात का अनुसना सच

आशीष कुमार अंशु 
पावागढ़, लूणावाला, संतरामपुर, जामूगोड़ा, देवगढ़ बारी ये नाम कभी पहले सुना है आपने? इन्हीं पांच महलों को मिलाकर गुजरात के एक जिले को नाम दिया गया है पंचमहाल। यह बता पाना भी मुश्किल है कि गुजरात के इस जिले का नाम कितने लोगों ने सुना होगा, लेकिन इस जिले के जिला मुख्यालय का नाम आने पर सुनने वाले के चेहरे पर कई तरह के रंग उभर आते हैं। जी हां, यह गोधरा की बात है। जिले में सलाट, मदारी, बंजारा, काकसिया, बागड़ी, लोहाडि़या समाज के लोगों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को समझने की कोशिश में पंचमहाल के लूणावाला जाना हुआ था। इन समाजों के लोगों का गुजरात जैसे विकास का मॉडल बने राज्य में भी बदहाली में जीने के लिए अभिशप्त होना सवाल खडे़ करता हैं। पिछले नौ सालों में देश ही नहीं दुनिया भर में नरसंहार के तौर पर गोधरा को इतनी पहचान मिली कि उसकी सारी पहचान मिट ही गई है। गुजरात के बाहर लोगों को जैसे पता चलता है हम गोधरा से हैं तो सामने वाले की शक्ल इतनी दयनीय हो जाती है कि पूछो मत। अच्छा नहीं लगता, जब लोग हमें दया का पात्र समझते हैं, लेकिन हमें किसी से दया की भीख नहीं चाहिए। यह एक 21 वर्षीय युवक नवाब अली का विचार था। वैसे गोधरा की उस चाय की दुकान पर एक अनजान आदमी से कोई बात करने को तैयार नहीं था। मन में आता है न जाने कौन है, कहां से आया है और क्या चाहता है? उन लोगों को आगंतुक पर विश्वास करने में थोड़ा वक्त लगा। एक व्यक्ति ने पूछ ही लिया आखिर-आप पत्रकार हैं या एनजीओ वाले या कोई सरकारी आदमी? इस सवाल से साफ था कि उनके बीच यही तीन तरह के लोग पिछले नौ सालों से लगातार आ-जा रहे हैं। उन लोगों की एक पत्रकार से बात करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे तैयार हुए दिल्ली से आए एक शोधार्थी से बात करने के लिए जो लूणावाला के एक कॉलेज के प्राचाय कांजी भाई पटेल से मिलने के लिए गोधरा आया है। गोधरा से उसे फिर लूणावाला जाना था। जब वे लोग इस शोधार्थी की बातों से पूरी तरह आश्वस्त हो गए तोबाद में वे धीर-धीरे अनौपचारिक होने लगे, लेकिन अचानक मिले इस अपनापन से मेरी जिम्मेवारी थोड़ी बढ़ गई थी। चूंकि शोधार्थी वाले परिचय के बाद उन्होंने जो भी बाते की कायदे से किया। यह सारी बातें ऑफ दि रिकॉर्ड हैं, लेकिन वह गोधरा के दूसरे पहलू को सामने लाती हैं। बिना किसी का नाम इस्तेमाल लिए उन लोगों ने जो भी कहा उसे जानना जरूरी है। उनसे जब पहले मेरी बात हो रही थी तो बातचीत के दौरान ही एक-एक करके दूसरे लोग भी हमारी बातचीत में शामिल हुए। यदि किसी को समय मिले तो उसे एक बार गोधरा अवश्य जाना चाहिए, विश्वास है उसके अनुभव मुझसे भिन्न नहीं होंगे। चाय की दूकान पर हुई बातचीत से ही पता चला कि दंगों के दौरान गोधरा से बीस किलोमीटर दूर सेहरा नाम का एक कस्बा है, जहां मुस्लिम और सिंधी आबादी रहती है। जब पूरा गुजरात दंगों की आग में झुलस रहा था, उस दौरान इस कस्बे में एक पत्ता तक नहीं खड़का। वास्तव में इस हिंदू-मुस्लिम आबादी वाले कस्बे ने एक मिसाल कायम की, जो लोग मोदी को पूरे गुजरात का गुनाहगार मानते हैं, उन्हें इस विषय में सोचना चाहिए कि आखिर नरेंद्र मोदी की इस कस्बे में क्यों नहीं चली? यह बात गोधरा के किसी मुस्लिम व्यक्ति के मुंह से सुनकर किसी भी दिल्ली, मुंबई वाले को परेशानी हो सकती है, लेकिन जब वे बुजुर्ग व्यक्ति बोल रहे थे तो उनके साथ के किसी व्यक्ति की आंखें चौड़ी नहीं हुई, बल्कि एक ने कहा भाई साहब, मोदीजी से हमें कोई शिकायत नहीं है। वे सियासी आदमी हैं और जो लोग मोदी के खिलाफ नारे लगा रहे हैं अथवा उनके खिलाफ काम कर रहे हैं वे भी हम मुसलमानों के नाम पर सिर्फ अपना ही भला कर रहे हैं। वे भी राजनीति कर रहे हैं। उनसे भी हमें कोई उम्मीद नहीं है। उस बुजुर्ग व्यक्ति की बात खत्म होने के साथ एक-एक करके कई लोग इस बातचीत में शामिल होते गए। कुछ लोग अब भी मुझे संदेह भरी नजरों से देख रहे थे। न जाने कौन है, कहां से आया है, आदि? उनके शब्द थे 2002 में बहुत कुछ खोया हमने। धीरे-धीरे जख्म भरते हैं और मीडिया व एनजीओ वाले आकर फिर से मिर्च डालकर हमें तड़पता छोड़कर चले जाते हैं। बहुत इंटरव्यू हुए, क्या मिला हमें? अब कोई बात नहीं करनी हमें किसी से। हमारे नाम पर गुजरात की कई एनजीओ की खाल मोटी हो गई है। मोटा पैसा कमाया उन्होंने, हम मुसलमानों के नाम पर। हमें क्या मिला, पूछिए उन मोटी खाल वालों से? हम कल भी सड़क पर थे और आज भी सड़क पर हैं। हमारे जख्म मत कुरेदिए आप। आखिर गुजरात में कितने मुसलमान मोदी के खिलाफ आवाज उठाने वाले हैं। आप देख लीजिए, जो भी बोलने वाले लोग हैं सबके अपने राजनीतिक और आर्थिक हित जुड़े हैं, मोदी के खिलाफ बोलने में। गुजरात के मुलसमानों से किसी को मोहब्बत है, इसलिए हमारे पक्ष में बोल रहा है, मैं तो इस गलतफहमी में नहीं जी रहा। मोदी गुजरात में किसके लिए परेशानी हैं। एनजीओ चलाने वालों के लिए और राजनीति करने वालों के लिए। जो पीडि़त हैं उन्हें फ्रेम से बाहर कर दिया गया। सभी लोग हमदर्दी दिखाकर गुजरात के नाम पर हमें ही लूट रहे हैं। गोधरा और उसके आसपास के लोगों से बात करके जाना कि साबरमती जेल में बड़ी संख्या में निर्दोष भी दंगों के आरोपी बनाए गए। जिसने कभी ऊंची आवाज में बात तक नहीं की, वह क्या गाल काटेगा? कॉलेज जाने वाले बच्चों को उठाकर पुलिस ले गई। वैसे मेरी इस बात पर आंख बंद करके आपको विश्वास करने की जरूरत नहीं है, आप अपने स्तर पर पता कीजिए। यह जानकारी हासिल करने में अधिक मुश्किल नहीं आएगी। चाय की दुकान पर मेरी बातचीत जारी थी, हमारी बातचीत में शामिल हुए नए मेहमान का कहना था जो लोग गुजरात के खिलाफ लिख रहे हैं, बयानबाजी कर रहे हैं और खुद को हमारा साथी बताकर प्रचार पा रहे हैं उन लोगों से हम प्रार्थना करते हैं कि हमें हमारे हाल पर छोड़ दिया जाए तो मेहरबानी होगी। हम इसी मिट्टी के हैं, बाहर से नहीं आए हैं। तरह-तरह के बयानबाजियों से हमारे बीच भाईचारा खत्म हो रहा है। बयानबाजी करने वाले लोगों को समझना चाहिए कि वे इससे सभी गुजराती मुसलमानों को बदनाम कर रहे हैं। गुजरात के बाहर या अंदर हमारे लोगों को गोधरा सुनकर काम नहीं मिलता। बाहर वाला हर आदमी यही जानना चाहता है कि उस दिन स्टेशन पर क्या हुआ था? हमें क्या पता क्या हुआ? अगर पता होता कि कुछ होने वाला है तो क्या हम होने देते? मीडिया जो कहानी पिछले नौ सालों से सुना रही है वह सारा झूठ है। गुजरात में मोदी खेमे के विरोधी भी मानते हैं कि अल्पसंख्यकों से सच्ची मोहब्बत रखने वाले गुजराती समाज के लोगों को मीडिया तलाश पाने में असफल रही है। वे लोग मीडिया में नहीं दिखे और जो सामने आए उनमें अधिकांश फायदा उठाने वाले थे। अब उन चेहरों में दर्जनों ऐसे हैं जो अहमदाबाद और दिल्ली में मलाई काट रहे हैं। कोई संस्था का प्रमुख है तो कोई अकादमी संभाल रहा है। इनके विरोध की भाषा से ही पता चल जाता है कि इनका वास्तविक उद्देश्य अपना हित है।
आशीष कुमार अंशु  (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं) दैनिक जागरण से साभार