गुरुवार, 30 जुलाई 2015

मैं बंबई का बाबू......

बॉलीवुड में अपने जबरदस्त कॉमिक अभिनय से दर्शकों के दिलो में गुदगुदी पैदा करने वाले हंसी के बादशाह जानी वाकर को बतौर अभिनेता अपने सपनो को साकार करने के लिए बस कंडक्टर की नौकरी भी करनी पड़ी थी। मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में एक मध्यम वर्गीय मुस्लिम परिवार मे जन्में बदरूदीन जमालुदीन काजी उर्फ जानी वाकर बचपन के दिनो से ही अभिनेता बनने का ख्वाब देखा करते थे। वर्ष 1942 में उनका पूरा परिवार मुंबई आ गया। मुंबई मे उनके पिता के एक जानने वाले पुलिस इंस्पेक्टर थे, जिनकी सिफारिश पर जानी वाकर को बस कंडकटर की नौकरी मिल गई । इस नौकरी को पाकर जानी वाकर काफी खुश हो गए क्योंकि उन्हे मुफ्त मे हीं पूरी मुंबई घूमने को मौका मिल जाया करता था, इसके साथ ही उन्हें मुंबई के स्टूडियो मे भी जाने का मौका मिल जाया करता था। जानी वाकर का बस कंडक्टरी करने का अंदाज काफी निराला था । वह अपने विशेष अंदाज में आवाज लगाते ‘माहिम वाले पेसेन्जर उतरने को रेडी हो जा " लेडिज लोग पहले।’
इसी दौरान जानीवाकर की मुलाकात फिल्म जगत के मशहूर खलनायक एन.ए.अंसारी और के आसिफ के सचिव रफीक से हुई । लगभग सात आठ महीने के संघर्ष के बाद जानी वाकर को फिल्म ‘अखिरी पैमाने ‘ मे एक छोटा सा रोल मिला । इस फिल्म मे उन्हें पारिश्रमिक के तौर पर 80 रुपए मिले जबकि बतौर बस कंडकटर उन्हें पूरे महीने के मात्र 26 रुपए ही मिला करते थे ।वर्ष 1958 मे प्रदर्शित फिल्म .मधुमति. का एक दृश्य जिसमे वह पेड़ पर उलटा लटक कर लोगो को बताते है कि दुनिया ही उलट गई है. आज भी सिने दर्शक नही भूल पाए है। इस फिल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार भी दिया गया। इसके अलावे वर्ष 1968 में प्रदर्शित फिल्म .शिकार. के लिए जानी वाकर सर्वश्रेष्ठ हास्य अभिनेता के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। 70 के दशक में जानी वाकर ने फिल्मों में काम करना काफी कम कर दिया. क्योंकि उनका मानना था कि फिल्मों में कामेडी का स्तर काफी गिर गया है। इसी दौरान रिषिकेष मुखर्जी की फिल्म .आनंद. में जानी वाकर ने एक छोटी सी भूमिका निभाई। इस फिल्म के एक दृश्य में वह राजेश खन्ना को जीवन का एक ऐसा दर्शन कराते है कि दर्शक अचानक हंसते हंसते संजीदा हो जाता है।
 वर्ष 1986 में अपने पुत्र को फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित करने के लिए जानी वाकर ने फिल्म .पहुंचे हुए लोग. का निर्माण और निर्देशन भी किया। लेकिन बाक्स आफिस पर यह फिल्म बुरी तरह से नकार दी गई।इसके बाद जानी वाकर ने फिल्म निर्माण से तौबा कर ली। इस बीच उन्हें कई फिल्मों में अभिनय करने के प्रस्ताव मिले जिन्हें जानी वाकर ने इंकार कर दिया लेकिन गुलजार और कमल हसन के बहुत जोर देने पर वर्ष 1998 में प्रदर्शित फिल्म चाची 420 में उन्होंने एक छोटा सा रोल निभाया जो दर्शको को काफी पसंद भी आया।
  जानी वाकर ने अपने अपने पांच दशक के लंबे सिने कैरियर में लगभग 300 फिल्मों मेंं काम किया। अपने विशिष्ट अंदाज और हाव भाव से लगभग चार दशक तक दर्शको का मनोरंजन करने वाले महान हास्य कलाकार जानी वाकर 29 जुलाई 2003 को इस दुनिया से रूखसत हो गए ।
जानी वाकर की प्रसिद्वी का एक विशेष कारण यह था कि उनकी हर फिल्म में एक या दो गीत उनपर अवश्य फिल्माए जाते थे जो काफी लोकप्रिय भी हुआ करते थे। वर्ष 1956 में प्रदर्शित गुरुदत्त की फिल्म सी.आई.डी मेंं उन पर फिल्माया गाना .ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां. जरा हट के जरा बच के ये है बंबई मेरी जान. ने पूरे भारत वर्ष में धूम मचा दी। इसके बाद हर फिल्म में जानी वाकर पर गीत अवश्य फिल्माएं जाते रहे यहां तक कि फाइनेंसर और डिस्ट्रीब्यूटर की यह शर्त रहती कि फिल्म में जानी वाकर पर एक गाना अवश्य होना चाहिए।
  फिल्म नया दौर में उन पर फिल्माया गाना .मै बंबई का बाबू. या फिर मधुमति का गाना .जंगल मंे मोर नाचा किसने देखा. उन दिनों काफी मशहूर हुआ। गुरुदत्त तो विशेष रूप से जानी वाकर के गानों के लिएजमीन तैयार करते थे। फिल्म मिस्टर एंड मिसेज 55 का गाना. जाने कहां मेरा जिगर गया जी. या प्यासा का गाना. सर जो तेरा चकराए. काफी हिट हुआ। इसके अलावे चौदहवी का चांद का गाना. मेरा यार बना है दुल्हा. काफी पसंद किया गया। जानी वाकर पर फिल्माए अधिकतर गानों को मोहम्मद रफी ने अपनी आवाज दी है लेकिन फिल्म बात एक रात की. मंे उन पर फिल्माया गाना .किसने चिलमन से मारा नजारा मुझे. में मन्ना डे ने अपनी आवाज दी। जानी वाकर ने लगभग दस‘बारह फिल्मों में हीरो के रोल भी निभाए। उनके हीरो के तौर पर पहली फिल्म थी .पैसा ये पैसा. जिसमें उन्होंने तीन चरित्र निभाए। इसके बाद उनके नाम पर निर्माता वेद मोहन ने वर्ष 1967 में फिल्म .जानी वाकर. का निर्माण किया।
एक दिन उस बस
एक दिन उस बस में अभिनेता बलराज साहनी भी सफर कर रहे थे वह जानी वाकर के हास्य व्यंगय के अंदाज से काफी प्रभावित हुए और उन्होंने जानीवाकर को गुरुदत्त से मिलने की सलाह दी। गुरुदत्त उन दिनों बाजी नामक एक फिल्म बना रहे थे। गुरुदत्त ने जाॅनी वाकर की प्रतिभा से खुश होकर अपनी फिल्म बाजी मेंं काम करने का अवसर दिया। वर्ष 1951 में प्रदर्शित फिल्म .बाजी. के बाद जानी वाकर बतौर हास्य कलाकार अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। फिल्म बाजी के बाद वह गुरुदत्त के पसंदीदा अभिनेता बन गए। उसके बाद जानी वाकर ने गुरुदत्त की कई फिल्मों मे काम किया जिनमें आरपार.मिस्टर एंड मिसेज 55 . प्यासा. चैदहवी का चांद. कागज के फूल जैसी सुपर हिट फिल्में शामिल है।  नवकेतन के बैनर तले बनी फिल्म टैक्सी ड्राइवर में जानी वाकर के चरित्र का नाम .मस्ताना. था। कई दोस्तो ने उन्हें यह सलाह दी कि वह अपना फिल्मी नाम मस्ताना ही रखे लेकिन जानी वाकर को यह नाम पसंद नही आया और उन्होने उस जमाने की मशहूर शराब .जानी वाकर. के नाम पर अपना नाम जानी वाकर रख लिया। फिल्म की सपलता के बाद गुरुदत्त उनसे काफी खुश हुए और उन्हें एक कार भेंट की। गुरुदत्त के फिल्मों के अलावा जानी वाकर ने टैक्सी ड्राइवर. देवदास. नया अंदाज. चोरी चोरी. मधुमति. मुगले आजम.मेरे महबूब. बहू बेगम.मेरे हजूर जैसी कई सुपरहिट फिल्मों मे अपने हास्य अभिनय से दर्शको का भरपूर मनोरंजन किया। (वार्ता)

सोमवार, 27 जुलाई 2015

भारत कुमार का अंदाज ही अलग है

हिंदी फिल्म जगत में मनोज कुमार को एक ऐसे बहुआयामी कलाकार के तौर पर जाना जाता है जिन्होंने फिल्म निर्माण के साथ साथ  निर्देशन, लेखन, संपादन और बेजोड़ अभिनय से भी दर्शकों के दिल में अपनी खास पहचान बनायी है। मनोज कुमार (मूल नाम हरिकिशन गिरी गोस्वामी) का जन्म 24 जुलाई 1937 में हुआ था। जब वह महज दस वर्ष के थे तब उनका पूरा परिवार राजस्थान के हनमुनगढ़ जिले में आकर बस गया। बचपन के दिनों में मनोज कुमार ने दिलीप कुमार अभिनीत फिल्म शबनम देखी थी। फिल्म में दिलीप कुमार के निभाये किरदार से मनोज कुमार इस कदर प्रभावित हुये कि उन्होंने भी फिल्म अभिनेता बनने का फैसला कर लिया। मनोज कुमार ने अपनी स्नातक की शिक्षा दिल्ली के मशहूर हिंदू कॉलेज से पूरी की। इसके बाद अभिनेता बनने का सपना लेकर वह मुंबई आ गये। बतौर अभिनेता मनेाज कुमार ने अपने सिने करियर की शुरुआत वर्ष 1957 में प्रदर्शित फिल्म फैशन से की। कमजोर पटकथा और निर्देशन के कारण फिल्म टिकट खिड़की पर बुरी तरह से नकार दी गयी।
वर्ष 1957 से 1962 तक मनोज कुमार फिल्म इंडस्ट्री मे अपनी जगह बनाने के लिये संघर्ष करते रहे। फिल्म फैशन के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली वह उसे स्वीकार करते चले गये। इस बीच उन्होंने कांच की गुड़िया, रेशमी रूमाल, सहारा, पंयायत, सुहाग, सिंदूर, हनीमून, पिया मिलन की आस जैसी कई बी ग्रेड फिल्मों मे अभिनय किया लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म बाक्स आॅफिस पर सफल नहीं हुयी। मनोज कुमार के अभिनय का सितारा निर्माता-निर्देशक विजय भट्ट की वर्ष 1962 में प्रदर्शित क्लासिक फिल्म 'हरियाली और रास्ता' से चमका। फिल्म में मनोज कुमार के विपरीत माला सिन्हा थी। दोनों की जोड़ी को दर्शकों ने बेहद पसंद किया।  वर्ष 1964 में मनोज कुमार की एक और सुपरहिट फिल्म 'वह कौन थी' प्रदर्शित हुयी। फिल्म में नायिका की भूमिका साधना ने निभायी। रहस्य और रोमांच से भरपूर इस फिल्म में साधना की मुस्कान के दर्शक दीवाने हो गये। वर्ष 1965 में मनोज कुमार की एक और सुपरहिट फिल्म गुमनाम भी प्रदर्शित हुयी। इसी वर्ष मनोज कुमार को विजय भट्ट की फिल्म 'हिमालय की गोद में' काम करने का मौका मिला जो सुपरहिट हुयी। इस फिल्म में भी मनोज कुमार की नायिका माला सिन्हा थी। वर्ष 1965 में ही प्रदर्शित फिल्म 'शहीद' मनोज कुमार के सिने करियर की महत्वपूर्ण फिल्मों में शुमार की जाती है। देशभक्ति के जज्बे से परिपूर्ण इस फिल्म में मनोज कुमार ने भगत सिंह की भूमिका को रूपहले पर्दे पर जीवंत कर दिया। फिल्म से जुड़ा दिलचस्प तथ्य है कि मनोज कुमार के ही कहने पर गीतकार प्रेम धवन ने इस फिल्म के गीत लिखे साथ ही फिल्म का संगीत भी दिया। उनके रचित गीत 'ऐ मेरे प्यारे वतन' और 'मेरा रंग दे बसंती चोला' आज भी उसी तल्लीनता से सुने जाते हैं, जिस तरह उस दौर में सुने जाते थे।

मंगलवार, 14 जुलाई 2015

सहज, उदार व्यक्तित्व की धनी किशोरी अमोणकर

किशोरी अमोणकर
शुभदा जोगलेकर
 कला के क्षेत्र में सन‌् 2001 का चक्रधर सम्मान जयपुर-अतरौली घराने की प्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका गान सरस्वती किशाेरी अमाेणकर को दिया गया। इसे स्वीकारने दो दिन के प्रवास पर वे रायपुर आई थीं। दो दिनों तक वे राज्य सरकार की मेहमान थीं, इस दौरान बतौर उनकी गाइड मुझे उनका सानिध्य मिला। वे दो दिन मेरे लिए अविस्मरणीय हैं।
मुझे राज्य सरकार का पत्र मिला कि शास्त्रीय संगीत की प्रसिद्ध गायिका किशोरी अमोणकर के रायपुर प्रवास के दौरान उनकी स्थानीय गाइड आप होंगी। पत्र पढ़कर पहले तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। दरअसल बचपन से ही मैं किशोरी जी की फैन रही हूं। उनका ‘म्हारो प्रणाम, बांके बिहारी जी...’  मेरा फेवरेट भजन है। इस ‘बांके बिहारी जी...’ के ‘..जी..’ मेंं जो अर्ज, जो विनती है वह दिल को छू देने वाली है। हिंदी भाषी क्षेत्र में रहते हुए भी ‘..जी..’ शब्द का इतना सुंदर प्रयोग अन्यत्र सुनने को नहीं मिला। ऐसी गायिका का सानिध्य...। वह भी दो दिन...। इसलिए पत्र पढ़कर मैं खुशी से झूम उठी। खुशी का आवेग कम होने पर डर भी लगा। क्योंकि मैं उनकी फैन जरूर हूं, उन्हें कई बार सुना भी है लेकिन वह सब रेडियो, टेप या टीवी तक ही सीमित है। न तो उनसे मेरी कभी मुलाकात ही हुई न ही उन्हें करीब से देखने का कोई मौका ही मिला। हां..., पढ़-सुनकर जरूर मालूम था कि वे एक मूडी कलाकार हैं। इसलिए जेहन में कई विचार कौंध से गए। आखिर में तय किया कि ठीक है, जब अवसर मिल रहा है, तो फिर जो होगा देखा जाएगा।
एक नवंबर की दोपहर ठीक 11 बजे मैं, किशाेरी अमोणकर को रिसीव करने रायपुर के माना हवाई अड्‌डे पर पहुंची। वहां काफी भीड़ थी। लेकिन वह भीड़ किशाेरी अमोणकर को देखने, सुनने के लिए नहीं, बल्कि कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी को देखने-सुनने के लिए जुटी थी। उसमें भीड़ का भी कोई दोष नहीं था। नेताओं से मिलने के बाद कम से कम उनसे आश्वासन, वायदे तो मिलते हैं (भले ही वे पूरे न हों), किसी कलाकार को देखकर भीड़ को क्या मिलता...?
खैर, भारतीय परंपरा में अपनी निष्ठा को बरकरार रखता हुआ किशोरी जी का विमान जरा देर से ही आया। आैर वह क्षण आ पहुंचा...! वे सामने थीं...अपना लगेज चेक करती हुईं-‘सामान तो सब ठीक से आ गया न भई!’ मैं हड़बड़ी में आगे बढ़ी और झुककर अभिवादन करने के बाद अपना परिचय दिया, वे निर्विकार थीं। उसी दौरान सोनियाजी की विमान भी आ पहुंचा था, इसलिए वहां चहल-पहल एकाएक बढ़ गई थी। मैं उन्हें लाऊंज में ले गई और उनसे विनती की कि ‘दीदी, भीड़ थोड़ी छंट जाए फिर हम चलेंगे...।’ वे तुरंत मान गईं। भीड़ की वजह से शायद वे भी परेशान थीं। लाऊंज में ही वे फ्रेश हुईं। भीड़ छंट जाने के बाद वहीं के एक अधिकारी से मिलकर मैंने दीदी के लिए एक स्वतंत्र गाड़ी की व्यवस्था करने को कहा। अपने लिए स्वतंत्र गाड़ी देखकर किशोरी जी के चेहरे पर संतोष के भाव नजर आए (और मैंने परमेश्वर को धन्यवाद दिया)।
हवाई अड्‌डे से होटल तक मिले एकांत की वजह से हो शायद, पर होटल पहुंचने पर वहां का वातावरण बिलकुल सहज, मैत्रीपूर्ण था। वहां उन्होंने सहजता से मुझसे बात की। मैं भी हर्षित हो उठी थी। क्यों न हो, मेरी पसंदीदा गायिका जो मुझसे मुखातिब थी। मैंने उन्हें बताया कि मैं बिलासपुर के बर्जेस इंगलिश मीडियम स्कूल में शिक्षिका हूं। मेरी ससुराल रायपुर में ही है। बातों ही बातों में उन्होंने आग्रह कर मुझे लंच पर रोक लिया। शाम को छत्तीसगढ़ राज्य सम्मान समाराेह था। जिसमें पुरस्कार वितरण के बाद किशाेरी अमोणकर के गायन का कार्यक्रम था।
शाम को मैं होटल पहुंची, उनसे मिली। मुझे देखते ही उनहोंने बगैर किसी लाग-लपेट के सीधे सवाल दागा-‘शुभी..., मैं क्या गाऊं...! संपूर्ण राग या लाइट क्लासिकल...़?’ इस अनपेक्षित सवाल पर मैं घबरा गई, नर्वस भी हुई। फिर खुद पर गर्व भी हुआ। सिर्फ चार घंटे पहले मिली मुझ जैसी अदना सी शिक्षिका से, एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार पूछ रही थी कि क्या गाऊं...? बेशक यह उनका बड़प्पन ही तो था। पर जवाब तो देना ही था। मैंने डरते-डरते धीरे से कहा-‘दीदी, अव्वल तो यह सरकारी प्रोग्राम है। जिसमें भाषणबाजी ज्यादा होगी। ठीक है कि मैं आपकी फैन हूं और मुझे शास्त्रीय संगीत सुनने में आनंद मिलता है। इसके बावजूद मुझे लगता है कि आप प्रोग्राम में लाइट म्युजिक ही प्रस्तुत करें।’ ठीक छह बजे वे तैयार होकर आईं, फिर हम समारोहस्थल पर पहुंचे।
मुझे आश्चर्य हुआ कि इतनी प्रसिद्ध, ख्यातिप्राप्त कलाकार होकर भी कार्यक्रम से पहले वे काफी नर्वस थीं। वे बार-बार अपने लड़के व संगतकारों से पूछ रही थीं-‘हमारी तैयारी तो पूरी है न..., उसमें कोई कमी तो नहीं रह गई...?’ कार्यक्रम के बाद अनौपचारिक चर्चा में उन्होंने स्वीकार किया कि वे हर बार कार्यक्रम से पहले नर्वस होती ही हैं।
जैसा मैंने सोचा था, कार्यक्रम वैसा ही हुआ। दरअसल समारोह में उपस्थित अधिकतर लोग शास्त्रीय संगीत की बजाय लोक नृत्य देखना व लोकगीत सुनना चाह रहे थे, क्योंकि वे सभी स्थानीय कलाकार थे। किशोरी जी ने तीन भजन प्रस्तुत किए। उनमें ‘म्हारो प्रणाम...’ व ‘पिया बिन सूनो छे जी म्हारो देस...’ शामिल थे। अपनी प्रस्तुति के बाद वे ग्रीन रुम पहुंचीं। वहां उनसे मिलने उन लोगों का तांता लगा था जो सचमुच उन्हें देखना-सुनना चाहते थे। लेकिन शासन की अदूरदर्शिता की वजह से वे किशोरी अमोणकर के गायन का पूरा आनंद नहीं उठा सके। दरअसल शास्त्रीय संगीत की महफिल तभी सफल होती है, जब वह स्वतंत्र हो। पुरस्कार वितरण, नेताओं का संबोधन और दूसरे कार्यक्रमों के बीच शास्त्रीय संगीत...कैसे संभव है। लेकिन सरकारी कार्यक्रम ऐसे ही होते हैं और ऐसे कार्यक्रमों से श्रोताओं को निराशा ही हाथ लगती है।
इसलिए जब मैंने किशोरीजी से सवाल किया कि कार्यक्रम कैसा रहा? तो वे आयोजकों पर खूब बरसीं और होटल लौट गईं। यह उनकी स्पष्टवादिता थी। हां, उन्होंने सोनिया गांधी का उल्लेख करते हुए कहा कि ‘सोनियाजी को मेरा गायन पसंद है, लेकिन उनकी सुरक्षा व्यवस्था उन्हें पब्लिक मीटिंग से अलग रखती है।’ उन्होंने मुझे दूसरे दिन दोपहर को 11 बजे आने को कहा। वे इस नए राज्य की राजधानी का बाजार देखना, घूमना चाहती थीं। (इच्छा हुई तो खरीददारी का भी)।
मैं समय पर होटल पहुंची, तो ग्रुप के साथ वे तैयार थीं। उनके व्यक्तित्व पर नीली-चंदेरी रंग की साड़ी खूब जंच रही थी। धूप से बचने के लिए उन्होंने जो गॉगल लगा रखा था, वह काफी बड़ा था। जो उनके चेहरे पर सूट नहीं कर रहा था। ग्रुप के एक सदस्य ने उन्हें बताया। तो प्रतिक्रिया में उन्होंने कहा-‘यह गॉगल लगाने के बाद मुझे ऐसा लगता है कि मैं खूबसूरत नजर आती हूं...।’ एक स्वाभाविक सोच। लेकिन यह सोच एक ख्यातिप्राप्त कलाकार की थी। आखिर कलाकार भी तो एक इनसान ही होता है और उसकी भी अपनी पसंद-नापसंद होती है। बाजार में भी उनके सरल, सहज स्वभाव का कदम-कदम पर अनुभव मिला। खरीददारी करते समय वे ग्रुप के हर सदस्य से राय मशविरा कर रही थीं और सभी उन्हें बगैर किसी हिचक, झिझक के सलाह दे रहे थे। अब ऐसा तो हरगिज नहीं था कि वे अपने लिए खरीददारी न कर सकें। पर मुझे लगता है कि दूसरों को महत्व देने का यह उनका अपना तरीका था। बाजार से हम लौटे तो साढ़े आठ बज चुके थे। दूसरे दिन मेरा स्कूल था। इसलिए मैंने उनसे इजाजत मांगी। तो वे बड़े प्यार से बोलीं-‘अरे...तू चली जाएगी तो इस शहर में मेरा क्या होगा‌...?’ उनके इस सवाल पर मुझे तुरंत सूझा ही नहीं कि क्या कहूं? वे फिर बोलीं-‘मेरे लिए रुक जाओ न...!’ ठीक भी तो था। मेरी पसंदीदा गायिका मुझसे रुकने का आग्रह कर रही थी, यह कितना बड़ा सम्मान था मेरे लिए। उनका आग्रह, उनका सानिध्य नकारने की जुर्रत मैं कैसे कर सकती थी...? मैंने उनसे कहा-‘आप मुझे कितना सम्मान दे रही हैं। लेकिन कभी आपके साथ भी ऐसा हुआ क्या कि आपकी पसंदीदा शख्सियत ने आपको रोकने का प्रयास किया हो...?’ इस पर वे हंसकर बोलीं-‘हां..., जब मैं बेंगलुरू जाती हूं, तब स्वामी राघवेंद्र सरस्वती जब मुझसे रुकने का आग्रह करते हैं, तब मुझे आनंद होता है।’ उन्होंने फिर मुझे डिनर पर रोक लिया। डाइनिंग टेबल पर भी वे ही बोलती रहीं, हम सभी श्रोता की भूमिका में थे। नए राज्य के बारे में उनका कहना था कि यहां भी समय-समय पर शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम होते रहने चाहिए। उनका मानना था कि लोक संगीत जरूरी है, लेकिन शास्त्रीय संगीत की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। शास्त्रीय संगीत शाश्वत है। और जो शाश्वत होता है वह कभी खत्म नहीं हो सकता। अपनी मां, गान तपस्विनी मोगूबाई कुर्डीकर के बारे में वे बहुत देर तक आदर के साथ बोलती रहीं। उनकी राग सिखाने की शैली, उनके गुस्से का उन्होंने साभिनय उदाहरण प्रस्तुत किया। गलत स्वर लगते ही नाक पर ऐनक थोड़ी सी आगे खिसकाकर आंखें बड़ी करके वे कुछ ऐसे अंदाज में देखती थीं कि गलती करने वाला बरबस सहम सा जाता था। बातचीत के दौरान उन्होंने नम्रता से स्वीकार किया कि आज जो वे इस मुकाम पर हैं तो यह उनकी मां की मेहनत व आशीर्वाद का ही फल है। इन दो दिनों में यह पहला मौका था जब उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में बात की थी।
उनके लौटने के बाद मैं भी लौट गई, उन दो दिनों की स्मृतियां मन में संजोये हुए। रह-रहकर मेरे मन में यह सवाल उठ रहा था कि किशाेरी अमोणकर जी के साथ जैसा अनुभव मुझे मिला, क्या वैसा ही अनुभव उनके सानिध्य में आने वाले सभी लोगों को मिलता होगा...?
मूल अंग्रेजी लेख: शुभदा जोगलेकर
हिंदी अनुवाद: रवींद्र दत्तात्रय तेलंग

शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

मुनव्वर राणा की दो नज्में

विभाजन के समय जो लोग हिंदोस्तान से पाकिस्तान चले गए, उनको वहाँ 'मुहाजिर'(शरणार्थी) कहा गया।
मुहाजिरों पर लखनऊ के सुविख्यात शायर मुनव्वर राना साहब ने लगभग साढ़े चार सौ अशआर पर आधारित एक लंबी ग़ज़ल 'मुहाजिरनामा' कही।
हालाँकि ये ग़ज़ल ख़ासतौर पर भारत-पाकिस्तान के बँटवारे से जुड़े मुहाजिरों के लिए लिखी गयी है, लेकिन दुनिया के दूसरे मुहाजिरों के लिए भी ये उतनी ही प्रासंगिक है।
इस ग़ज़ल के कुछ चुनिंदा अशआर देखें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियाँ दें।
०००

मुहाजिर हैं, मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं
तुम्हारे पास जितना है, हम उतना छोड़ आए हैं
(मुहाजिर - शरणार्थी)

कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं

कई दर्जन कबूतर तो हमारे पास ऐसे थे
जिन्हें पहना के हम चांदी का छल्ला छोड़ आए हैं

वो टीपू जिसकी क़ुर्बानी ने हमको सुर्ख़-रू रक्खा
उसी टीपू के बच्चों को अकेला छोड़ आए हैं
(टीपू - टीपू सुल्तान; सुर्ख़-रू - कामयाब/अच्छी हालत में)

नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं

अभी तक हमको मजनूँ कहके कुछ साथी बुलाते हैं
अभी तक याद है हमको कि लैला छोड़ आए हैं

'मियाँ' कह कर हमारा गाँव हमसे बात करता था
ज़रा सोचो तो हम भी कैसा ओहदा छोड़ आए हैं

वो इंजन के धुएँ से पेड़ का उतरा हुआ चेहरा
वो डिब्बे से लिपट कर सबको रोता छोड़ आए हैं

हमारा पालतू कुत्ता हमें पहुँचाने आया था
वो बैठा रो रहा था, उसको रोता छोड़ आए हैं

बिछड़ते वक़्त था दुश्वार उसका सामना करना
सो उसके नाम हम अपना संदेशा छोड़ आए हैं

बुरे लगते हैं शायद इसलिए ये सुरमई बादल
किसी की ज़ुल्फ़ को शानों पे बिखरा छोड़ आए हैं
(शाना - कन्धा)

कई होठों पे ख़ामोशी की पपड़ी जम गयी होगी
कई आँखों में हम अश्कों का पर्दा छोड़ आए हैं

बसी थी जिसमें ख़ुश्बू मेरी अम्मी की जवानी की
वो चादर छोड़ आए हैं, वो तकिया छोड़ आए हैं

किसी की आरज़ू के पाँवों में ज़ंजीर डाली थी
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं

पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमें सलीक़े से
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं

जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं
(उन्नाव - यूपी का एक ज़िला, मोहान - एक क़स्बा)
(नोट: यहाँ 'हसरत' शब्द महान उर्दू शायर, पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी 'हसरत मोहानी' के लिए इस्तेमाल किया गया है।)

यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद
हम अपना घर-गली, अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं

हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं

गले मिलती हुई नदियाँ, गले मिलते हुए मज़हब
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं

वज़ू करने को जब भी बैठते हैं, याद आता है
कि हम जल्दी में जमना का किनारा छोड़ आए हैं
(वज़ू - नमाज़ पढ़ने से पहले मुँह-हाथ-पैर धोने की एक निश्चित और अनिवार्य प्रक्रिया; जमना - यमुना)

हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा, छोड़ आए हैं
(सेहरा - शादी के मौक़े पर दूल्हा और उसके घरवालों के बारे में नज़्म या ग़ज़ल के रूप में लिखा गया कलाम)

कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं
कि हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं

शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी
कि हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं

वो बरगद जिसके पेड़ों से महक आती थी फूलों की
उसी बरगद में एक हरियल का जोड़ा छोड़ आए हैं

अभी तक बारिशों में भीगते ही याद आता है
कि हम छप्पर के नीचे अपना छाता छोड़ आए हैं

भतीजी अब सलीक़े से दुपट्टा ओढ़ती होगी
वही झूले में हम जिसको हुमड़ता छोड़ आए हैं

ये हिजरत तो नहीं थी बुज़दिली शायद हमारी थी
कि हम बिस्तर में एक हड्डी का ढाँचा छोड़ आए हैं
(हिजरत - एक जगह से दूसरी जगह रहने के लिए जाना)

हमारी अहलिया तो आ गयी, माँ छुट गई आख़िर
कि हम पीतल उठा लाये हैं, सोना छोड़ आए हैं
(अहलिया - पत्नी)

महीनों तक तो अम्मी ख़्वाब में भी बुदबुदाती थीं
सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आए हैं

वज़ारत भी हमारे वास्ते कम-मर्तबा होगी
हम अपनी माँ के हाथों में निवाला छोड़ आए हैं
(वज़ारत - मंत्रालय का पद; कम-मर्तबा - छोटे दर्जे की)

यहाँ आते हुए हर क़ीमती सामान ले आए
मगर इक़बाल का लिक्खा तराना छोड़ आए हैं

कल एक अमरुद वाले से ये कहना पड़ गया हमको
जहाँ से आये हैं हम इसकी बग़िया छोड़ आए हैं

वो हैरत से हमें तकता रहा कुछ देर, फिर बोला
वो संगम का इलाक़ा छुट गया या छोड़ आए हैं?
(नोट: संगम यानी इलाहाबाद के मीठे अमरूद बहुत मशहूर हैं।)

अभी हम सोच में गुम थे कि उससे क्या कहा जाए
हमारे आँसुओं ने राज़ खोला, 'छोड़ आए हैं'

गुज़रते वक़्त बाज़ारों में अब भी याद आता है
किसी को उसके कमरे में सँवरता छोड़ आए हैं

हमारा रास्ता तकते हुए पथरा गयी होंगी
वो आँखे जिनको हम खिड़की पे रक्खा छोड़ आए हैं

तू हमसे चाँद इतनी बेरुख़ी से बात करता है
हम अपनी झील में एक चाँद उतरा छोड़ आए हैं

ये दो कमरों का घर और ये सुलगती ज़िंदगी अपनी
वहाँ इतना बड़ा नौकर का कमरा छोड़ आए हैं

हमें मरने से पहले सबको ये ताकीद करनी है
किसी को मत बता देना कि क्या-क्या छोड़ आए हैं
(ताकीद - नसीहत)

ग़ज़ल ये ना-मुक़म्मल ही रहेगी उम्र भर 'राना'
कि हम सरहद से पीछे इसका मक़्ता छोड़ आये हैं
(ना-मुकम्मल - अधूरी; मक़्ता - ग़ज़ल का आख़िरी शेर जिसमें शायर का तख़ल्लुस यानी उपनाम भी आता है)

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"आज उस बूढी अलमारी के अन्दर ... पुराना इतवार मिला है ... "

जाने क्या ढूँढने खोला था उन बंद दरवाजों को ...

अरसा बीत गया सुने उन धुंधली आवाजों को ...

यादों के सूखे बागों में जैसे
एक गुलाब खिला है ...

आज उस बूढी अलमारी के अन्दर ...
पुराना इतवार मिला है ...

कांच की एक डिब्बे में कैद ...
खरोचों वाले कुछ कंचे ...

कुछ आज़ाद इमली के दाने ...
इधर उधर बिखरे हुए ...

मटके का इक चौकोर लाल टुकड़ा ...
पड़ा बेकार मिला है ...

आज उस बूढी अलमारी के अन्दर ...
पुराना इतवार मिला है ...

एक भूरी रंग की पुरानी कॉपी...
नीली लकीरों वाली ...

कुछ बहे हुए नीले अक्षर...
उन पुराने भूरे पन्नों में ...

स्टील के जंक लगे शार्पनर में पेंसिल का एक छोटा टुकड़ा ...
गिरफ्तार मिला है ...

आज उस बूढी अलमारी के अन्दर ...
पुराना इतवार मिला है ...

बदन पर मिटटी लपेटे एक गेंद पड़ी है ...

लकड़ी का एक बल्ला भी है जो नीचे से छीला छीला है ...

बचपन फिर से आकर साकार मिला है ...

आज उस बूढी अलमारी के अन्दर ...
पुराना इतवार मिला है ...

एक के ऊपर एक पड़े ...
माचिस के कुछ खाली डिब्बे ...

बुना हुआ एक फटा सफ़ेद स्वेटर ...
जो अब नीला नीला है ...

पीला पड़ चूका झुर्रियों वाला एक अखबार मिला है ...

आज उस बूढी अलमारी के अन्दर ...
पुराना इतवार मिला है ...

गत्ते का एक चश्मा है ...
पीला प्लास्टिक वाला ...

चंद खाली लिफ़ाफ़े बड़ी बड़ी डाक टिकिटों वाले ...

उन खाली पड़े लिफाफों में भी छुपा एक इंतज़ार मिला है ...

आज उस बूढी अलमारी के अन्दर ...
पुराना इतवार मिला है ...

पापा ने चार दिन रोने के बाद जो दी थी वो रुकी हुई घडी ...

दादा जी के डायरी से चुराई गयी वो सुखी स्याही वाला कलम मिला है ...

आज उस बूढी अलमारी के अन्दर ...
पुराना इतवार मिला है ...

कई बरस बीत गए ...

आज यूँ महसूस हुआ रिश्तों को निभाने की दौड़ में भूल गये थे जिसे ...

यूँ लगा जैसे वही बिछड़ा ...
पुराना यार मिला है ...

आज उस बूढी अलमारी के अन्दर ...
पुराना इतवार मिला है ...

आज उस बूढी अलमारी के अन्दर .... पुराना इतवार मिला है

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

संकट में हैं इंसान के वफादार मित्र

भारत डोगरा
नवीनतम पशु गणना के आंकड़ों सेपता चला है कि सदियों से मनुष्य के लिए बेहद उपयोगी भूमिका निभाने वाले कुछ पशुओं की संख्या में तेज़ी से कमी हो रही है। खास तौर से गधे और ऊंट की संख्या में बहुत तेज़ कमी हुई है। वर्ष 2012 की पशुगणना के आंकड़े बताते हैं कि पिछली जनगणना (2007) की तुलना में गधों की संख्या में 27 प्रतिशत और ऊंटों की संख्या में 22 प्रतिशत की कमी हुई है। मात्र 5 वर्ष में इतनी कमी से पता चलता है कि ये पशु गंभीर संकट के दौर से गुज़र रहे हैं। गधे के साथ मनुष्य ने बहुत अन्याय किया है। गधे ने कभी पानी लाने में, कभी धोबी के कपड़े ढोने में, कभी निर्माण कार्य के लिए बालू-रेत या बजरी ढोने में, तरह-तरह से गधों ने मनुष्य का साथ दिया है। चाहे रेगिस्तान की गर्म दोपहरी हो या नदी किनारे के बालू के मैदान की सर्द हवाएं, गधों ने प्यासे लोगों तक पानी पहुंचाया है, आपदाग्रस्त क्षेत्रों में राहत सामग्री पहुंचाई है। इसके बदले में गधे को मारपीट व बुरा व्यवहार ही मिला। ‘गधा’ शब्द को ही अपमानसूचक अर्थ में उपयोग में लाया गया। बहुत सेवा करने के बावजूद गधे ने पेट भरने के लिए कोई पकवान नहीं, घास ही मांगी थी। वह घास भी उसे पर्याप्त नहीं मिली और अब सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि गधों की संख्या तेज़ी से कम हो रही है।
संभव है कि बदलते समय और तकनीकों के साथ गधे के कुछ परंपरागत कार्यों की अब पहले जितनी ज़रूरत न रही हो पर इसका अर्थ यह नहीं है कि उसकी ऐसी उपेक्षा की जाए कि अस्तित्व ही संकट में पड़ जाए। यह भी चिंता का विषय होना चाहिए कि उपेक्षा के अतिरिक्त अन्य कारण भी हैं इनके संकट में पड़ने के (जैसे कोई बीमारी या पर्यावरण में बदलाव)। यदि ऐसे कोई कारण हैं तो उन्हें दूर करने के प्रयास होने चाहिए। इसी तरह ऊंट की संख्या में 22 प्रतिशत कमी के कारण समझने चाहिए व उनकी रक्षा के उपाय करने चाहिए। ऊंट ने रेगिस्तानी क्षेत्रों व आसपास के अन्य क्षेत्रों में भी बहुत उपयोगी भूमिका निभाई है और उसे इस भूमिका के अनुकूल अपनी देखरेख का व सम्मानजनक स्थान का पूरा हक है। पशु गणना के आंकड़े आगे यह भी बताते हैं कि भेड़ों की संख्या में भी काफी कमी हो रही है हालांकि यह उतनी नहीं है जितनी कि ऊंटों व गधों के संदर्भ में है। भेड़ पालन की महत्वपूर्ण भूमिका विशेषकर अनेक रेगिस्तानी व पर्वतीय क्षेत्रों में रही है। अनेक घुमंतू समुदायों के लिए भेड़ पालन आजीविका का महत्वपूर्ण रुाोत रहा है। अंतर्राष्ट्रीय ऊन व्यापार में उतार-चढ़ाव के साथ ही कई बार लाखों भेड़ों के जीवन को जोड़ दिया जाता है। 1990-92 के दौरान अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में ऊन की कीमत गिरने पर ऊन के बड़े निर्यातक ऑस्ट्रेलिया में लगभग 2 करोड़ भेड़ों को मारने की योजना बनाई गई। इस बारे में एक ह्मदयविदारक रिपोर्ट में टाईम पत्रिका ने लिखा था कि किसान अपने आंसू रोकते हुए अपनी भेड़ों को उस स्थान पर छोड़ जाते हैं जहां उन्हें गोली मारी जाती है। भेड़ों को दफनाने की व्यवस्था बड़े पैमाने पर की गई। इस उदाहरण से साफ है कि मनुष्य ने मददगार पशु-पक्षियों से रक्षा का सम्बंध नहीं बनाया है। इन  पशु-पक्षियों से मात्र लाभ प्राप्त करने की प्रवृत्ति हाल के समय में हावी होती गई है। मनुष्य की भूमिका रक्षक की होनी चाहिए, और इन जीव-जंतुओं की रक्षा के कदम समय रहते उठाने चाहिए। (रुाोत फीचर्स)

सोमवार, 6 जुलाई 2015

विश्व में भारत की पहचान – संस्कृत एवं हिन्दी

हमारे देश की वास्तविक पहचान क्या है?  विचार करने का हमें इसका एक यह उत्तर मिलता है कि संसार की प्राचीनतम भाषा संस्कृत व आधुनिक भारत की सबसे अधिक बोली व समझी जाने वाली भाषा आर्यभाषा-हिन्दी है। हिन्दी को एक प्रकार से संस्कृत की पुत्री कह सकते हैं। इसका कारण हिन्दी में संस्कृत के अधिकांश शब्दों का प्रयोग किया जाना तथा इस भाषा का देश व संसार में सबसे सरल होना व पूरे देश में इसका बोला व समझा जाना है। यह दोनों ही भाषायें हमारे देश की आत्मा व अस्मिता होने के साथ विश्व के अन्य देशों में हमारे देश की पहचान भी हैं। जिस प्रकार से हम पूर्व मिले हुए वा देखे हुए व्यक्तियों को उनके अनेक लक्षणों से पहचान लेते हैं उसी प्रकार से संसार में लोग हमारी इन दोनों भाषाओ को सुनकर अनुमान लगा लेते हैं कि इन भाषाओं को बोलने वाला व्यक्ति भारतीय है। संस्कृत कोई साधारण व सामान्य भाषा नहीं है। यह वह भाषा है जो हमें ईश्वर से सृष्टि के आरम्भ में परस्पर व्यवहार करने के लिए मिली थी। यह एक ऐसी भाषा है जिसे मनुष्य स्वयं निर्मित नहीं कर सकते थे। इसमें अनेक विशेषतायें हैं जो संसार की अन्य भाषाओं में नहीं है। पहली बात तो यह है कि यह भाषा सबसे अधिक प्राचीन है। दूसरी संस्कृत की एक विशेषता यह भी है कि यह संसार की सभी भाषाओं की जननी अर्थात् सभी भाषाओं की मां या दादी मां है। संसार की सारी भाषायें संस्कृत से ही उत्पन्न होकर अस्तित्व में आईं हैं। संसार की प्राचीनतम् पुस्तकें चार वेद यथा ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अर्थववेद इस संस्कृत भाषा में ही हैं जो विश्व की सभी भाषाओं व ज्ञान व विज्ञान का आधार होने के साथ सत्य व यथार्थ ज्ञान, कर्म, उपासना व विज्ञान के भण्डार हैं। वेदों के समकालीन व पूर्व का कोई ग्रन्थ संस्कृत से इतर संसार की किसी अन्य भाषा में नहीं है। इस तथ्य व यथार्थ स्थिति को विदेशी विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। संस्कृत भाषा संसार में सबसे अधिक वैज्ञानिक भाषा है। इसमें मनुष्यों के मुख से उच्चारित होने वाली सभी ध्वनियों को स्वरों व व्यंजनों के द्वारा देवनागरी लिपि में लिपिबद्ध किया जा सकता है तथा उसे शुद्ध रूप से उच्चारित किया जा सकता है। संस्कृत व हिन्दी भाषाओं की वर्णमाला एक है और यह संसार में अक्षर, एक-एक ध्वनि व शब्दोच्चार की सर्वोत्तम वर्णमाला है। संसार की अन्य भाषाओं में यह गुण विद्यमान नहीं है कि उनके द्वारा सभी ध्वनियों का पृथक-पृथक उच्चारण किया जा सके। इ़स कारण से संस्कृत संसार की सभी भाषाओं में शीर्ष स्थान पर है। संस्कृत भाषा में प्राचीनतम् ग्रन्थ वेद संहिताये तो हैं ही, इनके अतिरिक्त चार उपवेद क्रमशः आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद, अर्थवेद/शिल्पवेद, चार प्राचीन ब्राहमण ग्रन्थ क्रमशः ऐतरेय, शतपथ, साम व गोपथ तथा 6 वेदांग क्रमशः शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्दः और ज्योतिष भी वैदिक संस्कृत व वेदार्थ के ज्ञान में सहायक ग्रन्थ हैं। छः दर्शन जो वेदों के उपांग कहे जाते हैं वह हैं योग, सांख्य, वैशेषिक, न्याय, वेदान्त और मीमांसा, यह सभी संस्कृत में ही हैं। इनके अतिरिक्त 11 उपनिषद् ग्रन्थ, मनुस्मृति, रामायण व महाभारत एवं 8 आरण्यक ग्रन्थ आदि विशाल साहित्य संस्कृत में उपलब्ध है जो आज से हजारों व लाखों वर्ष पूर्व लिखा गया था। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त भी देश विदेश के पुस्तकालयों में संस्कृत भाषा में लिखित हजारों वा लाखों पाण्डुलिपियां विद्यमान है जिनका अध्ययन व मूल्याकंन किया जाना है। आज भारत में अनेक भाषायें व बोलियां प्रयोग में लाई जाती हैं। परन्तु महाभारत काल व उसके कई सौ व हजार वर्षों तक संस्कृत ही एकमात्र भाषा बोलचाल व परस्पर व्यवहार की भाषा थी। जब इस तथ्य पर विचार करते हैं तो हमें आश्चर्य होता है।

                आज संस्कृत को कठिन भाषा माना जाता है परन्तु सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक और उसके सैकड़ों व हजारों वर्षों तक संस्कृत भाषा का संसार पर वर्चस्व रहा है। कारण खोजते हैं तो वह हमारे ऋषियों के कारण था जो हर बात का ध्यान रखते थे और पुरूषार्थ करते थे। उन दिनों राजा भी वैदिक धर्म व संस्कृत के प्रेमी व ऋषियों के आज्ञाकारी होते थे। ऋषियों और महाभारत काल तक के चक्रवत्र्ती आर्य राजाओं के कारण लगभग 2 अरब वर्ष से कुछ कम अवधि तक सारे संसार पर संस्कृत ने अपने सदगुणों के कारण राज्य किया है और सबका दिल जीता है। यह भाषा न केवल भारतीयों व उनके पूर्वजों की भाषा रही है अपितु विश्व के सभी लोगों के पूर्वजों की भाषा रही है जिसका कारण यह है कि प्राचीन काल में तिब्बत में ईश्वर ने प्रथम व आदि मनुष्यों की सृष्टि की थी। वहां धीरे-धीरे जनसंख्या वृद्धि होने व सुख समृद्धि होने पर लोग चारों दिशाओं में जाकर बसने लगे। वर्णन मिलता है कि उनके पास अपने विमान होते थे। वह अपने परिवार व मित्रों सहित सारे संसार का भ्रमण करते थे और जो स्थान उन्हें जलवायु व अन्य कारणों से पसन्द आता था वहां अपने परिवार व इष्टमित्रों को ले जाकर बस्ती बसा देते थे। अपने मूल देश भारत वा आर्यावत्र्त में भी उनका आना जाना होता रहता था। आज हमारे देशवासियों व विदेशियों को यह वर्णन काल्पनिक लग सकता है परन्तु यह वास्तविकता है कि हमारे पूर्वज वेदज्ञान व विज्ञान से पूर्णतः परिचित थे व उसका आवश्यकतानुसार उपयोग करते थे। इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं है। हां, यह भी सत्य है कि महाभारत काल से कुछ समय पूर्व पतन होना आरम्भ हुआ जो महाभारत काल के बाद बहुत तेजी से हुआ और हमारा समस्त ज्ञान-विज्ञान, हमारे तत्कालीन पूर्वजों के आलस्य प्रमाद व हमारे पण्डितों व पुजारियों की अकर्मण्यता व अध्ययन व अध्यापन आदि सभी अधिकार स्वयं में निहित कर लेने व दूसरों को इससे वंंिचत कर देने से नष्ट होकर सारा देश अज्ञान, अन्धविश्वासों एवं कुरीतियों से ग्रसित हो गया। हम संस्कृत की महत्ता की चर्चा कर रहे थे तो यह भी बता देते हैं कि वैदिक संस्कृत के ज्ञान के लिए अष्टाध्यायी, महाभाष्य, निरूक्त व निघण्टु आदि अनेक ग्रन्थों का अध्ययन करने व इससे व्याकरण का ज्ञान हो जाने पर संस्कृत के सभी ग्रन्थों को पढ़ा वा समझा जा सकता है। संस्कृत के व्याकरण जैसा व्याकरण संसार की किसी भी भाषा में नहीं है। यह अपूर्व विद्या है जिसकी रचना साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों ने की है। आज विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में संस्कृत का अध्यापन होता है। उन्नीसवीं शताब्दी में जर्मनी व इंग्लैण्ड आदि देशों के अनेक विद्वानों ने संस्कृत पढ़ी थी और वेदों पर कार्य किया। वेदों को सुरक्षित रखने में भी प्रो. मैक्समूलर जैसे कई विद्वानों का योगदान है।

            अब आर्य भाषा हिन्दी की चर्चा करते हैं। हिन्दी को संसार की सबसे सरलतम् भाषाओं में से एक भाषा कह सकते हैं। हिन्दी का संस्कृत से माता व पुत्री का सम्बन्ध है। हिन्दी के अधिकांश शब्द संस्कृत भाषा साहित्य से आये हैं। हिन्दी में अपने भावों को बहुत ही सरलता व सहजता से व्यक्त किया जा सकता है। हिन्दी का पद्य व गद्य साहित्य भी अत्यन्त विशाल है। अनेक कवियों एवं गद्य लेखकों ने हिन्दी को सजाया व संवारा है। महर्षि दयानन्द का भी हिन्दी के स्वरूप के निर्धारण, इसे सजाने-संवारने व प्रचार प्रसार करने में प्रमुख योगदान है। उन्होंने इतिहास में पहली बार हिन्दी को अध्यात्म की व धर्मशास्त्रों की भाषा बनाया। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब हिन्दी का स्वरूप भी ठीक से निर्धारित नहीं हुआ था, संस्कृत के अद्वितीय विद्वान होने व उस पर पूरा अधिकार होने पर भी महर्षि दयानन्द जी ने दूरदृष्टि का परिचय देते हुए हिन्दी को अपनाया और सत्यार्थप्रकाश जैसे विश्व इतिहास में सर्वोत्तम धर्म ग्रन्थ की हिन्दी में रचना कर ऐतिहासिक कार्य किया जिसके लिए हिन्दी जगत सदैव उनका ऋणी रहेगा। उन्होंने एक स्थान पर लिखा भी है कि उन्होंने देश भर में भाषाई एकता की स्थापना के लिए हिन्दी को चुना और कि उनकी आंखें वह दिन देखना चाहती हैं कि जब हिमालय से कन्याकुमारी और अटक से कटक देवनागरी अक्षरों का प्रचार हो। आज यह हिन्दी भारत की राष्ट्र व राज भाषा दोनो ही है। हिन्दी का सर्वाधिक महत्व इसकी जन्मदात्री संस्कृत का होना है। इसी से यह इतनी महिमा को प्राप्त हुई है। लार्ड मैकाले ने संस्कृत व सभी भारतीय भाषाओं को समाप्त कर अंग्रेजी को स्थापित करने का स्वप्न देखा था। हमारे देश के बहुत से लोगों ने उनको अपना आदर्श भी बनाया और आज भी वही उनके आदर्श हैं, परन्तु वह अपने उद्देश्य में कृतकार्य नहीं हो सके। ऐसा होने के पीछे कुछ दैवी शक्ति भी अपना कार्य करती हुई दिखाई देती है। आज हिन्दी में विश्व में अपना प्रमुख स्थान बना लिया है। अनेक हिन्दी के चैनलों का पूरे विश्व में प्रसारण होता है। हम विगत 40-50 वर्षों से बीबीसी, वाइस आफ अमेरिका, रेडियो बीजिंग व सोवियत रूस से हिन्दी के प्रसारण सुनते चले आ रहे हैं। इस दृष्टि से हिन्दी का पूरे विश्व पर प्रभाव है। यदि हम अपने पड़ोसी देशों चीन, श्रीलंका, पाकिस्तान, बर्म्मा, भूटान व नेपाल आदि पर दृष्टि डाले तो हम पाते हैं कि इन सभी देशों में अपनी-अपनी भाषायें एवं बोलियां हैं परन्तु इनमें जनसंख्या की दृष्टि से यदि किसी भाषा का सबसे अधिक प्रभाव है तो वह प्रथम वा द्वितीय स्थान पर हिन्दी का ही है। चीनी भाषा चीन की जनसंख्या की दृष्टि से हिन्दी के समान व इससे कुछ अधिक बोली जाती है, ऐसा अनुमान  है। अतः यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है कि संस्कृत की तरह आर्यभाषा हिन्दी भी भारत की विश्व में पहचान है।

                 लेख को समाप्त करने से पूर्व हम यह भी कहना चाहते हैं कि चार वेद एवं प्राचीन आश्रम शिक्षा पद्धति पर आधारित हमारे गुरूकुल भी भारत की विश्व में पहचान हैं। योग दर्शन व योग भी वेद का एक उपांग है और इस विषय का प्राचीनतम ग्रन्थ हजारों वर्ष पूर्व महर्षि पतंजलि ने लिखा था। वेद संसार का सबसे प्राचीनतन व ज्ञान, कर्म, उपासना व विज्ञान के यथार्थ ज्ञान का ईश्वरीय प्रेरणा से उत्पन्न धर्म ग्रन्थ है। गुरूकुल संसार की सबसे प्राचीन शिक्षा पद्धति होने व वर्तमान में भी देश भर में प्रचलित होने के कारण आज भी जीवन्त है। लार्ड मैकाले द्वारा पोषित अंग्रेजी शिक्षा से पोषित स्कूलों के होते हुए भी देश भर में गुरूकुल शिक्षा प्रणाली से पोषित सैकड़ों गुरूकुल चल रहे हैं जहां ब्रह्मचारी अर्थात् विद्यार्थी अंग्रेजी व हिन्दी नहीं अपितु संस्कृत में वार्तालाप करते हैं। इससे सिद्ध होता है कि संस्कृत कोई मृत व अव्यवहारिक भाषा नहीं अपितु जाती जागती व्यवहारिक भाषा है। गुरूकुल शिक्षा पद्धति का अनुकरण व अनुसरण कर ही संसार में आवासीय प्रणाली के स्कूल स्थापित किये गये हैं जिन्हें आज अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। मर्यादापुरूषोत्तम श्री राम, योगेश्वर श्रीकृष्ण व वेदाद्धारक और समाजसुधारक महर्षि दयानन्द इसी शिक्षा पद्धति की देन थे। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति अपने जन्म काल से आज तक एक भी राम, कृष्ण, दयानन्द, चाणक्य, शंकर, युधिष्ठिर व अर्जुन नहीं दे सकी। हमें लगता है कि महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थ प्रकाश सम्पोषित गुरूकुल पद्धति का भविष्य उज्जवल है। आने वाले समय में सारा संसार इसे अपनायेगा। यह वेद और गुरूकुल भी भारत की पहचान है। इसी कारण इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री रहे रैम्जे मैकडानल गुरूकुल का भ्रमण करने आये थे और यहां से लौटकर उन्होंने गुरूकुल की प्रशंसा करने के साथ गुरूकुल के संस्थापक स्वामी श्रद्धानन्द को जीवित ईसामसीह तथा सेंट पीटर की उपमा से नवाजा था। संस्कृत, हिन्दी, वेद, गुरूकुल व योग के प्रचार में स्वामी रामदेव व उनके आस्था आदि चैनलों का भी महत्वपूर्ण योगदान है। यह भी देश का सौभाग्य है कि इसे वर्तमान में एक हिन्दी प्रेमी प्रधानमंत्री मिला है जिसने विश्व में हिन्दी व भारत का गौरव बढ़ाया है। अन्त में हम यही कहना चाहते हैं कि विश्व में भारत की पहचान के मुख्य कारक हमारी प्राचीन भाषा संस्कृत व हिन्दी दोनों हैं। इन्हीं पंक्तियों के इस लेख को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य-
 भवदीय,
सीएस. प्रवीण कुमार जैन,
कम्पनी सचिव, वाशी, नवी मुम्बई – ४००७०३.

गुरुवार, 2 जुलाई 2015

अश्लील तस्वीरों पर गूगल का अहम फैसला

आजकल ऐसी खबरें अक्सर पढ़ने को मिलती हैं कि किसी व्यक्ति की अश्लील तस्वीर इंटरनेट पर शाया कर दी गई है। यह उस व्यक्ति के लिए काफी त्रासदायक होता है। आम तौर पर ऐसी तस्वीरें बदले की भावना से शाया की जाती हैं। पीड़ित व्यक्ति इसके खिलाफ कानूनी लड़ाई में उलझा रहता है। इस तरह की विषयवस्तु से निपटने के प्रयास कई बार हुए हैं। रेडिट और ट्विटर जैसे मंच बदले की भावना से डाली गई सामग्री पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास कर चुके हैं और सरकारें भी अपने तर्इं कोशिश करती रहती हैं। दिक्कत यह होती है कि एक साइट को बंद करने पर वही सामग्री किसी दूसरी साइट पर नज़र आने लगती है। मगर पिछले सप्ताह गूगल ने इस सम्बंध में एक महत्वपूर्ण फैसला किया है। गूगल ने ऐलान किया है कि यदि सम्बंधित व्यक्ति अनुरोध करे तो वह उसकी तस्वीर को अपनी खोज के परिणामों में से हटा देगा। गूगल की ओर से जारी वक्तव्य में कहा गया है, “हमारा दर्शन सदा से यह रहा है कि खोज के परिणामों में पूरा वेब प्रतिबिंबित होना
चाहिए। मगर बदले की भावना से प्रस्तुत अश्लील सामग्री निहायत निजी और भावनात्मक रूप से  नुकसानदायक होती है। ऐसी सामग्री पीड़ित व्यक्ति - अधिकांशत: महिलाओं - को शर्मसार करती है। लिहाज़ा, हम उन लोगों द्वारा उनकी ऐसी तस्वीरें गूगल खोज प्रिणामों में से हटाने के अनुरोध का सम्मान
करेंगे जिनकी नग्न या यौनिक रूप से प्रेरित तस्वीर उनकी सहमति के बगैर शाया की गई है।”
क्या गूगल का यह कदम कारगर साबित होगा? तथ्य यह है कि वि·ा स्तर पर सामग्री खोज के व्यापार में
गूगल का हिस्सा 70 प्रतिशत है। यदि कोई पृष्ठ गूगल के खोज परिणामों में सामने नहीं आए, तो उसे खोज पाना मुश्किल हो जाता है। लिहाज़ा, गूगल का यह फैसला काफी महत्वपूर्ण है।
इसका एक और भी असर होगा। अन्य खोजी कार्यक्रमों को भी गूगल के साथ कदम मिलाकर चलना होगा,
अन्यथा उन्हें यह बताना होगा कि उन्हें बदले की भावना से शाया इन तस्वीरों को हटाने में क्या आपत्ति है।
गूगल के इस फैसले से यह भी साफ हो जाता है कि स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अधिकार और अपनी निहायत निजी जानकारी को गोपनीय रखने के व्यक्ति के अधिकार के बीच निर्णय करना ज़रूरी है। इस फैसले ने व्यक्ति की अपने निजता को बराबर का महत्व दिया है। वैसे गूगल ने माना है कि उनका यह कदम सीमित रूप से ही प्रभावी होगा। गूगल ऐसी सामग्री को वेब से हटाने की बात नहीं कर रहा है। मगर गूगल का मानना है कि अपने खोज परिणामों में से ऐसी तस्वीरों को हटाकर वे लोगों की निजता के सम्मान में मददगार
साबित होंगे। (रुाोत फीचर्स)