-परमानंद वर्मा
छत्तीसगढ़ का एक महान पर्व है तीज पोरा। बेटी, बहन, बहुएं औऱ माताओं को मातृ शक्ति के रूप में पूजन किया जाता है। साल में एक बार ससुराल से मायका आती हैं, लायी जाती हैं और यथायोग्य राशि, कपड़े, जेवर आदि भेंट कर आदरपूर्वक सम्मान किया जाता है। किसी कारणवश नहीं आ पातीं हैं तब मायके न आने के गम में सिसकती रहती हैं। एक कहावत भी है मइके के कुकुर नोहर। इसी संदर्भ में पढ़िए यह छत्तीसगढ़ी आलेख।
बियारी करके सुखराम गुड़ी मेर सकलाय राहय तेन संगवारी मन करा जाके बइठ जथे। इहां गांव भर के गोठ बात ल लेके देश अउ परदेश भर के राजनीति, खेती-बाड़ी, घर-परिवार, बहू-बेटी के ऊपर चरचा होथे। कोनो तमाखू, गांजा मलत रहिथे तब कोनो चोंगी-बीड़ी के चस्का ले के जुगाड़ मं लगे रहिथे।
सुखराम ला देखते साठ खेलावन दाऊ कहिथे- कस रे सुखराम, तैं कइसे लरघीयाय असन कोंटा मं सपटे हस, का गोसइन संग लड़ झगड़ के आय हस?
- 'नहीं दाऊ, वइसन बात नइहे गा, आज थोकन खेत मं जादा काम होगे रिहिसे। बियासी निंदई-कोड़ई अउ कोपर घला चलत रिहिसे न, बुता थोकन जादा होगे रिहिसे तेकर सेती थकासी लागत हे।
सुखराम के ये बात ल सुनके खेलावन दाऊ कहिथे- अरे थकासी लागत हे काहत हस, शरीर हा रसरसाय असन लागत होही तब एकाध अद्धी मार ले नइ रहिते रे?
- अरे काकर नांव लेथस गौंटिया, ओ दिन अइसने ले परे रेहेंव तब तोर बहू हा नंगत ले भड़के रिहिसे अउ केहे रिहिसे अब कभू अइसन पीबे पियाबे तब ठीक नइ बनही ?
सुखराम के बात ल सुनके गौंटिया ओला चुलकावत कहिथे- तब अपन गोसइन ला अतेक डर्राथस रे। घर के मालिक तैंहर हस ते तोर गोसइन?
- कइसे करबे गौंटिया, बड़ तेज हे तोर बहू हा। कुछु एती-तेती करबे, उलटा-सुलटा कर परबे, ककरो कभू मुंह तो आय लपर-लिपिर गोठिया परेंव अउ ओहर कहूं सुन डरिस के फलाना के बेटी, बहू, बहिनी अउ गोसइन संग तोर गोसइया गोठियावत-बतावत रिहिस हे कहिके, तहां ले तो ओ दिन घर मं रंगझाझर मात जथे, मोर बुढ़ना ल झर्रा देथे, तीन पुरखा ल पानी पिया देथे। ते पायके नहीं गोंटिया ओहर जभे कहूं कोनो गांव या मइके जाय रहिथे तभे हरहिंछा, मेछराथव् गोठियाथौं, बताथौं।
- हत रे कहां के डरपोकना नइतो, अइसने गोसइन ल कोनो डर्राही रे। गोंटिया ओला सीख देथे- छांद के रखना चाही ओकर मन के हाथ, गोड़ अउ मुंह ला..। जादा एती-ओती लपर-लिपिर, तीन-पांच करिस, मुंह फुलइस अउ शेर बने के कोशिश करिस तब देकर दू-चार राहपट। तैं ओला बिहा के लाय हस, ओ तोला नइ लाय हे, समझे। जादा हुसियारी करिस अउ मुंह चलाय के कोशिश करिस तब देखा दे ओकर मइके के रस्दा। एक घौं मं सोझ हो जाहय।
खेलावन गौंटिया के बात ल सुनके सुखराम कहिथे, बात तो तैं सोलह आना सही काहत हस मालिक, फेर मैंहर तोर सही नइहौं ना, मैं तो ओकर बोली ल सुनके ओतके मं कुकुर ल देखथे साठ बिलई असन सपट जथौं। ऊंच भाखा मं जउन दिन बोल परिहौं न तब ओ दिन मोर का हालत करही तउन ला मैं जानत हौं।
गोंटिया हांसथे अउ समझावत कहिथे- डर्राय के कोनो बात नइहे सुखराम। एक काम कर, ये दे मैं रखें हौं अद्धी, दूनो झन चल आधा-आधा मार लेथन। अउ घर मं जाबे न तब कुछु मत करबे, चुपचाप खटिया मं ढलंग जाबे। कुछु कइही, करही न तब एती ओती करके टरका देबे।
सुखराम झांसा मं आगे गौंटिया के, आधा-आधा मारिन तहां ले सुखराम बइठ नइ सकिस, अउ घर आगे।
- अई, आज कइसन जल्दी आगेस छितकी के कका, बइठक आज जल्दी उसलगे का? सुखराम अपन गोसइन रामकली के बात ल सुनिस तहां ले सकपकागे, अउ सोचे लगिस, ये कहूं जान डरही, ढरका के आय हे दारू ल कइके तहां ले मोर बारा ल बजा डरही भगवान। अब येला का जवाब देवौं, देवौं ते नइ देवौं?
अई कइसे कांही नइ बोलत हौ छितकी के कका? गोसइन तीर मेर आ जथे अउ सुखराम के धुकधुकी बाढ़ जथे।
रामकली कहिथे- ये हो, सुनव ना, एक ठन बात हे, मान जतेव ते बने रहितिस।
सुखराम सोचथे- मउका बढ़िया हे, कइसे ओहर बघनीन ले आज सरु गऊ बने ले जाथे, का बात हे, जरूर कोनो राज हे? अब दारू के नशा थोकन चढ़त हे तब लहसाय बरोबर ओहर पूछथे- का बात हे मोर परान पियारी रामकली?
गोसइन ल समझत देरी नइ लगिस के आज एहा दारू पीके आय हे, फेर उहू ल अपन काम सिध करवाना रिहिसे तहां ले ओकर तीर मं ओध के कहिथे- तीजा-पोरा आवत हे, मइके जाय के साध लागत हे। मोर बहिनी, संगी-सहेली मन आही, दाई हा घला रस्दा जोहत होही। ओला कहि परे रेहेंव एसो आहूं दाई, खतम आहूं। तब अरजी हे जान देना चार-आठ दिन बर। अतका काहत सुखराम के नाक, कान, गाल ल चूमा देये ले धर लेथे।
मने मन अपन गोसइन ल गारी देवत कहिथे- आन पइत कइसे दारू के गंध ल पावय तहां ले कुकुर-बिलई असन गुर्राय ले धर लय, आज का मोर मुंह ले सेंट के सुगंध निकलत हे तब धरे-पोटारे कस करत हे। कइसे पासा पलटत हे। घुरुआ के दिन बहुरथे कहिथे तउन इही ल कहिथे।
खेलावन दाऊ के बात सुरता आगे, बने गुरु मंत्र देये हस भइया। नशा मं तो रहिबे करे रेहेंव, केहेंव- कोनो जरूरत नइहे, मइके जाय के, भाड़ मं जाय तोर संगी-सहेली अउ दाई-काकी, तीजा-पोरा। खेत ल कोन देखही तोर बाप, तोर भाई-दाई। निंदई-कोड़ई परे हे, कोप्पर चलत हे, मैं अक्केला मरिहौं का? रांध के खाना कोन दिही?
अइसे दबकारिस सुखराम अपन गोसइन ल ते ओहर सकपकागे। अइसन टांठ भाखा मं कभू नइ बोले रिहिसे, ससुराल आय ऊपर ले पहिली बार आज जउन अइसन बगियाइस हे। जान तो डरे रिहिसे के दारू के नशा मं एहर बोलत हे अउ उतरही नशा तहं ले भीगी बिलई असन हो जही। कहूं एला रुतबा देखावत हौं, अपन ताव बतावत हौं तब दूर-चार गफ्फा देये मं कोनो देरी नइ करही।
रामकली घला खिलाड़ी कोनो कम नइहे, अपन काम निकाले के तरकीब जानथे। सुखराम के हाथ-गोड़ ल मालिस करे असन, सुलहारे कस गुरतुर बोली मं बोलथे- जादा नहीं, दू-चार दिन बर जान देना छितकी के कका, जादा दिन नइ लगावौं। गऊकिन काहथौं, मैं जल्दी आ जाहौं। मैं जानथौं- मोर बिगन तैं रेहे नइ सकस, छटपटाथस रात भर। गोसइन हौं तोर, मरद के आदत-सुभाव ल नइ जानिहौं।
सुखराम मने-मन गदकथे, अउ सोचथे ये डौकी-परानी के चाल ल तो देख, मइके जाना हे तब सरी खेल, दांव-पेंच खेलही। अउ बरज देथौं- नइ जाना हे तब कइसे थोथना फूल जही, कैकेयी बन जही, मोर खाना-पीना ल हराम कर दिही।
कहिथे- वाह खेलावन दाऊ, टिरिक तो बढ़िया बताय भइया, इही ल कहिथे अइस न ऊंट पहाड़ के नीचे। बहुत अकड़त रिहिसे, महीच आंव काहय। मइके जा हौं... मइके जाहौं... कइके सुलहारत हे, बरजेंव नइ जाना तब कइसे लेवना कस बनगे ?
मोरो पारी आहे, केहेंव- का रखे हे मइके मं तेमा मइके... मइके... तीजा-पोरा... तीजा-पोरा के रटन धर ले हस? कोनो हे का तोर उहां लगवार तेमा मइके जाहौं काहत हस?
टेड़गा भाखा ल सुनिस तहां ले बोमफार के रोय ले धर लिस, अउ पांव तरी गिर के किहिस- मोला जतका मारना, पीटना हे मारपीट ले, फेर अतेक बड़े बद्दी झन लगा, मोर इज्जत मं कलंक झन लगा। जेकर नहीं तेकर कसम खवा ले तोर छोड़ ककरो संग करे होहूं ते।
रतिहा के बेरा, गोसइन के रोवई ल सुनिस तहां ले आसपास के दूर-चार झन परोसिन मन आगे, का बात होगे ? बात बनाएंव, समझायेंव, केहेंव- तीजा-पोरा माने बर मइके जाहूं किहिस तब मैं मना करत केहेंव- खेती-किसानी के काम बगरे हे, बाद मं चल देबे। बस मोर माय-मइके ल तेहा छोड़ावत हस, अतके बात ल लेके एहर रोय-गाये ले धर लिस।
परोसिन मन किहिन- हमन समझेन कांही अउ कुछु दूसर बात, घटना तो नइ होगे, सोचके आ परेन भइया सुखराम, माफी देबे।
सुखराम सोचथे- माय मइके के मया अड़बड़ होथे, अउ साल मं एके बार तो ये मउका मिलथे जेमा चारों डाहर के बेटी, बहिनी, सहेली जउन अपन-अपन ससुराल जाय रहिथे, मिलथे- जुलुथे। महूं तो जाहूं मोर बहिनी, दीदी ल लाय बर, नइ आही, तेकर बर लुगरा-कपड़ा धर के जाय ले परही।
रामकली के दुख ल जानगेंव, समझगेंव, गजब मया पल-पलाय बरोबर रोवत रिहिसे तउन ल समझायेंव अउ केहेंव- जा रे मोर अनारकली मइके... छुट्टी देवत हौं, फेर झटकिन आबे, दिन्नी झन करबे। अतका काहत ओला पोटार लेंव। नशा तो चढ़े रिहिसे, ओकर चेहरा ल देखेंव तब बिहनिया तरिया मं खिले कमल फूल असन छतराय रिहिसे हे। गदकत रिहिसे। केहेंव- वाह रे मइके... वाह रे मया.. अउ वाह रे तीजा पोरा... तोर जादू...।
जाती-बिराती-
काबर सुरता हर आ आ के
हिरदय ल मोर निचोरत हे
कोन फूल फूले हे
कोन गंध मोहत हे
मुरझावत बिरवा ल
कोन ह उल्होवत हे।
- हरि ठाकुर